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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
एकत्रिंशोऽध्यायः

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भगवतीमाहात्म्यवर्णनम् -
व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना -


व्यास उवाच
निशामय महाराज ब्रवीमि विशदाक्षरम् ।
माहात्म्यं खलु मायाया नारदात्तु मया श्रुतम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे महाराज ! मैंने नारदजीसे योगमायाके पवित्र अक्षरोंवाले जिस माहात्म्यको सुना है, उसे कहता है: आप सूनें ॥ १ ॥

मया पुनर्मुनिः पृष्टो नारदः सर्ववित्तमः ।
श्रुत्वा कथां मुनेस्तस्य नारीदेहसमुद्‌भवाम् ॥ २ ॥
ब्रूहि नारद पश्चात्किं कथितं हरिणा तदा ।
क्व गतश्च जगन्नाथो भवता सह माधवः ॥ ३ ॥
महर्षि नारदकी नारी-देहसे सम्बन्धित कथा सुनकर मैंने उन सर्वज्ञशिरोमणि मुनिसे पुनः पूछाहे नारदजी ! अब आप यह बताइये कि इसके बाद भगवान् विष्णुने आपसे क्या कहा और आपके साथ वे जगत्पति लक्ष्मीकान्त कहाँ गये ? ॥ २-३ ॥

नारद उवाच
इत्युक्त्वा भगवांस्तस्मिंस्तडागेऽतिमनोहरे ।
आरुह्य गरुडं गन्तुं वैकुण्ठे च मनो दधे ॥ ४ ॥
नारदजी बोले-उस अत्यन्त मनोहर सरोवरके तटपर मुझसे इस प्रकार कहकर भगवान् विष्णुने गरुडपर आरूढ़ होकर वैकुण्ठके लिये प्रस्थान करनेका विचार किया ॥ ४ ॥

मामुवाच रमाकान्तो यथेष्टं गच्छ नारद ।
एहि वा मम लोकं त्वं यथारुचि तथा कुरु ॥ ५ ॥
तदनन्तर रमापति विष्णुने मुझसे कहा-हे नारद ! अब आप जहाँ जाना चाहें, जाय । अथवा मेरे लोक चलिये । जैसी आपकी रुचि हो वैसा कीजिये ॥ ५ ॥

ब्रह्मलोकं गतश्चाहमापृच्छ्य मधुसूदनम् ।
भगवानपि देवेशस्तत्क्षणाद्‌गरुडासनः ॥ ६ ॥
वैकुण्ठमगमत्तूर्णं मामादिश्य यथासुखम् ।
इसके बाद मैं मधुसूदन श्रीविष्णुसे आज्ञा लेकर ब्रह्मलोक चला गया । गरुडासीन होकर वे देवेश भगवान् विष्णु भी मुझे आदेश देकर उसी क्षण बड़े आनन्दसे शीघ्र ही वैकुण्ठ चले गये ॥ ६.५ ॥

ततोऽहं पितृसदनं गतो याते जनार्दने ॥ ७ ॥
चिन्तयन्सकलं दुःखं सुखं च परमाद्‌भुतम् ।
गत्वा प्रणम्य पितरं स्थितो यावत्पुरः पितुः ॥ ८ ॥
तावत्पृष्टो मुने पित्रा वीक्ष्य चिन्तातुरं तु माम् ।
तत्पश्चात् श्रीविष्णुके चले जानेपर समस्त परम अद्भुत सुखों तथा दुःखोंके सम्बन्धमें विचार करता हुआ मैं अपने पिता ब्रह्माजीके भवनपर जा पहुंचा । हे मुने ! वहाँ पहुँचकर पिताजीको प्रणाम करके ज्यों ही मैं उनके सामने खड़ा हुआ, तभी उन्होंने मुझे चिन्तासे व्यग्र देखकर पूछा ॥ ७-८.५ ॥

ब्रह्योवाच
क्व गतोऽसि महाभाग कस्माच्चिन्तातुरः सुत ॥ ९ ॥
स्वस्थं नैवाद्य पश्यामि मनस्ते मुनिसत्तम ।
केनापि वञ्चितोऽसि त्वं दृष्टं वा किञ्चिदद्‌भुतम् ॥ १० ॥
ब्रह्माजी बोले-हे महाभाग ! आप कहाँ गये थे ? हे सुत ! आप क्यों इतने घबराये हुए हैं ? हे मुनिश्रेष्ठ ! आपका चित्त इस समय स्वस्थ नहीं दिखायी पड़ रहा है । क्या किसीने आपको धोखेमें डाल दिया है अथवा आपने कोई आश्चर्यजनक दृश्य देखा है ? हे पुत्र ! आज मैं आपको उदास तथा विवेकसे कुण्ठित क्यों देख रहा हूँ ? ॥ ९-१० ॥

