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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
अष्टाविंशोऽध्यायः

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नारदेन स्वस्त्रीत्वप्राप्तिवर्णनम् -
भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय-निवेदन करना -


नारद उवाच
निशामय मुनिश्रेष्ठ गदतो मम सत्कथाम् ।
मायाबलं सुदुर्ज्ञेयं मुनिभिर्योगवित्तमैः ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे मुनिवर ! अब आप मेरे द्वारा कही जा रही सत्कथाका श्रवण कीजिये । श्रेष्ठ योगवेत्ता मुनियोंके लिये भी मायाका बल अत्यन्त दुर्जेय है ॥ १ ॥

मायया मोहितं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तमजया दुर्विभाव्यया ॥ २ ॥
उस अजेय तथा दुश्चिन्त्य मायाने ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत्को मोहित कर रखा है ॥ २ ॥

कदाचित्सत्यलोकाद्वै श्वेतद्वीपे मनोहरे ।
गतोऽहं दर्शनाकाङ्क्षी हरेरद्‌भुतकर्मणः ॥ ३ ॥
वादयन्महतीं वीणां स्वरतानविभूषिताम् ।
गायत्रं गायमानस्तु साम सप्तस्वरान्वितम् ॥ ४ ॥
किसी समय मैं स्वर तथा तानसे विभूषित महती वीणा बजाता हुआ एवं सप्त स्वरोंसे युक्त गायत्रसामका गान करता हुआ अद्भुत कर्मवाले भगवान् विष्णुके दर्शनकी अभिलाषासे सत्यलोकसे मनोहर श्वेतद्वीपमें गया था ॥ ३-४ ॥

दृष्टो मया देवदेवश्चक्रपाणिर्गदाधरः ।
कौस्तुभोद्‌भासितोरस्को मेघश्यामश्चतुर्भुजः ॥ ५ ॥
पीताम्बरपरीधानो मुकुटाङ्गदराजितः ।
लक्ष्म्या सह विलासिन्या क्रीडमानो मुदा युतः ॥ ६ ॥
वहाँ मैंने देवाधिदेव विष्णुभगवान्को देखा । वे हाथमें चक्र तथा गदा धारण किये हुए थे, उनके वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी, वे मेघ-सदृश श्याम वर्णवाले थे, उनकी चार भुजाएँ थीं । वे पीत वस्त्र धारण किये हुए थे, मुकुट तथा बाजूबन्दसे सुशोभित थे तथा वे विलासमयी लक्ष्मीके साथ प्रमुदित होकर क्रीडा कर रहे थे ॥ ५-६ ॥

वीक्ष्य मां कमला देवी गतान्तर्धानमन्तिकात् ।
सर्वलक्षणसम्पन्ना सर्वभूषणभूषिता ॥ ७ ॥
नारीणां प्रवरा कान्ता रूपयौवनगर्विता ।
सुप्रिया वासुदेवस्य वरचामीकरप्रभा ॥ ८ ॥
सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, समस्त आभूषणोंसे अलंकृत, कान्तियुक्त, अपने रूप-यौवनपर गर्व करनेवाली, नारियों में सर्वश्रेष्ठ, भगवान् विष्णुको अतिप्रिय तथा स्वर्णके समान आभावाली भगवती लक्ष्मी मुझे देखकर उनके पाससे अन्त:पुरमें चली गयीं ॥ ७-८ ॥

