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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
षष्ठोऽध्यायः

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च्यवनेश्विनोः कृते सोमपानाधिकारत्वचेष्टावर्णनम् -
राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना -


जनमेजय उवाच -
च्यवनेन कथं वैद्यौ तौ कृतौ सोमपायिनौ ।
वचनं च कथं सत्यं जातं तस्य महात्मनः ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-[हे व्यासजी !] च्यवनने उन दोनों वैद्योंको सोमरस पीनेका अधिकारी किस प्रकार बनाया ? उन महात्मा च्यवनकी बात कैसे सत्य सिद्ध हुई ? ॥ १ ॥

मानुषस्य बलं कीदृग्देवराजबलं प्रति ।
निषिद्धौ भिषजौ तेन कृतौ तौ सोमपायिनौ ॥ २ ॥
धर्मनिष्ठ तदाश्चर्यं विस्तरेण वद प्रभो ।
चरितं च्यवनस्याद्य श्रोतुकामोऽस्मि सर्वथा ॥ ३ ॥
देवराज इन्द्रके बलके सामने मानव-बलकी क्या तुलना हो सकती है ? फिर भी उन इन्द्रके द्वारा सोमरसके पानसे निषिद्ध किये गये उन दोनों अश्विनीकुमारोंको च्यवनमुनिने सोमरस-पानका अधिकारी बना दिया । हे धर्मनिष्ठ ! हे प्रभो ! इस आश्चर्यमय विषयका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि मैं इस समय च्यवनमुनिका चरित्र पूर्णरूपसे सुननेका इच्छुक हूँ ॥ २-३ ॥

व्यास उवाच -
निशामय महाराज चरितं परमाद्‌भुतम् ।
च्यवनस्य मखे तस्मिञ्छर्यातेर्भुवि भारत ॥ ४ ॥
सुकन्यां सुन्दरीं प्राप्य च्यवनः सुरसन्निभः ।
विजहार प्रसन्नात्मा देवकन्यामिवापरः ॥ ५ ॥
व्यासजी बोले-हे महाराज ! हे भारत ! राजा शर्यातिने जब भूमण्डलपर यज्ञ किया था, च्यवनमुनिके तत्कालीन उस अत्यन्त अद्‌भुत चरित्रके विषयमें सुनिये । दूसरे देवताके समान तेजस्वी मुनि च्यवन सुन्दर रूपवाली उस देवकन्यास्वरूपिणी सुकन्याको पाकर प्रसन्नचित्त हो गये और उसके साथ विहार करने लगे ॥ ४-५ ॥

कदाचिदथ शर्यातिभार्या चिन्तातुरा भृशम् ।
पतिं प्राह वेपमाना वचनं रुदती प्रिया ॥ ६ ॥
राजन् पुत्री त्वया दत्ता मुनयेऽन्धाय कानने ।
मृता जीवति वा सा तु द्रष्टव्या सर्वथा त्वया ॥ ७ ॥
एक समयकी बात है-महाराज शर्यातिकी पत्नी [अपनी कन्याके विषयमें] अत्यन्त चिन्तित हो उठीं । काँपती और रोती हुई वे अपने पतिसे बोलींहे राजन् ! आपने वनमें एक अन्धे मुनिको पुत्री सौंप दी थी । वह न जाने जीवित है अथवा मर गयी । अत: आपको उसे सम्यक् रूपसे देखना चाहिये ॥ ६-७ ॥

गच्छ नाथ मुनेस्तावदाश्रमं द्रष्टुमादरात् ।
किं करोति सुकन्या सा प्राप्य नाथं तथाविधम् ॥ ८ ॥
हे नाथ ! आप मुनि च्यवनके आश्रममें आदरपूर्वक यह देखनेके लिये जाइये कि उस प्रकारका पति पाकर वह सुकन्या क्या कर रही है ? ॥ ८ ॥

पुत्रीदुःखेन राजर्षे दग्धास्मि सर्वथा हृदि ।
तामानय विशालाक्षीं तपःक्षामां मदन्तिके ॥ ९ ॥
हे राजर्षे ! पुत्रीके दुःखके कारण मेरा हृदय जल रहा है । तपस्या करनेसे क्षीण शरीरवाली मेरी उस विशालनयना पुत्रीको मेरे पास ले आइये ॥ ९ ॥