विषण्णं गतविज्ञानं पश्यामि त्वां कथं सुत ।
नारद उवाच
इति पृष्टस्तदा पित्रा बृस्यां समुपवेश्य च ॥ ११ ॥
तमब्रवं स्ववृत्तान्तं मायाबलसमुद्‌भवम् ।
वञ्चितोऽहं पितः कामं विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ १२ ॥
स्त्रीभावं गमितः कामं वर्षाणि सुबहून्यपि ।
अनुभूतं महद्दुःखं पुत्रशोकसमुद्‌भवम् ॥ १३ ॥
नारदजी बोले-पिता ब्रह्माजीके ऐसा पूछनेपर मैंने आसनपर बैठकर मायाके प्रभावसे उत्पन्न अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे कहा-हे पिताजी ! महान् शक्तिशाली विष्णुने मुझे ठग लिया था । बहुत वर्षोंतक मैं स्त्रीशरीर धारण किये रहा और मैंने पुत्रशोकजनित भीषण दु:खका अनुभव किया ॥ ११-१३ ॥

प्रबोधितोऽहं तेनैव मृदुवाक्यामृतेन च ।
पुनः सरोवरे स्नात्वा जातोऽहं नारदः पुमान् ॥ १४ ॥
तत्पश्चात् उन्होंने ही अपने अमृतमय मधुर वचनसे मुझे समझाया और पुनः सरोवरमें स्नान करके मैं पुरुषरूप नारद हो गया ॥ १४ ॥

किमेतत्कारणं ब्रह्मन् यन्मोहमगमं तदा ।
विस्मृतं पूर्वविज्ञानं तन्मयस्तरसा कृतः ॥ १५ ॥
एतन्मायाबलं ब्रह्मन्न जानेऽहं दुरत्ययम् ।
ज्ञानहानिकरं जातं मूलं मोहस्य विस्फुटम् ॥ १६ ॥
हे ब्रह्मन् ! उस समय मुझे जो मोह हो गया था, उसका क्या कारण है ? उस समय मेरा पूर्वज्ञान विस्मृत हो गया था और मैं शीघ्र ही उन [राजा तालध्वज]-में पूर्णरूपसे अनुरक्त हो गया । हे ब्रह्मन् ! मैं मायाके इस बलको दुर्लघ्य, ज्ञानकी हानि करनेवाला तथा मोहकी विस्तृत जड़ मानता हूँ ॥ १५-१६ ॥

अनुभूतं मया सम्यग्ज्ञातं सर्वं शुभाशुभम् ।
कथं त्वं जितवांस्तात तमुपायं वदस्व मे ॥ १७ ॥
मैंने सम्पूर्ण शुभ तथा अशुभ परिस्थितियोंका अनुभव किया तथा सम्यक् प्रकारसे उनके विषयमें जाना । हे तात ! आपने उस मायाको कैसे जीता है ? वह उपाय मुझे भी बताइये ॥ १७ ॥

नारद उवाच
विज्ञप्तोऽसौ मया धाता प्रीतिपूर्वमतः परम् ।
मामुवाच स्मितं कृत्वा पिता मे वासवीसुत ॥ १८ ॥
नारदजी बोले-हे व्यासजी ! पिता ब्रह्माजीसे मेरे इस प्रकार बतानेपर वे मुसकराकर मुझसे प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ १८ ॥

ब्रह्मोवाच
दुर्जयैषा सुरैः सर्वैर्मुनिभिश्च महात्मभिः ।
तापसैर्ज्ञानयुक्तैश्च योगिभिः पवनाशनैः ॥ १९ ॥
ब्रह्माजी बोले-सभी देवता, मुनि, महात्मा, तपस्वी, जानी तथा वायुसेवन करनेवाले योगियोंके लिये भी यह माया कठिनतासे जीती जानेवाली है ॥ १९ ॥

नाहं तां सर्वथा ज्ञातुं शक्तो मायां महाबलाम् ।
विष्णुर्ज्ञातुं न शक्तश्च तथा शम्भुरुमापतिः ॥ २० ॥
उस महाशक्तिशालिनी मायाको सम्यक प्रकारसे जाननेमें मैं भी समर्थ नहीं हूँ । उसी प्रकार विष्णु तथा उमापति शंकर भी उसे जाननेमें समर्थ नहीं हैं ॥ २० ॥

