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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
सप्तमोऽध्यायः

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च्यवनेश्विनोः कृते सोमपानाधिकारत्वचेष्टावर्णनम् -
क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण -


व्यास उवाच -
दत्ते ग्रहे तु राजेन्द्र वासवः कुपितौ भृशम् ।
प्रोवाच च्यवनं तत्र दर्शयन्बलमात्मनः ॥ १ ॥
मा ब्रह्मबन्धो मर्यादामिमां त्वं कर्त्तुमर्हसि ।
वधिष्यामि द्विषन्तं त्वां विश्वरूपमिवाऽपरम् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे राजेन्द्र ! [च्यवनमुनिके द्वारा अश्विनीकुमारोंको] सोमभाग दे दिये जानेपर इन्द्र अत्यन्त कुपित हुए और उन्होंने अपना पराक्रम दिखाते हुए मुनिसे कहा-हे ब्रह्मबन्धो ! आप इस प्रकारकी अनुचित मर्यादा स्थापित मत कीजिये, अन्यथा मेरा विरोध करनेवाले आप मुनिका भी दूसरे विश्वरूपकी भाँति वध कर डालूँगा ॥ १-२ ॥

च्यवन उवाच -
मावमंस्था महात्मानौ रूपद्रविणवर्चसा ।
यौ चक्रतुर्मां मघवन् वृन्दारकमिवापरम् ॥ ३ ॥
ऋते त्वां विबुधाश्चान्ये कथं वाददते ग्रहम् ।
अश्विनावपि देवेन्द्र देवौ विद्धि परन्तपौ ॥ ४ ॥
च्यवन बोले-हे मघवन् ! जिन महात्मा अश्विनी कुमारोंने रूपसम्पदाके तेजके द्वारा मुझे दूसरे देवताकी भाँति बना दिया है, उनका अपमान मत कीजिये । हे देवेन्द्र ! आपके अतिरिक्त अन्य देवता सोमभाग क्यों पाते हैं ? परम तपस्वी इन अश्विनीकुमारोंको भी आप देवता समझें ॥ ३-४ ॥

इन्द्र उवाच -
भिषजौ नार्हतः कामं ग्रहं यज्ञे कथञ्चन ।
यदि दित्ससि मन्दात्मन् शिरश्छेत्स्यामि साम्प्रतम् ॥ ५ ॥
इन्द्र बोले-हे मन्दात्मन् ! ये दोनों चिकित्सक किसी प्रकार भी यज्ञमें सोमभाग पानेके अधिकारी नहीं हैं । यदि आप इन्हें सोमरस देंगे, तो मैं अभी आपका सिर काट दूंगा ॥ ५ ॥

व्यास उवाच
अनादृत्य तु तद्वाक्यं वासवस्य च भार्गवः ।
ग्रहं तु ग्राहयामास भर्त्सयन्निव तं भृशम् ॥ ६ ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय !] इन्द्रकी उस बातकी उपेक्षा करके उनकी बहुत भर्त्सना करते हुए च्यवनमुनिने अश्विनीकुमारोंको यज्ञ-भाग प्रदान कर दिया ॥ ६ ॥

सोमपात्रं यदा ताभ्यां गृहीतं तु पिपासया ।
समीक्ष्य बलभिद्देव इदं वचनमब्रवीत् ॥ ७ ॥
आभ्यमर्थाय सोमं त्वं ग्राहयिष्यसि चेत्स्वयम् ।
वज्रं तु प्रहरिष्यामि विश्वरूपमिवापरम् ॥ ८ ॥
जब उन दोनोंने पीनेकी इच्छासे सोमपात्र ग्रहण किया, तब शत्रुसेनाका भेदन करनेवाले इन्द्रने मुनिसे यह वचन कहा-यदि आप इन्हें सोमरस देंगे, तो मैं स्वयं आपके ऊपर वज्रसे उसी प्रकार प्रहार करूँगा, जैसे मैंने विश्वरूपको वज्रसे मार डाला था ॥ ७-८ ॥

वासवेनैवमुक्तस्तु भार्गवश्चातिगर्वितः ।
जग्राह विधिवत्सोममश्विभ्यामतिमन्युमान् ॥ ९ ॥
इन्द्रके ऐसा कहनेपर [तपोबलसे] गर्वित च्यवनमुनि अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने विधिपूर्वक अश्विनीकुमारोंको सोमरस दे दिया ॥ ९ ॥

इन्द्रोऽपि प्राक्षिपत्कोपाद्‌वज्रमस्मै स्वमायुधम् ।
पश्यतां सर्वदेवानां सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ १० ॥
इसपर इन्द्रने भी क्रोध करके करोड़ों सूर्योंके समान प्रभावाला अपना आयुध वज्र सभी देवताओंके सामने ही च्यवनमुनिपर चला दिया ॥ १० ॥

