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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
एकोनत्रिंशोऽध्यायः

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नारदस्य पुनः स्वरूपप्राप्तिवर्णनम् -
राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध -


नारद उवाच
इत्युक्तोऽहं तदा तेन राज्ञा तालध्वजेन च ।
विमृश्य मनसात्यर्थं तमुवाच विशाम्पते ॥ १ ॥
राजन्नाहं विजानामि पुत्री कस्येति निश्चयम् ।
पितरौ क्व च मे केन स्थापिता च सरोवरे ॥ २ ॥
नारदजी बोले-हे विशाम्पते ! राजा तालध्वजके यह पूछनेपर मैंने अपने मन में सम्यक् प्रकारसे विचार करके उनसे कहा-हे राजन् ! मैं निश्चितरूपसे नहीं जानती कि मैं किसकी कन्या हूँ, मेरे माता-पिता कौन हैं और मुझे इस सरोवरपर कौन लाया है ॥ १-२ ॥

किं करोमि क्व गच्छामि कथं मे सुकृतं भवेत् ।
निराधारास्मि राजेन्द्र चिन्तयामि चिकीर्षितम् ॥ ३ ॥
अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मेरा कल्याण कैसे हो सकेगा, मैं आश्रयहीन हूँ । हे राजेन्द्र ! यही बात सोचती रहती हूँ ॥ ३ ॥

दैवमेव परं राजन्नास्त्यत्र पौरुषं मम ।
धर्मज्ञोऽसि महीपाल यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ४ ॥
हे राजन् ! दैव ही सर्वोपरि है । इसमें मेरा पौरुष व्यर्थ ही है । हे भूपाल ! आप धर्मज्ञ हैं; आप जैसा चाहते हों, वैसा करें ॥ ४ ॥

तवाधीनास्म्यहं भूप न मे कोऽप्यस्ति पालकः ।
न पिता न च माता च न स्थानं न च बान्धवाः ॥ ५ ॥
हे राजन् ! मैं आपके अधीन हूँ: क्योंकि मेरा यहाँ कोई भी रक्षक नहीं है । मेरे न पिता हैं, न माता हैं, न बन्धु-बान्धव हैं और न तो मेरा कोई स्थान ही है ॥ ५ ॥

इत्युक्तोऽसौ मया राजा बभूव मदनातुरः ।
मां निरीक्ष्य विशालाक्षीं सेवकानित्युवाच ह ॥ ६ ॥
मेरे ऐसा कहनेपर वे राजा तालध्वज कामासक्त हो उठे और मुझ विशाल नयनोंवालीकी ओर दृष्टि डालकर उन्होंने अपने सेवकोंसे कहा- ॥ ६ ॥

नरयानमानयध्वं चतुर्वाह्यं मनोहरम् ।
आरोहणार्थमस्यास्तु कौशेयाम्बरवेष्टितम् ॥ ७ ॥
मृद्वास्तरणसंयुक्तं मुक्ताजालविभूषितम् ।
चतुरस्रं विशालं च सुवर्णरचितं शुभम् ॥ ८ ॥
तुमलोग इस सुन्दर स्त्रीके आरोहणके लिये रेशमी वस्त्रसे आवेष्टित एक मनोहर पालकी ले आओ, जिसे होनेवाले चार पुरुष हों, उसमें कोमल आस्तरण बिछा हो तथा वह मोतियोंकी झालरोंसे सुशोभित हो, वह सोनेकी बनी हुई हो, चौकोर हो तथा पर्याप्त विशाल हो ॥ ७-८ ॥

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा भृत्याः सत्वरगामिनः ।
आनिन्युः शिबिकां दिव्यां मदर्थे वस्त्रवेष्टिताम् ॥ ९ ॥
राजाकी बात सुनकर शीघ्रगामी सेवकोंने मेरे लिये वस्त्रसे ढकी हुई दिव्य पालकी लाकर उपस्थित कर दी ॥ ९ ॥