अन्तर्गृहं गता दृष्ट्वा सिन्धुजां व्यञ्जनान्विताम् ।
मया पृष्टो देवदेवो वनमाली जगत्प्रभुः ॥ ९ ॥
भगवन्देवदेवेश पद्मनाभ सुरारिहन् ।
कथं च मा गता दृष्ट्वा मामागच्छन्तमन्तिकात् ॥ १० ॥
नाहं विटो न वा धूर्तः तापसोऽहं जगद्‌गुरो ।
जितेन्द्रियो जितक्रोधो जितमायो जनार्दन ॥ ११ ॥
व्यंजित अंगोंवाली लक्ष्मीजीको भवनमें गयी देखकर मैंने वनमाला धारण करनेवाले देवाधिदेव जगन्नाथ विष्णुसे पूछा-हे भगवन् ! हे देवाधिदेव ! हे पद्मनाभ ! हे असुरविनाशन ! मुझे आते हुए देखकर माता लक्ष्मीजी आपके पाससे क्यों चली गयीं ? हे जगद्गुरो ! मैं न तो कोई नीच हूँ और न धूर्त ! हे जनार्दन ! मैं इन्द्रियों, क्रोध तथा मायाको जीत लेनेवाला एक तपस्वी हूँ ॥ ९-११ ॥

नारद उवाच
निशम्य वचनं किञ्चिद्‌गर्वयुक्तं जनार्दनः ।
उवाच मां स्मितं कृत्वा वीणावन्मधुरां गिरम् ॥ १२ ॥
नारदजी बोले-मेरा कुछ-कुछ अभिमानपूर्ण वचन सुनकर भगवान् विष्णु मुसकराकर वीणाके समान मधुर वाणीमें मुझसे कहने लगे ॥ १२ ॥

विष्णुरुवाच
नारदैवंविधा नीतिर्न स्थातव्यं कदाचन ।
पतिं विनान्यसानिध्ये कस्यचिद्योषया क्वचित् ॥ १३ ॥
भगवान् विष्णु बोले-हे नारद ! ऐसी नीति है कि पतिके अतिरिक्त अन्य किसी भी पुरुषके सानिध्य में स्त्रीको कभी नहीं रहना चाहिये ॥ १३ ॥

माया सुदुर्जया विद्वन् योगिभिर्जितमारुतैः ।
सांख्यविद्‌भिर्निराहारैस्तापसैश्च जितेन्द्रियैः ॥ १४ ॥
देवैश्च मुनिशार्दूल यत्त्वयोक्तं वचोऽधुना ।
जितमायोऽस्मि गीतज्ञ नैवं वाच्यं कदाचन ॥ १५ ॥
हे विद्वन् ! वायु (श्वास)-को जीत लेनेवाले योगियों, सांख्यशास्त्रके ज्ञाताओं, निराहार रहनेवाले तपस्वियों तथा जितेन्द्रिय पुरुषों एवं देवताओंके लिये भी माया अत्यन्त दुर्जय है । हे मुनिवर ! अभी आपने जो कहा है कि 'मैंने मायापर विजय प्राप्त कर ली है' तो हे गीतज्ञ ! आपको ऐसा कभी नहीं बोलना चाहिये ॥ १४-१५ ॥

नाहं शिवो न वा ब्रह्मा जेतुं तां प्रभवोऽप्यजाम् ।
मुनयः सनकाद्याश्च कस्त्वं केऽन्ये क्षमा जये ॥ १६ ॥
जब मैं, शिव, ब्रह्मा तथा सनक आदि मुनि भी उस अजन्मा मायापर विजय नहीं प्राप्त कर सके तब आप तथा अन्य कौन हैं, जो उसे जीतने में समर्थ हो सकते हैं ? ॥ १६ ॥

देवदेहं नृदेहं वा तिर्यग्देहमथापि वा ।
बिभृयाद्यः शरीरं च स कथं तां जयेदजाम् ॥ १७ ॥
देवता, मानव तथा पशु-पक्षी अथवा जो कोई शरीर धारण करनेवाला प्राणी हो, वह उस अजन्मा मायाको कैसे जीत सकता है ? ॥ १७ ॥

त्रियुतस्तां कथं मायां जेतुं शक्तः पुमाम्भवेत् ।
वेदविद्योगविद्वापि सर्वज्ञो विजितेन्द्रियः ॥ १८ ॥
वेदका ज्ञाता, योगी, सर्वज्ञ, जितेन्द्रिय एवं सत्त्व-रज-तमसे युक्त कोई भी पुरुष मायाको जीतने में कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥ १८ ॥

