नारदजी बोले-हे पुराणवेत्ता व्यासजी ! आप क्या पूछ रहे हैं ? यह पूर्णरूपसे निश्चित है कि इस संसारमें रहनेवाला कोई भी प्राणी मोहसे परे हो ही नहीं सकता ॥ २ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सनक तथा कपिल-ये सभी मायाके वशवर्ती होकर संसार-मार्गमें निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ॥ ३ ॥
ज्ञानिनं मां जनो वेत्ति भ्रान्तोऽहं सर्वलोकवत् । शृणु मे पूर्ववृत्तान्तं प्रब्रवीमि सुनिश्चितम् ॥ ४ ॥
लोग मुझे ज्ञानी समझते हैं, किंतु मैं भी एक बार सभी लोगोंकी भाँति भ्रमित हो गया था । मैं अपना पूर्व वृत्तान्त यथार्थरूपसे बता रहा हूँ, सुनिये ॥ ४ ॥
दुःखं मया यथा पूर्वमनुभूतं महत्तरम् । स्वकृतेन च मोहेन भार्यार्थे वासवीसुत ॥ ५ ॥
हे व्यासजी ! स्त्री-प्राप्तिके लिये अपने द्वारा स्वयं उत्पन्न किये गये मोहके कारण मुझे पूर्वकालमें महान् कष्टका अनुभव करना पड़ा था ॥ ५ ॥
एकदा पर्वतश्चाहं देवलोकान्महीतलम् । प्राप्तो विलोकनार्थाय भारतं खण्डमुत्तमम् ॥ ६ ॥
एक बार मैं तथा पर्वतमुनि उत्तम भारतवर्षको देखनेके लिये देवलोकसे पृथ्वीलोकपर आये थे ॥ ६ ॥
भ्रमन्तौ सहितावुर्व्यां पश्यन्तौ तीर्थमण्डलम् । पावनानि च स्थानानि मुनीनामाश्रमाञ्छुभान् ॥ ७ ॥
विभिन्न तीर्थो, पवित्र स्थानों तथा मुनियोंके पावन आश्रमोंको देखते हुए हम दोनों साथ-साथ पृथ्वीतलपर विचरण करने लगे ॥ ७ ॥
शपथं देवलोकात्तु कृत्वा पूर्वं परस्परम् । चलितौ समयं चेमं सम्मन्त्र्य निश्चयेन वै ॥ ८ ॥ चित्तवृत्तिस्तु वक्तव्या यादृशी यस्य जायते । शुभा वाप्यशुभा वापि न गोप्तव्या कदाचन ॥ ९ ॥
देवलोकसे प्रस्थान करते समय हम दोनोंने आपसमें निश्चयपूर्वक सोच-विचारकर यह प्रतिज्ञा की थी कि जिसके मनमें जैसा भी पवित्र अथवा अपवित्र भाव उत्पन्न होगा, वह उसे कभी गोपनीय नहीं रखेगा । ८-९ ॥
भोजनेच्छा धनेच्छापि रतीच्छा वा भवेदपि । यादृशी यस्य चित्ते तु कथनीया परस्परम् ॥ १० ॥
भोजनकी इच्छा, धनकी इच्छा अथवा कामविषयक इच्छा-इनमेंसे जिस तरहकी भी इच्छा जिसके मनमें होगी, एक-दूसरेको बता दी जानी चाहिये ॥ १० ॥
राजा संजयने हम दोनोंकी भक्तिपूर्वक पूजा की तथा अत्यधिक सम्मान दिया । महान् आत्मावाले उन्हीं संजयके भवनमें रहकर हम दोनों अपना चातुर्मास्य व्यतीत करने लगे ॥ १३ ॥
उन राजा संजयकी परम सुन्दरी तथा मनोहर दाँतोंवाली दमयन्ती नामसे विख्यात एक कन्या थी; उन्होंने उसे हमलोगोंकी सेवाके लिये आदेश दे दिया ॥ १७ ॥
विवेकज्ञा विशालाक्षी राजपुत्री कृतोद्यमा । सेवनं सर्वकाले च व्यदधादुभयोरपि ॥ १८ ॥