आरूढाऽहं तदा तस्यां तस्य प्रियचिकीर्षया ।
मुदितोऽसौ गृहे नीत्वा मां तदा पृथिवीपतिः ॥ १० ॥
उन राजा तालध्वजका प्रिय कार्य करनेकी इच्छासे मैं उस पालकीपर आरूढ़ हो गया । मुझे अपने भवन ले जाकर राजा तालध्वज अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ १० ॥

विवाहविधिना राजा शुभे लग्ने शुभे दिने ।
उपयेमे च मां तत्र हुतभुक्सन्निधौ ततः ॥ ११ ॥
किसी शुभ लग्न तथा उत्तम दिनमें राजाने वैवाहिक विधि-विधानसे अग्निके साक्ष्यमें मेरे साध विवाह कर लिया ॥ ११ ॥

तस्याहं वल्लभा जाता प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ।
सौभाग्यसुन्दरीत्येवं नाम तत्र कृतं मम ॥ १२ ॥
उस समय मैं उनके लिये प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय हो गया । उन्होंने वहाँ मेरा नाम सौभाग्यसुन्दरीऐसा रख दिया ॥ १२ ॥

रममाणो मया सार्धं सुखमाप महीपतिः ।
नानाभोगविलासैश्च कामशास्त्रोदितैस्तथा ॥ १३ ॥
कामशास्त्रानुकूल अनेक प्रकारके भोगविलासोंके द्वारा मेरे साथ रमण करते हुए राजाको आनन्द मिलता था ॥ १३ ॥

राजकार्याणि सन्त्यज्य क्रीडासक्तो दिवानिशम् ।
नासौ विवेद गच्छन्तं कालं कामकलारतः ॥ १४ ॥
राज्यके कार्योंको छोड़कर वे दिन-रात मेरे साथ क्रीडारत रहते थे । कामकलामें आसक्त उन राजाको समय बीतनेका भी बोध नहीं रहता था ॥ १४ ॥

उद्यानेषु च रम्येषु वापीषु च गृहेषु च ।
हर्म्येषु वरशैलेषु दीर्घिकासु वरासु च ॥ १५ ॥
वारुणीमदमत्तोऽसौ विहरन्कानने शुभे ।
विसृज्य सर्वकार्याणि मदधीनो बभूव ह ॥ १६ ॥
मनोहर उद्यानों, बावलियों, सुन्दर महलों, अट्टालिकाओं, श्रेष्ठ पर्वतों, उत्तम जलाशयों तथा रमणीक काननमें विहार करते हुए मधुपानसे उन्मत्त वे राजा समस्त कार्य छोड़कर मेरे अधीन हो गये । १५-१६ ॥

व्यासाहं तेन संसक्ता क्रीडारसवशीकृता ।
स्मृतवान्पूर्वदेहं न पुंभावं मुनिजन्म च ॥ १७ ॥
हे व्यासजी ! उनमें मेरी भी पूर्ण आसक्ति हो गयी और मैं क्रीडारसके वशीभूत हो गया । मुझे अपने पूर्व पुरुष-शरीर तथा मुनि-जन्मका भी स्मरण नहीं रहा ॥ १७ ॥

ममैवायं पतिर्योषाहं पत्‍नीषु प्रिया सती ।
पट्टराज्ञी विलासज्ञा सफलं जीवितं मम ॥ १८ ॥
इति चिन्तयती तस्मिन्प्रेमबद्धा दिवानिशम् ।
क्रीडासक्ता सुखे लुब्धा तं स्थिता वशवर्तिनी ॥ १९ ॥
विस्मृतं ब्रह्मविज्ञानं ब्रह्मज्ञानं च शाश्वतम् ।
धर्मशास्त्रपरिज्ञानं तदासक्तमना स्थिता ॥ २० ॥
ये ही मेरे पति हैं तथा इनकी अनेक पत्नियोंमें मैं ही इनकी प्रिय पतिव्रता भार्या हूँ, सम्पूर्ण विलासोंको जाननेवाली मैं इनकी पटरानी हूँ । इस प्रकार मेरा जीवन सफल है-ऐसा सोचती हुई मैं दिन-रात उन्होंके प्रेममें आबद्ध रहती थी तथा उनके साथ क्रीडारत रहती थी । इस तरह उनके सुखके लोभमें मैं सदा उन्हींके अधीन हो गयी । मेरा ब्रह्मविज्ञान, सनातन ब्रह्मज्ञान तथा धर्मशास्त्रका रहस्य पूर्णरूपसे विस्मृत हो गया और मैं उन्हींमें आसक्त मन होकर रहने लगी ॥ १८-२० ॥

