हे सुन्दर केशोंवाली ! तुम मुनिपर आसक्त अपनी उस भोली पुत्रीको एकान्तमें शास्त्रों तथा वृद्ध पुरुषोंके मर्यादित वचन बतलाकर युक्तिपूर्वक इस हठसे मुक्त करो ॥ ५ ॥
इति भर्तृवचः श्रुत्वा जननी तामथाब्रवीत् । च ते रूपं मुनिः क्वासौ वानरास्योऽधनः पुनः ॥ ६ ॥
पतिकी बात सुनकर माताने उस कन्यासे कहाकहाँ तुम्हारा ऐसा रूप और कहाँ वह धनहीन वानरमुख मुनि ! ॥ ६ ॥
कथं मोहमवाप्तासि भिक्षुके चतुरा पुनः । लताकोमलदेहा त्वं भस्मरूक्षतनुस्त्वयम् ॥ ७ ॥
तुम लताके समान कोमल देहवाली हो और यह मुनि भस्म लगानेके कारण कठोर देहवाला है; तुम बुद्धिमान् होकर भी उस भिक्षुकपर मोहित क्यों हो गयी हो ? ॥ ७ ॥
वार्ता वानरवक्त्रेण कथं युक्ता तवानघे । का प्रीतिः कुत्सिते पुंसि भविष्यति शुचिस्मिते ॥ ८ ॥
हे अनघे ! वानरके समान मुखवाले इस मुनिके साथ तुम्हारा वार्तालाप कैसे उचित होगा ? हे पवित्र मुसकानवाली ! इस निन्दित पुरुषपर तुम्हारी कौन-सी प्रीति हो सकेगी ? ॥ ८ ॥
वरस्ते राजपुत्रोऽस्तु मा कुरु त्वं वृथा हठम् । पिता ते दुःखमाप्नोति श्रुत्वा धात्रीमुखाद्वचः ॥ ९ ॥
तुम्हारा वर तो कोई राजकुमार होना चाहिये, तुम व्यर्थ हठ मत करो । धात्रीके मुखसे ऐसी बात सुनकर तुम्हारे पिताजीको बहुत दुःख हुआ है ॥ ९ ॥
लग्नां बुबूलवृक्षेण कोमलां मालतीलताम् । दृष्ट्वा कस्य मनः खेदं चतुरस्य न गच्छति ॥ १० ॥ दासेरकाय ताम्बूलीदलानि कोमलानि कः । ददाति भक्षणार्थाय मूर्खोऽपि धरणीतले ॥ ११ ॥
बबूलके वृक्षसे लिपटी हुई कोमल मालती लताको देखकर किस बुद्धिमान् व्यक्तिका मन दःखित नहीं होगा ? इस पृथ्वीतलपर ऐसा कौन मूर्ख होगा जो खानेके लिये ऊँटको कोमल पानके पत्ते देगा ? ॥ १०-११ ॥
वीक्ष्य त्वां करसंलग्नां नारदस्य समीपतः । विवाहे वर्तमाने तु कस्य चेतो न दह्यति ॥ १२ ॥
विवाह होते समय नारदके पास बैठकर तुम्हें उसका हाथ पकड़े हुए देखकर किसका हृदय नहीं जल उठेगा ? ॥ १२ ॥
कुमुखेन समं वार्ता न रुचिं जनयत्यतः । आमृतेस्तु कथं कालः क्षपितव्यस्त्वयामुना ॥ १३ ॥
इस कुत्सित मुखवालेके साथ बात करनेमें कोई रुचि भी तो नहीं उत्पन्न होगी; फिर इसके साथ तुम मृत्युपर्यन्त अपना समय कैसे व्यतीत करोगी ? ॥ १३ ॥
नारद उवाच इति मातुर्वचः श्रुत्वा दमयन्ती भृशातुरा । मातरं प्राह तन्वङ्गी मयि सा कृतनिश्चया ॥ १४ ॥ किं मुखेन च रूपेण मूर्खस्य च धनेन किम् । किं राज्येनाविदग्धस्य रसमार्गाविदोऽस्य च ॥ १५ ॥
नारदजी बोले-माताकी यह बात सुनकर मेरे प्रति दृढ़ निश्चयवाली उस कोमलांगी दमयन्तीने अत्यन्त व्याकुलतापूर्वक अपनी मातासे कहारसमार्गसे अनभिज्ञ तथा कलाज्ञानसे रहित मूर्ख राजकुमारके सुन्दर मुख, रूप, धन तथा राज्यसे मेरा क्या प्रयोजन ? ॥ १४-१५ ॥
हरिण्योऽपि वने धन्या या नादेन विमोहिताः । मातः प्राणान्प्रयच्छन्ति धिङ्मूर्खान्मानुषान्भुवि ॥ १६ ॥
