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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
षड्‌विंशोऽध्यायः

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दमयन्तीविवाहप्रस्ताववर्णनम् -
देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय -


व्यास उवाच
इति मे वचनं श्रुत्वा नारदः परमार्थवित् ।
मामाह च स्मितं कृत्वा पृच्छन्तं मोहकारणम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] तब परमार्थवेत्ता नारदजी मेरी बात सुननेके पश्चात् मोहका कारण पूछनेवाले मुझसे मुसकराकर कहने लगे ॥ १ ॥

नारद उवाच
पाराशर्य पुराणज्ञ किं पृच्छसि सुनिश्चयम् ।
संसारेऽस्मिन्विना मोहं कोऽपि नास्ति शरीरवान् ॥ २ ॥
नारदजी बोले-हे पुराणवेत्ता व्यासजी ! आप क्या पूछ रहे हैं ? यह पूर्णरूपसे निश्चित है कि इस संसारमें रहनेवाला कोई भी प्राणी मोहसे परे हो ही नहीं सकता ॥ २ ॥

ब्रह्माविष्णुस्तथा रुद्रः सनकः कपिलस्तथा ।
मायया वेष्टिताः सर्वे भ्रमन्ति भववर्त्मनि ॥ ३ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सनक तथा कपिल-ये सभी मायाके वशवर्ती होकर संसार-मार्गमें निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ॥ ३ ॥

ज्ञानिनं मां जनो वेत्ति भ्रान्तोऽहं सर्वलोकवत् ।
शृणु मे पूर्ववृत्तान्तं प्रब्रवीमि सुनिश्चितम् ॥ ४ ॥
लोग मुझे ज्ञानी समझते हैं, किंतु मैं भी एक बार सभी लोगोंकी भाँति भ्रमित हो गया था । मैं अपना पूर्व वृत्तान्त यथार्थरूपसे बता रहा हूँ, सुनिये ॥ ४ ॥

दुःखं मया यथा पूर्वमनुभूतं महत्तरम् ।
स्वकृतेन च मोहेन भार्यार्थे वासवीसुत ॥ ५ ॥
हे व्यासजी ! स्त्री-प्राप्तिके लिये अपने द्वारा स्वयं उत्पन्न किये गये मोहके कारण मुझे पूर्वकालमें महान् कष्टका अनुभव करना पड़ा था ॥ ५ ॥

एकदा पर्वतश्चाहं देवलोकान्महीतलम् ।
प्राप्तो विलोकनार्थाय भारतं खण्डमुत्तमम् ॥ ६ ॥
एक बार मैं तथा पर्वतमुनि उत्तम भारतवर्षको देखनेके लिये देवलोकसे पृथ्वीलोकपर आये थे ॥ ६ ॥

भ्रमन्तौ सहितावुर्व्यां पश्यन्तौ तीर्थमण्डलम् ।
पावनानि च स्थानानि मुनीनामाश्रमाञ्छुभान् ॥ ७ ॥
विभिन्न तीर्थो, पवित्र स्थानों तथा मुनियोंके पावन आश्रमोंको देखते हुए हम दोनों साथ-साथ पृथ्वीतलपर विचरण करने लगे ॥ ७ ॥

शपथं देवलोकात्तु कृत्वा पूर्वं परस्परम् ।
चलितौ समयं चेमं सम्मन्त्र्य निश्चयेन वै ॥ ८ ॥
चित्तवृत्तिस्तु वक्तव्या यादृशी यस्य जायते ।
शुभा वाप्यशुभा वापि न गोप्तव्या कदाचन ॥ ९ ॥
देवलोकसे प्रस्थान करते समय हम दोनोंने आपसमें निश्चयपूर्वक सोच-विचारकर यह प्रतिज्ञा की थी कि जिसके मनमें जैसा भी पवित्र अथवा अपवित्र भाव उत्पन्न होगा, वह उसे कभी गोपनीय नहीं रखेगा । ८-९ ॥

भोजनेच्छा धनेच्छापि रतीच्छा वा भवेदपि ।
यादृशी यस्य चित्ते तु कथनीया परस्परम् ॥ १० ॥
भोजनकी इच्छा, धनकी इच्छा अथवा कामविषयक इच्छा-इनमेंसे जिस तरहकी भी इच्छा जिसके मनमें होगी, एक-दूसरेको बता दी जानी चाहिये ॥ १० ॥