एवं विहरतस्तत्र वर्षाणि द्वादशैव तु ।
गतानि क्षणवत्कामक्रीडासक्तस्य मे मुने ॥ २१ ॥
हे मुने ! इस प्रकार कामक्रीडामें आसक्त मेरे वहाँ विहार करते हुए बारह वर्ष एक क्षणकी भाँति व्यतीत हो गये ॥ २१ ॥

जाता गर्भवती चाहं मुदं प्राप नृपस्तदा ।
कारयामास विधिवद्‌गर्भसंस्कारकर्म च ॥ २२ ॥
मेरे गर्भवती होनेपर राजाको परम प्रसन्नता हुई । राजाने विधिपूर्वक गर्भसम्बन्धी संस्कारकर्म सम्पन्न कराया ॥ २२ ॥

अपृच्छद्दोहदं राजा प्रीणयन्मां पुनः पुनः ।
नाब्रवं लज्जमानाहं नृपं प्रीतमना भृशम् ॥ २३ ॥
गर्भके समय मेरी मनोवांछित वस्तुओंके विषयमें राजा मुझे प्रसन्न करते हुए बार-बार पूछा करते थे । तब अत्यन्त प्रसन्नचित्त मैं लज्जाके कारण कुछ भी नहीं कह पाती थी ॥ २३ ॥

सम्पूर्णे दशमे मासि पुत्रो जातस्ततो मम ।
शुभेऽह्नि ग्रहनक्षत्रलग्नताराबलान्विते ॥ २४ ॥
दस माह पूर्ण होनेपर ग्रह, नक्षत्र, लग्न तथा ताराबलयुक्त शुभ दिनमें मुझे एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ २४ ॥

बभूव नृपतेर्गेहे पुत्रजन्ममहोत्सवः ।
राजा परमसन्तुष्टो बभूव सुतजन्मतः ॥ २५ ॥
राजाके भवनमें पुत्र-जन्मका उत्सव मनाया गया । पुत्र-जन्मसे राजा परम प्रसन्न हो गये ॥ २५ ॥

सूतकान्ते सुतं वीक्ष्य राजा मुदमवाप ह ।
अहं भूमिपतेश्चासं प्रिया भार्या परन्तप ॥ २६ ॥
- जननाशौच समाप्त होनेपर पुत्रका दर्शन करके राजाको असीम प्रसन्नता हई । हे परन्तप ! अब मैं राजा तालध्वजकी अत्यन्त प्रिय भार्या हो गयी ॥ २६ ॥

ततो वर्षद्वयान्ते वै पुनर्गर्भो मया धृतः ।
द्वितीयस्तु सुतो जातः सर्वलक्षणसंयुतः ॥ २७ ॥
दो वर्षके अनन्तर मैंने पुनः गर्भ धारण किया । [यथासमय] सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ २७ ॥

सुधन्वेति सुतस्याथ नाम चक्रे नृपस्तदा ।
वीरवर्मेति ज्येष्ठस्य ब्राह्मणैः प्रेरितस्त्वयम् ॥ २८ ॥
तदनन्तर ब्राहाणोंका आदेश पाकर राजाने इस पुत्रका नाम 'सुधन्वा' तथा बड़े पुत्रका नाम 'वीरवर्मा' रखा ॥ २८ ॥

एवं द्वादश पुत्राश्च प्रसूता भूपसम्मताः ।
मोहितोऽहं तदा तेषां प्रीत्या पालनलालने ॥ २९ ॥
इस प्रकार मैंने राजाके मनोनुकूल बारह पुत्र उत्पन्न किये । मैं मोहके वशीभूत होकर उनके लालन-पालनमें प्रेमपूर्वक लगा रहा ॥ २९ ॥

