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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
चतुर्विंशोऽध्यायः

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अम्बिकायाः नियोगात्पुत्रोत्पादनाय गर्भधारणवर्णनम् -
धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा -


राजोवाच
भगवंस्त्वन्मुखाम्भोजाच्च्युतं दिव्यकथारसम् ।
न तृप्तिमधिगच्छामि पिबंस्तु सुधया समम् ॥ १ ॥
राजा बोले-हे भगवन् ! आपके मुखारविन्दसे निर्गत इस अमृततुल्य दिव्य कथारसका निरन्तर पान करते रहनेपर भी मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ १ ॥

विचित्रमिदमाख्यानं कथितं भवता मम ।
हैहयानां समुत्पत्तिर्विस्तराद्विस्मयप्रदा ॥ २ ॥
आपके द्वारा मुझसे यह विचित्र आख्यान विस्तारपूर्वक कहा गया; हैहयवंशी राजाओंकी उत्पत्ति तो अत्यन्त आश्चर्यजनक है ॥ २ ॥

परं कौतूहलं मेऽत्र यद्विष्णुः कमलापतिः ।
देवदेवो जगन्नाथः सृष्टिस्थित्यन्तकारकः ॥ ३ ॥
सोऽप्यश्वभावमापन्नो भगवान्हरिरच्युतः ।
परतन्त्रः कथं जातः स्वतन्त्रः पुरुषोत्तमः ॥ ४ ॥
एतन्मे संशयं ब्रह्मञ्छेत्तुमर्हसि साम्प्रतम् ।
सर्वज्ञस्त्वं मुनिश्रेष्ठ ब्रूहि वृत्तान्तमद्‌भुतम् ॥ ५ ॥
मुझे इस विषयमें महान् कौतूहल हो रहा है कि देवाधिदेव जगत्पति लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णु स्वयं जगत्के उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहर्ता हैं; उन्हें भी अश्वरूप धारण करना पड़ गया ? सर्वथा स्वतन्त्र रहनेवाले वे अच्युत पुरुषोत्तम भगवान् हरि परतन्त्र कैसे हो गये ? हे ब्रह्मन् ! इस समय मेरे इस सन्देहका निवारण करनेमें आप पूर्ण समर्थ हैं । हे मुनिवर ! आप सर्वज्ञ हैं, अतएव इस अद्भुत वृत्तान्तका वर्णन कीजिये ॥ ३-५ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि सन्देहस्यास्य निर्णयम् ।
यथा श्रुतं मया पूर्वं नारदान्मुनिसत्तमात् ॥ ६ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, इस सन्देहका निर्णय पूर्व समयमें मैंने मुनिश्रेष्ठ नारदजीसे जैसा सुना है, वैसा ही आपको बता रहा हूँ ॥ ६ ॥

ब्रह्मणो मानसः पुत्रो नारदो नाम तापसः ।
सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सर्वलोकप्रियः कविः ॥ ७ ॥
नारदजी ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं । वे तपस्वी, सर्वज्ञानी, सर्वत्र गमन करनेवाले, शान्त, समस्त लोकोंके प्रिय एवं मनीषी हैं ॥ ७ ॥

स चैकदा मुनिश्रेष्ठो विचरन्पृथिवीमिमाम् ।
वादयन्महतीं वीणां स्वरतानसमन्विताम् ॥ ८ ॥
बृहद्‌रथन्तरादीनां साम्नां भेदाननेकशः ।
गायन्गायत्रममृतं सम्प्राप्तोऽथ ममाश्रमम् ॥ ९ ॥
शम्याप्रासं महातीर्थं सरस्वत्याः सुपावनम् ।
निवासं मुनिमुख्यानां शर्मदं ज्ञानदं तथा ॥ १० ॥
एक बार वे मुनिवर नारद स्वर तथा तानसे युक्त अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए तथा सामगानके बृहद्रथन्तर आदि अनेक भेदों और अमृतमय गायत्रसामका गान करते हुए इस पृथ्वीपर विचरण करते हुए मेरे आश्रमपर पहुँचे । वह शम्याप्रास महातीर्थ सरस्वतीके पावन तटपर विराजमान है । कल्याण और ज्ञान प्रदान करनेवाला वह तीर्थ प्रधान ऋषियोंका निवासस्थान है ॥ ८-१० ॥

