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व्यासस्वकीयमोहवर्णनम् -
पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन -
व्यास उवाच वासवी चकिता जाता श्रुत्वा मे वाक्यमीदृशम् । दाशेयी मामुवाचेदं पुत्रार्थे भृशमातुरा ॥ १ ॥ अम्बालिका वधूर्धन्या काशिराजसुता सुत । भार्या विचित्रवीर्यस्य विधवा शोकसंयुता ॥ २ ॥ सर्वलक्षणसम्पन्ना रूपयौवनशालिनी । तस्यां जनय सङ्गं त्वं कृत्वा पुत्रं सुसम्मतम् ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-मेरी वह बात सुनकर वासवराजकुमारी सत्यवती चकित हो गयीं और पुत्रके लिये अत्यन्त व्यग्र होकर मुझसे कहने लगींहे पुत्र ! काशिराजकी श्रेष्ठ पुत्री वधू अम्बालिका विचित्रवीर्यकी भार्या है, जो विधवा तथा पतिशोकसे सन्तप्त है । वह सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और रूप तथा यौवनसे युक्त है । तुम उसके साथ संसर्ग करके प्रिय पुत्र उत्पन्न करो ॥ १-३ ॥
नेत्रहीनको राजा बननेका अधिकार नहीं हो सकता । इसलिये हे मानद ! मेरी बात मानकर तुम उस राजपुत्रीसे एक मनोहर पुत्र उत्पन्न करो ॥ ४ ॥
इत्युक्तोऽहं तदा मात्रा स्थितस्तत्र गजाह्वये । यावदृतुमती जाता काशिराजसुता मुने ॥ ५ ॥ एकान्ते शयनागारे प्राप्ता सा मम सन्निधौ । लज्जमाना सुकेशान्ता स्वश्वश्रूवचनात्तदा ॥ ६ ॥
हे मुने ! तब मैं माताजीके ऐसा कहनेपर वहीं हस्तिनापुरमें ठहर गया और जब सुन्दर केशपाशवाली काशिराजकी पुत्री अम्बालिका ऋतुमती हुई तो अपनी सासके कहनेपर वह एकान्त शयनकक्षमें लज्जित होती मेरे पास आयी ॥ ५-६ ॥
दृष्ट्वा मां जटिलं दान्तं तापसं रसवर्जितम् । सा स्वेदवदना जाता पाण्डुरा विमना भृशम् ॥ ७ ॥
वहाँ मुझ जटाधारी, इन्द्रियनिग्रही तथा शृङ्गाररससे अनभिज्ञ तपस्वीको देखकर उसके मुखपर पसीना आ गया, शरीर पीला पड़ गया और उसका मन बहुत खिन्न हो गया ॥ ७ ॥
कुपितोऽहं तदा दृष्ट्वा कामिनीं निशि सङ्गताम् । वेपमानां स्थितां पार्श्वे ह्यब्रवं तामहं रुषा ॥ ८ ॥ दृष्ट्वा मां यदि गर्वेण पाण्डुवर्णा समावृता । अतस्ते तनयः पाण्डुर्भविष्यति सुमध्यमे ॥ ९ ॥
तत्पश्चात् रात्रिमें सम्पर्कके लिये आयी हुई उस सुन्दरीको अपने पासमें बैठी देखकर मैं कुपित हो गया और रोषपूर्वक बोला-सुमध्यमे ! मुझे देखकर यदि तुम अभिमानसे पीली पड़ गयी हो तो तुम्हारा पुत्र भी पीतवर्णका होगा ॥ ८-९ ॥
तदनन्तर समय आनेपर उन दोनोंने अन्धे तथा पाण्डुवर्णके दो पुत्र उत्पन्न किये । वे दोनों धृतराष्ट्र तथा पाण्डु नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ ११ ॥
माता मे विमना जाता तादृशौ वीक्ष्य तौ सुतौ । ततः संवत्सरस्यान्ते मामाहूय तदाब्रवीत् ॥ १२ ॥ द्वैपायन सुतौ जातौ राज्ययोग्यौ न तादृशौ । अन्यं मनोहरं पुत्रं समुत्पादय मे प्रियम् ॥ १३ ॥
उन दोनों राजकुमारोंको इस प्रकारका देखकर मेरी माता खिन्नमनस्क हो गयीं । तत्पश्चात् एक वर्षके अनन्तर मुझे बुलाकर उन्होंने कहा-हे द्वैपायन ! इस प्रकारके दोनों पुत्र राज्य करनेके योग्य नहीं हैं, अतएव तुम एक अन्य मनोहर पुत्र उत्पन्न करो, जो मुझे अत्यन्त प्रिय हो ॥ १२-१३ ॥