कालोऽपि तस्या रूपं हि रूपहीनः स्वरूपकृत् ।
तद्वशे वर्तते देही विद्वान्मूर्खोऽथ मध्यमः ॥ १९ ॥
काल भी उसी मायाका ही रूप है । वह रूपहीन होते हुए भी स्वरूप धारण कर लेता है । विद्वान्, मूर्ख अथवा मध्यम श्रेणीका कोई भी व्यक्ति हो, वह उसके वशमें रहता है ॥ १९ ॥

कालः करोति धर्मज्ञं कदाचिद्विकलं पुनः ।
स्वभावात्कर्मतो वापि दुर्ज्ञेयं तस्य चेष्टितम् ॥ २० ॥
कभी-कभी काल धर्मज्ञ पुरुषको भी उद्विग्न कर देता है । स्वभाव अथवा कर्मसे उस कालकी चेष्टा नहीं जानी जा सकती ॥ २० ॥

नारद उवाच
इत्युक्त्वा विरतो विष्णुरहं विस्मयमानसः ।
तमब्रवं जगन्नाथं वासुदेवं सनातनम् ॥ २१ ॥
रमापते कथंरूपा माया सा कीदृशी पुनः ।
कियद्‌बला क्व संस्थाना कस्याधारा वदस्व मे ॥ २२ ॥
द्रष्टुकामोऽस्मि तां मायां दर्शयाशु महीधर ।
ज्ञातुमिच्छामि तां सम्यक्प्रसादं कुरु मापते ॥ २३ ॥
नारदजी बोले-ऐसा कहकर विष्णुके चुप हो जानेपर मेरा मन सन्देहसे भर गया और मैंने उन जगन्नाथ सनातन वासुदेवसे पूछा-हे रमाकान्त ! आप मुझे यह बतायें कि उस मायाका रूप क्या है, उसकी आकृति कैसी है, उसमें कितनी शक्ति है, वह कहाँ रहती है तथा उसका आधार क्या है ? हे महीधर मैं उस मायाको देखना चाहता हूँ, अत: मुझे उसका शीघ्र दर्शन कराइये । हे लक्ष्मीकान्त ! मैं उसके विषयमें सम्यक् जानना चाहता हूँ; मुझपर कृपा कीजिये ॥ २१-२३ ॥

विष्णुरुवाच
त्रिगुणा साखिलाधारा सर्वज्ञा सर्वसम्मता ।
अजेयानेकरूपा च सर्वं व्याप्य स्थिता जगत् ॥ २४ ॥
भगवान् विष्णु बोले-अखिल जगत्को धारण करनेवाली वह माया त्रिगुणात्मिका, सर्वज्ञा, सर्वसम्मता, अजेया, अनेकरूपा तथा सम्पूर्ण संसारको अपनेमें व्याप्त करके स्थित है ॥ २४ ॥

दिदृक्षा यदि ते चित्ते नारदारोहणं कुरु ।
गरुडे मत्समेतोऽद्य गच्छावोऽन्यत्र साम्प्रतम् ॥ २५ ॥
हे नारद ! यदि तुम्हारे मनमें उस मायाको देखनेकी इच्छा है तो मेरे साथ अभी गरुडपर आरूढ़ हो जाओ; हम दोनों अन्य लोकमें इसी समय चलते हैं ॥ २५ ॥

दर्शयिष्यामि ते मायां दुर्जयामजितात्मभिः ।
दृष्ट्वा तां ब्रह्मपुत्र त्वं विषादे मा मनः कृथाः ॥ २६ ॥
हे ब्रह्मपुत्र ! वहाँ मैं तुम्हें अजितात्माओंके लिये अजेय मायाका दर्शन कराऊँगा, किंतु उसे देखकर तुम अपने मनको विषादग्रस्त मत होने देना ॥ २६ ॥

इत्युक्त्वा देवदेवो मां सस्मार विनतासुतम् ।
स्मृतमात्रस्तु गरुडस्तदागाद्धरिसन्निधौ ॥ २७ ॥
मुझसे ऐसा कहकर देवाधिदेव भगवान् विष्णुने विनतापुत्र गरुडका स्मरण किया । स्मरण करते ही गरुड भगवान् विष्णुके समक्ष उपस्थित हो गये ॥ २७ ॥