विवेकका ज्ञान रखनेवाली तथा उद्यमी स्वभाववाली वह विशालनयना राजकुमारी सभी समय हम दोनोंकी सेवा करती रहती थी ॥ १८ ॥
स्नानार्थमुदकं काले भोजनं मृष्टमायतम् । मुखवासं तथा चान्यं यदिष्टं तद्ददाति सा ॥ १९ ॥
वह हमारे स्नानके लिये जल, पर्याप्त मधुर भोजन, मुख-शुद्धिके लिये सुगन्धित गन्ध-द्रव्य तथा और भी जो हमारा अभीष्ट रहता, उसे समयसे हमलोगोंको दिया करती थी ॥ १९ ॥
मनोऽभिलषितान्कामानुभयोरपि कन्यका । व्यजनासनशय्यादीन्वाञ्छितानप्यकल्पयत् ॥ २० ॥
वह कन्या हम दोनोंकी मनोभिलषित वस्तुएँ उपस्थित किया करती थी । वह व्यजन (पंखा), आसन तथा शय्या आदि मनोवांछित सामग्रियोंको उपलब्ध कराती रहती थी ॥ २० ॥
एवं संसेव्यमानौ तु स्थितौ राज्ञो गृहे किल । वेदाध्ययनसंशीलावावां वेदव्रते रतौ ॥ २१ ॥
इस प्रकार उसके द्वारा सेवित होते हुए हम दोनों राजा संजयके भवनमें रहने लगे । वेदाध्ययनके स्वभाववाले हम दोनों मुनि सदा वेदव्रतमें संलग्न रहते थे ॥ २१ ॥
मनोहर सामगान सुनकर वह विदुषी राजकुमारी मेरे प्रति अनुरागयुक्त तथा प्रीतिमय हो गयी ॥ २३ ॥
दिने दिनेऽनुरागोऽस्या मयि वृद्धिं गतः परः । ममापि प्रीतियुक्तायां मनो जातं स्पृहापरम् ॥ २४ ॥
मेरे प्रति उस राजकुमारीका अनुराग दिनोदिन बढ़ता ही चला गया और मुझमें प्रेम-भाव रखनेवाली उस कन्याके प्रति मेरा भी मन अत्यन्त आसक्त हो उठा ॥ २४ ॥
मम तस्य च सा कन्या भोजनादिषु कर्हिचित् । अकरोदन्तरं किञ्चित्सेवाभेदं रसान्विता ॥ २५ ॥
मुझपर विशेष अनुराग रखनेवाली वह राजकुमारी मेरे तथा उस पर्वतमुनिके लिये किये जानेवाले भोजनादिके प्रबन्धमें तथा सेवाकार्यमें कुछ भेदभाव करने लगी ॥ २५ ॥
स्नानायोष्णजलं मह्यं पर्वताय च शीतलम् । दधि मह्यं तथा तक्रं पर्वतायाप्यकल्पयत् ॥ २६ ॥
स्नानके लिये मुझे उष्ण जल तथा पर्वतमुनिके लिये शीतल जल और इसी प्रकार मेरे लिये दही तथा पर्वतमुनिके लिये मद्रुकी व्यवस्था करती थी ॥ २६ ॥
शयनास्तरणं शुभ्रं मदर्थे पर्यकल्पयत् । प्रीत्या परमया यद्वत्पर्वताय न तादृशम् ॥ २७ ॥
वह मेरे लिये अत्यन्त प्रेमपूर्वक जैसा धवल आस्तरण (बिछौना) बिछाती थी, वैसा पर्वतके लिये नहीं ॥ २७ ॥
विलोकयति मां प्रेम्णा सुन्दरी न च पर्वतम् । ततोऽस्यास्तादृशं दृष्ट्वा पर्वतः प्रेमकारणम् ॥ २८ ॥ मनसा चिन्तयामास किमेतदिति विस्मितः । पप्रच्छ मां रहः सम्यग्ब्रूहि नारद सर्वथा ॥ २९ ॥ राजपुत्री त्वयि प्रेम करोति मुदिता भृशम् । ददाति भक्ष्यभोज्यानि स्नेहयुक्ता समन्ततः ॥ ३० ॥ न तथा मयि भेदोऽत्र सन्देहं जनयत्यसौ । मन्यते त्वां पतिं कर्तुं सर्वथा सञ्जयात्मजा ॥ ३१ ॥
