Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
पञ्चविंशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


व्यासस्वकीयमोहवर्णनम् -
पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन -


व्यास उवाच
वासवी चकिता जाता श्रुत्वा मे वाक्यमीदृशम् ।
दाशेयी मामुवाचेदं पुत्रार्थे भृशमातुरा ॥ १ ॥
अम्बालिका वधूर्धन्या काशिराजसुता सुत ।
भार्या विचित्रवीर्यस्य विधवा शोकसंयुता ॥ २ ॥
सर्वलक्षणसम्पन्ना रूपयौवनशालिनी ।
तस्यां जनय सङ्गं त्वं कृत्वा पुत्रं सुसम्मतम् ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-मेरी वह बात सुनकर वासवराजकुमारी सत्यवती चकित हो गयीं और पुत्रके लिये अत्यन्त व्यग्र होकर मुझसे कहने लगींहे पुत्र ! काशिराजकी श्रेष्ठ पुत्री वधू अम्बालिका विचित्रवीर्यकी भार्या है, जो विधवा तथा पतिशोकसे सन्तप्त है । वह सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और रूप तथा यौवनसे युक्त है । तुम उसके साथ संसर्ग करके प्रिय पुत्र उत्पन्न करो ॥ १-३ ॥

नान्धो राजाधिकारी स्यात्तस्मात्पुत्र मनोहरम् ।
उत्पादय राजपुत्र्यां वचनान्मम मानद ॥ ४ ॥
नेत्रहीनको राजा बननेका अधिकार नहीं हो सकता । इसलिये हे मानद ! मेरी बात मानकर तुम उस राजपुत्रीसे एक मनोहर पुत्र उत्पन्न करो ॥ ४ ॥

इत्युक्तोऽहं तदा मात्रा स्थितस्तत्र गजाह्वये ।
यावदृतुमती जाता काशिराजसुता मुने ॥ ५ ॥
एकान्ते शयनागारे प्राप्ता सा मम सन्निधौ ।
लज्जमाना सुकेशान्ता स्वश्वश्रूवचनात्तदा ॥ ६ ॥
हे मुने ! तब मैं माताजीके ऐसा कहनेपर वहीं हस्तिनापुरमें ठहर गया और जब सुन्दर केशपाशवाली काशिराजकी पुत्री अम्बालिका ऋतुमती हुई तो अपनी सासके कहनेपर वह एकान्त शयनकक्षमें लज्जित होती मेरे पास आयी ॥ ५-६ ॥

दृष्ट्वा मां जटिलं दान्तं तापसं रसवर्जितम् ।
सा स्वेदवदना जाता पाण्डुरा विमना भृशम् ॥ ७ ॥
वहाँ मुझ जटाधारी, इन्द्रियनिग्रही तथा शृङ्गाररससे अनभिज्ञ तपस्वीको देखकर उसके मुखपर पसीना आ गया, शरीर पीला पड़ गया और उसका मन बहुत खिन्न हो गया ॥ ७ ॥

कुपितोऽहं तदा दृष्ट्वा कामिनीं निशि सङ्गताम् ।
वेपमानां स्थितां पार्श्वे ह्यब्रवं तामहं रुषा ॥ ८ ॥
दृष्ट्वा मां यदि गर्वेण पाण्डुवर्णा समावृता ।
अतस्ते तनयः पाण्डुर्भविष्यति सुमध्यमे ॥ ९ ॥
तत्पश्चात् रात्रिमें सम्पर्कके लिये आयी हुई उस सुन्दरीको अपने पासमें बैठी देखकर मैं कुपित हो गया और रोषपूर्वक बोला-सुमध्यमे ! मुझे देखकर यदि तुम अभिमानसे पीली पड़ गयी हो तो तुम्हारा पुत्र भी पीतवर्णका होगा ॥ ८-९ ॥

