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नारदस्य पुनः स्वरूपप्राप्तिवर्णनम् -
राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध -
नारद उवाच इत्युक्तोऽहं तदा तेन राज्ञा तालध्वजेन च । विमृश्य मनसात्यर्थं तमुवाच विशाम्पते ॥ १ ॥ राजन्नाहं विजानामि पुत्री कस्येति निश्चयम् । पितरौ क्व च मे केन स्थापिता च सरोवरे ॥ २ ॥
नारदजी बोले-हे विशाम्पते ! राजा तालध्वजके यह पूछनेपर मैंने अपने मन में सम्यक् प्रकारसे विचार करके उनसे कहा-हे राजन् ! मैं निश्चितरूपसे नहीं जानती कि मैं किसकी कन्या हूँ, मेरे माता-पिता कौन हैं और मुझे इस सरोवरपर कौन लाया है ॥ १-२ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि कथं मे सुकृतं भवेत् । निराधारास्मि राजेन्द्र चिन्तयामि चिकीर्षितम् ॥ ३ ॥
अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मेरा कल्याण कैसे हो सकेगा, मैं आश्रयहीन हूँ । हे राजेन्द्र ! यही बात सोचती रहती हूँ ॥ ३ ॥
दैवमेव परं राजन्नास्त्यत्र पौरुषं मम । धर्मज्ञोऽसि महीपाल यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ४ ॥
हे राजन् ! दैव ही सर्वोपरि है । इसमें मेरा पौरुष व्यर्थ ही है । हे भूपाल ! आप धर्मज्ञ हैं; आप जैसा चाहते हों, वैसा करें ॥ ४ ॥
तवाधीनास्म्यहं भूप न मे कोऽप्यस्ति पालकः । न पिता न च माता च न स्थानं न च बान्धवाः ॥ ५ ॥
हे राजन् ! मैं आपके अधीन हूँ: क्योंकि मेरा यहाँ कोई भी रक्षक नहीं है । मेरे न पिता हैं, न माता हैं, न बन्धु-बान्धव हैं और न तो मेरा कोई स्थान ही है ॥ ५ ॥
इत्युक्तोऽसौ मया राजा बभूव मदनातुरः । मां निरीक्ष्य विशालाक्षीं सेवकानित्युवाच ह ॥ ६ ॥
मेरे ऐसा कहनेपर वे राजा तालध्वज कामासक्त हो उठे और मुझ विशाल नयनोंवालीकी ओर दृष्टि डालकर उन्होंने अपने सेवकोंसे कहा- ॥ ६ ॥
नरयानमानयध्वं चतुर्वाह्यं मनोहरम् । आरोहणार्थमस्यास्तु कौशेयाम्बरवेष्टितम् ॥ ७ ॥ मृद्वास्तरणसंयुक्तं मुक्ताजालविभूषितम् । चतुरस्रं विशालं च सुवर्णरचितं शुभम् ॥ ८ ॥
तुमलोग इस सुन्दर स्त्रीके आरोहणके लिये रेशमी वस्त्रसे आवेष्टित एक मनोहर पालकी ले आओ, जिसे होनेवाले चार पुरुष हों, उसमें कोमल आस्तरण बिछा हो तथा वह मोतियोंकी झालरोंसे सुशोभित हो, वह सोनेकी बनी हुई हो, चौकोर हो तथा पर्याप्त विशाल हो ॥ ७-८ ॥
राज्यके कार्योंको छोड़कर वे दिन-रात मेरे साथ क्रीडारत रहते थे । कामकलामें आसक्त उन राजाको समय बीतनेका भी बोध नहीं रहता था ॥ १४ ॥
उद्यानेषु च रम्येषु वापीषु च गृहेषु च । हर्म्येषु वरशैलेषु दीर्घिकासु वरासु च ॥ १५ ॥ वारुणीमदमत्तोऽसौ विहरन्कानने शुभे । विसृज्य सर्वकार्याणि मदधीनो बभूव ह ॥ १६ ॥
मनोहर उद्यानों, बावलियों, सुन्दर महलों, अट्टालिकाओं, श्रेष्ठ पर्वतों, उत्तम जलाशयों तथा रमणीक काननमें विहार करते हुए मधुपानसे उन्मत्त वे राजा समस्त कार्य छोड़कर मेरे अधीन हो गये । १५-१६ ॥