वह सुन्दरी मुझे अत्यन्त प्रेमपूर्ण भावसे देखती थी, किंतु पर्वतमुनिको नहीं । तब मुनि पर्वत उस प्रकारका प्रेम-भेद देखकर मन-ही-मन विस्मित होकर सोचने लगे कि ऐसा क्यों हो रहा है ? एकान्तमें उन्होंने मुझसे पूछा-हे नारद ! मुझे भलीभाँति बताइये, यह राजकुमारी अत्यन्त प्रसन्न होकर आपसे अत्यधिक प्रेम करती है और स्नेहयुक्त होकर आपको नानाविध भोज्य पदार्थ देती है, किंतु वैसा मेरे साथ नहीं करती है । यह भेद-भाव मेरे मनमें सन्देह उत्पन्न कर रहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि राजा संजयकी पुत्री आपको निश्चय ही पति बनाना चाहती है । २८-३१ ॥
नारदजी बोले-जब पर्वतमुनिने हठपूर्वक इसका कारण मुझसे पूछा तब मैं अत्यन्त लज्जित हो गया और पुनः बोला-हे पर्वत ! विशाल नयनोंवाली यह राजकुमारी मुझे पति बनानेके लिये उद्यत है और उसके प्रति मेरे भी मनमें विशेष अनुराग भाव उत्पन्न हो गया है । ३४-३५ ॥
मेरा यह सत्य वचन सुनकर पर्वतमुनि कुपित हो उठे और उन्होंने मुझसे कहा, 'तुम्हें बार-बार धिक्कार है । क्योंकि प्रतिज्ञा करके पहले तुमने मुझे धोखा दिया है, अतएव हे मित्रद्रोही ! मेरे शापसे तुम अभी बन्दरके मुखवाले हो जाओ' ॥ ३६-३७ ॥
वीणा सुननेकी उत्कट अभिलाषा रखनेवाली वह परम विलक्षण राजकुमारी मुझे भयंकर बन्दरके रूपमें देखकर अत्यन्त उदास मनवाली हो गयी ॥ ४२ ॥
व्यास उवाच ततः किमभवद्ब्रह्मन् कथं शापान्निवर्तितः । मानुषास्यः पुनर्जातो भवान्ब्रूहि यथाविधि ॥ ४३ ॥
व्यासजी बोले-हे ब्रह्मन् ! तत्पश्चात् क्या हुआ, आपको शापसे छुटकारा कैसे मिला तथा आप पुनः मानवकी मुखाकृतिवाले किस प्रकार हुए ? ये सभी बातें भलीभाँति बताइये ॥ ४३ ॥
अपनी पुत्री राजकुमारी दमयन्तीको कुछकुछ प्रकट यौवनवाली देखकर उसके विवाहके सम्बन्धमें राजा संजयने मन्त्रीसे पूछा-अब मेरी पुत्रीका विवाह-योग्य समय हो गया है । अतएव योग्य वरके रूपमें कोई ऐसा राजकुमार आप मुझे बतलाइये, जो रूप-उदारता-गुण आदिसे सम्पन्न, पराक्रमी, उत्तम कुलमें उत्पन्न तथा सभीके लिये श्रेष्ठ हो । उसके साथ मैं अपनी पुत्रीका विधिवत् विवाह अभी कर दूंगा ॥ ४८-५० ॥
धात्रीने कहा-हे महाराज ! आपकी पुत्री दमयन्तीने मुझसे ऐसा कहा है-हे धात्रेयि ! तुम मेरे वचनसे मेरे पिताजीसे यह सुखकर बात कह दो-नादसे मोहित मैं महती वीणा धारण करनेवाले प्रतिभासम्पन्न नारदका वरण कर चुकी हूँ; अन्य कोई भी मुझे प्रिय नहीं है ॥ ५४-५५ ॥