पुनरष्ट सुताः काले काले जाताः स्वरूपिणः ।
गार्हस्थ्यं मे ततः पूर्णं सम्पन्नं सुखसाधनम् ॥ ३० ॥
इसके बाद समय-समयपर मेरे परम रूपवान् आठ पुत्र और उत्पन्न हुए । इससे सुखका साधनभूत मेरा गार्हस्थ्य-जीवन सर्वथा पूर्ण हो गया ॥ ३० ॥

तेषां दारक्रियाः काले कृता राज्ञा यथोचिताः ।
स्नुषाभिश्च तथा पुत्रैः परिवारो महानभूत् ॥ ३१ ॥
राजाने समयानुसार उचित रूपसे उनका विवाह कर दिया । इस प्रकार वधुओं तथा पुत्रोंसे युक्त मेरा परिवार बहुत बड़ा हो गया ॥ ३१ ॥

ततः पौत्रादिसम्भूतास्तेऽपि क्रीडारसान्विताः ।
आसन्नानारसोपेता मोहवृद्धिकरा भृशम् ॥ ३२ ॥
कदाचित्सुखमैश्वर्यं कदाचिद्‌दुःखमद्‌भुतम् ।
पुत्रेषु रोगजनितं देहसन्तापकारकम् ॥ ३३ ॥
फिर मेरे पौत्र उत्पन्न हुए, जो खेलकूदमें मग्न रहते थे तथा अनेक प्रकारकी बालक्रीडाओंसे मेरे मोहको बढ़ाते रहते थे । कभी सुख-समृद्धि मेरे सामने आती थी और कभी पुत्रोंके रोगग्रस्त होनेके कारण चित्तको अशान्त कर देनेवाला महान् दुःख भोगना पड़ता था ॥ ३२-३३ ॥

परस्परं कदाचित्तु विरोधोऽभूत्सुदारुणः ।
पुत्राणां वा वधूनां च तेन सन्तापसम्भवः ॥ ३४ ॥
कभी-कभी पुत्रों अथवा वधुओंमें परस्पर अत्यन्त भीषण विरोध हो जाता था, उससे मुझे सन्ताप होने लगता था ॥ ३४ ॥

सुखदुःखात्मके घोरे मिथ्याचारकरे भृशम् ।
सङ्कल्पजनिते क्षुद्रे मग्नोऽहं मुनिसत्तम ॥ ३५ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! संकल्पसे उत्पन्न इस सुखदुःखात्मक, तुच्छ, भयानक तथा मिथ्या व्यवहारवाले मोहमें मैं निमग्न रहता था ॥ ३५ ॥

विस्मृतं पूर्वविज्ञानं शास्त्रज्ञानं तथा गतम् ।
योषाभावे विलीनोऽहं गृहकार्येषु सर्वथा ॥ ३६ ॥
मेरा पूर्वकालिक विज्ञान विस्मृत हो गया तथा शास्त्र ज्ञान भी समाप्त हो गया । स्त्रीभावमें होकर मैं घरके कार्योंमें ही सदा व्यस्त रहता था ॥ ३६ ॥

अहङ्कारस्तु सञ्जातो भृशं मोहविवर्धकः ।
एते मे बलिनः पुत्राः स्नुषाः सुकुलसम्भवाः ॥ ३७ ॥
मेरे ये पुत्र महान् पराक्रमी हैं तथा मेरी ये बहुएँ उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई हैं-ऐसा सोचकर मेरे मनमें अति मोह बढ़ानेवाला अहंकार उत्पन्न हो जाया करता था ॥ ३७ ॥

एते पुत्राः सुसन्नद्धाः क्रीडन्ति मम वेश्मसु ।
धन्याहं खलु नारीणां संसारेऽस्मिन्नहो भृशम् ॥ ३८ ॥
मेरे ये बालक पूर्ण तत्पर होकर घरमें खेल रहे हैं । अहो, इस संसार में सभी नारियोंमें मैं अवश्य ही धन्य हूँ ॥ ३८ ॥