इत्युक्त्वा निशि तत्रैव स्थितोऽम्बालिकया युतः ।
भुक्त्वा तां निशि निर्यातः स्थानमापृच्छ्य मातरम् ॥ १० ॥
ऐसा कहकर मैं उस अम्बालिकाके साथ रातभर वहीं रहा और फिर मातासे आज्ञा लेकर अपने आश्रमके लिये प्रस्थित हो गया ॥ १० ॥

ततस्ताभ्यां सुतौ काले प्रसूतावन्धपाण्डुरौ ।
धृतराष्ट्रश्च पाण्डुश्च प्रथितौ सम्बभूवतुः ॥ ११ ॥
तदनन्तर समय आनेपर उन दोनोंने अन्धे तथा पाण्डुवर्णके दो पुत्र उत्पन्न किये । वे दोनों धृतराष्ट्र तथा पाण्डु नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ ११ ॥

माता मे विमना जाता तादृशौ वीक्ष्य तौ सुतौ ।
ततः संवत्सरस्यान्ते मामाहूय तदाब्रवीत् ॥ १२ ॥
द्वैपायन सुतौ जातौ राज्ययोग्यौ न तादृशौ ।
अन्यं मनोहरं पुत्रं समुत्पादय मे प्रियम् ॥ १३ ॥
उन दोनों राजकुमारोंको इस प्रकारका देखकर मेरी माता खिन्नमनस्क हो गयीं । तत्पश्चात् एक वर्षके अनन्तर मुझे बुलाकर उन्होंने कहा-हे द्वैपायन ! इस प्रकारके दोनों पुत्र राज्य करनेके योग्य नहीं हैं, अतएव तुम एक अन्य मनोहर पुत्र उत्पन्न करो, जो मुझे अत्यन्त प्रिय हो ॥ १२-१३ ॥

तथेति सा मया प्रोक्ता मुदिता जननी तदा ।
अम्बिकां प्रार्थयामास सुतार्थे काल आगते ॥ १४ ॥
पुत्रि व्यासं समालिङ्ग्य पुत्रमुत्पादयाद्‌भुतम् ।
कुरुवंशस्य कर्तारं राज्ययोग्यं वरानने ॥ १५ ॥
'वैसा ही होगा'-मेरे इस प्रकार कहनेपर माता अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं । इसके बाद ऋतुकाल आनेपर माताने पुत्रहेतु अम्बिकासे प्रार्थना की-हे पुत्रि ! हे सुमुखि ! व्यासके साथ समागम करके तुम कुरुवंश चलानेवाला तथा राज्य करनेयोग्य एक अद्वितीय पुत्र उत्पन्न करो ॥ १४-१५ ॥

वधूर्लज्जान्विता किञ्चिन्नोवाच वचनं तदा ।
गतोऽहं शयनागारे मातुस्तद्वचनान्निशि ॥ १६ ॥
उस समय लज्जासे युक्त वधू अम्बिकाने कुछ भी नहीं कहा और मैं माताकी वह बात मानकर रातमें शयनागारमें चला गया ॥ १६ ॥

दासी विचित्रवीर्यस्य रूपयौवनसंयुता ।
प्रेषिताम्बिकया त्वत्र विचित्राभरणाम्बरा ॥ १७ ॥
तत्पश्चात् अम्बिकाने विचित्रवीर्यकी रूपयौवनसम्पन्न दासीको सुन्दर आभूषण तथा वस्त्र पहनाकर मेरे पास भेज दिया ॥ १७ ॥

चन्दनारक्तदेहा सा पुष्पमालाविभूषिता ।
आयाता हावसंयुक्ता सुकेशी हंसगामिनी ॥ १८ ॥
शरीरपर चन्दन लगाये, फूलकी मालाओंसे विभूषित तथा सुन्दर केशोंवाली वह सुन्दरी हंसकी भाँति मन्द-मन्द चलती हुई बड़े हाव-भावसे मेरे पास आयी ॥ १८ ॥

