किसी समय मैं स्वर तथा तानसे विभूषित महती वीणा बजाता हुआ एवं सप्त स्वरोंसे युक्त गायत्रसामका गान करता हुआ अद्भुत कर्मवाले भगवान् विष्णुके दर्शनकी अभिलाषासे सत्यलोकसे मनोहर श्वेतद्वीपमें गया था ॥ ३-४ ॥
वहाँ मैंने देवाधिदेव विष्णुभगवान्को देखा । वे हाथमें चक्र तथा गदा धारण किये हुए थे, उनके वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी, वे मेघ-सदृश श्याम वर्णवाले थे, उनकी चार भुजाएँ थीं । वे पीत वस्त्र धारण किये हुए थे, मुकुट तथा बाजूबन्दसे सुशोभित थे तथा वे विलासमयी लक्ष्मीके साथ प्रमुदित होकर क्रीडा कर रहे थे ॥ ५-६ ॥
वीक्ष्य मां कमला देवी गतान्तर्धानमन्तिकात् । सर्वलक्षणसम्पन्ना सर्वभूषणभूषिता ॥ ७ ॥ नारीणां प्रवरा कान्ता रूपयौवनगर्विता । सुप्रिया वासुदेवस्य वरचामीकरप्रभा ॥ ८ ॥
सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, समस्त आभूषणोंसे अलंकृत, कान्तियुक्त, अपने रूप-यौवनपर गर्व करनेवाली, नारियों में सर्वश्रेष्ठ, भगवान् विष्णुको अतिप्रिय तथा स्वर्णके समान आभावाली भगवती लक्ष्मी मुझे देखकर उनके पाससे अन्त:पुरमें चली गयीं ॥ ७-८ ॥
अन्तर्गृहं गता दृष्ट्वा सिन्धुजां व्यञ्जनान्विताम् । मया पृष्टो देवदेवो वनमाली जगत्प्रभुः ॥ ९ ॥ भगवन्देवदेवेश पद्मनाभ सुरारिहन् । कथं च मा गता दृष्ट्वा मामागच्छन्तमन्तिकात् ॥ १० ॥ नाहं विटो न वा धूर्तः तापसोऽहं जगद्गुरो । जितेन्द्रियो जितक्रोधो जितमायो जनार्दन ॥ ११ ॥
व्यंजित अंगोंवाली लक्ष्मीजीको भवनमें गयी देखकर मैंने वनमाला धारण करनेवाले देवाधिदेव जगन्नाथ विष्णुसे पूछा-हे भगवन् ! हे देवाधिदेव ! हे पद्मनाभ ! हे असुरविनाशन ! मुझे आते हुए देखकर माता लक्ष्मीजी आपके पाससे क्यों चली गयीं ? हे जगद्गुरो ! मैं न तो कोई नीच हूँ और न धूर्त ! हे जनार्दन ! मैं इन्द्रियों, क्रोध तथा मायाको जीत लेनेवाला एक तपस्वी हूँ ॥ ९-११ ॥
भगवान् विष्णु बोले-हे नारद ! ऐसी नीति है कि पतिके अतिरिक्त अन्य किसी भी पुरुषके सानिध्य में स्त्रीको कभी नहीं रहना चाहिये ॥ १३ ॥
माया सुदुर्जया विद्वन् योगिभिर्जितमारुतैः । सांख्यविद्भिर्निराहारैस्तापसैश्च जितेन्द्रियैः ॥ १४ ॥ देवैश्च मुनिशार्दूल यत्त्वयोक्तं वचोऽधुना । जितमायोऽस्मि गीतज्ञ नैवं वाच्यं कदाचन ॥ १५ ॥
हे विद्वन् ! वायु (श्वास)-को जीत लेनेवाले योगियों, सांख्यशास्त्रके ज्ञाताओं, निराहार रहनेवाले तपस्वियों तथा जितेन्द्रिय पुरुषों एवं देवताओंके लिये भी माया अत्यन्त दुर्जय है । हे मुनिवर ! अभी आपने जो कहा है कि 'मैंने मायापर विजय प्राप्त कर ली है' तो हे गीतज्ञ ! आपको ऐसा कभी नहीं बोलना चाहिये ॥ १४-१५ ॥