दुर्ज्ञेया सा महामाया सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ।
कालकर्मस्वभावाद्यैर्निमित्तकारणैर्वृता ॥ २१ ॥
सृजन, पालन तथा संहार करनेवाली वह महामाया सभीके लिये दुर्जेय है । काल, कर्म तथा स्वभाव आदि निमित्त कारणोंसे वह सदा समन्वित है ॥ २१ ॥

शोकं मा कुरु मेधाविंस्तत्र मायामहाबले ।
न चैव विस्मयः कार्यो वयं सर्वे विमोहिताः ॥ २२ ॥
हे मेधाविन् ! अपरिमित बलसे सम्पन्न इस मायाके विषयमें आप शोक न करें । इसके विषयमें किसी प्रकारका विस्मय नहीं करना चाहिये । हमलोग भी मायासे विमोहित हैं ॥ २२ ॥

नारद उवाच
पित्रेत्युक्तस्तदा व्यास तमापृच्छ्य गतस्मयः ।
आगतोऽस्म्यत्र पश्यन्वै तीर्थानि च वराणि च ॥ २३ ॥
नारदजी बोले-हे व्यासजी ! पिताजीके ऐसा कहनेपर मेरा विस्मय दूर हो गया । इसके बाद उनसे आज्ञा लेकर उत्तम तीर्थोंका दर्शन करता हुआ मैं यहाँ आ पहुँचा हूँ ॥ २३ ॥

तस्मात्त्वमपि सन्त्यज्य मोहं कौरवनाशजम् ।
कालक्षयं सुखासीनः स्थानेऽस्मिन् कुरु सत्तम ॥ २४ ॥
अतएव हे श्रेष्ठ व्यासजी ! कौरवोंके नाशसे उत्पन्न मोहका परित्याग करके आप भी इस स्थानपर सुखपूर्वक रहते हुए समय व्यतीत कीजिये ॥ २४ ॥

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
निश्चयं हृदये कृत्वा विचरस्व यथासुखम् ॥ २५ ॥
किये गये शुभ तथा अशुभ कर्मका फल अवश्य भोगना पड़ता है-ऐसा मनमें निश्चय करके आनन्दपूर्वक विचरण कीजिये ॥ २५ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा नारदो राजन् गतो मां प्रतिबोध्य च ।
अहं तच्चिन्तयन्वाक्यं यदुक्तं मुनिना तदा ॥ २६ ॥
स्थितः सरस्वतीतीरे कल्पे सारस्वते वरे ।
कालातिवाहनायैतत्कृतं भागवतं मया ॥ २७ ॥
पुराणमुत्तमं भूप सर्वसंशयनाशनम् ।
नानाख्यानसमायुक्तं वेदप्रामाण्यसंश्रितम् ॥ २८ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! ऐसा कहकर मुझे समझानेके पश्चात् नारदजी वहाँसे चले गये । मुनि नारदने मुझसे जो वाक्य कहा था उसपर विचार करता हुआ मैं उस श्रेष्ठ सारस्वतकल्पमें सरस्वतीके तटपर ठहर गया । हे राजन् ! समय व्यतीत करनेके उद्देश्यसे वहींपर मैंने सम्पूर्ण सन्देहोंको दूर करनेवाले, नानाविध आख्यानोंसे युक्त, वैदिक प्रमाणोंसे ओतप्रोत तथा पुराणों में उत्तम इस श्रीमद्देवीभागवतकी रचना की थी ॥ २६-२८ ॥

सन्देहोऽत्र न कर्तव्यः सर्वथा नृपसत्तम ।
यथेन्द्रजालिकः कश्चित्पाञ्चालीं दारवीं करे ॥ २९ ॥
कृत्वा नर्तयते कामं स्वेच्छया वशवर्तिनीम् ।
तथा नर्तयते माया जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ ३० ॥
हे राजेन्द्र ! इसमें किसी तरहका संशय नहीं करना चाहिये । जिस प्रकार कोई इन्द्रजाल करनेवाला अपने हाथमें काठकी पुतली लेकर उसे अपने अधीन करके अपने इच्छानुसार नचाता है, उसी प्रकार यह माया चराचर जगत्को नचाती रहती है ॥ २९-३० ॥

ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं सदेवासुरमानुषम् ।
पञ्चेन्द्रियसमायुक्तं मनश्चित्तानुवर्तनम् ॥ ३१ ॥
ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी पाँच इन्द्रियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले देवता, मानव तथा दानव हैं; वे सभी मन तथा चित्तका अनुसरण करते हैं ॥ ३१ ॥

गुणास्तु कारणं राजन् सर्वेषां सर्वथा त्रयः ।
कार्यं कारणसंयुक्तं भवतीति विनिश्चयः ॥ ३२ ॥
हे राजन् ! सत्त्व, रज तथा तम-ये तीनों गुण ही सभी कार्योंके सर्वथा कारण होते हैं । यह निश्चित है कि कोई भी कार्य किसी-न-किसी कारणसे अवश्य सम्बद्ध रहता है ॥ ३२ ॥

भिन्नभिन्नस्वभावास्ते गुणा मायासमुद्‌भवाः ।
शान्तो घोरस्तथा मूढस्त्रयस्तु विविधा यतः ॥ ३३ ॥
मायासे उत्पन्न हुए ये तीनों गुण भिन्नभिन्न स्वभाववाले होते हैं, क्योंकि ये तीनों गुण (क्रमशः) शान्त, घोर तथा मूढ-भेदानुसार तीन प्रकारके होते हैं ॥ ३३ ॥

तत्समेतः पुमान्नित्यं तद्विहीनः कथं भवेत् ।
न भवत्येव संसारे रहितस्तन्तुभिः पटः ॥ ३४ ॥
तथा गुणैस्त्रिभिर्हीनो न देहीति विनिश्चयः ।
देवदेहो मनुष्यो वा तिरश्चो वा नराधिप ॥ ३५ ॥
गुणैर्विरहितो न स्यान्मृद्‌विहीनो घटो यथा ।
ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्रस्त्रयश्चामी गुणाश्रयाः ॥ ३६ ॥
कदाचित्प्रीतियुक्तास्ते तथाप्रीतियुताः पुनः ।
तथा विषादयुक्तास्ते भवन्ति गुणयोगतः ॥ ३७ ॥
इन तीनों गुणोंसे सदा युक्त रहनेवाला प्राणी इन गुणोंसे विहीन कैसे रह सकता है ? जिस प्रकार संसारमें तन्तुविहीन वस्त्रकी सत्ता नहीं हो सकती, उसी प्रकार तीनों गुणोंसे रहित प्राणीकी सत्ता नहीं हो सकती, यह पूर्णरूपेण निश्चित है । हे नरेश ! जिस प्रकार मिट्टीके बिना घटका होना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार देवता, मानव अथवा पशु-पक्षी भी गुणोंके बिना नहीं रह सकते । यहाँतक कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश-ये तीनों भी इन गुणोंके आश्रित रहते हैं । गुणोंका संयोग होनेसे ही वे कभी प्रसन्न रहते हैं, कभी अप्रसन्न रहते हैं तथा कभी विषादग्रस्त हो जाते हैं ॥ ३४-३७ ॥

ब्रह्मा कदाचित्सत्त्वस्थस्तदा शान्तः समाधिमान् ।
प्रीतियुक्तो भवेत्सर्वभूतेषु ज्ञानसंयुतः ॥ ३८ ॥
पुनः सत्त्वविहीनस्तु रजोगुणसमावृतः ।
तदा भवेद्‌ घोररूपः सर्वत्राप्रीतिसंयुतः ॥ ३९ ॥
यदा तमोगुणाविष्टो बाहुल्येन भवेद्विधिः ।
तदा विषादसम्पन्नो मूढो भवति नान्यथा ॥ ४० ॥
जब ब्रह्मा सत्त्वगुणमें स्थित रहते हैं तब वे शान्त, समाधिस्थ, ज्ञानसम्पन्न तथा सभी प्राणियोंके प्रति प्रेमसे युक्त हो जाते हैं । वे ही जत्र सन्चगुणसे विहीन होकर रजोगुणकी अधिकतासे युन्न होते हैं, तब उनका रूप भयावह हो जाता है और वे सबके प्रति अप्रीतिकी भावनासे युक्त हो जाते हैं । वे हो ब्रह्मा जब तमोगुणकी अधिकतासे आविष्ट हो जाते हैं. तब वे विषादग्रस्त तथा मूढ़ हो जाते हैं । इसमें संशय नहीं है ॥ ३८-४० ॥