हे माता ! वनमें रहनेवाली वे हरिणियाँ धन्य हैं जो नादसे मोहित होकर अपने प्राण भी दे देती हैं, किंतु इस भूलोकमें रहनेवाले उन मूर्ख मनुष्योंको धिक्कार है, जो मधुर स्वरसे प्रेम नहीं करते हैं ! ॥ १६ ॥
हे माता ! नारदजी जिस सप्तस्वरमयी विद्याको जानते हैं, उसे भगवान् शंकरको छोड़कर तीसरा अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं जानता है ॥ १७ ॥
मूर्खेण सह संवासो मरणं तत्क्षणे क्षणे । रूपवान्धनवांस्त्याज्यो गुणहीनो नरः सदा ॥ १८ ॥ धिङ्मैत्रीं मूर्खभूपाले वृथा गर्वसमन्विते । गुणज्ञे भिक्षुके श्रेष्ठा वचनात्सुखदायिनी ॥ १९ ॥ स्वरज्ञो ग्रामवित्कामं मूर्च्छनाज्ञानभेदभाक् । दुर्लभः पुरुषश्चाष्टरसज्ञो दुर्बलोऽपि वै ॥ २० ॥ यथा नयति कैलासं गङ्गा चैव सरस्वती । तथा नयति कैलासं स्वरज्ञानविशारदः । २१ ॥ स्वरमानं तु यो वेद स देवो मानुषोऽपि सन् । सप्तभेदं न यो वेद स पशुः सुरराडपि ॥ २२ ॥ मूर्च्छनातानमार्गं तु श्रुत्वा मोदं न याति यः । स पशुः सर्वथा ज्ञेयो हरिणाः पशवो न हि ॥ २३ ॥
मूर्खके साथ रहना प्रतिक्षण मृत्युके समान होता है । अतएव सुन्दर रूपसे सम्पन्न तथा सम्पत्तिशाली होते हुए भी गुणरहित पुरुषको सर्वदाके लिये त्याग देना चाहिये । व्यर्थ गर्व करनेवाले मूर्ख राजाकी मित्रताको धिक्कार है; वचनोंसे सुख प्रदान करनेवाली गुणवान् भिक्षुकको मित्रता श्रेष्ठ है । स्वरका ज्ञाता, ग्रामोंकी पूरी जानकारी रखनेवाला, मूर्च्छनाके भेदोंको सम्यक् प्रकारसे समझनेवाला तथा आठों रसोंको जाननेवाला दुर्बल पुरुष भी इस संसारमें दुर्लभ है । जिस प्रकार गंगा तथा सरस्वती नदियाँ कैलास ले जाती हैं, उसी प्रकार स्वरज्ञानमें अत्यन्त प्रवीण पुरुष शिवलोक पहुँचा देता है । जो व्यक्ति स्वरके प्रमाणको जानता है, वह मनुष्य होता हुआ भी देवता है, किंतु जो स्वरोंके सप्तभेदका ज्ञान नहीं रखता, वह पशुके समान होता है, चाहे इन्द्र ही क्यों न हो । मूर्च्छना तथा तानमार्गको सुनकर जो आह्लादित नहीं होता, उसे साक्षात् पशु समझना चाहिये, बल्कि [स्वरप्रेमी] हरिणोंको पशु नहीं समझना चाहिये ॥ १८-२३ ॥
विषधर सर्प श्रेष्ठ है । क्योंकि वह कान न होनेपर भी मनोहर नाद सुनकर प्रफुल्लित हो जाता है, किंतु उन मनुष्योंको धिक्कार है, जो कर्णयुक्त रहनेपर भी नाद सुनकर आनन्दित नहीं होते ॥ २४ ॥
बालोऽपि सुस्वरं गेयं श्रुत्वा मुदितमानसः । जायते किन्तु ते वृद्धा न जानन्ति धिगस्तु तान् ॥ २५ ॥
मधुर स्वरसे गाये गये गीतको सुनकर बालक भी प्रसन्नचित्त हो जाता है, किंतु जो वृद्ध गानके रहस्यको नहीं जानते, उन्हें धिक्कार है ॥ २५ ॥
पिता मे किं न जानाति नारदस्य गुणान् बत । द्वितीयः सामगो नास्ति त्रिषु लोकेषु तत्समः ॥ २६ ॥ तस्मादसौ मया नूनं वृतः पूर्वं समागमात् । पश्चाच्छापवशाज्जातो वानरास्यो गुणाकरः ॥ २७ ॥