तमागतमहं प्रेक्ष्य ब्रह्मपुत्रं महाद्युतिम् ।
अभ्युत्थानादिकं सर्वं कृतवानर्चनादिकम् ॥ ११ ॥
ब्रह्माजीके पुत्र महान् तेजस्वी नारदजीको अपने आश्रममें आया देखकर मैं उठकर खड़ा हो गया और मैंने भलीभाँति उनकी पूजा आदि की ॥ ११ ॥

अर्घ्यपाद्यविधिं कृत्वा तस्यासनस्थितस्य च ।
उपविष्टः समीपेऽहं मुनेरमिततेजसः ॥ १२ ॥
अर्घ्य तथा पाद्य आदिसे उनका विधिपूर्वक पूजन करके आदरपूर्वक आसनपर विराजमान उन अमित तेजस्वी नारदके समीप मैं बैठ गया ॥ १२ ॥

दृष्ट्वा विश्रमिणं शान्तं नारदं ज्ञानपारदम् ।
तमपृच्छमहं राजन् यत्पृष्टोऽहं त्वयाधुना ॥ १३ ॥
हे राजन् ! तत्पश्चात् ज्ञानके पार पहुंचानेमें समर्थ मुनि नारदको मार्गश्रमसे रहित तथा शान्तचित्त देखकर मैंने उनसे वही प्रश्न पूछा था, जो आपने इस समय मुझसे पूछा है ॥ १३ ॥

असारेऽस्मिंस्तु संसारे प्राणिनां किं सुखं मुने ।
न पश्यामि विनिश्चित्य कदाचित्कुत्रचित्‌क्वचित् ॥ १४ ॥
[मैंने उनसे पूछा-] हे मुने ! इस सारहीन जगत्में प्राणियोंको क्या सुख प्राप्त होता है ? विचार करनेपर मुझे तो कभी भी, कहीं भी तथा कुछ भी सुख नहीं दिखायी देता है ॥ १४ ॥

द्वीपे जातो जनन्याहं संत्यक्तस्तत्क्षणादपि ।
अनाश्रयो वने वृद्धिं प्राप्तः कर्मानुसारतः ॥ १५ ॥
मुझे ही देखिये, एक द्वीपमें जन्म लेते ही मेरी माताने मेरा त्याग कर दिया । तभीसे आश्रयहीन रहता हुआ मैं वनमें अपने कर्मके अनुसार बढ़ने लगा ॥ १५ ॥

तपस्तप्तं मया चोग्रं पर्वते बहुवार्षिकम् ।
पुत्रकामेन देवर्षे शङ्करः समुपासितः ॥ १६ ॥
हे देवर्षे ! तत्पश्चात् मैंने पुत्रप्राप्तिकी कामनासे एक पर्वतपर बहुत वर्षोंतक शंकरजीकी उपासना करते हुए कठोर तपस्या की ॥ १६ ॥

ततो मया शुकः प्राप्तः पुत्रो ज्ञानवतां वरः ।
पाठितस्तु मया सम्यग्वेदानां सार आदितः ॥ १७ ॥
तब ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ शुकदेव मुझे पुत्ररूपमें प्राप्त हुए । मैंने उन्हें आरम्भसे लेकर सम्यक् प्रकारसे वेदोंका सारभूत तत्त्व पढ़ा दिया ॥ १७ ॥