पश्यामि सर्वथा पुत्रीं कृशाङ्‍गीं वल्कलावृताम् ।
अन्धं पतिं समासाद्य दुःखभाजं कृशोदरीम् ॥ १० ॥
नेत्रहीन पति पाकर महान् कष्ट भोगनेवाली, [तपके कारण] कृश शरीरवाली, वल्कल धारण करनेवाली तथा क्षीण कटिप्रदेशवाली अपनी पुत्रीको मैं देखना चाहती हूँ ॥ १० ॥

शर्यातिरुवाच -
गच्छामोऽद्य विशालाक्षि सुकन्यां द्रष्टुमादरात् ।
प्रियपुत्रीं वरारोहे मुनिं तं संशितव्रतम् ॥ ११ ॥
शर्याति बोले-हे विशालाक्षि ! हे वरारोहे ! मैं अभी अपनी प्रिय पुत्री सुकन्याको आदरपूर्वक देखनेके लिये उत्तम व्रतका आचरण करनेवाले उन च्यवनऋषिके पास जा रहा हूँ ॥ ११ ॥

व्यास उवाच -
एवमुक्त्व तु शर्यातिः कामिनीं शोकसंकुलाम् ।
जगाम रथमारुह्य त्वरितश्चाश्रमं मुनेः ॥ १२ ॥
व्यासजी बोले-शोकसे अत्यन्त व्याकुल अपनी पत्नीसे ऐसा कहकर राजा शांति रथपर बैठकर च्यवनमुनिके आश्रमकी और तुरंत चल पड़े ॥ १२ ॥

गत्वाऽऽश्रमसमीपे तु तमपश्यन्महीपतिः ।
नवयौवनसम्पन्नं देवपुत्रोपमं मुनिम् ॥ १३ ॥
आश्रमके निकट पहुँचकर राजा शर्यातिने देवपुत्रके समान प्रतीत होनेवाले एक नवयौवनसे सम्पन्न मुनिको वहाँ देखा ॥ १३ ॥

तं विलोक्यामराकारं विस्मयं नृपतिर्गतः ।
किं कृतं कुत्सितं कर्म पुत्र्या लोकविगर्हितम् ॥ १४ ॥
देवताओंके स्वरूपवाले उस मुनिको देखकर राजा शर्याति विस्मयमें पड़ गये । वे सोचने लगे कि मेरी पुत्रीने लोकमें निन्दा करानेवाला यह कैसा नीच कर्म कर डाला है ? ॥ १४ ॥

निहतोऽसौ मुनिर्वृद्धस्त्वनयान्यः पतिः कृतः ।
कामपीडितया कामं प्रशान्तोऽप्यतिनिर्धनः ॥ १५ ॥
दुःसहयोऽयं पुष्पधन्वा विशेषेण च यौवने ।
कुले कलङ्कः सुमहाननया मानवे कृतः ॥ १६ ॥
प्रतीत होता है कि इसने कामपीडित होकर उन वृद्ध, शान्तचित्त तथा अति निर्धन मुनिका वध कर दिया एवं किसी अन्यको अपना पति बना लिया है । यह कामदेव बड़ा दुःसह है और युवावस्थामें तो यह विशेषरूपसे और भी दुःसह हो जाता है । इस पुत्रीने तो मनुवंशमें बड़ा भारी कलंक लगा दिया ॥ १५-१६ ॥

धिक्तस्य जीवितं लोके यस्य पुत्री हि कुत्सिता ।
सर्वपापैस्तु दुःखाय पुत्री भवति देहिनाम् ॥ १७ ॥
मया त्वनुचितं कर्म कृतं स्वार्थस्य सिद्धये ।
वृद्धायान्धाय या दत्ता पुत्री सर्वात्मना किल ॥ १८ ॥
कन्या योग्याय दातव्या पित्रा सर्वात्मना किल ।
तादृशं हि फलं प्राप्तं यादृशं वै कृतं मया ॥ १९ ॥
जिस मनुष्यकी पुत्री ऐसा नीच कर्म करनेवाली हो, संसारमें उसके जीवनको धिक्कार है । ऐसी पुत्री मनुष्योंके लिये सभी पापोंसे बढ़कर दुःख देनेवाली होती है । मैंने भी तो स्वार्थकी सिद्धिके लिये ऐसा अनुचित कार्य कर दिया था, जो कि जानबूझकर नेत्रहीन और वृद्ध मुनिको अपनी पुत्री सौंप दी । पिताको चाहिये कि वह भलीभाँति सोचसमझकर ही एक योग्य वरको अपनी कन्या प्रदान करे । मैंने जैसा कर्म किया था, वैसा फल भी पाया ॥ १७-१९ ॥