आगतं गरुडं वीक्ष्य आरुरोह जनार्दनः ।
समारोप्य च मां पृष्ठे गमनाय कृतादरः ॥ २८ ॥
गरुडको आया हुआ देखकर भगवान् विष्णु मुझे अत्यन्त आदरपूर्वक पीछे बैठाकर प्रस्थान करनेके लिये उसपर आरूढ़ हो गये ॥ २८ ॥

चलितो विनतापुत्रो वैकुण्ठाद्वायुवेगवान् ।
प्रेरितो यत्र कृष्णेन गन्तुकामेन काननम् ॥ २९ ॥
जिस वन-प्रदेशमें भगवान विष्णु जाना चाहते थे, वहाँके लिये प्रेरित किये गये वायुसदृश वेगवान् विनतापुत्र गरुडने वैकुण्ठसे प्रस्थान किया ॥ २९ ॥

महावनानि दिव्यानि सरांसि सरितस्तथा ।
पुरग्रामाकरादींश्च खेटखर्वटगोव्रजान् ॥ ३० ॥
मुनीनामाश्रमान् रम्यान् वापीश्च सुमनोहराः ।
पल्वलानि विशालानि ह्रदान् पङ्कजभूषितान् ॥ ३१ ॥
मृगाणां च वराहाणां वृन्दान्यप्यवलोक्य च ।
गतावावां कान्यकुब्जसमीपं गरुडासनौ ॥ ३२ ॥
गरुडपर आसीन हम दोनों बहुत-से विशाल वनों, दिव्य सरोवरों, नदियों, ग्राम-नगरों, पर्वतके आस-पासकी बस्तियों, गायोंके गोष्ठों, मुनियोंके मनोहर आश्रमों, सुन्दर बावलियों, छोटे-बड़े तालाबों, कमलोंसे सुशोभित विस्तृत तथा गहरे हृदों एवं मृगों तथा वराहोंके बहुतसे समूहोंको देखते हुए कान्यकुब्जनगरके पास पहुँच गये ॥ ३०-३२ ॥

तत्र रम्यं सरो दिव्यं दृष्टं पङ्कजमण्डितम् ।
हंसकारण्डवाकीर्णं चक्रवाकोपशोभितम् ॥ ३३ ॥
नानावर्णैः प्रफुल्लैश्च पङ्कजैरुपरञ्जितम् ।
शुचि मिष्टजलं भृङ्गयूथनादविराजितम् ॥ ३४ ॥
वहाँ कमलोंसे मण्डित, हंस तथा सारसोंसे युक्त, चक्रवाकोंसे सुशोभित, अनेक वर्णोंवाले खिले हुए कमलोंसे शोभायमान, झण्ड-के-झुण्ड भौरोंकी ध्वनिसे गुंजित एवं पवित्र तथा मधुर जलवाला एक दिव्य तथा रमणीय सरोवर दिखायी पड़ा ॥ ३३-३४ ॥

मामाह भगवान् वीक्ष्य तडागं परमाद्‌भुतम् ।
स्पर्धकं चोदधेः क्षीरं मिष्टं वारि विशेषतः ॥ ३५ ॥

क्षीरसागरके मधुर दुग्धकी समानता करनेवाले विशिष्ट जलसे युक्त उस परम अद्भुत सरोवरको देखकर भगवान् विष्णु मुझसे कहने लगे ॥ ३५ ॥

श्रीभगवानुवाच
पश्य नारद गम्भीरं सरः सारसनादितम् ।
सर्वत्र पङ्कजैश्छन्नं स्वच्छनीरप्रपूरितम् ॥ ३६ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे नारद ! सर्वत्र कमलोंसे आच्छादित, स्वच्छ जलसे परिपूर्ण तथा सारसकी ध्वनिसे निनादित हो रहे इस अगाध सरोवरको देखो ॥ ३६ ॥

