हे सुध्रु ! क्या तुम जलमें डूब गयी ? अथवा मछली या कछुए तुम्हें खा गये ? या फिर मेरे दुर्भाग्यवश वरुणने तुम्हें शीघ्र ही अपने अधिकारमें कर लिया ? ॥ ६ ॥
धन्या सुचारुसर्वाङ्गि या त्वं पुत्रैः समागता । अकृत्रिमस्तु पुत्रेषु स्नेहस्तेऽमृतभाषिणि ॥ ७ ॥
हे सर्वांगसुन्दरि ! हे अमृतभाषिणि ! तुम धन्य हो, जो अपने पुत्रोंके साथ चली गयी; उन पुत्रोंके प्रति तुम्हारा वास्तविक प्रेम था ॥ ७ ॥
न युक्तमधुना यन्मां विहाय त्रिदिवं गता । विलपन्तं पतिं दीनं पुत्रस्नेहेन यन्त्रिता ॥ ८ ॥
यह तुम्हारे लिये उचित नहीं है जो कि दीनदशाको प्राप्त मुझ पतिको इस प्रकार विलाप करता हुआ छोड़कर पुत्र-स्नेहरूपी पाशमें बंधी हुई तुम स्वर्ग चली गयी ॥ ८ ॥
उभयं मे गतं कान्ते पुत्रास्त्वं प्राणवल्लभा । तथापि मरणं नास्ति दुःखितस्य भृशं प्रिये ॥ ९ ॥
हे कान्ते ! हे प्रिये ! मेरे पुत्र तथा प्राणप्रिय तुमये दोनों ही चले गये फिर भी मुझ अत्यन्त दुःखितका मरण नहीं हो रहा है ॥ ९ ॥
मुनियोंने नारियोंका अवश्य ही बड़ा उपकार कर दिया है, जो उन्होंने धर्मशास्त्रोंमें पतिके साथ पत्नीके भी जल जाने (सती होने) का उल्लेख किया है ॥ १२ ॥
एवं विलपमानं तं राजानं भगवान्हरिः । निवारयामास तदा वचनैर्युक्तियोजितैः ॥ १३ ॥
इस प्रकार विलाप कर रहे उन तालध्वजको भगवान् विष्णुने अनेक प्रकारके युक्तिपूर्ण वचनोंसे सान्त्वना दी ॥ १३ ॥
श्रीभगवानुवाच किं विषीदसि राजेन्द्र क्व गता ते प्रियाङ्गना । न श्रुतं किं त्वया शास्त्रं न कृतोऽसौ बुधाश्रयः ॥ १४ ॥ का सा कस्त्वं क्व संयोगो वियोगः कीदृशस्तव । प्रवाहरूपे संसारे नृणां नौतरतामिव ॥ १५ ॥ गृहे गच्छ नृपश्रेष्ठ वृथा ते रुदितेन किम् । संयोगश्च वियोगश्च दैवाधीनः सदा नृणाम् ॥ १६ ॥ अनया सह ते राजन् संयोगस्त्विह संवृतः । भुक्ता त्वया विशालाक्षी सुन्दरी तनुमध्यमा ॥ १७ ॥ न दृष्टौ पितरावस्यास्त्वया प्राप्ता सरोवरे । काकतालीप्रसङ्गेन यद्भूतं तत्तथा गतम् ॥ १८ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे राजेन्द्र ! क्यों रो रहे हो ? तुम्हारी प्रिय भार्या कहाँ चली गयी ? क्या तुमने कभी शास्त्रश्रवण नहीं किया है अथवा विद्वज्जनोंकी संगति नहीं की है ? । वह तुम्हारी कौन थी ? तुम कौन हो ? कैसा संयोग तथा कैसा वियोग ? प्रवहमान इस संसारसागरमें मनुष्योंका सम्बन्ध नौकापर चढ़े हुए मनुष्योंकी भाँति है । हे नृप श्रेष्ठ ! अब तुम घर जाओ । तुम्हारे व्यर्थ रोनेसे क्या लाभ ? मनुष्योंका संयोग तथा वियोग सदा दैवके अधीन रहता है । हे राजन् ! विशाल नयनोंवाली इस कृशोदरी सुन्दर स्त्रीके साथ जो भोग करना था, उसे आपने कर लिया । अब इसके साथ आपके संयोगका समय समाप्त हो चुका है । एक सरोवरपर इसके साथ आपका संयोग हुआ था; उस समय इसके माता-पिता आपको दिखायी नहीं पड़े थे । यह अवसर काकतालीय न्यायके अनुसार जैसे आया था, वैसे ही चला गया ॥ १४-१८ ॥