इत्यावां समयं कृत्वा स्वर्गाद्‌भूलोकमागतौ ।
एकचित्तौ मुनीभूतौ विचरन्तौ यथेच्छया ॥ ११ ॥
ऐसी प्रतिज्ञा करके हम दोनों स्वर्गलोकसे पृथ्वीतलपर आये और एकचित्त होकर मुनिरूपमें इच्छापूर्वक विचरण करने लगे ॥ ११ ॥

एवं भ्रमन्तौ लोकेऽस्मिन्ग्रीष्मान्ते समुपागते ।
सञ्जयस्य पुरं रम्यं सम्प्राप्तौ नृपते पुनः ॥ १२ ॥
इस प्रकार इस लोकमें विचरण करते हुए हम दोनों ग्रीष्म ऋतुके समाप्त हो जानेपर राजा संजयके सुरम्य नगरमें पहुँचे ॥ १२ ॥

तेन सम्पूजितौ भक्त्या राज्ञा सम्मानितौ भृशम् ।
स्थितौ तत्र गृहे तस्य चातुर्मास्यं महात्मनः ॥ १३ ॥
राजा संजयने हम दोनोंकी भक्तिपूर्वक पूजा की तथा अत्यधिक सम्मान दिया । महान् आत्मावाले उन्हीं संजयके भवनमें रहकर हम दोनों अपना चातुर्मास्य व्यतीत करने लगे ॥ १३ ॥

वार्षिकाश्चतुरो मासा दुर्गमाः पथि सर्वदा ।
तस्मादेकत्र विबुधैः स्थातव्यमिति निश्चयः ॥ १४ ॥
वर्षाकालके चार महीने मार्गमें बहुत कष्टकारक होते हैं, अतएव विज्ञजनोंको उस अवधिमें एक ही स्थानपर रहना चाहिये-ऐसा सिद्धान्त है ॥ १४ ॥

अष्टौ मासांस्तु प्रवसेत्सदा कार्यवशाद्‌द्विजः ।
वर्षाकाले न गन्तव्यं प्रवासे सुखमिच्छता ॥ १५ ॥
द्विजको चाहिये कि वह आठ महीनेतक अपने कार्यवश देशान्तरमें प्रवास करे, किंतु सुख चाहनेवाले पुरुषको वर्षाकालमें प्रवासके लिये नहीं जाना चाहिये ॥ १५ ॥

इति सञ्चिन्त्य मनसा सञ्जयस्य गृहे तदा ।
संस्थितौ मानितौ राज्ञा कृतातिथ्यौ महात्मना ॥ १६ ॥
ऐसा सोचकर हम दोनों राजा संजयके भवनमें ठहर गये और उन महात्मा नरेशने हमलोगोंका सम्मानपूर्वक आतिथ्य किया ॥ १६ ॥

दमयन्तीति विख्याता तस्य पुत्री महीपतेः ।
आज्ञप्ता परिचर्यार्थं सुदती सुन्दरी भृशम् ॥ १७ ॥
उन राजा संजयकी परम सुन्दरी तथा मनोहर दाँतोंवाली दमयन्ती नामसे विख्यात एक कन्या थी; उन्होंने उसे हमलोगोंकी सेवाके लिये आदेश दे दिया ॥ १७ ॥

विवेकज्ञा विशालाक्षी राजपुत्री कृतोद्यमा ।
सेवनं सर्वकाले च व्यदधादुभयोरपि ॥ १८ ॥
विवेकका ज्ञान रखनेवाली तथा उद्यमी स्वभाववाली वह विशालनयना राजकुमारी सभी समय हम दोनोंकी सेवा करती रहती थी ॥ १८ ॥

स्नानार्थमुदकं काले भोजनं मृष्टमायतम् ।
मुखवासं तथा चान्यं यदिष्टं तद्ददाति सा ॥ १९ ॥
वह हमारे स्नानके लिये जल, पर्याप्त मधुर भोजन, मुख-शुद्धिके लिये सुगन्धित गन्ध-द्रव्य तथा और भी जो हमारा अभीष्ट रहता, उसे समयसे हमलोगोंको दिया करती थी ॥ १९ ॥