क्या मेरे पिताजी नारदके बहुतसे गुणोंको नहीं जानते ? तीनों लोकोंमें उनके समान साम-गान करनेवाला दूसरा कोई भी नहीं है । अतः नारदसे प्रेम हो जानेके कारण मैंने पहलेसे ही इनका वरण कर लिया है । गुणोंके निधान ये नारद शापवश बादमें वानरके समान मुखवाले हो गये ॥ २६-२७ ॥
किन्नरा न प्रियाः कस्य भवन्ति तुरगाननाः । गानविद्यासमायुक्ताः किं मुखेन वरेण ह ॥ २८ ॥
अश्वके समान मुखवाले किन्नर गानविद्यासे सम्पन्न होनेके कारण किसको प्रिय नहीं होते, किसीके सुन्दर मुखसे क्या प्रयोजन ? ॥ २८ ॥
पितरं ब्रूहि मे मातर्वृतोऽयं मुनिसत्तमः । तस्मात्त्वमाग्रहं त्यक्त्वा देहि तस्मै च मां मुदा ॥ २९ ॥
हे माता ! आप मेरे पिताजीसे कह दें कि मैं मुनिश्रेष्ठ नारदका वरण कर चुकी हूँ; अतएव हठ छोड़कर आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे उन्हीं नारदको सौंप दें ॥ २९ ॥
नारद उवाच इति पुत्र्या वचः श्रुत्वा राज्ञी राज्ञे न्यवेदयत् । आग्रहं सुन्दरी ज्ञात्वा सुताया नारदे मुनौ ॥ ३० ॥ विवाहं कुरु राजेन्द्र दमयन्त्याः शुभे दिने । मुनिना स च सर्वज्ञो वृतोऽसौ मनसानया ॥ ३१ ॥
नारदजी बोले-पुत्रीकी बात सुनकर तथा नारद-मुनिमें उसका अनुराग जानकर परम सुन्दरी रानीने राजासे कहा-हे राजेन्द्र ! अब आप किसी शुभ दिनमें नारद-मुनिके साथ दमयन्तीका विवाह कर दीजिये; क्योंकि वह मन-ही-मन उन्हीं सर्वज्ञ मुनिका वरण कर चुकी है ॥ ३०-३१ ॥
नारदजी बोले-उनकी बात सुनकर मैंने भी अपने मनको विनययुक्त करके उसी क्षण [अपने द्वारा उन्हें प्रदत्त] शापका मार्जन कर दिया । [मैंने कहा-] हे भागिनेय पर्वत ! मैं तुम्हें मुक्त कर दे रहा हूँ । अब देवलोकमें तुम्हारा भी गमन हो; यह मैंने शापका विमोचन कर दिया ॥ ४१-४२ ॥
नारदजी बोले-पर्वतमुनिके वचनानुसार उनके देखते-देखते मैं सुन्दर मुखवाला हो गया । इससे राजकुमारी बहुत प्रसन्न हो गयी और शीघ्र ही मातासे बोली-हे माता ! तुम्हारे परम तेजस्वी जामाता नारद अब सुन्दर मुखवाले हो गये हैं । मुनि पर्वतके वचनसे अब वे शापसे मुक्त हो चुके हैं । ४३-४४ ॥
मायाके प्रभावसे विमोहित होकर मैं राजाकी पत्नी बन गया और उस राजाके भवन में रहकर मैंने अनेक पुत्र उत्पन्न किये ॥ ५२ ॥
व्यास उवाच संशयोऽयं महान्साधो श्रुत्वा ते वचनं किल । कथं नारीत्वमापन्नस्त्वं मुने ज्ञानवान्भृशम् ॥ ५३ ॥ कथं च पुरुषो जातो ब्रूहि सर्वमशेषतः । कथं पुत्रास्त्वया जाताः कस्य राज्ञो गृहेऽञ्जसा ॥ ५४ ॥
व्यासजी बोले-हे साधो ! हे मुने ! आपकी बात सुनकर मुझे यह महान् सन्देह हो रहा है कि आप महान् ज्ञानी होते हुए भी नारी-रूपमें कैसे परिणत हो गये ? आप पुनः पुरुष किस प्रकार हुए ? यह सब पूर्णरूपसे बताइये । आपने पुत्र कैसे उत्पन्न किये तथा किस राजाके घरमें आप भलीभाँति रहे ? ॥ ५३-५४ ॥