नारदोऽहं भगवता वञ्चितो मायया किल ।
न कदाचिन्मयाप्येवं चिन्तितं मनसा किल ॥ ३९ ॥
'मैं नारद हूँ तथा भगवान्ने अपनी मायाके प्रभावसे मुझे वंचित कर रखा है'-ऐसा मैं अपने मनमें कभी सोच भी नहीं पाता था ॥ ३९ ॥

राजपत्‍नी शुभाचारा बहुपुत्रा पतिव्रता ।
धन्याहं किल संसारे कृष्णैवं मोहितस्त्वहम् ॥ ४० ॥
हे व्यासजी ! इस प्रकार मायासे मोहित हुआ मैं केवल यही सोचा करता था कि मैं उत्तम आचरणवाली एक पतिव्रता राजमहिषी हूँ, मेरे बहुतसे पुत्र हैं तथा इस संसारमें मैं बड़ी धन्य हूँ ॥ ४० ॥

अथ कश्चिन्नृपः कामं दूरदेशाधिपो महान् ।
अरातिभावमापन्नः पतिना सह मानद ॥ ४१ ॥
कृत्वा सैन्यसमायोगं रथैश्च वारणैर्युतम् ।
आजगाम कान्यकुब्जे पुरे युद्धमचिन्तयत् ॥ ४२ ॥
हे मानद ! इसके बाद दूर देशमें रहनेवाले किसी महान् राजाने मेरे पतिके साथ शत्रुता ठान ली । वह हाथियों तथा रथोंसे अपनी सेना सुसज्जित करके कान्यकुब्जनगरमें आ गया और युद्धके विषयमें सोचने लगा । ॥ ४१-४२ ॥

वेष्टितं नगरं तेन राज्ञा सैन्ययुतेन च ।
मम पुत्राश्च पौत्राश्च निर्गता नगरात्तदा ॥ ४३ ॥
उस राजाने अपनी सेनाके साथ मेरा नगर घेर लिया; तब मेरे पुत्र तथा पौत्र भी नगरसे बाहर निकल पड़े ॥ ४३ ॥

संग्रामस्तुमुलस्तत्र कृतस्तैस्तेन पुत्रकैः ।
हता रणे सुताः सर्वे वैरिणा कालयोगतः ॥ ४४ ॥
मेरे उन पुत्र-पौत्रोंने उस राजाके साथ भयंकर युद्ध किया । कालयोगसे मेरे सभी पुत्र संग्राममें शत्रुके द्वारा मार डाले गये ॥ ४४ ॥

राजा भग्नस्तु संग्रामादागतः स्वगृहं पुनः ।
श्रुतं मया मृताः पुत्राः संग्रामे भृशदारुणे ॥ ४५ ॥
तत्पश्चात् राजा तालध्वज हताश होकर युद्धस्थलसे अपने घर आ गये । मैंने सुना कि मेरे सभी पुत्र उस अत्यन्त भीषण संग्राममें मृत्युको प्राप्त हो गये ॥ ४५ ॥

स हत्वा मे सुतान्पौत्रान्गतो राजा बलान्वितः ।
क्रन्दमाना ह्यहं तत्र गता समरमण्डले ॥ ४६ ॥
मेरे पुत्रों तथा पौत्रोंका संहार करके वह राजा सेनासहित चला गया । इसके बाद मैं विलाप करता हुआ युद्ध-भूमिमें जा पहुँचा ॥ ४६ ॥

दृष्ट्वा तान्पतितान्पुत्रान्पौत्रांश्चदुःखपीडिता ।
विललापाहमायुष्मञ्छोकसागरसंप्लवे ॥ ४७ ॥
हा पुत्राः क्व गता मेऽद्य हा हतास्मि दुरात्मना ।
दैवेनातिबलिष्ठेन दुर्वारेणातिपापिना ॥ ४८ ॥
हे आयुष्मन् ! वहाँ अपने पुत्रों तथा पौत्रोंको भूमिपर गिरा हुआ देखकर मैं दुःखसे अत्यन्त पीडित होकर शोक-सागरमें डूब गया तथा इस प्रकार विलाप करने लगा-हाय, मेरे पुत्र इस समय कहाँ चले गये ? हाय, मुझे तो इस दुष्टात्मा, अति बलवान, महापापी तथा दुर्लघ्य दैवने मार डाला ॥ ४७-४८ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र भगवान्मधुसूदनः ।
कृत्वा रूपं द्विजस्यागाद्‌वृद्धः परमशोभनः ॥ ४९ ॥
इसी बीच एक परम सुन्दर वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करके मधुसूदन भगवान् विष्णु वहाँ पहुँच गये ॥ ४९ ॥