मनोऽभिलषितान्कामानुभयोरपि कन्यका ।
व्यजनासनशय्यादीन्वाञ्छितानप्यकल्पयत् ॥ २० ॥
वह कन्या हम दोनोंकी मनोभिलषित वस्तुएँ उपस्थित किया करती थी । वह व्यजन (पंखा), आसन तथा शय्या आदि मनोवांछित सामग्रियोंको उपलब्ध कराती रहती थी ॥ २० ॥

एवं संसेव्यमानौ तु स्थितौ राज्ञो गृहे किल ।
वेदाध्ययनसंशीलावावां वेदव्रते रतौ ॥ २१ ॥
इस प्रकार उसके द्वारा सेवित होते हुए हम दोनों राजा संजयके भवनमें रहने लगे । वेदाध्ययनके स्वभाववाले हम दोनों मुनि सदा वेदव्रतमें संलग्न रहते थे ॥ २१ ॥

अहं वीणां करे कृत्वा साधयित्वा स्वरोत्तमम् ।
गायत्रं साम सुस्वादमगां कर्णरसायनम् ॥ २२ ॥
मैं हाथमें वीणा धारणकर उत्तम स्वरकी साधना करके कानोंके लिये रसायनस्वरूप अत्यन्त मधुर गायत्र-सामका गान करता रहता था ॥ २२ ॥

राजपुत्री तु तच्छ्रुत्वा सामगानं मनोहरम् ।
बभूव मयि रागाढ्या प्रीतियुक्ता विशारदा ॥ २३ ॥
मनोहर सामगान सुनकर वह विदुषी राजकुमारी मेरे प्रति अनुरागयुक्त तथा प्रीतिमय हो गयी ॥ २३ ॥

दिने दिनेऽनुरागोऽस्या मयि वृद्धिं गतः परः ।
ममापि प्रीतियुक्तायां मनो जातं स्पृहापरम् ॥ २४ ॥
मेरे प्रति उस राजकुमारीका अनुराग दिनोदिन बढ़ता ही चला गया और मुझमें प्रेम-भाव रखनेवाली उस कन्याके प्रति मेरा भी मन अत्यन्त आसक्त हो उठा ॥ २४ ॥

मम तस्य च सा कन्या भोजनादिषु कर्हिचित् ।
अकरोदन्तरं किञ्चित्सेवाभेदं रसान्विता ॥ २५ ॥
मुझपर विशेष अनुराग रखनेवाली वह राजकुमारी मेरे तथा उस पर्वतमुनिके लिये किये जानेवाले भोजनादिके प्रबन्धमें तथा सेवाकार्यमें कुछ भेदभाव करने लगी ॥ २५ ॥

स्नानायोष्णजलं मह्यं पर्वताय च शीतलम् ।
दधि मह्यं तथा तक्रं पर्वतायाप्यकल्पयत् ॥ २६ ॥
स्नानके लिये मुझे उष्ण जल तथा पर्वतमुनिके लिये शीतल जल और इसी प्रकार मेरे लिये दही तथा पर्वतमुनिके लिये मद्रुकी व्यवस्था करती थी ॥ २६ ॥

शयनास्तरणं शुभ्रं मदर्थे पर्यकल्पयत् ।
प्रीत्या परमया यद्वत्पर्वताय न तादृशम् ॥ २७ ॥
वह मेरे लिये अत्यन्त प्रेमपूर्वक जैसा धवल आस्तरण (बिछौना) बिछाती थी, वैसा पर्वतके लिये नहीं ॥ २७ ॥