नाहं शिवो न वा ब्रह्मा जेतुं तां प्रभवोऽप्यजाम् । मुनयः सनकाद्याश्च कस्त्वं केऽन्ये क्षमा जये ॥ १६ ॥
जब मैं, शिव, ब्रह्मा तथा सनक आदि मुनि भी उस अजन्मा मायापर विजय नहीं प्राप्त कर सके तब आप तथा अन्य कौन हैं, जो उसे जीतने में समर्थ हो सकते हैं ? ॥ १६ ॥
देवदेहं नृदेहं वा तिर्यग्देहमथापि वा । बिभृयाद्यः शरीरं च स कथं तां जयेदजाम् ॥ १७ ॥
देवता, मानव तथा पशु-पक्षी अथवा जो कोई शरीर धारण करनेवाला प्राणी हो, वह उस अजन्मा मायाको कैसे जीत सकता है ? ॥ १७ ॥
त्रियुतस्तां कथं मायां जेतुं शक्तः पुमाम्भवेत् । वेदविद्योगविद्वापि सर्वज्ञो विजितेन्द्रियः ॥ १८ ॥
वेदका ज्ञाता, योगी, सर्वज्ञ, जितेन्द्रिय एवं सत्त्व-रज-तमसे युक्त कोई भी पुरुष मायाको जीतने में कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥ १८ ॥
कालोऽपि तस्या रूपं हि रूपहीनः स्वरूपकृत् । तद्वशे वर्तते देही विद्वान्मूर्खोऽथ मध्यमः ॥ १९ ॥
काल भी उसी मायाका ही रूप है । वह रूपहीन होते हुए भी स्वरूप धारण कर लेता है । विद्वान्, मूर्ख अथवा मध्यम श्रेणीका कोई भी व्यक्ति हो, वह उसके वशमें रहता है ॥ १९ ॥
कालः करोति धर्मज्ञं कदाचिद्विकलं पुनः । स्वभावात्कर्मतो वापि दुर्ज्ञेयं तस्य चेष्टितम् ॥ २० ॥
कभी-कभी काल धर्मज्ञ पुरुषको भी उद्विग्न कर देता है । स्वभाव अथवा कर्मसे उस कालकी चेष्टा नहीं जानी जा सकती ॥ २० ॥
नारद उवाच इत्युक्त्वा विरतो विष्णुरहं विस्मयमानसः । तमब्रवं जगन्नाथं वासुदेवं सनातनम् ॥ २१ ॥ रमापते कथंरूपा माया सा कीदृशी पुनः । कियद्बला क्व संस्थाना कस्याधारा वदस्व मे ॥ २२ ॥ द्रष्टुकामोऽस्मि तां मायां दर्शयाशु महीधर । ज्ञातुमिच्छामि तां सम्यक्प्रसादं कुरु मापते ॥ २३ ॥
नारदजी बोले-ऐसा कहकर विष्णुके चुप हो जानेपर मेरा मन सन्देहसे भर गया और मैंने उन जगन्नाथ सनातन वासुदेवसे पूछा-हे रमाकान्त ! आप मुझे यह बतायें कि उस मायाका रूप क्या है, उसकी आकृति कैसी है, उसमें कितनी शक्ति है, वह कहाँ रहती है तथा उसका आधार क्या है ? हे महीधर मैं उस मायाको देखना चाहता हूँ, अत: मुझे उसका शीघ्र दर्शन कराइये । हे लक्ष्मीकान्त ! मैं उसके विषयमें सम्यक् जानना चाहता हूँ; मुझपर कृपा कीजिये ॥ २१-२३ ॥
विष्णुरुवाच त्रिगुणा साखिलाधारा सर्वज्ञा सर्वसम्मता । अजेयानेकरूपा च सर्वं व्याप्य स्थिता जगत् ॥ २४ ॥