मा शोकं कुरु राजेन्द्र कालो हि दुरतिक्रमः । कालयोगं समासाद्य भुङ्क्ष्व भोगान् गृहे यथा ॥ १९ ॥ यथागता गता सा तु तथैव वरवर्णिनी । यथा पूर्वं तथा तत्र गच्छ कार्यं कुरु प्रभो ॥ २० ॥
अतः हे राजेन्द्र ! शोक मत कीजिये । कालका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है । अपने घर जाकर समयानुसार प्राप्त भोगोंका उपभोग कीजिये । वह सुन्दरी जैसे आयी थी वैसे ही चली भी गयी । आप जैसे पहले थे, अब वैसे ही हो गये । हे राजन् ! अब आप घर जाइये और अपना कार्य कीजिये ॥ १९-२० ॥
क्षणभरमें नष्ट हो जानेवाला यह मानवशरीर प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है । इसके प्राप्त होनेपर सम्यक् प्रकारसे आत्मकल्याण कर लेना चाहिये ॥ २५ ॥
जिह्वोपस्थरसो राजन् पशुयोनिषु वर्तते । ज्ञानं मानुषदेहे वै नान्यासु च कुयोनिषु ॥ २६ ॥
हे राजन् ! जिह्वा तथा जननेन्द्रियका आस्वाद तो पशुयोनियोंमें भी सुलभ होता है, किंतु ज्ञान केवल मानव-योनिमें ही सुलभ है, अन्य क्षुद्र योनियोंमें नहीं ॥ २६ ॥
अतएव आप पत्नीवियोगसे उत्पन्न शोकका परित्याग करके घर चले जाइये । यह सब उन्हीं भगवतीकी माया है, जिससे सम्पूर्ण जगत् मोहित है ॥ २७ ॥
नारद उवाच इत्युक्तो हरिणा राजा प्रणम्य कमलापतिम् । कृत्वा स्नानविधिं सम्यग्जगाम निजमन्दिरम् ॥ २८ ॥ दत्त्वा राज्यं स्वपौत्राय प्राप्य निर्वेदमद्भुतम् । वनं जगाम भूपालस्तत्त्वज्ञानमवाप च ॥ २९ ॥
नारदजी बोले-इस प्रकार भगवान् विष्णुके कहनेपर राजा तालध्वज उन लक्ष्मीपतिको प्रणाम करके भलीभाँति स्नान-विधि सम्पन्न करके अपने घर चले गये । अद्भुत वैराग्यको प्राप्त करके उन राजाने अपने पौत्रको राज्य सौंपकर वनके लिये प्रस्थान किया और उन्होंने तत्त्वज्ञान प्राप्त किया ॥ २८-२९ ॥
गते राजन्यहं वीक्ष्य भगवन्तमधोक्षजम् । तमब्रवं जगन्नाथं हसन्तं मां पुनः पुनः ॥ ३० ॥
राजा तालध्वजके चले जानेपर मुझको देखकर बार-बार हंस रहे उन जगत्पति भगवान् विष्णुसे मैंने कहा ॥ ३० ॥
वञ्चितोऽहं त्वया देव ज्ञातं मायाबलं महत् । स्मरामि चरितं सर्वं स्त्रीदेहे यत्कृतं मया ॥ ३१ ॥
हे देव ! आपने मुझे भ्रमित कर दिया था; अब मायाकी महान् शक्तिको मैंने जान लिया । स्त्रीका शरीर प्राप्त होनेपर मैंने जो भी कार्य किया था, वह सब मैं अब याद कर रहा हूँ ॥ ३१ ॥
ब्रूहि मे देवदेवेश प्रविष्टोऽहं सरोवरे । विगतं पूर्वविज्ञानं स्नानादेव कथं हरे ॥ ३२ ॥