प्रेरितं चाशनिं प्रेक्ष्य च्यवनस्तपसा ततः ।
स्तम्भयामास वज्रं स शक्रस्यामिततेजसः ॥ ११ ॥
तब अमित तेजवाले इन्द्रके चलाये गये उस वज्रको देखकर च्यवनमुनिने अपने तपोबलसे उसे स्तम्भित कर दिया ॥ ११ ॥

कृत्यया स महाबाहुरिन्द्रं हन्तुमिहोद्यतः ।
जुहावाग्नौ श्रुतं हव्यं मन्त्रेण मुनिसत्तमः ॥ १२ ॥
इसके बाद वे महाबाहु मुनियोंमें श्रेष्ठ च्यवन कृत्या राक्षसीके द्वारा इन्द्रको मरवा डालनेके लिये उद्यत हो गये और पकाये गये हव्यसे मन्त्रसहित अग्निमें आहुति देने लगे ॥ १२ ॥

तत्र कृत्या समुत्पन्ना च्यवनस्य तपोबलात् ।
प्रबलः पुरुषः क्रूरो बृहत्कायो महासुरः ॥ १३ ॥
उन च्यवनके तपोबलसे वहाँपर कृत्या उत्पन्न हो गयी । अत्यन्त बलशाली तथा क्रूर पुरुषके रूपमें वह आविर्भूत हुई । उस पुरुषका शरीर महान् दैत्यके समान बहुत विशाल था ॥ १३ ॥

मदो नाम महाघोरो भयदः प्राणिनामिह ।
शरीरे पर्वताकारस्तीक्ष्णदंष्ट्रो मयानकः ॥ १४ ॥
चतस्रश्चायता दंष्ट्रा योजनानां शतं शतम् ।
इतरे त्वस्य दशना बभूवुर्दशयोजनाः ॥ १५ ॥
बाहू पर्वतसंकाशावायतौ क्रूरदर्शनौ ।
जिह्वा तु भीषणा क्रूरा लेलिहाना नभस्तलम् ॥ १६ ॥
उसका नाम 'मद' था । वह अत्यन्त उग्र तथा संसारके प्राणियोंके लिये बहुत भयदायक था । वह शरीरसे पर्वतके आकारका था, उसके दाँत तीक्ष्ण थे, वह बड़ा ही भयावह था । उसके चार दाँत तो सौसौ योजन लम्बे थे और इसके अन्य दाँत दस योजनके विस्तारवाले थे । देखनेमें क्रूर लगनेवाली उसकी दोनों भुजाएँ पर्वतके समान दूरतक फैली हुई थीं । अत्यन्त क्रूर तथा भयानक लगनेवाली उसकी जिह्वा आकाश और पातालको चाट रही थी ॥ १४-१६ ॥

ग्रीवा तु गिरिशृङ्गाभा कठिना भीषणा भृशम् ।
नखा व्याघ्रनखप्रख्याः केशाश्चातीवभीषणाः ॥ १७ ॥
शरीरं कज्जलाभं च तस्य चास्यं भयानकम् ।
नेत्रे दावानलप्रख्ये भीषणेऽतिभयानके ॥ १८ ॥
हनुरेका स्थिता तस्य भूमावेका दिवं गता ।
एवंविधः समुत्पन्नो मदो नाम बृहत्तनुः ॥ १९ ॥
उसकी अत्यन्त डरावनी तथा कठोर गर्दन पर्वतकी चोटीके समान थी, उसके नाखून बाघके नाखूनके सदृश थे, उसके केश तो अत्यन्त भयंकर थे । उसका शरीर काजलकी आभावाला तथा मुख भयानक था और उसके अत्यन्त भीषण तथा भयावह दोनों नेत्र दावानलके समान प्रतीत हो रहे थे । उसका एक ओठ पृथ्वीपर स्थित था तो दूसरा ओठ आकाशतक गया हुआ था । इस प्रकारका विशाल शरीरवाला 'मद' नामक दानव उत्पन्न हुआ ॥ १७-१९ ॥

तं विलोक्य सुराः सर्वे भयमाजग्मुरंहसा ।
इन्द्रोऽपि भयसंत्रस्तो युद्धाय न मनो दधे ॥ २० ॥
उसे देखते ही सभी देवता शीघ्र ही भयभीत हो गये । इन्द्र भी भयसे व्याकुल हो उठे और उनके मनमें युद्धका विचार नहीं रह गया ॥ २० ॥