हन्मि चेदद्य तनयां दुःशीलां पापकारिणीम् ।
स्त्रीहत्या दुस्तरा स्यान्मे तथा पुत्र्या विशेषतः ॥ २० ॥
अब यदि मैं पापकर्म करनेवाली इस दुश्चरित्र कन्याको मार डालता है, तो मुझे दुस्तर स्त्री-हत्या और विशेषरूपसे पुत्री-हत्याका बड़ा भारी दोष लगेगा ॥ २० ॥

मनुवंशस्तु विख्यातः सकलङ्कः कृतो मया ।
लोकापवादो बलवान्दुस्त्याज्या स्नेहशृङ्खला ॥ २१ ॥
किं करोमीति चिन्ताब्धौ यदा मग्नः स पार्थिवः ।
सुकन्यया तदा दैवाद्‌दृष्टश्चिन्ताकुलः पिता ॥ २२ ॥
मैंने तो इस परम प्रसिद्ध मनुवंशको कलंकित कर दिया । एक ओर बलवती लोकनिन्दा है और दूसरी ओर न छोड़ी जा सकनेवाली [सन्तानके प्रति] स्नेहभंखला; अब मैं क्या करूँ ? इस प्रकार सोचते हुए राजा शर्याति जब चिन्ताके सागरमें डूबे हुए थे, उसी समय सुकन्याने चिन्तासे आकुल अपने पिताको संयोगवश देख लिया ॥ २१-२२ ॥

सा दृष्ट्वा तं जगामाशु सुकन्या पितुरन्तिके ।
गत्वा पप्रच्छ भूपालं प्रेमपूरितमानसा ॥ २३ ॥
किं विचारयसे राजंश्चिन्ताव्याकुलिताननः ।
उपविष्टं मुनिं वीक्ष्य युवानमम्बुजेक्षणम् ॥ २४ ॥
एह्येहि पुरुषव्याघ्र प्रणमस्व पतिं मम ।
मा विषादं नृपश्रेष्ठ साम्प्रतं कुरु मानव ॥ २५ ॥
उन्हें देखते ही प्रेमसे परिपूर्ण हृदयवाली वह सुकन्या अपने पिता राजा शर्यातिके पास गयी और वहाँ जाकर उनसे पूछने लगी-हे राजन् ! कमलके समान नेत्रवाले बैठे हुए इन युवा मुनिको देखकर चिन्ताके कारण व्याकुल मुखमण्डलवाले आप इस समय क्या सोच रहे हैं ? हे पुरुषव्याघ्र ! इधर आइये और मेरे पतिको प्रणाम कीजिये । हे मनुवंशी राजेन्द्र ! इस समय आप शोक मत कीजिये ॥ २३-२५ ॥

व्यास उवाच -
इति पुत्र्या वचं श्रुत्वा शर्यातिः क्रोधपीडितः ।
प्रोवाच वचनं राजा पुरःस्थां तनयां ततः ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] तब अपनी पुत्री सुकन्याकी बात सुनकर क्रोधसे सन्तप्त राजा शर्याति अपने सामने खड़ी उस कन्यासे कहने लगे ॥ २६ ॥

राजोवाच -
क्व मुनिश्च्यवनः पुत्रि वृद्धोऽन्धस्तापसोत्तमः ।
कोऽयं युवा मदोन्मत्तः सन्देहोऽत्र महान्मम ॥ २७ ॥
राजा बोले-हे पुत्रि ! परम तपस्वी, वृद्ध तथा नेत्रहीन वे मुनि च्यवन कहाँ हैं और यह मदोन्मत्त युवक कौन है ? इस विषयमें मुझे महान् सन्देह हो रहा है ॥ २७ ॥