पर्यङ्के मां समावेश्य संस्थिता प्रेमसंयुता ।
प्रसन्नोऽहं तदा तस्या विलासेनाभवं मुने ॥ १९ ॥
मुझे पलंगपर बैठाकर वह भी प्रेमपूर्वक मेरे पास बैठ गयी । हे मुने ! उसके इस प्रेमपूर्ण हाव-भावसे मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ ॥ १९ ॥

रात्रौ संक्रीडितं प्रेम्णा तया सह मया भृशम् ।
वरो दत्तः पुनस्तस्यै प्रसन्नेन तु नारद ॥ २० ॥
सुभगे भविता पुत्रः सर्वलक्षणसंयुतः ।
सुरूपः सर्वधर्मज्ञः सत्यवादी शमे रतः ॥ २१ ॥
हे नारद ! रात्रिमें मैंने उसके साथ प्रेमपूर्वक विहार किया और पुनः प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया-हे सुभगे ! तुम्हें सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, रूपवान्, सभी धर्मोंका ज्ञाता, सत्यवादी तथा शान्त स्वभाववाला पुत्र उत्पन्न होगा ॥ २०-२१ ॥

स तदा विदुरो जातस्त्रयः पुत्रा मयाभवन् ।
माया वृद्धिं गता साधो परक्षेत्रोद्‌भवे मम ॥ २२ ॥
समय आनेपर उसे विदुर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । इस प्रकार मुझसे तीन पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई । हे साधो ! परक्षेत्रमें मेरेद्वारा उत्पन्न किये गये इन पुत्रोंके प्रति मेरी ममता बढ़ने लगी ॥ २२ ॥

विस्मृतः शुकसम्बन्धी विरहः शोककारणम् ।
दृष्ट्वा त्रीन्स्वसुतान्कामं बलिनो वीर्यसम्मतान् ॥ २३ ॥
उन तीनों पुत्रोंको अत्यन्त बलवान् तथा वीर्यवान् देखकर मैं अपने शोकके एकमात्र कारण शुकसम्बन्धी वियोगको भूल गया ॥ २३ ॥

माया बलवती ब्रह्मन् दुस्त्यजा ह्यकृतात्मभिः ।
अरूपा च निरालम्बा ज्ञानिनामपि मोहिनी ॥ २४ ॥
हे ब्रह्मन् ! माया बलवती होती है, आत्मज्ञानसे रहित पुरुषोंके लिये यह अत्यन्त दुस्त्यज है । रूपहीन तथा आलम्बरहित यह माया ज्ञानियोंको भी मोहित कर देती है ॥ २४ ॥

मातरि स्नेहसम्बद्धं तथा पुत्रेषु संवृतम् ।
न मे चित्तं वने शान्तिमगान्मुनिवरोत्तम ॥ २५ ॥
हे मुनिवर ! मातामें तथा उन पुत्रोंमें स्नेहासक्तिसे आबद्ध मेरे मनको वनमें भी शान्ति नहीं मिल पाती थी ॥ २५ ॥

दोलारूढं मनो जातं कदाचिद्धस्तिनापुरे ।
पुनः सरस्वतीतीरे न चैकत्र व्यवस्थितिः ॥ २६ ॥
मेरा मन दोलायमान हो गया । वह कभी हस्तिनापुरमें रहता था तो कभी सरस्वतीनदीके तटपर चला आता था; इस प्रकार मेरा मन किसी जगह स्थिर नहीं रहता था ॥ २६ ॥

कदाचिच्चिन्तयन् ज्ञानं मानसे प्रतिभाति वै ।
केऽमी पुत्राः क्व मोहोऽयं न श्राद्धार्हा मृतस्य मे ॥ २७ ॥
कभी-कभी मनमें ज्ञानका उदय हो जानेपर मैं सोचने लगता था कि ये पुत्र कौन हैं, यह मोह कैसा ? मेरे मर जानेपर ये मेरा श्राद्ध भी तो नहीं कर सकेंगे ॥ २७ ॥