विलोकयति मां प्रेम्णा सुन्दरी न च पर्वतम् ।
ततोऽस्यास्तादृशं दृष्ट्वा पर्वतः प्रेमकारणम् ॥ २८ ॥
मनसा चिन्तयामास किमेतदिति विस्मितः ।
पप्रच्छ मां रहः सम्यग्ब्रूहि नारद सर्वथा ॥ २९ ॥
राजपुत्री त्वयि प्रेम करोति मुदिता भृशम् ।
ददाति भक्ष्यभोज्यानि स्नेहयुक्ता समन्ततः ॥ ३० ॥
न तथा मयि भेदोऽत्र सन्देहं जनयत्यसौ ।
मन्यते त्वां पतिं कर्तुं सर्वथा सञ्जयात्मजा ॥ ३१ ॥
वह सुन्दरी मुझे अत्यन्त प्रेमपूर्ण भावसे देखती थी, किंतु पर्वतमुनिको नहीं । तब मुनि पर्वत उस प्रकारका प्रेम-भेद देखकर मन-ही-मन विस्मित होकर सोचने लगे कि ऐसा क्यों हो रहा है ? एकान्तमें उन्होंने मुझसे पूछा-हे नारद ! मुझे भलीभाँति बताइये, यह राजकुमारी अत्यन्त प्रसन्न होकर आपसे अत्यधिक प्रेम करती है और स्नेहयुक्त होकर आपको नानाविध भोज्य पदार्थ देती है, किंतु वैसा मेरे साथ नहीं करती है । यह भेद-भाव मेरे मनमें सन्देह उत्पन्न कर रहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि राजा संजयकी पुत्री आपको निश्चय ही पति बनाना चाहती है । २८-३१ ॥

तवापि तादृशं भावं जानामि लक्षणैरहम् ।
नेत्रवक्त्रविकारैश्च ज्ञायते प्रीतिकारणम् ॥ ३२ ॥
आपकी चेष्टाओंसे आपका भी वैसा ही भाव मुझे परिलक्षित हो रहा है; क्योंकि नेत्र तथा मुखके विकारोंसे प्रेमके कारणका पता चल जाता है ॥ ३२ ॥

सत्यं वद न ते मिथ्या वक्तव्यं वचनं मुने ।
स्वर्गतः समयं कृत्वा चलितौ संस्मराधुना ॥ ३३ ॥
हे मुने ! सच-सच कहिये । मिथ्या वचन मत बोलिये । स्वर्गसे प्रस्थान करते समय हम दोनोंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे इस समय याद कीजिये ॥ ३३ ॥

नारद उवाच
पृष्टोऽहं पर्वतेनेदं कारणं तु हठाद्यदा ।
तदाहं ह्रीसमाक्रान्तः सञ्जातश्चाब्रुवं पुनः ॥ ३४ ॥
पर्वतैषा विशालाक्षी पतिं मां कर्तुमुद्यता ।
ममापि मानसो भावो वर्ततेऽस्यां विशेषतः ॥ ३५ ॥
नारदजी बोले-जब पर्वतमुनिने हठपूर्वक इसका कारण मुझसे पूछा तब मैं अत्यन्त लज्जित हो गया और पुनः बोला-हे पर्वत ! विशाल नयनोंवाली यह राजकुमारी मुझे पति बनानेके लिये उद्यत है और उसके प्रति मेरे भी मनमें विशेष अनुराग भाव उत्पन्न हो गया है । ३४-३५ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं सत्यं पर्वतः कोपसंयुतः ।
मामुवाच मुनिर्वाक्यं धिग्धिगिति पुनः पुनः ॥ ३६ ॥
प्रथमं शपथान्कृत्वा वञ्चितोऽहं त्वया यतः ।
भव वानरवक्त्रस्त्वं शापाच्च मम मित्रधुक् ॥ ३७ ॥
मेरा यह सत्य वचन सुनकर पर्वतमुनि कुपित हो उठे और उन्होंने मुझसे कहा, 'तुम्हें बार-बार धिक्कार है । क्योंकि प्रतिज्ञा करके पहले तुमने मुझे धोखा दिया है, अतएव हे मित्रद्रोही ! मेरे शापसे तुम अभी बन्दरके मुखवाले हो जाओ' ॥ ३६-३७ ॥

इति शप्तस्तु तेनाहं कुपितेन महात्मना ।
सहसा ह्यभवं क्रूरः शाखामृगमुखस्तदा ॥ ३८ ॥
उस कुपित महात्मा पर्वतके ऐसा शाप देते ही मैं तत्काल भयंकर बन्दरको मुखाकृतिवाला हो गया ॥ ३८ ॥

मयापि न कृता तस्मिन्क्षमा तु भगिनीसुते ।
सोऽपि शप्तोऽतिकोपाद्वै मा स्वर्गे ते गतिः किल ॥ ३९ ॥
तब मैंने भी अपने उस भगिनीपुत्र (भांजे) पर्वतको क्षमा नहीं किया । मैंने भी क्रोध करके उसे शाप दे दिया कि तुम भी अबसे स्वर्गके अधिकारी नहीं रहोगे ॥ ३९ ॥