मुनिः किं निहतः पापे त्वया दुष्कृतकारिणि ।
नूतनोऽसौ पतिः कामात्कृतः कुलविनाशिनि ॥ २८ ॥
दुराचारमें लिप्त रहनेवाली हे पापिनि ! हे कुलनाशिनि ! क्या तुमने च्यवनमुनिको मार डाला और कामके वशीभूत होकर इस पुरुषका नये पतिके रूपमें वरण कर लिया ? ॥ २८ ॥

सोऽहं चिन्तातुरस्तं न पश्याम्याश्रमसंस्थितम् ।
किं कृतं दुष्कृतं कर्म कुलटाचरितं किल ॥ २९ ॥
इस आश्रममें रहनेवाले उन मुनिको मैं इस समय नहीं देख रहा हूँ, इसीलिये मैं चिन्ताग्रस्त हूँ । तुमने यह नीच कर्म क्यों किया ? यह तो निश्चय ही व्यभिचारिणी स्त्रियोंका चरित्र है२९ ॥

निमग्नोऽहं दुराचारे शोकाब्धौ त्वत्कृतेऽधुना ।
दृष्ट्वैनं पुरुषं दिव्यमदृष्ट्वा च्यवनं मुनिम् ॥ ३० ॥
हे दुराचारिणि ! इस समय तुम्हारे पास इस दिव्य पुरुषको देखकर तथा उन च्यवनमुनिको न देखकर मैं तुम्हारे द्वारा उत्पन्न किये गये शोकसागरमें डूबा हुआ हूँ ॥ ३० ॥

विहस्य तमुवाचाशु सा श्रुत्वा वचनं पितुः ।
गृहीत्वाऽऽनीय पितरं भर्तुरन्तिकमादरात् ॥ ३१ ॥
अपने पिताकी बात सुनकर उन्हें साथ लेकर वह सुकन्या तुरंत पतिके पास पहुँची और उनसे आदरपूर्वक कहने लगी- ॥ ३१ ॥

च्यवनोऽसौ मुनिस्तात जामाता ते न संशयः ।
अश्विभ्यामीदृशः कान्तः कृतः कमललोचनः ॥ ३२ ॥
हे तात ! ये आपके जामाता च्यवनमुनि ही हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है । अश्विनीकुमारोंने इन्हें ऐसा कान्तिमान् तथा कमलके समान नेत्रवाला बना दिया है । ३२ ॥

यदृच्छयात्र सम्प्राप्तौ नासत्यावाश्रमे मम ।
ताभ्यां करुणया नूनं च्यवनस्तादृशः कृतः ॥ ३३ ॥
वे दोनों अश्विनीकुमार एक बार दैवयोगसे मेरे आश्रममें पधारे थे । उन्होंने ही दयालुतापूर्वक च्यवनमुनिको ऐसा कर दिया है ॥ ३३ ॥

नाहं तव सुता तात तथा स्यां पापकारिणी ।
यथा त्वं मन्यसे राजन् विमूढो रूपसंशये ॥ ३४ ॥
हे पिताजी ! मैं आपकी पुत्री हूँ । हे राजन् ! [मेरे पतिदेवका] यह रूप देखकर संशयमें पड़े हुए आप मोहके वशीभूत होकर मुझे जैसी समझ रहे हैं, मैं वैसी पापकृत्य करनेवाली नहीं हूँ ॥ ३४ ॥

प्रणम त्वं मुनिं राजन् भार्गवं च्यवनं पितः ।
आपृच्छ कारणं सर्वं कथियिष्यति विस्तरम् ॥ ३५ ॥
हे राजन् ! भृगुवंशको सुशोभित करनेवाले च्यवनमुनिको आप प्रणाम करें । हे पिताजी ! आप इन्हींसे पूछ लीजिये; ये आपको सारी बात विस्तारपूर्वक बता देंगे ॥ ३५ ॥

इति श्रुत्वा वचं पुत्र्या शर्यातिस्त्वरितस्तदा ।
प्रणनाम मुनिं तत्र गत्वा पप्रच्छ सादरम् ॥ ३६ ॥
तब पुत्रीकी यह बात सुनकर राजा शर्यातिने तुरंत मुनिके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम किया और वे उनसे आदरपूर्वक पूछने लगे ॥ ३६ ॥