व्यभिचारोद्‌भवाः किं मे सुखदाः स्युः सुताः किल ।
माया बलवती मोहं वितनोति हि मानसे ॥ २८ ॥
दुराचारसे उत्पन्न ये पुत्र मुझे कौन-सा सुख देंगे । माया बड़ी प्रबल होती है । यह मनमें मोह पैदा कर देती है ॥ २८ ॥

जानन्मोहान्धकूपेऽस्मिन्पतितोऽहं मृषा मुने ।
इत्यकुर्वं रहस्तापं कदाचित्स्सुसमाहितः ॥ २९ ॥
हे मुने ! कभी-कभी शान्तचित्त होकर एकान्तमें मैं यह सन्ताप करने लगता था कि मैं जान-बूझकर इस मोहरूपी अन्धकूपमें व्यर्थ ही गिर गया हूँ ॥ २९ ॥

राज्यं प्राप ततः पाण्डुर्बलवान्भीष्मसम्मतः ।
तदा मम मनो जातं प्रसन्नं सुतकारणात् ॥ ३० ॥
भीष्मकी सम्मतिसे जब बलवान् पाण्डुको राज्य प्राप्त हुआ, उस समय मेरा मन इस बातसे बहुत प्रसन्न हुआ कि मेरा पुत्र राजसिंहासनपर बैठा है ॥ ३० ॥

कुन्ती माद्री सुरूपे द्वे भार्ये तस्य बभूवतुः ।
शूरसेनसुता कुन्ती मद्रराजसुतापरा ॥ ३१ ॥
तत्पश्चात् सुन्दर रूपवाली कुन्ती तथा माद्री उनकी दो भार्याएँ हुईं । उनमें कुन्ती महाराज शूरसेनकी पुत्री थी तथा दूसरी रानी माद्री मद्रदेशके राजाकी कन्या थी ॥ ३१ ॥

स शापं द्विजतः प्राप्य कामिनीद्वयसंयुतः ।
पाण्डुर्निर्वेदमापन्नस्त्यक्त्वा राज्यं वनं गतः ॥ ३२ ॥
ब्राह्मणसे शाप प्राप्त करके राजा पाण्डु अत्यन्त दुःखित हुए और वे राज्यका परित्याग करके अपनी दोनों रानियोंके साथ वन चले गये ॥ ३२ ॥

तदा मामाविशच्छोकः श्रुत्वा पुत्रं वने स्थितम् ।
गतोऽहं तत्र यत्रासौ भार्याभ्यां सह संस्थितः ॥ ३३ ॥
अपने पुत्रको वनमें स्थित सुनकर मुझे महान् शोक हुआ । मैं वहाँ पहुँच गया, जहाँ वे अपनी दोनों पत्नियोंके साथ रह रहे थे ॥ ३३ ॥

तमाश्वास्य वने पाण्डुं पुनः प्राप्तो गजाह्वये ।
धृतराष्ट्रं समाभाष्य ह्यगमं ब्रह्मजातटे ॥ ३४ ॥
वनमें उन पाण्डुको सान्त्वना देकर मैं पुन: हस्तिनापुर आ गया और वहाँ धृतराष्ट्र के साथ बातचीत करके सरस्वतीनदीके तटपर पुनः चला गया ॥ ३४ ॥

क्षेत्रजान्पञ्चपुत्रान्स समुत्पाद्य वनाश्रमे ।
धर्मतो वायुतः शक्रादश्विभ्यां पञ्च पाण्डवान् ॥ ३५ ॥
युधिष्ठिरो भीमसेनस्तथैवार्जुन इत्यपि ।
कुन्तीपुत्राः समाख्याता धर्मानिलसुरेशजाः ॥ ३६ ॥
नकुलः सहदेवश्च मद्रराजसुतासुतौ ।
वनमें अपने आश्रममें उन्होंने धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमारोंसे पाँच क्षेत्रज पुत्रोंको पाँच पाण्डवोंके रूपमें उत्पन्न कराया । धर्म, वायु तथा इन्द्रसे उत्पन्न हुए युधिष्ठिर, भीमसेन तथा अर्जुनये कुन्तीपुत्र कहे गये हैं । इसी तरह नकुल तथा सहदेव-ये दोनों माद्रीके पुत्र हुए । ३५-३६.५ ॥