दैत्योऽपि वदने कामं वज्रमादाय संस्थितः ।
व्याप्तं नभो घोरदृष्टिर्ग्रसन्निव जगत्त्रयम् ॥ २१ ॥
वह दैत्य वज्रको मुखमें लेकर सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त करके सामने खड़ा था । ऐसा प्रतीत होता था मानो भयावनी दृष्टिवाला वह दानव तीनों लोकोंको निगल जायगा ॥ २१ ॥

स भक्ष्ययिष्यन्संक्रुद्धः शतक्रतुमुपाद्रवत् ।
चक्रुशुश्च सुराः सर्वे हा हताः स्मेति संस्थिताः ॥ २२ ॥
इन्द्रको खा जानेके विचारसे वह क्रोधित होकर उनकी ओर दौड़ा । इसपर 'हाय, हम सब मारे गये'-ऐसा कहकर सभी देवता जोर-जोरसे चीखने-चिल्लाने लगे ॥ २२ ॥

इन्द्रः स्तम्भितबाहुस्तु मुमुक्षुर्वज्रमन्तिकात् ।
न शशाक पविं तस्मिन्प्रहर्तुं पाकशासनः ॥ २३ ॥
इन्द्र वन चलाना चाहते थे, किंतु भुजाओंके कुण्ठित हो जानेके कारण वे उसपर वन-प्रहार करने में समर्थ नहीं हुए ॥ २३ ॥

वज्रहस्तः सुरेशानस्तं वीक्ष्य कालसन्निभम् ।
सस्मार मनसा तत्र गुरुं समयकोविदम् ॥ २४ ॥
तब हाथमें वज्र धारण करनेवाले देवराज इन्द्रने काल-सदृश उस दानवको देखकर सामयिक समस्याका समाधान करनेमें कुशल देवगुरु बृहस्पतिका मन-हीमन स्मरण किया ॥ २४ ॥

स्मरणादाजगामाशु बृहस्पतिरुदारधीः ।
गुरुस्तत्समयं दृष्ट्वा विपत्तिसदृशं महत् ॥ २५ ॥
इन्द्रके स्मरण करते ही उदार बुद्धिवाले गुरु बृहस्पति वहाँ शीघ्र आ गये । इन्द्रकी बड़ी दयनीय दशा देखकर तथा मन-ही-मन सारे कृत्यपर विचार करके वे शचीपति इन्द्रसे कहने लगे- ॥ २५ ॥

विचार्य मनसा कृत्यं तमुवाच शचीपतिम् ।
दुःसाध्योऽयं महामन्त्रैस्त्वयं वज्रेण वासव ॥ २६ ॥
असुरो मदसंज्ञस्तु यज्ञकुण्डात्समुत्थितः ।
तपोबलमृषेः सम्यक् च्यवनस्य महाबलः ॥ २७ ॥
अनिवार्यो ह्ययं शत्रुस्त्वया देवैस्तथा मया ।
शरणं याहि देवेश च्यवनस्य महात्मनः ॥ २८ ॥
स निवारयिता नूनं कृत्यामात्मकृतां किल ।
न निवारयितुं शक्ताः शक्तिभक्तरुषं क्वचित् ॥ २९ ॥
हे इन्द्र ! मद नामक इस असुरको महामन्त्रोंसे अथवा वज्रसे मार पाना अत्यन्त कठिन है । च्यवनमुनिका तपोबलस्वरूप यह महाबली दैत्य सम्यक् रूपसे यज्ञकुण्डसे उत्पन्न हुआ है । यह शत्रु तुम्हारे, देवगणोंके तथा मेरे द्वारा भी पराभूत नहीं किया जा सकता । अतः हे देवेश ! आप महात्मा च्यवनकी शरणमें जायँ, वे अपने द्वारा उत्पन्न की गयी इस 'कृत्या' का शमन अवश्य कर देंगे । आदिशक्तिके भक्तका रोष निवारण करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है ॥ २६-२९ ॥

व्यास उवाच -
इत्युक्तो गुरुणा शक्रस्तदागच्छन्मुनिं प्रति ।
प्रणम्य शिरसा नम्रः तमुवाच भयान्वितः ॥ ३० ॥
क्षमस्व मुनिशार्दूल शमयासुरमुद्यतम् ।
प्रसन्नो भव सर्वज्ञ वचनं ते करोम्यहम् ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले-गुरु बृहस्पतिके यह कहनेपर इन्द्र च्यवनमुनिके पास गये और नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करके भयभीत होते हुए उनसे बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! क्षमा कीजिये । संहारके लिये तत्पर इस असुरको शान्त कीजिये । आप प्रसन्न हो जाइये । हे सर्वज्ञ ! मैं आपकी आज्ञाका पालन अवश्य करूंगा ॥ ३०-३१ ॥