राजोवाच -
कथयस्व स्ववृत्तान्तं भार्गवाशु यथोचितम् ।
नयने च कथं प्राप्ते क्व गता ते जरा पुनः ॥ ३७ ॥
संशयोऽयं महान्मेऽस्ति रूपं दृष्ट्वातिसुन्दरम् ।
वद विस्तरतो ब्रह्मन् श्रुत्वाहं सुखमाप्नुयाम् ॥ ३८ ॥
राजा बोले-हे भार्गव ! आप अपना सारा वृत्तान्त समुचितरूपसे मुझे शीघ्र बतलाइये । आपने फिरसे किस प्रकार अपने दोनों नेत्र प्राप्त किये और आपका बुढ़ापा कैसे दूर हुआ ? आपका परम सुन्दर रूप देखकर मुझे यह महान् सन्देह हो रहा है । हे ब्रह्मन् ! आप विस्तारपूर्वक यह सब बतलाइये, जिसे सुनकर मुझे सुख प्राप्त हो ॥ ३७-३८ ॥

च्यवन उवाच -
नासत्यावत्र सम्प्राप्तौ देवानां भिषजावुभौ ।
उपकारः कृतस्ताभ्यां कृपया नृपसत्तम ॥ ३९ ॥
मया ताभ्यां वरो दत्त उपकारस्य हेतवे ।
करिष्यामि मखे राज्ञो भवन्तौ सोमपायिनौ ॥ ४० ॥
च्यवन बोले-हे नृपश्रेष्ठ ! देवताओंकी चिकित्सा करनेवाले दोनों अश्विनीकुमार एक बार यहाँ आये थे । उन दोनोंने ही कृपापूर्वक मेरा यह उपकार किया है । उस उपकारके बदले मैंने उन दोनोंको वर दिया है कि मैं आप दोनोंको राजा शर्यातिके यज्ञमें सोमपानका अधिकारी बना दूंगा ॥ ३९-४० ॥

एवं मया वयः प्राप्तं लोचने विमले तथा ।
स्वस्थो भव महाराज संविशस्वासने शुभे ॥ ४१ ॥
हे महाराज ! इस प्रकार अश्विनीकुमारोंद्वारा मुझे यह युवावस्था तथा ये विमल नेत्र प्राप्त हुए हैं । आप निश्चिन्त रहें और इस पवित्र आसनपर विराजमान हों ॥ ४१ ॥

इत्युक्तः स तु विप्रेण सभार्यः पृथिवीपतिः ।
सुखोपविष्टः कल्याणीः कथाश्चक्रे महात्मना ॥ ४२ ॥
मुनिके यह कहनेपर राजा शांति रानीसहित सुखपूर्वक आसनपर बैठ गये । इसके बाद वे महात्मा च्यवनजीसे कल्याणमयी बातें करने लगे ॥ ४२ ॥

अथैनं भार्गवं प्राह राजानं परिसान्त्वयन् ।
याजयिष्यामि राजंस्त्वां सम्भारानुपकल्पय ॥ ४३ ॥
मया प्रतिश्रुतं ताभ्यां कर्तव्यौ सोमपौ युवाम् ।
तत्कर्तव्यं नृपश्रेष्ठ तव यज्ञेऽतिविस्तरे ॥ ४४ ॥
इन्द्रं निवारयिष्यामि क्रुद्धं तेजोबलेन वै ।
पाययिष्यामि राजेन्द्र सोमं सोममखे तव ॥ ४५ ॥
तत्पश्चात् भृगुवंशी च्यवनमुनिने राजाको सान्त्वना देते हुए उनसे कहा-हे राजन् ! मैं आपसे यज्ञ कराऊँगा, आप यज्ञसम्बन्धी सामग्रियाँ जुटाइये । मैं दोनों अश्विनीकुमारोंसे प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि 'मैं आप दोनोंको सोमपानका अधिकारी बना दूँगा ?' हे नृपश्रेष्ठ ! आपके महान् यज्ञमें मुझे वह कार्य सम्पन्न करना है और हे राजेन्द्र ! आपके सोमयज्ञमें इन्द्रके कोप करनेपर मैं अपने तेजबलसे उन्हें शान्त कर दूंगा और [उन देववैद्योंको] सोमरस पिलाऊँगा ॥ ४३-४५ ॥