तथेति सा मया प्रोक्ता मुदिता जननी तदा । अम्बिकां प्रार्थयामास सुतार्थे काल आगते ॥ १४ ॥ पुत्रि व्यासं समालिङ्ग्य पुत्रमुत्पादयाद्भुतम् । कुरुवंशस्य कर्तारं राज्ययोग्यं वरानने ॥ १५ ॥
'वैसा ही होगा'-मेरे इस प्रकार कहनेपर माता अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं । इसके बाद ऋतुकाल आनेपर माताने पुत्रहेतु अम्बिकासे प्रार्थना की-हे पुत्रि ! हे सुमुखि ! व्यासके साथ समागम करके तुम कुरुवंश चलानेवाला तथा राज्य करनेयोग्य एक अद्वितीय पुत्र उत्पन्न करो ॥ १४-१५ ॥
मुझे पलंगपर बैठाकर वह भी प्रेमपूर्वक मेरे पास बैठ गयी । हे मुने ! उसके इस प्रेमपूर्ण हाव-भावसे मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ ॥ १९ ॥
रात्रौ संक्रीडितं प्रेम्णा तया सह मया भृशम् । वरो दत्तः पुनस्तस्यै प्रसन्नेन तु नारद ॥ २० ॥ सुभगे भविता पुत्रः सर्वलक्षणसंयुतः । सुरूपः सर्वधर्मज्ञः सत्यवादी शमे रतः ॥ २१ ॥
हे नारद ! रात्रिमें मैंने उसके साथ प्रेमपूर्वक विहार किया और पुनः प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया-हे सुभगे ! तुम्हें सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, रूपवान्, सभी धर्मोंका ज्ञाता, सत्यवादी तथा शान्त स्वभाववाला पुत्र उत्पन्न होगा ॥ २०-२१ ॥
स तदा विदुरो जातस्त्रयः पुत्रा मयाभवन् । माया वृद्धिं गता साधो परक्षेत्रोद्भवे मम ॥ २२ ॥
समय आनेपर उसे विदुर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । इस प्रकार मुझसे तीन पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई । हे साधो ! परक्षेत्रमें मेरेद्वारा उत्पन्न किये गये इन पुत्रोंके प्रति मेरी ममता बढ़ने लगी ॥ २२ ॥
उन तीनों पुत्रोंको अत्यन्त बलवान् तथा वीर्यवान् देखकर मैं अपने शोकके एकमात्र कारण शुकसम्बन्धी वियोगको भूल गया ॥ २३ ॥
माया बलवती ब्रह्मन् दुस्त्यजा ह्यकृतात्मभिः । अरूपा च निरालम्बा ज्ञानिनामपि मोहिनी ॥ २४ ॥
हे ब्रह्मन् ! माया बलवती होती है, आत्मज्ञानसे रहित पुरुषोंके लिये यह अत्यन्त दुस्त्यज है । रूपहीन तथा आलम्बरहित यह माया ज्ञानियोंको भी मोहित कर देती है ॥ २४ ॥
मातरि स्नेहसम्बद्धं तथा पुत्रेषु संवृतम् । न मे चित्तं वने शान्तिमगान्मुनिवरोत्तम ॥ २५ ॥
हे मुनिवर ! मातामें तथा उन पुत्रोंमें स्नेहासक्तिसे आबद्ध मेरे मनको वनमें भी शान्ति नहीं मिल पाती थी ॥ २५ ॥
दोलारूढं मनो जातं कदाचिद्धस्तिनापुरे । पुनः सरस्वतीतीरे न चैकत्र व्यवस्थितिः ॥ २६ ॥
मेरा मन दोलायमान हो गया । वह कभी हस्तिनापुरमें रहता था तो कभी सरस्वतीनदीके तटपर चला आता था; इस प्रकार मेरा मन किसी जगह स्थिर नहीं रहता था ॥ २६ ॥
कदाचिच्चिन्तयन् ज्ञानं मानसे प्रतिभाति वै । केऽमी पुत्राः क्व मोहोऽयं न श्राद्धार्हा मृतस्य मे ॥ २७ ॥