व्यासाहं तेन संसक्ता क्रीडारसवशीकृता । स्मृतवान्पूर्वदेहं न पुंभावं मुनिजन्म च ॥ १७ ॥
हे व्यासजी ! उनमें मेरी भी पूर्ण आसक्ति हो गयी और मैं क्रीडारसके वशीभूत हो गया । मुझे अपने पूर्व पुरुष-शरीर तथा मुनि-जन्मका भी स्मरण नहीं रहा ॥ १७ ॥
ममैवायं पतिर्योषाहं पत्नीषु प्रिया सती । पट्टराज्ञी विलासज्ञा सफलं जीवितं मम ॥ १८ ॥ इति चिन्तयती तस्मिन्प्रेमबद्धा दिवानिशम् । क्रीडासक्ता सुखे लुब्धा तं स्थिता वशवर्तिनी ॥ १९ ॥ विस्मृतं ब्रह्मविज्ञानं ब्रह्मज्ञानं च शाश्वतम् । धर्मशास्त्रपरिज्ञानं तदासक्तमना स्थिता ॥ २० ॥
ये ही मेरे पति हैं तथा इनकी अनेक पत्नियोंमें मैं ही इनकी प्रिय पतिव्रता भार्या हूँ, सम्पूर्ण विलासोंको जाननेवाली मैं इनकी पटरानी हूँ । इस प्रकार मेरा जीवन सफल है-ऐसा सोचती हुई मैं दिन-रात उन्होंके प्रेममें आबद्ध रहती थी तथा उनके साथ क्रीडारत रहती थी । इस तरह उनके सुखके लोभमें मैं सदा उन्हींके अधीन हो गयी । मेरा ब्रह्मविज्ञान, सनातन ब्रह्मज्ञान तथा धर्मशास्त्रका रहस्य पूर्णरूपसे विस्मृत हो गया और मैं उन्हींमें आसक्त मन होकर रहने लगी ॥ १८-२० ॥
एवं विहरतस्तत्र वर्षाणि द्वादशैव तु । गतानि क्षणवत्कामक्रीडासक्तस्य मे मुने ॥ २१ ॥
हे मुने ! इस प्रकार कामक्रीडामें आसक्त मेरे वहाँ विहार करते हुए बारह वर्ष एक क्षणकी भाँति व्यतीत हो गये ॥ २१ ॥
जाता गर्भवती चाहं मुदं प्राप नृपस्तदा । कारयामास विधिवद्गर्भसंस्कारकर्म च ॥ २२ ॥
मेरे गर्भवती होनेपर राजाको परम प्रसन्नता हुई । राजाने विधिपूर्वक गर्भसम्बन्धी संस्कारकर्म सम्पन्न कराया ॥ २२ ॥
अपृच्छद्दोहदं राजा प्रीणयन्मां पुनः पुनः । नाब्रवं लज्जमानाहं नृपं प्रीतमना भृशम् ॥ २३ ॥
गर्भके समय मेरी मनोवांछित वस्तुओंके विषयमें राजा मुझे प्रसन्न करते हुए बार-बार पूछा करते थे । तब अत्यन्त प्रसन्नचित्त मैं लज्जाके कारण कुछ भी नहीं कह पाती थी ॥ २३ ॥
फिर मेरे पौत्र उत्पन्न हुए, जो खेलकूदमें मग्न रहते थे तथा अनेक प्रकारकी बालक्रीडाओंसे मेरे मोहको बढ़ाते रहते थे । कभी सुख-समृद्धि मेरे सामने आती थी और कभी पुत्रोंके रोगग्रस्त होनेके कारण चित्तको अशान्त कर देनेवाला महान् दुःख भोगना पड़ता था ॥ ३२-३३ ॥
परस्परं कदाचित्तु विरोधोऽभूत्सुदारुणः । पुत्राणां वा वधूनां च तेन सन्तापसम्भवः ॥ ३४ ॥
कभी-कभी पुत्रों अथवा वधुओंमें परस्पर अत्यन्त भीषण विरोध हो जाता था, उससे मुझे सन्ताप होने लगता था ॥ ३४ ॥
मेरे ये पुत्र महान् पराक्रमी हैं तथा मेरी ये बहुएँ उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई हैं-ऐसा सोचकर मेरे मनमें अति मोह बढ़ानेवाला अहंकार उत्पन्न हो जाया करता था ॥ ३७ ॥