स्वल्पेऽपराधे यस्मान्मां शप्तवानसि पर्वत ।
तस्मात्तवापि मन्दात्मन् मृत्युलोके स्थितिः किल ॥ ४० ॥
हे मन्दात्मन् पर्वत ! क्योंकि मेरे छोटे-से अपराधके लिये तुमने मुझे ऐसा शाप दिया है, अतएव तुम्हारा भी अब मृत्युलोकमें निवास होगा ॥ ४० ॥

पर्वतस्तु गतस्तस्मान्नगराद्विमना भृशम् ।
अहं वानरवक्त्रस्तु सञ्जातस्तत्क्षणादपि ॥ ४१ ॥
- इसके बाद पर्वतमुनि अत्यन्त उदास मनसे उस नगरसे निकल पड़े और मैं भी उसी समयसे बन्दरके मुखवाला हो गया ॥ ४१ ॥

दृष्ट्वा मां वानरं क्रूरं राजपुत्री विलक्षणा ।
विमनातीव सञ्जाता वीणाश्रवणलालसा ॥ ४२ ॥
वीणा सुननेकी उत्कट अभिलाषा रखनेवाली वह परम विलक्षण राजकुमारी मुझे भयंकर बन्दरके रूपमें देखकर अत्यन्त उदास मनवाली हो गयी ॥ ४२ ॥

व्यास उवाच
ततः किमभवद्‌ब्रह्मन् कथं शापान्निवर्तितः ।
मानुषास्यः पुनर्जातो भवान्ब्रूहि यथाविधि ॥ ४३ ॥
व्यासजी बोले-हे ब्रह्मन् ! तत्पश्चात् क्या हुआ, आपको शापसे छुटकारा कैसे मिला तथा आप पुनः मानवकी मुखाकृतिवाले किस प्रकार हुए ? ये सभी बातें भलीभाँति बताइये ॥ ४३ ॥

पर्वतः क्व गतो भूयः सङ्गमो युवयोरभूत् ।
कदा कुत्र कथं सर्वं विस्तरेण वदस्व ह ॥ ४४ ॥

पर्वतमुनि कहाँ चले गये ? आप दोनोंका पुनर्मिलन कब, कहाँ और कैसे हुआ ? यह सब विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ४४ ॥

नारद उवाच
किं ब्रवीमि महाभाग मायायाश्चरितं महत् ।
दुःखितोऽहं भृशं तत्र पर्वते रुषिते गते ॥ ४५ ॥
नारदजी बोले-हे महाभाग ! क्या कहूँ ? मायाकी गति बड़ी विचित्र होती है । पर्वतमुनिके कुपित होकर चले जानेके पश्चात् मैं अत्यन्त दुःखित हो गया । ॥ ४५ ॥

पुनः सेवापरात्यर्थं राजपुत्री ममाभवत् ।
गतेऽथ पर्वते कामं स्थितस्तत्रैव सद्मनि ॥ ४६ ॥
पर्वतमुनिके चले जानेपर मैं उसी भवनमें ठहरा रहा और वह राजकुमारी मेरी सेवामें पुनः तत्पर हो गयी ॥ ४६ ॥

अहं दुःखान्वितो दीनस्तथा वानरवन्मुखः ।
विशेषेण तु चिन्तार्तः किं मे स्यादिति चिन्तयन् ॥ ४७ ॥
वानरके समान मुख हो जानेके कारण मैं दुःखी तथा उदास रहने लगा । अब मेरा क्या होगा ? ऐसा सोच-सोचकर मैं विशेष चिन्तासे व्याकुल हो गया था ॥ ४७ ॥