सुवासा वेदवित्कामं मत्समीपं समागतः ।
मामुवाचातिदीनां स क्रन्दमानां रणाजिरे ॥ ५० ॥
हे वेदज्ञ ! सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित वे मेरे पास आये और युद्धभूमिमें अति विलाप करती हुई मुझ अबलासे बोले ॥ ५० ॥

ब्राह्मण उवाच
किं विषीदसि तन्वङ्‌गि भ्रमोऽयं प्रकटीकृतः ।
मोहेन कोकिलालापे पतिपुत्रगृहात्मके ॥ ५१ ॥
का त्वं कस्याः सुताः केऽमी चिन्तयात्मगतिं पराम् ।
उत्तिष्ठ रोदनं त्यक्त्वा स्वस्था भव सुलोचने ॥ ५२ ॥
ब्राह्मण बोले-हे तन्वङ्गि ! हे पिकालापे ! तुम क्यों विषाद कर रही हो ? पति-पुत्रादिसे सम्पन्न गृहस्थीमें मोहके कारण ही यह भ्रम उत्पन्न हुआ है । तुम कौन हो, ये किसके पुत्र हैं तथा ये कौन हैं ? तुम परम आत्मगतिपर विचार करो । हे सुलोचने ! अब उठो और विलाप करना छोड़कर स्वस्थ हो जाओ ॥ ५१-५२ ॥

स्नानं च तिलदानं च पुत्राणां कुरु कामिनि ।
परलोकगतानां च मर्यादारक्षणाय वै ॥ ५३ ॥
कर्तव्यं सर्वथा तीर्थे स्नानं तु न गृहे क्वचित् ।
मृतानां किल बन्धूनां धर्मशास्त्रविनिर्णयः ॥ ५४ ॥
हे कामिनि ! मर्यादाके रक्षणार्थ अब अपने परलोक गये हुए पुत्रोंके निमित्त स्नान तथा तिलदान करो । धर्मशास्त्रका निर्णय है कि मृत बन्धुओंके निमित्त तीर्थमें ही स्नान करना चाहिये; घरमें कभी नहीं ॥ ५३-५४ ॥

नारद उवाच
इत्युक्त्वा तेन विप्रेण वृद्धेन प्रतिबोधिता ।
उत्थिताहं नृपेणाथ युक्ता बन्धुभिरावृता ॥ ५५ ॥
अग्रतो द्विजरूपेण भगवान्भूतभावनः ।
चलिताहं ततस्तूर्णं तीर्थं परमपावनम् ॥ ५६ ॥
नारदजी बोले-उस वृद्ध ब्राह्मणने इस प्रकार कहकर मुझे समझाया । तत्पश्चात् मैं उठा और बन्धुबान्धवों तथा राजाको साथ लेकर द्विजरूपधारी भगवान् विष्णुको आगे करके तत्काल परम पवित्र तीर्थके लिये चल पड़ा ॥ ५५-५६ ॥

हरिर्मां कृपया तत्र पुंतीर्थे सरसि प्रभुः ।
नीत्वाह भगवान्विष्णुर्द्विजरूपी जनार्दनः ॥ ५७ ॥
स्नानं कुरु तडागेऽस्मिन्पावने गजगामिनि ।
त्यज शोकं क्रियाकालः पुत्राणां च निरर्थकम् ॥ ५८ ॥
ब्राह्मणरूपधारी जनार्दन जगन्नाथ श्रीहरि भगवान् विष्णु मेरे ऊपर कृपा करके पुतीर्थ सरोवरपर मुझको ले जाकर बोले-हे गजगामिनि ! इस पवित्र सरोवरमें स्नान करो और निरर्थक शोकका परित्याग करो । अब पुत्रोंकी [तिलांजलि आदि] क्रियाका समय उपस्थित है ॥ ५७-५८ ॥