हे व्यासजी ! इस प्रकार मायासे मोहित हुआ मैं केवल यही सोचा करता था कि मैं उत्तम आचरणवाली एक पतिव्रता राजमहिषी हूँ, मेरे बहुतसे पुत्र हैं तथा इस संसारमें मैं बड़ी धन्य हूँ ॥ ४० ॥
हे मानद ! इसके बाद दूर देशमें रहनेवाले किसी महान् राजाने मेरे पतिके साथ शत्रुता ठान ली । वह हाथियों तथा रथोंसे अपनी सेना सुसज्जित करके कान्यकुब्जनगरमें आ गया और युद्धके विषयमें सोचने लगा । ॥ ४१-४२ ॥
हे आयुष्मन् ! वहाँ अपने पुत्रों तथा पौत्रोंको भूमिपर गिरा हुआ देखकर मैं दुःखसे अत्यन्त पीडित होकर शोक-सागरमें डूब गया तथा इस प्रकार विलाप करने लगा-हाय, मेरे पुत्र इस समय कहाँ चले गये ? हाय, मुझे तो इस दुष्टात्मा, अति बलवान, महापापी तथा दुर्लघ्य दैवने मार डाला ॥ ४७-४८ ॥
ब्राह्मण बोले-हे तन्वङ्गि ! हे पिकालापे ! तुम क्यों विषाद कर रही हो ? पति-पुत्रादिसे सम्पन्न गृहस्थीमें मोहके कारण ही यह भ्रम उत्पन्न हुआ है । तुम कौन हो, ये किसके पुत्र हैं तथा ये कौन हैं ? तुम परम आत्मगतिपर विचार करो । हे सुलोचने ! अब उठो और विलाप करना छोड़कर स्वस्थ हो जाओ ॥ ५१-५२ ॥
स्नानं च तिलदानं च पुत्राणां कुरु कामिनि । परलोकगतानां च मर्यादारक्षणाय वै ॥ ५३ ॥ कर्तव्यं सर्वथा तीर्थे स्नानं तु न गृहे क्वचित् । मृतानां किल बन्धूनां धर्मशास्त्रविनिर्णयः ॥ ५४ ॥
हे कामिनि ! मर्यादाके रक्षणार्थ अब अपने परलोक गये हुए पुत्रोंके निमित्त स्नान तथा तिलदान करो । धर्मशास्त्रका निर्णय है कि मृत बन्धुओंके निमित्त तीर्थमें ही स्नान करना चाहिये; घरमें कभी नहीं ॥ ५३-५४ ॥
नारदजी बोले-उस वृद्ध ब्राह्मणने इस प्रकार कहकर मुझे समझाया । तत्पश्चात् मैं उठा और बन्धुबान्धवों तथा राजाको साथ लेकर द्विजरूपधारी भगवान् विष्णुको आगे करके तत्काल परम पवित्र तीर्थके लिये चल पड़ा ॥ ५५-५६ ॥
ब्राह्मणरूपधारी जनार्दन जगन्नाथ श्रीहरि भगवान् विष्णु मेरे ऊपर कृपा करके पुतीर्थ सरोवरपर मुझको ले जाकर बोले-हे गजगामिनि ! इस पवित्र सरोवरमें स्नान करो और निरर्थक शोकका परित्याग करो । अब पुत्रोंकी [तिलांजलि आदि] क्रियाका समय उपस्थित है ॥ ५७-५८ ॥
जन्म-जन्मान्तरमें तुम्हारे करोड़ों पुत्र, पिता, पति, भाई तथा बहन हुए तथा वे मृत्युको भी प्राप्त हो गये । उनमेंसे तुम किस-किसका दुःख मनाओगी ? यह तो मनमें उत्पन्न भ्रममात्र है, जो शरीरधारियोंको व्यर्थ ही स्वप्नके समान होकर भी दुःख पहुँचाता रहता है ॥ ५९-६० ॥
उस तीर्थमें डुबकी लगाते ही मैं तत्क्षण पुरुषरूपमें हो गया तथा भगवान् विष्णु अपने हाथमें मेरी वीणा लिये हुए अपने स्वाभाविक स्वरूपमें सरोवरके तटपर विराजमान थे ॥ ६२ ॥
उन्मज्ज्य च मया तीरे दृष्टः कमललोचनः । प्रत्यभिज्ञा तदा जाता मम चित्ते द्विजोत्तम ॥ ६३ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! स्नान करनेके पश्चात् मुझे तटपर कमललोचन भगवान्का दर्शन प्राप्त हुआ; तब मेरे चित्तमें सभी बातोंका स्मरण हो गया । ६३ ॥