स त्यक्त्वा मां गतः क्वापि रुदन्तं विरहातुरम् ।
लोकाल्लोकान्तरं साधो वचनात्तव बोधितः ॥ १८ ॥
हे साधो ! आपके वचनोंसे ज्ञान प्राप्त करके मेरा वह पुत्र मुझ विरहातुरको रोता हुआ छोड़कर लोकलोकान्तरमें कहीं चला गया ? ॥ १८ ॥

ततोऽहं पुत्रसन्तप्तस्त्यक्त्वा मेरुं महागिरिम् ।
मातरं मनसा कृत्वा सम्प्राप्तः कुरुजाङ्गलम् ॥ १९ ॥
तब पुत्रविरहसे सन्तप्त मैं महापर्वत सुमेरुको छोड़कर अपनी माताको मनमें याद करते हुए कुरुजांगल प्रदेशमें पहुँचा ॥ १९ ॥

पुत्रस्नेहादतितरां कृशाङ्गः शोकसंयुतः ।
जानन्मिथ्येति संसारं मायापाशनियन्त्रितः ॥ २० ॥
संसार मिथ्या है-ऐसा जानते हुए भी मायापाशमें बंधा हुआ मैं पुत्र-स्नेहके कारण शोकाकुल रहनेसे अत्यन्त दुर्बल शरीरवाला हो गया ॥ २० ॥

ततो राज्ञा वृतां ज्ञात्वा मातरं वासवीं शुभाम् ।
स्थितोऽत्रैवाश्रमं कृत्वा सरस्वत्यास्तटे शुभे ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् जब मैंने यह जाना कि वासवराजसुता मेरी कल्याणमयी माताका राजा शन्तनुने वरण कर लिया है, तब मैं सरस्वतीके पवित्र तटपर आश्रम बनाकर रहने लगा ॥ २१ ॥

शन्तनुः स्वर्गतिं प्राप्तो विधुरा जननी स्थिता ।
पुत्रद्वययुता साध्वी भीष्मेण प्रतिपालिता ॥ २२ ॥
इसके बाद महाराज शन्तनुके स्वर्ग प्राप्त कर लेनेपर मेरी माँ विधवा हो गयीं । तब भीष्मने दो पुत्रोंवाली मेरी माताका पालन किया ॥ २२ ॥

चित्राङ्गदः कृतो राजा गङ्गापुत्रेण धीमता ।
कालेन सोऽपि मे भ्राता मृतः कामसमद्युतिः ॥ २३ ॥
बुद्धिमान् गंगापुत्र भीष्मने चित्रांगदको राजा बनाया । किंतु कुछ ही समयमें कामदेवके सदृश कान्तिमान् मेरे भाई चित्रांगद भी मृत्युको प्राप्त हो गये ॥ २३ ॥

ततः सत्यवती माता निमग्ना शोकसागरे ।
चित्राङ्गदं मृतं पुत्रं रुरोद भृशमातुरा ॥ २४ ॥
पुत्र चित्रांगदके मर जानेपर मेरी माता सत्यवती अत्यन्त दुःखित होकर रोने लगी और नित्य शोकके समुद्र में निमग्न रहने लगीं ॥ २४ ॥

सम्प्राप्तोऽहं महाभाग ज्ञात्वा तां दुःखितां सतीम् ।
आश्वासिता मयात्यर्थं भीष्मेण च महात्मना ॥ २५ ॥
हे महाभाग ! उन पतिव्रताको दुःखित जानकर मैं उनके पास गया । वहाँ मैंने तथा महात्मा भीष्मने उन्हें बहुत सान्त्वना दी ॥ २५ ॥

विचित्रवीर्यस्त्वपरो वीर्यवान्पृथिवीपतिः ।
कृतो भीष्मेण भ्राता वै स्त्रीराज्यविमुखेन ह ॥ २६ ॥
तब स्त्री तथा राज्यसे विमुख भीष्मने अपने दूसरे भाई पराक्रमी विचित्रवीर्यको राजा बना दिया ॥ २६ ॥