ततः परमसन्तुष्टः शर्यातिः पृथिवीपतिः ।
च्यवनस्य महाराज तद्वाक्यं प्रत्यपूजयत् ॥ ४६ ॥
हे राजन् ! इस बातसे राजा शर्याति परम सन्तुष्ट हए और उन्होंने च्यवनमुनिकी उस बातको आदरपूर्वक स्वीकार कर लिया ॥ ४६ ॥

सम्मान्य च्यवनं राजा जगाम नगरं प्रति ।
सभार्यश्चातिसन्तुष्टः कुर्वन्वार्तां मुनेः किल ॥ ४७ ॥
तत्पश्चात् च्यवनमुनिका सम्मान करके परम सन्तुष्ट होकर राजा शर्याति अपनी पत्नीके साथ मुनिसे सम्बन्धित चर्चा करते हुए अपने नगरको चले गये ॥ ४७ ॥

प्रशस्ते‍हनि यज्ञीये सर्वकामसमृद्धिमान् ।
कारयामास शर्यातिर्यज्ञायतनमुत्तमम् ॥ ४८ ॥
तदनन्तर सम्पूर्ण कामनाओंसे परिपूर्ण राजा शांतिने किसी शुभ मुहूर्तमें एक उत्तम यज्ञशालाका निर्माण कराया ॥ ४८ ॥

समानीय मुनीन्पूज्यान्वसिष्ठप्रमुखानसौ ।
भार्गवो याजयामास च्यवनः पृथिवीपतिम् ॥ ४९ ॥
इसके बाद वसिष्ठ आदि प्रमुख पूज्य मुनियोंको बुलाकर भृगुवंशी च्यवनमुनिने राजा शर्यातिसे यज्ञ कराना आरम्भ कर दिया । ४९ ॥

वितते तु तथा यज्ञे देवाः सर्वे सवासवाः ।
आजग्मुश्चाश्विनौ तत्र सोमार्थमुपजग्मतुः ॥ ५० ॥
उस महायज्ञमें इन्द्रसहित सभी देवता उपस्थित हुए और दोनों अश्विनीकुमार भी सोमपानकी इच्छासे वहाँ आये ॥ ५० ॥

इन्द्रस्तु शङ्‌कितस्तत्र वीक्ष्य तावश्विनावुभौ ।
पप्रच्छ च सुरान्सर्वान्किमेतौ समुपागतौ ॥ ५१ ॥
चिकित्सकौ न सोमार्हौ केनानीताविहेति च ।
नाब्रुवन्नमरास्तत्र राज्ञस्तु वितते मखे ॥ ५२ ॥
वहाँ दोनों अश्विनीकुमारोंको भी उपस्थित देखकर इन्द्र सशंकित हो उठे और वे सभी देवताओंसे पूछने लगे-'ये दोनों यहाँ क्यों आये हुए हैं ? ये चिकित्सक हैं: अतः ये सोमरस पीनेके अधिकारी नहीं हैं । इन्हें यहाँ किसने बुलाया है ?' इसपर राजाके उस महायज्ञमें उपस्थित देवताओंने कोई उत्तर नहीं दिया ॥ ५१-५२ ॥

अगृह्णाच्च्यवनः सोममश्विनोर्देवयोस्तदा ।
शक्रस्तं वारयामास मा गृहाणैतयोर्ग्रहम् ॥ ५३ ॥
तत्पश्चात् जब च्यवनमुनि दोनों अश्विनीकुमारोंको सोमरस ग्रहण कराने लगे, तब इन्द्रने [यह कहते हुए उन्हें रोका-'इन दोनोंको सोमभाग ग्रहण मत कराइये' ॥ ५३ ॥