अत्र स्नात्वा गमिष्यावः कान्यकुब्जं पुरोत्तमम् ।
इत्युक्त्वा गरुडादाशु मामुत्तार्य व्यतारयत् ॥ ३७ ॥
इसीमें स्नान करके हमलोग श्रेष्ठ नगर कान्यकुब्जमें चलेंगे-ऐसा कहकर भगवान् विष्णु मुझे शीघ्र ही गरुडसे उतारकर आगे ले गये ॥ ३७ ॥

विहस्य भगवांस्तत्र जग्राह मम तर्जनीम् ।
स्तुवन्सरोवरं भूयस्तीरे मामनयत्प्रभुः ॥ ३८ ॥
उन्होंने हँसते हुए मेरी तर्जनी अंगुली पकड़ी और बार-बार उस सरोवरकी प्रशंसा करते हुए वे मुझे तीरपर ले गये ॥ ३८ ॥

विश्रम्य तटभागे तु स्निग्धच्छाये मनोहरे ।
मामुवाच मुने स्नानं कुरु त्वं विमले जले ॥ ३९ ॥
पश्चादहं करिष्यामि तडागेऽस्मिन्सुपावने ।
साधूनामिव चेतांसि जलानि निर्मलानि च ॥ ४० ॥
सुरभीणि परागैस्तु पङ्कजानां विशेषतः ।
वृक्षोंकी घनी छायावाले मनोहर तटभागपर कुछ समय विश्राम करनेके बाद भगवान् विष्णुने मुझसे कहा-हे मुने ! आप इस स्वच्छ जलमें पहले स्नान कर लें, तत्पश्चात् मैं इस परम पवित्र सरोवरमें स्नान करूँगा । इस सरोवरका जल साधुजनोंके चित्तकी भाँति निर्मल तथा कमलोंके परागसे विशेषरूपसे सुगन्धित है । ३९-४०.५ ॥

इत्युक्तोऽहं भगवता मुक्त्वा वीणां मृगाजिनम् ॥ ४१ ॥
स्नानाय कृतधीस्तीरे गतः प्रेमसमन्वितः ।
भगवान्के ऐसा कहनेपर मैंने स्नान करनेका मन बना लिया और अपनी वीणा तथा मृगचर्म वहीं रखकर मैं प्रेमपूर्वक तटपर चला गया ॥ ४१.५ ॥

पादौप्रक्षाल्य हस्तौच शिखां बद्ध्वा कुशग्रहम् ॥ ४२ ॥
कृत्वाऽऽचम्य शुचिस्तोये स्नातवानस्मि तज्जले ।
यदा तस्मिज्जले रम्ये स्नातोऽहं पश्यतो हरेः ॥ ४३ ॥
विहाय पौरुषं रूपं प्राप्तः स्त्रीत्वमनुत्तमम् ।
हाथ-पैर धोकर और शिखा बाँधकर मैंने हाथमें कुश ले लिया । पुनः पवित्र जलसे आचमन करके मैं उस जलमें स्नान करने लगा । जब मैं उस मनोहर जलमें स्नान कर रहा था, उसी समय भगवान्के देखते-देखते मैं अपना पुरुषरूप छोड़कर एक सुन्दर नारीके रूपमें परिणत हो गया ॥ ४२-४३.५ ॥

हरिर्गृहीत्वा वीणां मे तथा कृष्णाजिनं शुभम् ॥ ४४ ॥
आरुह्य गरुडं तूर्णं जगाम स्वगृहं क्षणात् ।
ततोऽहं स्त्रीत्वमापन्नश्चारुभूषणभूषितः ॥ ४५ ॥
उसी क्षण मेरी वीणा तथा पवित्र मृगचर्म लेकर भगवान् विष्णु गरुडपर आरूढ़ होकर शीघ्र ही अपने धाम चले गये । इधर मैं सुन्दर भूषणोंसे भूषित होकर स्त्रीके रूपमें हो गया ॥ ४४-४५ ॥