काशिराजसुते रम्ये विजित्य पृथिवीपतीन् ।
भीष्मेणानीय स्वबलात्कन्यके द्वे समर्पिते ॥ २७ ॥
सत्यवत्यै शुभे काले विवाहः परिकल्पितः ।
भ्रातुर्विचित्रवीर्यस्य तदाहं सुखितोऽभवम् ॥ २८ ॥
तत्पश्चात् भीष्मने अपने बलसे राजाओंको जीतकर काशिराजकी दो सुन्दर पुत्रियोंको लाकर माता सत्यवतीको समर्पित कर दिया । पुनः शुभ मुहूर्तमें जब भाई विचित्रवीर्यका विवाह सम्पन्न हो गया तब मैं बहुत प्रसन्न हुआ ॥ २७-२८ ॥

पुनः सोऽपि मृतो भ्राता यक्ष्मणा पीडितो भृशम् ।
अनपत्यो युवा धन्वी माता मे दुःखिताभवत् ॥ २९ ॥
कुछ ही समयमें मेरे धनुर्धर भाई विचित्रवीर्य भी यक्ष्मा रोगसे ग्रस्त होकर युवावस्थामें ही निःसन्तान मर गये, जिससे मेरी माता दुःखित हुई ॥ २९ ॥

काशिराजसुते द्वे तु मृतं दृष्ट्वा पतिं तदा ।
पतिव्रताधर्मपरे भगिन्यौ सम्बभूवतुः ॥ ३० ॥
इधर जब काशिराजकी दोनों पुत्रियोंने अपने पतिको मृत देखा तब वे दोनों बहनें पातिव्रत्य धर्मके पालनके लिये तत्पर हुई ॥ ३० ॥

ते ऊचतुः सतीं श्वश्रूं रुदतीं भृशदुःखिताम् ।
पतिना सहगामिन्यौ भविष्यावो हुताशने ॥ ३१ ॥
पुत्रेण सह ते श्वश्रु स्वर्गे गत्वाथ नन्दने ।
सुखेन विहरिष्यावः पतिना सह संयुते ॥ ३२ ॥
वे दारुण दुःखके कारण रोती हुई अपनी साध्वी साससे कहने लगीं-हे श्वश्रु ! हम दोनों चिताग्निमें अपने पतिके साथ ही जायेंगी । आपके पुत्रके साथ स्वर्गमें जाकर हम दोनों अपने पतिसे युक्त होकर नन्दनवनमें सुखपूर्वक विहार करेंगी ॥ ३१-३२ ॥

निवारिते तदा मात्रा वध्वौ तस्मान्महोद्यमात् ।
स्नेहभावं समाश्रित्य भीष्मस्य वचनात्तदा ॥ ३३ ॥
तब स्नेहभावका आश्रय लेकर मेरी माताने भीष्मके परामर्शसे उन दोनों वधुओंको महान् चेष्टा करनेसे रोक दिया ॥ ३३ ॥

गाङ्गेयेन च मात्रा मे सम्मन्त्र्य च परस्परम् ।
कृत्वौर्ध्वदैहिकं सर्वं संस्मृतोऽहं गजाह्वये ॥ ३४ ॥
विचित्रवीर्यकी सभी औदैहिक क्रिया सम्पन्न करके गंगातनय भीष्म तथा मेरी माताने आपसमें मन्त्रणा करके मुझे हस्तिनापुर आनेके लिये मेरा स्मरण किया ॥ ३४ ॥

स्मृतमात्रस्तु मात्रा वै ज्ञात्वा भावं मनोगतम् ।
तरसैवागतश्चाहं नगरं नागसाह्वयम् ॥ ३५ ॥
प्रणम्य मातरं मूर्ध्ना संस्थितोऽथ कृताञ्जलिः ।
तामब्रवं सुतप्ताङ्गीं पुत्रशोकेन कर्शिताम् ॥ ३६ ॥
इस प्रकार माताके स्मरण करते ही उनके मनोगत भावको जानकर शीघ्र ही मैं हस्तिनापुरमें आ गया । सिर झुकाकर माताको प्रणाम करके मैं हाथ जोड़कर उनके समक्ष खड़ा हो गया और पुत्रशोकके कारण अत्यन्त दुर्बल तथा तप्त अंगोंवाली उन मातासे मैंने कहा- ॥ ३५-३६ ॥