कदाचित्तु रहो माद्रीं समालिङ्ग्य महीपतिः ॥ ३७ ॥
मृतः शापात्तु मुनिभिः संस्कृतो हुतभुङ्‌मुखे ।
माद्री तत्र सती भूत्वा प्रविष्टा पतिना सह ॥ ३८ ॥
स्थिता पुत्रयुता कुन्ती ज्वलिते जातवेदसि ।
मुनयः सुतसंयुक्तां शूरसेनसुतां तदा ॥ ३९ ॥
दुःखितां पतिहीनां तामानिन्युर्गजसाह्वये ।
समर्पिताथ भीष्माय विदुराय महात्मने ॥ ४० ॥
श्रुत्वाहं सुखदुःखाभ्यां पीडितस्तु परात्मभिः ।
भीष्मेण पालिताः पुत्राः पाण्डोरिति विचिन्त्य ते ॥ ४१ ॥
विदुरेण तथा प्रीत्या धृतराष्ट्रेण धीमता ।
एक दिन महाराज पाण्डु एकान्तमें माद्रीका आलिंगन करके पूर्वशापके कारण मृत्युको प्राप्त हो गये । तत्पश्चात् मुनियोंने उनका दाह-संस्कार किया और माद्री सती होकर पतिके साथ प्रज्वलित अग्निमें प्रविष्ट हो गयी और पुत्रोंसे युक्त कुन्ती वहीं स्थित रह गयी । तत्पश्चात् मुनिलोग पतिविहीन उस दुःखित शूरसेन-पुत्री कुन्तीको उसके पुत्रोंसहित हस्तिनापुर ले आये और उसे भीष्म तथा महात्मा विदुरको सौंप दिया । यह सुनकर मैं उन पाण्डुपुत्रोंके कारण सुखदुःखसे पीड़ित हो गया । पाण्डुके ये पुत्र हैं-ऐसा सोचकर भीष्म, मतिमान् विदुर तथा धृतराष्ट्र प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण करने लगे ॥ ३७-४१.५ ॥

दुर्योधनादयस्तस्य पुत्रा ये क्रूरमानसाः ॥ ४२ ॥
एकत्र स्थितिमापन्ना विरोधं चकुरद्‌भुतम् ।
द्रोणाचार्यस्तु सम्माप्तस्तत्र भीष्मेण मानितः ॥ ४३ ॥
धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि जो क्रूर हृदयवाले पुत्र थे, वे एक समूह बनाकर उनका घोर विरोध करने लगे । तत्पश्चात् द्रोणाचार्य वहाँ आये और भीष्मने उनका सम्मान किया । उन्होंने पुत्रोंको धनुर्विद्याकी शिक्षा देनेके लिये उन्हें उसी पुरमें रख लिया ॥ ४२-४३ ॥

अध्यापनाय पुत्राणां पुरे तस्मिन्निवासितः ।
कर्णः कुन्त्या परित्यक्तो जातमात्रः शिशुर्यदा ॥ ४४ ॥
सूतेन पालितो नद्यां प्रान्तश्चाधिरथेन ह ।
दुर्योधनप्रियश्चाभूत्कर्णः शूरतमस्तथा ॥ ४५ ॥
परस्परं विरोधोऽभूद्‌भीमदुर्योधनादिषु ।
कुन्तीने उत्पन्न होते ही जब बालक कर्णका परित्याग कर दिया तब अधिरथ नामक सूतने नदीमें बहते हुए उस कर्णको पाया और उसका पालन-पोषण किया । सर्वश्रेष्ठ वीर होनेके कारण कर्ण दुर्योधनका प्रिय हो गया । बादमें भीम तथा दुर्योधन आदिमें परस्पर विरोध भाव उत्पन्न हो गया ॥ ४४-४५.५ ॥