भगवान् विष्णु बोले-अखिल जगत्को धारण करनेवाली वह माया त्रिगुणात्मिका, सर्वज्ञा, सर्वसम्मता, अजेया, अनेकरूपा तथा सम्पूर्ण संसारको अपनेमें व्याप्त करके स्थित है ॥ २४ ॥
दिदृक्षा यदि ते चित्ते नारदारोहणं कुरु । गरुडे मत्समेतोऽद्य गच्छावोऽन्यत्र साम्प्रतम् ॥ २५ ॥
हे नारद ! यदि तुम्हारे मनमें उस मायाको देखनेकी इच्छा है तो मेरे साथ अभी गरुडपर आरूढ़ हो जाओ; हम दोनों अन्य लोकमें इसी समय चलते हैं ॥ २५ ॥
दर्शयिष्यामि ते मायां दुर्जयामजितात्मभिः । दृष्ट्वा तां ब्रह्मपुत्र त्वं विषादे मा मनः कृथाः ॥ २६ ॥
हे ब्रह्मपुत्र ! वहाँ मैं तुम्हें अजितात्माओंके लिये अजेय मायाका दर्शन कराऊँगा, किंतु उसे देखकर तुम अपने मनको विषादग्रस्त मत होने देना ॥ २६ ॥
जिस वन-प्रदेशमें भगवान विष्णु जाना चाहते थे, वहाँके लिये प्रेरित किये गये वायुसदृश वेगवान् विनतापुत्र गरुडने वैकुण्ठसे प्रस्थान किया ॥ २९ ॥
महावनानि दिव्यानि सरांसि सरितस्तथा । पुरग्रामाकरादींश्च खेटखर्वटगोव्रजान् ॥ ३० ॥ मुनीनामाश्रमान् रम्यान् वापीश्च सुमनोहराः । पल्वलानि विशालानि ह्रदान् पङ्कजभूषितान् ॥ ३१ ॥ मृगाणां च वराहाणां वृन्दान्यप्यवलोक्य च । गतावावां कान्यकुब्जसमीपं गरुडासनौ ॥ ३२ ॥
गरुडपर आसीन हम दोनों बहुत-से विशाल वनों, दिव्य सरोवरों, नदियों, ग्राम-नगरों, पर्वतके आस-पासकी बस्तियों, गायोंके गोष्ठों, मुनियोंके मनोहर आश्रमों, सुन्दर बावलियों, छोटे-बड़े तालाबों, कमलोंसे सुशोभित विस्तृत तथा गहरे हृदों एवं मृगों तथा वराहोंके बहुतसे समूहोंको देखते हुए कान्यकुब्जनगरके पास पहुँच गये ॥ ३०-३२ ॥
वहाँ कमलोंसे मण्डित, हंस तथा सारसोंसे युक्त, चक्रवाकोंसे सुशोभित, अनेक वर्णोंवाले खिले हुए कमलोंसे शोभायमान, झण्ड-के-झुण्ड भौरोंकी ध्वनिसे गुंजित एवं पवित्र तथा मधुर जलवाला एक दिव्य तथा रमणीय सरोवर दिखायी पड़ा ॥ ३३-३४ ॥
मामाह भगवान् वीक्ष्य तडागं परमाद्भुतम् । स्पर्धकं चोदधेः क्षीरं मिष्टं वारि विशेषतः ॥ ३५ ॥
क्षीरसागरके मधुर दुग्धकी समानता करनेवाले विशिष्ट जलसे युक्त उस परम अद्भुत सरोवरको देखकर भगवान् विष्णु मुझसे कहने लगे ॥ ३५ ॥
वृक्षोंकी घनी छायावाले मनोहर तटभागपर कुछ समय विश्राम करनेके बाद भगवान् विष्णुने मुझसे कहा-हे मुने ! आप इस स्वच्छ जलमें पहले स्नान कर लें, तत्पश्चात् मैं इस परम पवित्र सरोवरमें स्नान करूँगा । इस सरोवरका जल साधुजनोंके चित्तकी भाँति निर्मल तथा कमलोंके परागसे विशेषरूपसे सुगन्धित है । ३९-४०.५ ॥