माधवोऽपि सदा सत्त्वसंश्रितः सर्वथा भवेत् ।
यदा शान्तः प्रीतियुक्तो भवेज्ज्ञानसमन्वितः ॥ ४१ ॥
स एव रजआधिक्यादप्रीतिसंयुतो भवेत् ।
घोरश्च सर्वभूतेषु गुणाधीनो रमापतिः ॥ ४२ ॥
सदा सत्त्वगुणमें स्थित रहनेवाले विष्णु इमा गुणके कारण शान्त, प्रीतिमान् तथा ज्ञानसम्पन्न रहते हैं । वे ही रमापति विष्णु रजोगुणकी अधिकताके कारण अप्रीतिसे युक्त हो जाते हैं और तमोगुणके अधीन होकर सभी प्राणियोंके लिये घोररूप हो जाते हैं । ४१-४२ ॥

रुद्रोऽपि सत्त्वसंयुक्तः प्रीतिमाञ्छान्तिमान्भवेत् ।
रजोनिमीलितः सोऽपि घोरः प्रीतिविवर्जितः ॥ ४३ ॥
इसी प्रकार रुद्र भी सत्त्वगुणसे युक्त होनेपर प्रेम तथा शान्तिसे समन्वित रहते हैं, किंतु रजोगुणसे आविष्ट होनेपर वे भी भयानक तथा प्रेमविहीन हो जाते हैं । इसी तरह तमोगुणसे आविष्ट होनेपर वे रुद्र मूढ तथा विषादग्रस्त हो जाते हैं ॥ ४३ ॥

तमोगुणयुतः सोऽपि मूढो विषादयुग्भवेत् ।
एते यदि गुणाधीना ब्रह्मविष्णुहरादयः ॥ ४४ ॥
सूर्यवंशोद्‌भवास्तद्वत्सोमवंशभवा अपि ।
मन्वादयश्च ये प्रोक्ताश्चतुर्दश युगे युगे ॥ ४५ ॥
अन्येषां चैव का वार्ता संसारेऽस्मिन्नृपोत्तम ।
मायाधीनं जगत्सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ ४६ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! यदि ये ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि तथा युग-युगमें जो सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी चौदहों मनु कहे गये हैं-वे भी गुणोंके अधीन रहते हैं, तब इस संसारमें अन्य लोगोंकी कौन-सी बात ? देवता, दानव तथा मानवसमेत यह सम्पूर्ण जगत् मायाका वशवर्ती है ॥ ४४-४६ ॥

तस्माद्‌राजन्न कर्तव्यः सन्देहोऽत्र कदाचन ।
देही मायापराधीनश्चेष्टते तद्वशानुगः ॥ ४७ ॥
अतएव हे राजन् ! इस विषयमें कदापि सन्देह नहीं करना चाहिये । प्राणी मायाके अधीन है और वह उसीके वशवर्ती होकर चेष्टा करता है ॥ ४७ ॥

सा च माया परे तत्त्वे संविद्‌रूपेऽपि सर्वदा ।
तदधीना प्रेरिता च तेन जीवेषु सर्वदा ॥ ४८ ॥
वह माया भी सदा संविद्रूप परमतत्त्वमें स्थित रहती है । वह उसीके अधीन रहती हुई उसीसे प्रेरित होकर जीवोंमें सदा मोहका संचार करती है ॥ ४८ ॥

ततो मायाविशिष्टां तां संविदं परमेश्वरीम् ।
मायेश्वरीं भगवतीं सच्चिदानन्दरूपिणीम् ॥ ४९ ॥
ध्यायेत्तथाराधयेच्च प्रणमेच्च जपेदपि ।
तेन सा सदया भूत्वा मोचयत्येव देहिनम् ॥ ५० ॥
स्वमायां संहरत्येव स्वानुभूतिप्रदानतः ।
भुवनं खलु माया स्यादीश्वरी तस्य नायिका ॥ ५१ ॥
भुवनेशी ततः प्रोक्ता देवी त्रैलोक्यसुन्दरी ।
तद्‌रूपे यदि सक्तं स्याच्चित्तं भूमिपते सदा ॥ ५२ ॥
मायया किं भवेत्तत्र सदसद्‌भूतया नृप ।
तस्मान्मायानिरासार्थं नान्यद्वै देवतान्तरम् ॥ ५३ ॥
समर्थं तु विना देवीं सच्चिदानन्दरूपिणीम् ।
अतः विशिष्टमायास्वरूपा, प्रज्ञामयी, परमेश्वरी, मायाकी अधिष्ठात्री, सच्चिदानन्दरूपिणी भगवती जगदम्बाका ध्यान, पूजन, वन्दन तथा जप करना चाहिये । उससे वे भगवती प्राणीपर दया करके उसे मुक्त कर देती हैं और अपनी अनुभूति कराकर अपनी मायाको हर लेती हैं । समस्त भुवन मायारूप है तथा वे ईश्वरी उसकी नायिका हैं । इसीलिये त्रैलोक्यसुन्दरी भगवतीको भुवनेशी' कहा गया है । हे पृथ्वीपते ! यदि उन भगवतीके रूपमें चित्त सदा आसक्त हो जाय नो सत्-असत्स्वरूपा माया अपना क्या प्रभाव डाल सकती है ? अतः हे राजन् ! सच्चिदानन्दरूपिणी भगवती परमेश्वरीको छोड़कर अन्य कोई भी देवता उस मायाको दूर करने में समर्थ नहीं है ॥ ४९-५३.५ ॥