मातस्त्वया किमाहूतो मनसाहं तपस्विनि ।
आज्ञापय महत्कार्ये दासोऽस्मि करवाणि किम् ॥ ३७ ॥
हे माता ! आपने अपने मनमें स्मरण करके यहाँ मुझे किसलिये बुलाया है ? हे तपस्विनि ! बड़ेसे-बड़े कार्यके लिये मुझे आदेश दीजिये; मैं आपका दास हूँ, मैं क्या करूं ? ॥ ३७ ॥

त्वं मे तीर्थं परं मातर्देवश्च प्रथितः परः ।
आगतश्चिन्तितश्चात्र ब्रूहि कृत्यं तव प्रियम् ॥ ३८ ॥
हे माता ! मेरा परम तीर्थ तथा महान् परम देव आप ही हैं । आपके स्मरण करते ही मैं यहाँ उपस्थित हो गया हूँ । अब आप अपना प्रिय कार्य बताइये ॥ ३८ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वाहं स्थितस्तत्र मातुरग्रे यदा मुने ।
तदा सा मामुवाचेदं पश्यन्ती भीष्ममन्तिके ॥ ३९ ॥
व्यासजी बोले-हे मुने ! ऐसा कहकर जब मैं माताके आगे खड़ा हो गया तब पास ही बैठे हुए भीष्मको देखती हुई वे मुझसे यह कहने लगीं ॥ ३९ ॥

पुत्र तेऽद्य मृतो भ्राता पीडितो राजयक्ष्मणा ।
तेनाहं दुःखिता जाता वंशच्छेदभयादिह ॥ ४० ॥
हे पुत्र ! राजयक्ष्मा रोगसे ग्रस्त होकर तुम्हारे भाई विचित्रवीर्य मृत्युको प्राप्त हो गये हैं । अतएव वंशके नष्ट होनेके भयसे मैं दु:खी हूँ ॥ ४० ॥

तस्मात्त्वमद्य मेधाविन् मयाहूतः समाधिना ।
गाङ्गेयस्य मतेनात्र पाराशर्यार्थसिद्धये ॥ ४१ ॥
हे प्रतिभाशाली पराशरनन्दन ! इसी उद्देश्यकी पूर्तिके लिये मैंने भीष्मके परामर्शसे समाधिद्वारा तुम्हें यहाँ बुलाया है ॥ ४१ ॥

कुलं स्थापय नष्टं त्वं शन्तनोर्नामकारणात् ।
रक्ष मां दुःखतः कृष्ण वंशच्छेदोद्‌भवाद्‌द्रुतम् ॥ ४२ ॥
इस नष्ट होते हुए वंशको तुम स्थापित करो, जिससे महाराज शन्तनुका नाम बना रहे । हे द्वैपायन कृष्ण ! वंशच्छेदजन्य दुःखसे मेरी शीघ्र रक्षा करो ॥ ४२ ॥

काशिराजसुते भार्ये भ्रातुस्तव यवीयसः ।
साधोर्विचित्रवीर्यस्य रूपयौवनभूषिते ॥ ४३ ॥
तुम्हारे सदाचारी लघुभ्राता विचित्रवीर्यकी रूपयौवनसम्पन्न दो भार्याएँ हैं, जो काशिराजकी पुत्रियाँ हैं । ४३ ॥