धृतराष्ट्रस्तु सञ्चिन्त्य क्लेशं पुत्रेषु तेषु च ॥ ४६ ॥
निवासं कल्पयामास पाण्डवानां महात्मनाम् ।
विरोधशमनायैव नगरे वारणावते ॥ ४७ ॥
तब धृतराष्ट्रने अपने पुत्रों तथा उन पाण्डवोंके परस्पर संकटका विचार करके तथा उनके विरोध-भावको समाप्त करनेके उद्देश्यसे वारणावत नगरमें महात्मा पाण्डवोंको बसानेका निश्चय किया । ४६-४७ ॥

दुर्योधनेन तत्रैव द्रोहाज्जतुगृहाणि वै ।
कारितानि च दिव्यानि प्रेष्य मित्रं पुरोचनम् ॥ ४८ ॥
द्रोहके कारण दुर्योधनने अपने मित्र पुरोचनको वहाँ भेजकर दिव्य लाक्षागृहका निर्माण करा दिया ॥ ४८ ॥

श्रुत्वा जतुगृहे दग्धान्पाण्डवान्पृथया युतान् ।
पौत्रभावान्मुनिश्रेष्ठ मग्नोऽहं व्यसनार्णवे ॥ ४९ ॥
शोकातुरो भृशं शून्ये वने पश्यन्नहर्निशम् ।
दृष्टा मयैकचक्रायां पाण्डवा दुःखकर्शिताः ॥ ५० ॥
ततस्तुष्टमनाश्चाहं जातः पार्थान्विलोक्य च ।
प्रेरितास्ते मया तूर्णं द्रुपदस्य पुरं प्रति ॥ ५१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् कुन्तीसहित उन पाण्डवोंके उस लाक्षागृहमें दग्ध हो जानेका समाचार सुनकर उनके प्रति पौत्र-भाव होनेके कारण मैं दुःखके सागरमें डूब गया और उस निर्जन वनमें उन्हें दिनरात खोजता हुआ अति शोकसन्तप्त रहता था । तभी मैंने दुःखके कारण अत्यन्त दुर्बल उन पाण्डवोंको एकचक्रा नगरीमें देखा । उन पाण्डवोंको देखकर मेरे मनमें अत्यधिक प्रसन्नता हुई और मैंने उन्हें तुरंत महाराज द्रुपदके नगरमें भेज दिया ॥ ४९-५१ ॥

ते गतास्तत्र दुःखार्ता विप्रवेषधराः कृशाः ।
मृगचर्मपरीधानाः सभायां संस्थितास्तदा ॥ ५२ ॥
कृत्वा पराक्रमं जिष्णुः स जित्वा द्रुपदात्मजाम् ।
चक्रुर्विवाहं मानिन्या पञ्चैव मातृवाक्यतः ॥ ५३ ॥
कृश शरीरवाले वे दुःखित पाण्डव मृगचर्म पहनकर ब्राह्मणका वेश धारण करके वहाँ गये और द्रुपदकी स्वयंवर-सभामें जा पहुँचे । वहाँपर अर्जुन अपने पराक्रमका प्रदर्शन करके द्रुपद-पुत्री द्रौपदीको जीतकर ले आये । पुनः माता कुन्तीके आदेशसे पाँचों भाइयोंने मानिनी द्रौपदीके साथ विवाह किया ॥ ५२-५३ ॥

दृष्ट्वा विवाहं तेषां तु मुदितोऽहं भृशं तदा ।
ततो नागाह्वये प्राप्ताः पाञ्चालीसहिता मुने ॥ ५४ ॥
उनका विवाह देखकर मैं परम प्रसन्न हुआ । हे मुने ! तत्पश्चात् वे सभी द्रौपदीसहित हस्तिनापुर चले आये ॥ ५४ ॥