तमाह च्यवनस्तत्र कथमेतौ रवेः सुतौ ।
न ग्रहार्हौ च नासत्यौ ब्रूहि सत्यं शचीपते ॥ ५४ ॥
तब च्यवनमुनिने इन्द्रसे कहा-ये सूर्यपुत्र अश्विनीकुमार सोमरस ग्रहण करनेके अधिकारी कैसे नहीं हैं ? हे शचीपते ! आप इस बातको प्रमाणित कीजिये ॥ ५४ ॥

न सङ्करौ समुत्पन्नौ धर्मपत्‍नीसुतौ रवेः ।
केन दोषेण देवेन्द्र नार्हौ सोमं भिषग्वरौ ॥ ५५ ॥
ये वर्णसंकर नहीं हैं, अपितु सूर्यकी धर्मपत्नीसे उत्पन्न हुए हैं । तब हे देवेन्द्र ! ये दोनों श्रेष्ठ चिकित्सक किस दोषके कारण सोमपानके योग्य नहीं हैं ? ॥ ५५ ॥

निर्णयोऽत्र मखे शक्र कर्तव्यः सर्वदैवतैः ।
ग्राहयिष्यामहं सोमं कृतौ तौ सोमपौ मया ॥ ५६ ॥
हे इन्द्र ! इस यज्ञमें उपस्थित सभी देवता ही इसका निर्णय कर दें । मैं तो इन्हें सोमरस अवश्य पिलाऊँगा; क्योंकि मैंने इन्हें सोमपानका अधिकारी बना दिया है । ॥ ५६ ॥

प्रेरितोऽसौ मया राजा मखाय मघवन्किल ।
एतदर्थं करिष्यामि सत्यं मे वचनं विभो ॥ ५७ ॥
हे मघवन् ! मैंने ही इस यज्ञके लिये राजा शर्यातिको प्रेरित किया है । हे विभो ! इनके लिये मैं ऐसा अवश्य करूँगा; मेरा यह कथन सत्य है ॥ ५७ ॥

आभ्यामुपकृतः शक्र तथा दत्तं नवं वयः ।
तस्मात्प्रत्युपकारस्तु कर्तव्यः सर्वथा मया ॥ ५८ ॥
हे शक्र ! मुझे नवीन अवस्था प्रदान करके इन्होंने मेरा बड़ा उपकार किया है, अतः उसके बदलेमें मुझे सभी प्रकारसे इनका प्रत्युपकार करना चाहिये ॥ ५८ ॥

इन्द्र उवाच -
चिकित्सकौ कृतावेतौ नासत्यौ निन्दितौ सुरैः ।
उभावेतौ न सोमार्हौ मा गृहाणैतयोर्ग्रहम् ॥ ५९ ॥
इन्द्र बोले-चिकित्सावृत्तिवाले ये दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके द्वारा निन्दनीय माने गये हैं । अतः ये सोमपानके अधिकारी नहीं हैं । इनके लिये सोमरसका भाग मत ग्रहण कीजिये ॥ ५९ ॥

च्यवन उवाच -
अहल्याजार संयच्छ कोपं चाद्य निरर्थकम् ।
वृत्रघ्न किं हि नासत्यौ न सोमार्हौ सुरात्मजौ ॥ ६० ॥
च्यवनमुनि बोले-हे अहल्याजार ! इस समय व्यर्थ कोप मत करो । वृत्रका वध करनेवाले हे इन्द्र ! ये देवपुत्र अश्विनीकुमार सोमपानके अधिकारी क्यों नहीं हैं ? ॥ ६० ॥

एवं विवादे समुपस्थिते च
     न कोऽपि वाचं तमुवाच भूप ।
ग्रहं तयोर्भार्गवतिग्मतेजाः
     संग्राहयामास तपोबलेन ॥ ६१ ॥
[व्यासजी बोले-] हे राजन् ! इस प्रकारका विवाद छिड़ जानेपर वहाँ उपस्थित कोई भी देवता च्यवनमुनिसे कुछ भी नहीं कह सका । तब अपने तपोबलके द्वारा अत्यन्त तेजस्वी च्यवनमुनिने सोमरसका भाग लेकर अश्विनीकुमारोंको दे दिया ॥ ६१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे च्यवनाश्विनोः कृते
सोमपानाधिकारत्वचेष्टावर्णनं नाम षष्टोऽध्यायः ॥ ६ ॥
अध्याय छठा समाप्त ॥ ६ ॥


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