ताभ्यां सङ्गम्य मेधाविन् पुत्रोत्पादनकं कुरु ।
रक्षस्व भारतं वंशं नात्र दोषोऽस्ति कर्हिचित् ॥ ४४ ॥
हे मेधाविन् ! उन दोनोंके साथ संसर्ग करके तुम पुत्र उत्पन्न करो, भरतवंशकी रक्षा करो; इसमें कोई दोष नहीं है ॥ ४४ ॥

व्यास उवाच
इति मातुर्वचः श्रुत्वा जातश्चिन्तातुरो ह्यहम् ।
लज्जयाऽऽकुलचित्तस्तामब्रवं विनयानतः ॥ ४५ ॥
मातः पापाधिकं कर्म परदाराभिमर्शनम् ।
ज्ञात्वा धर्मपथं सम्यक्करोमि कथमादरात् ॥ ४६ ॥
तथा यवीयसो भ्रातुर्वधूः कन्या प्रकीर्तिता ।
व्यभिचारं कथं कुर्यामधीत्य निगमानहम् ॥ ४७ ॥
अन्यायेन न कर्तव्यं सर्वथा कुलरक्षणम् ।
न तरन्ति हि संसारात्पितरः पापकारिणः ॥ ४८ ॥
लोकानामुपदेष्टा यः पुराणानां प्रवर्तकः ।
स कथं कुत्सितं कर्म ज्ञात्वा कुर्यान्महाद्‌भुतम् ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-[हे नारद ! माताका यह वचन सुनकर मैं चिन्तामें पड़ गया और लज्जासे व्याकुल मनवाला होकर मैंने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा-हे माता ! परनारीसंगम महान् पापकर्म है । धर्ममार्गका सम्यक् ज्ञान रखते हुए भी मैं आसक्तिपूर्वक ऐसा कर्म कैसे कर सकता हूँ ? और फिर छोटे भाईकी पत्नी कन्याके समान कही गयी है । ऐसी स्थितिमें सभी वेदोंका अध्ययन करके भी मैं ऐसा व्यभिचार कैसे करूँ ? अन्यायसे कुलकी रक्षा कदापि नहीं करनी चाहिये; क्योंकि पाप करनेवालेके पितृगण संसार-सागरसे कभी नहीं पार हो सकते । जो समग्र पुराणोंका प्रवर्तक तथा लोगोंको उपदेश करनेवाला हो, वह जानबूझकर ऐसा अद्भुत तथा निन्दनीय कार्य कैसे कर सकता है ? ॥ ४५-४९ ॥

पुनरुक्तो ह्यहं मात्रा रुदत्या भृशमन्तिके ।
पुत्रशोकातितप्ता या वंशरक्षणकाम्यया ॥ ५० ॥
तत्पश्चात् वंश-रक्षाकी कामनासे युक्त मेरी माता, जो पुत्रशोकसे अत्यधिक सन्तप्त थीं, विलाप करती हुई समीपमें आकर मुझसे पुन: कहने लगी- ॥ ५० ॥

पाराशर्य न ते दोषो वचनान्मम पुत्रक ।
गुरूणां वचनं तथ्यं सदोषमपि मानवैः ॥ ५१ ॥
कर्तव्यमविचार्यैव शिष्टाचारप्रमाणतः ।
वचनं कुरु मे पुत्र न ते दोषोऽस्ति मानद ॥ ५२ ॥
पुत्रस्य जननं कृत्वा सुखिनी कुरु मातरम् ।
विशेषेण तु सन्तप्तां मग्नां शोकार्णवे सुत ॥ ५३ ॥
हे पराशरनन्दन ! हे पुत्र ! मेरे कहनेपर ऐसा करनेसे तुम दोषभागी नहीं होओगे । शिष्टजनोंका आचार ही प्रमाण है-ऐसा मानकर मनुष्योंको गुरुजनोंके दोषपूर्ण वचनोंको भी उचित समझकर बिना कुछ सोच-विचार किये कर डालना चाहिये । हे पुत्र ! मेरी बात मान लो ! हे मानद ! इससे तुम्हें दोष नहीं लगेगा । हे सुत ! पुत्र उत्पन्न करके अत्यधिक सन्तप्त तथा शोकसागरमें निमग्न अपनी माताको सुखी करो ॥ ५१-५३ ॥