हे देवाधिदेव ! हे हरे ! आप मुझे यह बताइये कि जब मैं सरोवरमें प्रविष्ट हुआ तब स्नान करते ही मेरी पूर्वस्मृति क्यों नष्ट हो गयी थी ? ॥ ३२ ॥
हे जगद्गुरो ! स्त्रीशरीर पानेके पश्चात् उन उत्तम नरेश तालध्वजको पतिरूपमें प्राप्त करके मैं उसी प्रकार मोहित हो गया था, जैसे इन्द्रको पाकर शची ॥ ३३ ॥
मनस्तदेव तच्चित्तं देहः स च पुरातनः । लिङ्गं तदेव देवेश स्मृतेर्नाशः कथं हरे ॥ ३४ ॥
हे देवेश ! मेरा मन वही था, चित्त वही था, वही प्राचीन देह था तथा वही लिंगरूप लक्षण भी था; तब हे हरे ! मेरी स्मृतिका नाश कैसे हो गया ? ॥ ३४ ॥
विस्मयोऽयं महान्मेऽत्र ज्ञाननाशं प्रति प्रभो । कथयाद्य रमाकान्त कारणं परमं च यत् ॥ ३५ ॥
हे प्रभो ! उस समय अपने ज्ञानके नष्ट हो जानेके विषय में मुझे अब महान् आश्चर्य हो रहा है । हे रमाकान्त ! इसका वास्तविक कारण बताइये ॥ ३५ ॥
नारीदेहं मया प्राप्य भुक्ता भोगा ह्यनेकशः । सुरापानं कृतं नित्यं विधिहीनं च भोजनम् ॥ ३६ ॥ मया तदेव न ज्ञातं नारदोऽहमिति स्फुटम् । जानाम्यद्य यथा सर्वं विविक्तं न तथा तदा ॥ ३७ ॥
स्त्रीशरीर पाकर मैंने अनेक प्रकारके भोगोंका आनन्द लिया, नित्य मद्य-पान किया तथा निषिद्ध भोजन किया । उस समय मैं स्पष्टरूपसे यह नहीं जान सका कि मैं नारद हूँ । इस समय मैं जिस प्रकार जान रहा हूँ, वैसा उस समय मैं नहीं जानता था ॥ ३६-३७ ॥
विष्णुरुवाच पश्य नारद मायावी विलासोऽयं महामते । देहेषु सर्वजन्तूनां दशाभेदा ह्यनेकशः ॥ ३८ ॥ जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिश्च तुरीया देहिनां दशा । तथा देहान्तरे प्राप्ते सन्देहः कीदृशः पुनः ॥ ३९ ॥ सुप्तो नरो न जानाति न शृणोति वदत्यपि । पुनः प्रबुद्धो जानाति सर्वं ज्ञातमशेषतः ॥ ४० ॥ निद्रया चाल्यते चित्तं भवन्ति स्वप्नसम्भवाः । नानाविधा मनोभेदा मनोभावा ह्यनेकशः ॥ ४१ ॥ गजो मां हन्तुमायाति न शक्तोऽस्मि पलायने । किं करोमि न मे स्थानं यत्र गच्छामि सत्वरः ॥ ४२ ॥
विष्णु बोले-हे महामते नारद ! देखो, यह सब खेल महामायाजनित है । उसीके प्रभावसे प्राणियोंके शरीरमें अनेक प्रकारकी अवस्थाएँ उपस्थित होती रहती हैं । जैसे शरीरधारियोंमें जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय-ये अवस्थाएँ होती हैं, उसी प्रकार दूसरे शरीरकी प्राप्ति भी होती है । इसमें सन्देह कैसा ? । सोया हुआ प्राणी न जानता है, न सुनता है और न तो बोलता ही है, किंतु जाग जानेपर वही अपने सम्पूर्ण ज्ञात विषयोंको फिरसे जान लेता है । निद्रासे चित्त विचलित हो जाता है और स्वप्नसे उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके मनोभाव तथा मनोभेद उपस्थित होते रहते हैं । उस अवस्थामें प्राणी सोचता है कि हाथी मुझे मारने आ रहा है, किंतु मैं भागने में समर्थ नहीं हूँ । क्या करूँ ? मेरे लिये कोई स्थान नहीं है, जहाँ मैं शीघ्र भाग चलूँ ॥ ३८-४२ ॥