निवासं खाण्डवप्रस्थं धृतराष्ट्रेण कल्पितम् ।
पाण्डवानां द्विजश्रेष्ठ वसुदेवसुतेन वै ॥ ५५ ॥
तर्पितः पावकस्तत्र विष्णुना सह जिष्णुना ।
राजसूयः कृतो यज्ञस्तदाहं मुदितोऽभवम् ॥ ५६ ॥
धृतराष्ट्रने उन पाण्डवोंके रहनेके लिये खाण्डवप्रस्थ देनेका निश्चय किया । हे द्विजश्रेष्ठ नारद ! वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके साथ अग्निदेवको सन्तुष्ट किया । पाण्डवोंने जब राजसूय यज्ञ किया तब मैं बहुत प्रसन्न हुआ ॥ ५५-५६ ॥

दृष्ट्वाथ विभवं तेषां तथा मयकृतां सभाम् ।
दुर्योधनोऽतिसन्तप्तो दुरोदरमथाकरोत् ॥ ५७ ॥
दुर्द्यूतवेदी शकुनिरनक्षज्ञश्च धर्मजः ।
हृतं राज्यं धनं सर्वं याज्ञसेनी च क्लेशिता ॥ ५८ ॥
वने द्वादश वर्षाणि पाण्डवास्ते विवासिताः ।
पाञ्चालीसहितास्तेन दुःखं मे जनितं भृशम् ॥ ५९ ॥
उन पाण्डवोंका वैभव तथा मय दानवद्वारा निर्मित की गयी सभाको देखकर दुर्योधन अत्यन्त दुःखित हुआ और उसने द्यूतक्रीडाकी योजना बनायी । शकुनि कपटपूर्ण द्यूतमें अति निपुण था तथा धर्मराज युधिष्ठिर पासेके खेलसे अनभिज्ञ थे । अतएव दुर्योधनने [द्यूतक्रीडाके माध्यमसे] पाण्डवोंका सम्पूर्ण राज्य तथा धन छीन लिया तथा द्रौपदीको भी अपमानित किया । दुर्योधनने द्रौपदीसहित पाँचों पाण्डवोंको बारह वर्षकी अवधितक वनमें निवास करनेके लिये निर्वासित कर दिया । इससे मुझे बहुत दुःख हुआ ॥ ५७-५९ ॥

एवं नारद संसारे सुखदुःखात्मके भृशम् ।
निमग्नोऽहं भ्रमेणैव जानन् धर्मं सनातनम् ॥ ६० ॥
हे नारद ! इस प्रकार सनातन धर्मको जानते हुए भी मैं सुख तथा दुःखसे पूर्ण इस संसारमें भमसे ही बन्धनमें पड़ा हूँ । मैं कौन हूँ, ये किसके पुत्र हैं, यह किसकी माता है और सुख क्या है ? जिससे मेरा मन मोहित होकर दिन-रात इन्हींमें भ्रमण करता रहता है ॥ ६०-६१ ॥

कोऽहं कस्य सुतास्तेऽमी का माता किं सुखं पुनः ।
येन मे हृदयं मोहाद्‌भ्रमतीति दिवानिशम् ॥ ६१ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि सन्तोषो नाधिगच्छति ।
दोलारूढं मनो मेऽत्र चञ्चलं न स्थिरं भवेत् ॥ ६२ ॥
मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? किसी प्रकारसे भी मुझे सन्तोष नहीं मिलता । दोलायमान मेरा चंचल मन स्थिर नहीं हो पा रहा है ॥ ६२ ॥

सर्वज्ञोऽसि मुनिश्रेष्ठ सन्देहं मे निवर्तय ।
तथा कुरु यथाहं स्यां सुखितो विगतज्वरः ॥ ६३ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! आप सर्वज्ञ हैं, अतएव मेरे सन्देहका निवारण कीजिये । आप कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं सन्तापरहित होकर सुखी हो जाऊँ ॥ ६३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे
व्यासस्वकीयमोहवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
अध्याय पच्चिसवाँ समाप्त ॥ २५ ॥


GO TOP