सञ्जयोऽथ सुतां दृष्ट्वा किञ्चित्प्रकटयौवनाम् ।
विवाहार्थे राजसुतामपृच्छत्सचिवं तदा ॥ ४८ ॥
विवाहकालः सम्प्राप्तः सुताया मम साम्प्रतम् ।
योग्यं वरं मम ब्रूहि राजपुत्रं सुसम्मतम् ॥ ४९ ॥
रूपौदार्यगुणैर्युक्तं शूरं सुकुलसम्भवम् ।
विवाहं विधिवत्पुत्र्याः करोमि किल साम्प्रतम् ॥ ५० ॥
अपनी पुत्री राजकुमारी दमयन्तीको कुछकुछ प्रकट यौवनवाली देखकर उसके विवाहके सम्बन्धमें राजा संजयने मन्त्रीसे पूछा-अब मेरी पुत्रीका विवाह-योग्य समय हो गया है । अतएव योग्य वरके रूपमें कोई ऐसा राजकुमार आप मुझे बतलाइये, जो रूप-उदारता-गुण आदिसे सम्पन्न, पराक्रमी, उत्तम कुलमें उत्पन्न तथा सभीके लिये श्रेष्ठ हो । उसके साथ मैं अपनी पुत्रीका विधिवत् विवाह अभी कर दूंगा ॥ ४८-५० ॥

प्रधानस्त्वब्रवीद्‌राजन् राजपुत्रा ह्यनेकशः ।
वर्तन्ते भुवि पुत्र्यास्ते योग्याः सर्वगुणान्विताः ॥ ५१ ॥
इसपर प्रधान सचिवने कहा-हे राजन् ! आपकी कन्याके अनुरूप बहुतसे योग्य तथा सर्वगुणसम्पन्न राजकुमार इस पृथ्वीपर विद्यमान हैं ॥ ५१ ॥

यस्मिन् रुचिस्ते राजेन्द्र तमाहूय नृपात्मजम् ।
देहि कन्यां धनं भूरि हस्त्यश्वरथसंयुतम् ॥ ५२ ॥
हे राजेन्द्र ! जिसमें आपकी रुचि हो, उस राजपुत्रको बुलाकर बहुत-से हाथी, घोड़े, रथ और धनसहित अपनी कन्या उसे प्रदान कर दीजिये ॥ ५२ ॥

नारद उवाच
पितुश्चिकीर्षितं ज्ञात्वा दमयन्ती तदा नृपम् ।
धात्र्या मुखेन वाक्यज्ञा तमुवाच रहः स्थितम् ॥ ५३ ॥
नारदजी बोले-बातचीतमें परम कुशल दमयन्तीने पिताका अभिप्राय समझकर अपनी धायके मुखसे एकान्तमें स्थित राजासे कहलाया ॥ ५३ ॥

धात्र्युवाच
दमयन्ती महाराज पुत्री ते मामथाब्रवीत् ।
पितरं ब्रूहि धात्रेयि वचनान्मे सुखान्वितम् ॥ ५४ ॥
मया वृतोऽथ मेधावी नारदो महतीयुतः ।
नादमोहितया कामं नान्यः कोऽपि प्रियो मम ॥ ५५ ॥
धात्रीने कहा-हे महाराज ! आपकी पुत्री दमयन्तीने मुझसे ऐसा कहा है-हे धात्रेयि ! तुम मेरे वचनसे मेरे पिताजीसे यह सुखकर बात कह दो-नादसे मोहित मैं महती वीणा धारण करनेवाले प्रतिभासम्पन्न नारदका वरण कर चुकी हूँ; अन्य कोई भी मुझे प्रिय नहीं है ॥ ५४-५५ ॥

कुरु मे वाञ्छितं तात विवाहं मुनिना सह ।
नान्यं वरिष्ये धर्मज्ञ नारदं तु पतिं विना ॥ ५६ ॥
हे तात ! आप मेरी इच्छाके अनुरूप मुनिके साथ मेरा विवाह कर दीजिये । हे धर्मज्ञ ! मैं नारदको छोड़कर किसी दूसरेको अपना पति नहीं बनाऊँगी ॥ ५६ ॥

मग्नाहं नादसिन्धौ वै नक्रहीने रसात्मके ।
अक्षारे सुखसम्पूर्णे तिमिङ्‌गिलविवर्जिते ॥ ५७ ॥
अब मैं घड़ियाल तथा भयंकर मत्स्य आदि जन्तुओंसे शून्य, खारेपनसे रहित, सुखसे परिपूर्ण एवं रसमय नादसिन्धुमें निमग्न हो गयी हूँ ॥ ५७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे
दमयन्तीविवाहप्रस्ताववर्णनं नाम षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
अध्याय छ्ब्बीसवाँ समाप्त ॥ २६ ॥


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