कभी-कभी मनमें ज्ञानका उदय हो जानेपर मैं सोचने लगता था कि ये पुत्र कौन हैं, यह मोह कैसा ? मेरे मर जानेपर ये मेरा श्राद्ध भी तो नहीं कर सकेंगे ॥ २७ ॥
व्यभिचारोद्भवाः किं मे सुखदाः स्युः सुताः किल । माया बलवती मोहं वितनोति हि मानसे ॥ २८ ॥
दुराचारसे उत्पन्न ये पुत्र मुझे कौन-सा सुख देंगे । माया बड़ी प्रबल होती है । यह मनमें मोह पैदा कर देती है ॥ २८ ॥
जानन्मोहान्धकूपेऽस्मिन्पतितोऽहं मृषा मुने । इत्यकुर्वं रहस्तापं कदाचित्स्सुसमाहितः ॥ २९ ॥
हे मुने ! कभी-कभी शान्तचित्त होकर एकान्तमें मैं यह सन्ताप करने लगता था कि मैं जान-बूझकर इस मोहरूपी अन्धकूपमें व्यर्थ ही गिर गया हूँ ॥ २९ ॥
तत्पश्चात् सुन्दर रूपवाली कुन्ती तथा माद्री उनकी दो भार्याएँ हुईं । उनमें कुन्ती महाराज शूरसेनकी पुत्री थी तथा दूसरी रानी माद्री मद्रदेशके राजाकी कन्या थी ॥ ३१ ॥
वनमें अपने आश्रममें उन्होंने धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमारोंसे पाँच क्षेत्रज पुत्रोंको पाँच पाण्डवोंके रूपमें उत्पन्न कराया । धर्म, वायु तथा इन्द्रसे उत्पन्न हुए युधिष्ठिर, भीमसेन तथा अर्जुनये कुन्तीपुत्र कहे गये हैं । इसी तरह नकुल तथा सहदेव-ये दोनों माद्रीके पुत्र हुए । ३५-३६.५ ॥
एक दिन महाराज पाण्डु एकान्तमें माद्रीका आलिंगन करके पूर्वशापके कारण मृत्युको प्राप्त हो गये । तत्पश्चात् मुनियोंने उनका दाह-संस्कार किया और माद्री सती होकर पतिके साथ प्रज्वलित अग्निमें प्रविष्ट हो गयी और पुत्रोंसे युक्त कुन्ती वहीं स्थित रह गयी । तत्पश्चात् मुनिलोग पतिविहीन उस दुःखित शूरसेन-पुत्री कुन्तीको उसके पुत्रोंसहित हस्तिनापुर ले आये और उसे भीष्म तथा महात्मा विदुरको सौंप दिया । यह सुनकर मैं उन पाण्डुपुत्रोंके कारण सुखदुःखसे पीड़ित हो गया । पाण्डुके ये पुत्र हैं-ऐसा सोचकर भीष्म, मतिमान् विदुर तथा धृतराष्ट्र प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण करने लगे ॥ ३७-४१.५ ॥
दुर्योधनादयस्तस्य पुत्रा ये क्रूरमानसाः ॥ ४२ ॥ एकत्र स्थितिमापन्ना विरोधं चकुरद्भुतम् । द्रोणाचार्यस्तु सम्माप्तस्तत्र भीष्मेण मानितः ॥ ४३ ॥
धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि जो क्रूर हृदयवाले पुत्र थे, वे एक समूह बनाकर उनका घोर विरोध करने लगे । तत्पश्चात् द्रोणाचार्य वहाँ आये और भीष्मने उनका सम्मान किया । उन्होंने पुत्रोंको धनुर्विद्याकी शिक्षा देनेके लिये उन्हें उसी पुरमें रख लिया ॥ ४२-४३ ॥
कुन्तीने उत्पन्न होते ही जब बालक कर्णका परित्याग कर दिया तब अधिरथ नामक सूतने नदीमें बहते हुए उस कर्णको पाया और उसका पालन-पोषण किया । सर्वश्रेष्ठ वीर होनेके कारण कर्ण दुर्योधनका प्रिय हो गया । बादमें भीम तथा दुर्योधन आदिमें परस्पर विरोध भाव उत्पन्न हो गया ॥ ४४-४५.५ ॥