तत्क्षणान्मनसो जाता पूर्वदेहस्य विस्मृतिः ।
विस्मृतोऽसौ जगन्नाथो महती विस्मृता पुनः ॥ ४६ ॥
उसी समयसे मेरे मनमें पूर्वदेहकी विस्मति हो गयी । मैं भगवान् विष्णु तथा अपनी महती वीणाको भी भूल गया ॥ ४६ ॥

सम्प्राप्य मोहिनीरूपं तडागान्निर्गतो बहिः ।
अपश्यं नलिनीजुष्टं सरस्तद्विमलोदकम् ॥ ४७ ॥
मोहिनीरूप प्राप्त करके मैं सरोवरसे बाहर निकला और स्वच्छ जलवाले तथा कमलोंसे परिपूर्ण उस सरोवरको देखने लगा ॥ ४७ ॥

किमेतदिति मनसाकरवं विस्मयं मुहुः ।
एवं चिन्तयमानस्य नारीरूपधरस्य मे ॥ ४८ ॥
सहसा दृक्पथं प्राप्तस्तत्र तालध्वजो नृपः ।
गजाश्वरथवृन्दैश्च संवृतो रथसंस्थितः ॥ ४९ ॥
मैं मनमें बार-बार विस्मय कर रहा था कि 'यह क्या है !' नारीरूपको प्राप्त मैं ऐसा सोच ही रहा था कि मुझे तालध्वज नामक राजा अचानक दिखायी पड़े । हाथीके समूहोंसे घिरे हुए वे रथपर बैठे हुए थे । युवावस्थावाले तथा आभूषणोंसे सुशोभित राजा तालध्वज शरीर धारण किये साक्षात् कामदेवके समान प्रतीत हो रहे थे ॥ ४८-४९ ॥

युवा भूषणसंवीतो देहवानिव मन्मथः ।
वीक्ष्य मां भूपतिस्तत्र दिव्यभूषणभूषिताम् ॥ ५० ॥
राकाचन्द्रमुखीं योषां विस्मयं परमं गतः ।
पप्रच्छ कासि कल्याणि कस्य पुत्री सुरस्य वा ॥ ५१ ॥
मानुषस्य च वा कान्ते गन्धर्वस्योरगस्य च ।
एकाकिनी कथं बाला रूपयौवनभूषिता ॥ ५२ ॥
पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान मुखवाली तथा दिव्य आभूषणोंसे मण्डित मुझ रमणीको देखकर राजाको महान् आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुझसे पूछा-हे कल्याणि ! तुम कौन हो ? हे कान्ते ! तुम किस देवता, यौवनसे सम्पन्न युवती होते हुए भी तुम यहाँ अकेली क्यों हो ? ॥ ५०-५२ ॥

विवाहिताथ कन्या वा सत्यं वद सुलोचने ।
किं पश्यसि सुकेशान्ते तडागेऽस्मिन्सुमध्यमे ॥ ५३ ॥
हे सुनयने ! तुम सच-सच बताओ कि तुम विवाहिता हो अथवा कुमारी ! हे सुकेशान्ते ! हे सुमध्यमे ! तुम इस सरोवरमें क्या देख रही हो ? ॥ ५३ ॥

चिकीर्षितं पिकालापे ब्रूहि मन्मथमोहिनि ।
भुङ्क्षव भोगान्मरालाक्षि मया सह कृशोदरि ।
वाञ्छितान्मनसा नूनं कृत्वा मां पतिमुत्तमम् ॥ ५४ ॥
हे पिकभाषिणि ! मन्मथमोहिनि ! तुम अपनी अभिलाषा व्यक्त करो । हे मरालाक्षि ! हे कृशोदर ! मुझ उत्तम राजाको अपना पति बनाकर मेरे साथ तुम निःसन्देह मनोवांछित सुखोंका उपभोग करो ॥ ५४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे नारदेन
स्वस्त्रीत्वप्राप्तिवर्णनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
अध्याय अठाइवाँ समाप्त ॥ २८ ॥


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