कोटिशस्ते मृताः पुत्रा जन्मजन्मसमुद्‌भवाः ।
पितरः पतयश्चैव भ्रातरो जामयस्तथा ॥ ५९ ॥
केषां दुःखं त्वया कार्यं भ्रमेऽस्मिन्मानसोद्‌भवे ।
वितथे स्वप्नसदृशे तापदे देहिनामिह ॥ ६० ॥
जन्म-जन्मान्तरमें तुम्हारे करोड़ों पुत्र, पिता, पति, भाई तथा बहन हुए तथा वे मृत्युको भी प्राप्त हो गये । उनमेंसे तुम किस-किसका दुःख मनाओगी ? यह तो मनमें उत्पन्न भ्रममात्र है, जो शरीरधारियोंको व्यर्थ ही स्वप्नके समान होकर भी दुःख पहुँचाता रहता है ॥ ५९-६० ॥

नारद उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा तीर्थे पुरुषसंज्ञके ।
प्रविष्टा स्नातुकामाहं प्रेरिता तत्र विष्णुना ॥ ६१ ॥
नारदजी बोले-उनका यह वचन सुनकर भगवान् विष्णुकी प्रेरणाके अनुसार स्नान करनेकी इच्छासे मैं उस पुरुषसंज्ञक तीर्थ (सरोवर)-में प्रविष्ट हुआ ॥ ६१ ॥

मज्जनादेव तीर्थेषु पुमाञ्जातः क्षणादपि ।
हरिर्वीणां करे कृत्वा स्थितस्तीरे स्वदेहवान् ॥ ६२ ॥
उस तीर्थमें डुबकी लगाते ही मैं तत्क्षण पुरुषरूपमें हो गया तथा भगवान् विष्णु अपने हाथमें मेरी वीणा लिये हुए अपने स्वाभाविक स्वरूपमें सरोवरके तटपर विराजमान थे ॥ ६२ ॥

उन्मज्ज्य च मया तीरे दृष्टः कमललोचनः ।
प्रत्यभिज्ञा तदा जाता मम चित्ते द्विजोत्तम ॥ ६३ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! स्नान करनेके पश्चात् मुझे तटपर कमललोचन भगवान्का दर्शन प्राप्त हुआ; तब मेरे चित्तमें सभी बातोंका स्मरण हो गया । ६३ ॥

सञ्चिन्तितं मया तत्र नारदोऽहमिहागतः ।
हरिणा सह स्त्रीभावं प्राप्तो मायाविमोहितः ॥ ६४ ॥
मैं सोचने लगा कि मैं नारद हूँ और भगवान् विष्णुके साथ यहाँ आया था; मायासे विमोहित होनेके कारण मैं स्त्रीभावको प्राप्त हो गया ॥ ६४ ॥

इति चिन्तापरश्चाहं यदा जातस्तदा हरिः ।
मामाह नारदागच्छ किं करोषि जले स्थितः ॥ ६५ ॥
जब मैं इस तरहकी बातें सोच रहा था, उसी समय भगवान् विष्णुने मुझसे कहा-हे नारद ! यहाँ आओ, वहाँ जलमें खड़े होकर क्या कर रहे हो ? ॥ ६५ ॥

विस्मितोऽहं तदा स्मृत्वा स्त्रीभावं दारुणं भृशम् ।
पुनः पुरुषभावश्च सम्पन्नः केन हेतुना ॥ ६६ ॥
अपने अत्यन्त दारुण स्त्रीभावका स्मरण करके तथा किस कारणसे मैं पुनः पुरुषभावको प्राप्त हुआयह सोचकर मैं आश्चर्यचकित हो गया ॥ ६६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे नारदस्य पुनः
स्वरूपप्राप्तिवर्णनं नामेकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
अध्याय उन्तीसवाँ समाप्त ॥ २९ ॥


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