तब धृतराष्ट्रने अपने पुत्रों तथा उन पाण्डवोंके परस्पर संकटका विचार करके तथा उनके विरोध-भावको समाप्त करनेके उद्देश्यसे वारणावत नगरमें महात्मा पाण्डवोंको बसानेका निश्चय किया । ४६-४७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् कुन्तीसहित उन पाण्डवोंके उस लाक्षागृहमें दग्ध हो जानेका समाचार सुनकर उनके प्रति पौत्र-भाव होनेके कारण मैं दुःखके सागरमें डूब गया और उस निर्जन वनमें उन्हें दिनरात खोजता हुआ अति शोकसन्तप्त रहता था । तभी मैंने दुःखके कारण अत्यन्त दुर्बल उन पाण्डवोंको एकचक्रा नगरीमें देखा । उन पाण्डवोंको देखकर मेरे मनमें अत्यधिक प्रसन्नता हुई और मैंने उन्हें तुरंत महाराज द्रुपदके नगरमें भेज दिया ॥ ४९-५१ ॥
कृश शरीरवाले वे दुःखित पाण्डव मृगचर्म पहनकर ब्राह्मणका वेश धारण करके वहाँ गये और द्रुपदकी स्वयंवर-सभामें जा पहुँचे । वहाँपर अर्जुन अपने पराक्रमका प्रदर्शन करके द्रुपद-पुत्री द्रौपदीको जीतकर ले आये । पुनः माता कुन्तीके आदेशसे पाँचों भाइयोंने मानिनी द्रौपदीके साथ विवाह किया ॥ ५२-५३ ॥
धृतराष्ट्रने उन पाण्डवोंके रहनेके लिये खाण्डवप्रस्थ देनेका निश्चय किया । हे द्विजश्रेष्ठ नारद ! वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके साथ अग्निदेवको सन्तुष्ट किया । पाण्डवोंने जब राजसूय यज्ञ किया तब मैं बहुत प्रसन्न हुआ ॥ ५५-५६ ॥
उन पाण्डवोंका वैभव तथा मय दानवद्वारा निर्मित की गयी सभाको देखकर दुर्योधन अत्यन्त दुःखित हुआ और उसने द्यूतक्रीडाकी योजना बनायी । शकुनि कपटपूर्ण द्यूतमें अति निपुण था तथा धर्मराज युधिष्ठिर पासेके खेलसे अनभिज्ञ थे । अतएव दुर्योधनने [द्यूतक्रीडाके माध्यमसे] पाण्डवोंका सम्पूर्ण राज्य तथा धन छीन लिया तथा द्रौपदीको भी अपमानित किया । दुर्योधनने द्रौपदीसहित पाँचों पाण्डवोंको बारह वर्षकी अवधितक वनमें निवास करनेके लिये निर्वासित कर दिया । इससे मुझे बहुत दुःख हुआ ॥ ५७-५९ ॥
एवं नारद संसारे सुखदुःखात्मके भृशम् । निमग्नोऽहं भ्रमेणैव जानन् धर्मं सनातनम् ॥ ६० ॥
हे नारद ! इस प्रकार सनातन धर्मको जानते हुए भी मैं सुख तथा दुःखसे पूर्ण इस संसारमें भमसे ही बन्धनमें पड़ा हूँ । मैं कौन हूँ, ये किसके पुत्र हैं, यह किसकी माता है और सुख क्या है ? जिससे मेरा मन मोहित होकर दिन-रात इन्हींमें भ्रमण करता रहता है ॥ ६०-६१ ॥
कोऽहं कस्य सुतास्तेऽमी का माता किं सुखं पुनः । येन मे हृदयं मोहाद्भ्रमतीति दिवानिशम् ॥ ६१ ॥ किं करोमि क्व गच्छामि सन्तोषो नाधिगच्छति । दोलारूढं मनो मेऽत्र चञ्चलं न स्थिरं भवेत् ॥ ६२ ॥
मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? किसी प्रकारसे भी मुझे सन्तोष नहीं मिलता । दोलायमान मेरा चंचल मन स्थिर नहीं हो पा रहा है ॥ ६२ ॥
सर्वज्ञोऽसि मुनिश्रेष्ठ सन्देहं मे निवर्तय । तथा कुरु यथाहं स्यां सुखितो विगतज्वरः ॥ ६३ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! आप सर्वज्ञ हैं, अतएव मेरे सन्देहका निवारण कीजिये । आप कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं सन्तापरहित होकर सुखी हो जाऊँ ॥ ६३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे व्यासस्वकीयमोहवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