तमोराशिं नाशयितुं शक्तं नैव तमो भवेत् ॥ ५४ ॥
किन्तु भानुप्रभाचन्द्रविद्युद्वह्निप्रभादयः ।
तस्मान्मायेश्वरीमम्बां स्वप्रकाशां तु संविदम् ॥ ५५ ॥
आराधयेदतिप्रीत्या मायागुणनिवृत्तये ।
एक अन्धकार किसी दूसरे अन्धकारको दर करने में समर्थ नहीं हो सकता; किंतु सूर्य, चन्द्रमा. विद्युत् तथा अग्नि आदिकी प्रभा उस अन्धकारको मिटा देती है । अतएव मायाके गुणोंसे निवृत्ति प्राप्त करनेके लिये प्रसन्नतापूर्वक स्वयंप्रकाशित तथा ज्ञानस्वरूपिणी भगवती मायेश्वरीकी आराधना करनी चाहिये ॥ ५४-५५.५ ॥

इति सम्यङ्‌मयाख्यातं वृत्रासुरवधादिकम् ॥ ५६ ॥
यत्पृष्टं राजशार्दूल किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ।
हे राजेन्द्र ! वृत्रासुर-वध आदिकी कथाके विषयों आपने जो पूछा था, उसका वर्णन मैंने भलीभाँति का दिया । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ५६.५ ॥

पूर्वार्धोऽयं पुराणस्य कथितस्तव सुव्रत ॥ ५७ ॥
यत्र देव्यास्तु महिमा विस्तरेणोपपादितः ।
एतद्‌रहस्यं श्रीमातुर्न देयं यस्य कस्यचित् ॥ ५८ ॥
देयं भक्ताय शान्ताय देवीभक्तिरताय च ।
शिष्याय ज्येष्ठपुत्राय गुरुभक्तियुताय च ॥ ५९ ॥
हे सुव्रत ! श्रीमद्देवीभागवतपुराणका पूर्वाध मैंने आपसे कहा, जिसमें देवीकी महिमाका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । भगवती जगदम्बाक यह रहस्य जिस किसीको नहीं सुना देना चाहिये भक्त, शान्त, देवीकी भक्तिमें लीन, ज्येष्ठ पुत्र तथा गुरुभक्तिसे युक्त शिष्यके समक्ष ही इसका वर्णन करना चाहिये ॥ ५७-५९ ॥

इदमखिलकथानां सारभूतं पुराणं
    निखिलनिगमतुल्यं सप्रमाणानुविद्धम् ।
पठति परमभावाद्यः शृणोतीह भक्त्या
    स भवति धनवान्वै ज्ञानवान्मानवोऽत्र ॥ ६० ॥
इस संसारमें जो मनुष्य सम्पूर्ण कथाओंके सारस्वरूप, समस्त वेदोंकी तुलना करनेवाले तथा नानाविध प्रमाणोंसे परिपूर्ण इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणका विशेष श्रद्धाके साथ भक्तिपूर्वक पाठ करता है तथा इसका श्रवण करता है, वह ऐश्वर्यसम्पन्न तथा ज्ञानवान् हो जाता है ॥ ६० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादप्तसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे
भगवतीमाहात्म्यवर्णनं नामकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
षष्ठः स्कन्धः समाप्त
श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पूर्वार्ध सम्पूर्णम्
अध्याय इकत्तीसवाँ समाप्त ॥ ३१ ॥
॥ षष्ठः स्कन्धः समाप्तः ॥
॥ श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पूर्वार्ध सम्पूर्णम् ॥


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