हाथ-पैर धोकर और शिखा बाँधकर मैंने हाथमें कुश ले लिया । पुनः पवित्र जलसे आचमन करके मैं उस जलमें स्नान करने लगा । जब मैं उस मनोहर जलमें स्नान कर रहा था, उसी समय भगवान्के देखते-देखते मैं अपना पुरुषरूप छोड़कर एक सुन्दर नारीके रूपमें परिणत हो गया ॥ ४२-४३.५ ॥
उसी क्षण मेरी वीणा तथा पवित्र मृगचर्म लेकर भगवान् विष्णु गरुडपर आरूढ़ होकर शीघ्र ही अपने धाम चले गये । इधर मैं सुन्दर भूषणोंसे भूषित होकर स्त्रीके रूपमें हो गया ॥ ४४-४५ ॥
तत्क्षणान्मनसो जाता पूर्वदेहस्य विस्मृतिः । विस्मृतोऽसौ जगन्नाथो महती विस्मृता पुनः ॥ ४६ ॥
उसी समयसे मेरे मनमें पूर्वदेहकी विस्मति हो गयी । मैं भगवान् विष्णु तथा अपनी महती वीणाको भी भूल गया ॥ ४६ ॥
मोहिनीरूप प्राप्त करके मैं सरोवरसे बाहर निकला और स्वच्छ जलवाले तथा कमलोंसे परिपूर्ण उस सरोवरको देखने लगा ॥ ४७ ॥
किमेतदिति मनसाकरवं विस्मयं मुहुः । एवं चिन्तयमानस्य नारीरूपधरस्य मे ॥ ४८ ॥ सहसा दृक्पथं प्राप्तस्तत्र तालध्वजो नृपः । गजाश्वरथवृन्दैश्च संवृतो रथसंस्थितः ॥ ४९ ॥
मैं मनमें बार-बार विस्मय कर रहा था कि 'यह क्या है !' नारीरूपको प्राप्त मैं ऐसा सोच ही रहा था कि मुझे तालध्वज नामक राजा अचानक दिखायी पड़े । हाथीके समूहोंसे घिरे हुए वे रथपर बैठे हुए थे । युवावस्थावाले तथा आभूषणोंसे सुशोभित राजा तालध्वज शरीर धारण किये साक्षात् कामदेवके समान प्रतीत हो रहे थे ॥ ४८-४९ ॥
युवा भूषणसंवीतो देहवानिव मन्मथः । वीक्ष्य मां भूपतिस्तत्र दिव्यभूषणभूषिताम् ॥ ५० ॥ राकाचन्द्रमुखीं योषां विस्मयं परमं गतः । पप्रच्छ कासि कल्याणि कस्य पुत्री सुरस्य वा ॥ ५१ ॥ मानुषस्य च वा कान्ते गन्धर्वस्योरगस्य च । एकाकिनी कथं बाला रूपयौवनभूषिता ॥ ५२ ॥
पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान मुखवाली तथा दिव्य आभूषणोंसे मण्डित मुझ रमणीको देखकर राजाको महान् आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुझसे पूछा-हे कल्याणि ! तुम कौन हो ? हे कान्ते ! तुम किस देवता, यौवनसे सम्पन्न युवती होते हुए भी तुम यहाँ अकेली क्यों हो ? ॥ ५०-५२ ॥
विवाहिताथ कन्या वा सत्यं वद सुलोचने । किं पश्यसि सुकेशान्ते तडागेऽस्मिन्सुमध्यमे ॥ ५३ ॥
हे सुनयने ! तुम सच-सच बताओ कि तुम विवाहिता हो अथवा कुमारी ! हे सुकेशान्ते ! हे सुमध्यमे ! तुम इस सरोवरमें क्या देख रही हो ? ॥ ५३ ॥
हे पिकभाषिणि ! मन्मथमोहिनि ! तुम अपनी अभिलाषा व्यक्त करो । हे मरालाक्षि ! हे कृशोदर ! मुझ उत्तम राजाको अपना पति बनाकर मेरे साथ तुम निःसन्देह मनोवांछित सुखोंका उपभोग करो ॥ ५४ ॥