कभी-कभी प्राणी स्वप्नमें अपने मृत पितामहको घरपर आया हुआ देखता है । वह समझता है कि मैं उनके साथ मिल रहा हूँ, बात कर रहा हूँ, भोजन कर रहा हूँ । जागनेपर वह समझ जाता है कि सुखदु:ख-सम्बन्धी ये बातें मैंने स्वजमें देखी हैं । उन बातोंको याद करके वह लोगोंको विस्तारपूर्वक उनके बारेमें बताता भी है । जिस प्रकार कोई भी प्राणी स्वप्नमें यह नहीं जान पाता कि यह निश्चय ही भ्रम है, उसी प्रकार मायाका ऐश्वर्य जान पाना अत्यन्त कठिन है । हे नारद ! मायाके गुणोंकी अगम्य सीमाको न तो मैं जानता हूँ और न तो शिव तथा न ब्रह्मा ही जानते हैं तो फिर मन्दबुद्धिवाला दूसरा कौन मनुष्य उसे पूर्णतः जानने में समर्थ हो सकता है ? इस जगत्का कोई भी प्राणी मायाके गुणोंको नहीं जान सका है । ॥ ४३-४७ ॥
गुणत्रयकृतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् । विना गुणैर्न संसारो वर्तते किञ्चिदप्यदः ॥ ४८ ॥ अहं सत्त्वप्रधानोऽस्मि रजस्तमसमन्वितः । न कदाचित्त्रिभिर्हीनो भवामि भुवनेश्वरः ॥ ४९ ॥ तथा ब्रह्मा पिता तेऽत्र रजोमुख्यः प्रकीर्तितः । तमःसत्त्वसमायुक्तो न ताभ्यामुज्झितः किल ॥ ५० ॥ शिवस्तथा तमोमुख्यो रजःसत्त्वसमावृतः । गुणत्रयविहीनस्तु नैव कोऽपि मया श्रुतः ॥ ५१ ॥
यह सम्पूर्ण चराचर जगत् सत्त्व, रज तथा तम-इन तीनों गुणोंके संयोगसे विरचित है । इन गुणोंके बिना यह संसार क्षणभर भी स्थित नहीं रह सकता । मैं सत्त्वगुणप्रधान हूँ: रजोगुण और तमोगुण मुझमें गौणरूपमें विद्यमान हैं । तीनों गुणोंसे रहित होनेपर मैं अखिल भुवनका नियन्ता कभी नहीं हो सकता । उसी प्रकार आपके पिता ब्रह्मा रजोगुणप्रधान कहे जाते हैं । वे सत्त्वगुण तथा तमोगुणसे भी युक्त हैं; इन दोनों गुणोंसे रहित नहीं हैं । उसी प्रकार भगवान् शंकर भी तमोगुणप्रधान हैं तथा सत्त्वगुण और रजोगुण उनमें गौणरूपसे विद्यमान हैं । मैंने ऐसे किसी प्राणीके विषयमें नहीं सुना है, जो इन तीनों गुणोंसे रहित हो ॥ ४८-५१ ॥
अतएव हे मुनीश्वर ! मायाके द्वारा विरचित, सारहीन, सीमारहित तथा परम दुर्घट इस संसारमें प्राणीको मोह नहीं करना चाहिये । आपने अभी-अभी मायाका प्रभाव देखा है; आपने अनेक प्रकारके भोगोंका उपभोग किया । तब हे महाभाग ! आप उस महामायाके अद्भुत चरित्रके विषयमें मुझसे क्यों पूछ रहे हैं ? ॥ ५२-५३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे मायाप्राबल्यवर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