इति तां ब्रुवतीं श्रुत्वा तदा सुरनदीसुतः ।
मामुवाच विशेषज्ञः सूक्ष्मधर्मस्य निर्णये ॥ ५४ ॥
द्वैपायन विचारोऽत्र न कर्तव्यस्त्वयानघ ।
मातुर्वचनमादाय विहरस्व यथासुखम् ॥ ५५ ॥
माताकी यह बात सुनकर सूक्ष्मधर्मके निर्णयमें विशेष ज्ञान रखनेवाले गंगातनय भीष्मने मुझसे कहाहे कृष्ण-द्वैपायन ! तुम्हें इस विषयमें विचार नहीं करना चाहिये । हे पुण्यात्मन् ! माताका वचन मानकर तुम सुखपूर्वक विहार करो ॥ ५४-५५ ॥

व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा मातुश्च प्रार्थनं तथा ।
निःशङ्कोऽहं तदा जातः कार्ये तस्मिञ्जुगुप्सिते ॥ ५६ ॥
व्यासजी बोले-[हे नारद !] भीष्मका यह वचन सुनकर तथा माताकी प्रार्थनापर मैं निःशंक भावसे उस निन्द्य कर्ममें प्रवृत्त हो गया ॥ ५६ ॥

अम्बिकायां प्रवृत्तोऽहमृतुमत्यां मुदा निशि ।
मयि विमनसायां तु तापसे कुत्सिते भृशम् ॥ ५७ ॥
शप्ता मया सा सुश्रोणी प्रसङ्गे प्रथमे तदा ।
अन्धस्ते भविता पुत्रो यतो नेत्रे निमीलिते ॥ ५८ ॥
रात्रिों में प्रसन्नतापूर्वक ऋतुमती अम्बिकाके साथ प्रवृत्त हुआ, किंतु मुझ कुरूप तपस्वीके प्रति उसके अनुरागहीन होनेके कारण मैंने उस सश्रोणीको शाप दे दिया कि प्रथम संसर्गके समय ही तुमने अपनी दोनों आँखें बन्द कर ली थीं, अतः तुम्हारा पुत्र अन्धा होगा ॥ ५७-५८ ॥

द्वितीयेऽह्नि मुनिश्रेष्ठ पृष्टो मात्रा रहः पुनः ।
भविष्यति सुतः पुत्र काशिराजसुतोदरे ॥ ५९ ॥
मयोक्ता जननी तत्र व्रीडानम्रमुखेन ह ।
विनेत्रो भविता पुत्रो मातः शापान्ममैव हि ॥ ६० ॥
हे मुनिवर ! दूसरे दिन माताने एकान्तमें मुझसे फिर पूछा-हे पुत्र ! क्या काशिराजकी पुत्री अम्बिकाके गर्भसे पुत्र उत्पन्न होगा ? तब लज्जाके कारण मुख नीचे किये हुए मैंने मातासे कहा-हे माता ! मेरे शापके प्रभावसे नेत्रहीन पुत्र उत्पन्न होगा ॥ ५९-६० ॥

तया निर्भर्त्सितस्तत्र कठोरवचसा मुने ।
कथं पुत्र त्वया शप्ता पुत्रस्तेऽन्धो भविष्यति ॥ ६१ ॥
हे मुने ! इसपर माताने कठोर वाणीमें मेरी भर्त्सना की-हे पुत्र ! तुमने शाप क्यों दिया कि तुम्हारा पुत्र अन्धा होगा' ॥ ६१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे अम्बिकायां नियोगात्पुत्रोत्पादनाय
गर्भधारणवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
अध्याय चोबीसवाँ समाप्त ॥ २४ ॥


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