सोमार्हावश्विनावेतावद्यप्रभृति भार्गव ।
भविष्यतः सत्यमेतद्वचो विप्र प्रसीद मे ॥ ३२ ॥
हे भार्गव ! ये दोनों अश्विनीकुमार आजसे सोमपानके अधिकारी हो जायेंगे । हे विप्र ! मेरा यह वचन सत्य है, अब आप प्रसन्न हो जायें ॥ ३२ ॥

मिथ्या ते नोद्यमो ह्येष भवत्येव तपोधन ।
जाने त्वमपि धर्मज्ञ मिथ्या नैव करिष्यसि ॥ ३३ ॥
सोमपावश्विनावेतौ त्वत्कृतौ च सदैवे हि ।
भविष्यतश्च शर्यातेः कीर्तिस्तु विपुला भवेत् ॥ ३४ ॥
हे तपोधन ! अश्विनीकुमारोंको सोमपानका अधिकारी बनानेका आपका उद्यम व्यर्थ नहीं हुआ यह उचित ही है । हे धर्मज्ञ ! मैं जानता हूँ कि आप निष्प्रयोजन कोई भी कार्य नहीं करेंगे । आपने इन अश्विनीकुमारोंको सोमपानका अधिकारी बना दिया, अतः अब ये यज्ञोंमें सदा सोमरसका पान कर सकेंगे । साथ ही राजा शर्यातिका महान् यश भी स्थापित हो जायगा ॥ ३३-३४ ॥

मया यद्धि कृतं कर्म सर्वथा मुनिसत्तम ।
परीक्षार्थं तु विज्ञेयं तव वीर्यप्रकाशनम् ॥ ३५ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! मैंने यह जो भी कार्य किया है, उसे आपके पराक्रमको प्रकट करनेके उद्देश्यसे ही किया है-ऐसा आप समझिये ॥ ३५ ॥

प्रसादं कुरु मे ब्रह्मन् मदं संहर चोत्थितम् ।
कल्याणं सर्वदेवानां तथा भूयो विधीयताम् ॥ ३६ ॥
हे ब्रह्मन् ! आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये । अपने द्वारा उत्पन्न किये गये इस 'मद' नामक दैत्यको तिरोहित कर दीजिये और ऐसा करके सभी देवताओंका पुनः कल्याण कीजिये ॥ ३६ ॥

एवमुक्तस्तु शक्रेण च्यवनः परमार्थवित् ।
संजहार तपः कोपं समुत्पन्नं विरोधजम् ॥ ३७ ॥
देवमाश्वास्य संविग्नं भार्गवस्तु मदं ततः ।
व्यभजत्स्त्रीषु पानेषु द्यूतेषु मृगयासु च ॥ ३८ ॥
इन्द्रके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर परमार्थतत्त्वके ज्ञाता च्यवनमुनिने विरोधके कारण उत्पन्न अपने क्रोधको दबा लिया । तत्पश्चात् उद्विग्न चित्तवाले देवराज इन्द्रको सान्त्वना देकर भृगुवंशी च्यवनमुनिने स्त्री, मदिरापान, द्यूत और आखेट-इन सबमें 'मद' को स्थापित कर दिया ॥ ३७-३८ ॥

मदं विभज्य देवेन्द्रमाश्वास्य चकितं भिया ।
संस्थाप्य च सुरान्सर्वान्मखं तस्य न्यवर्तयत् ॥ ३९ ॥
इस प्रकार 'मद' को विभिन्न जगहोंपर विभक्त करके, भयसे घबराये हुए इन्द्रको आश्वासन देकर तथा सभी देवताओंको अपने-अपने कार्यपर लगाकर च्यवनमुनिने राजा शर्यातिका यज्ञ सम्पन्न कराया ॥ ३९ ॥

ततस्तु संस्कृतं सोमं वासवाय महात्मने ।
अश्विभ्यां सर्वधर्मात्मा पाययामास भार्गवः ॥ ४० ॥
तदनन्तर सभी धर्मोके आत्मास्वरूप भृगुवंशी च्यवनमुनिने महात्मा इन्द्रको तथा दोनों अश्विनीकुमारोंको परिष्कृत सोमरस पिलाया ॥ ४० ॥

एवं तौ च्यवनेनार्यावश्विनौ रविपुत्रकौ ।
विहितौ सोमपौ राजन् सर्वथा तपसो बलात् ॥ ४१ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार च्यवनमुनिने अपने तपके प्रभावसे उन दोनों सूर्यपुत्र श्रेष्ठ अश्विनीकुमारोंको पूर्णरूपसे सोमपानका अधिकारी बना दिया ॥ ४१ ॥

सरस्तदपि विख्यातं जातं यूपविमण्डितम् ।
आश्रमस्तु मुनेः सम्यक् पृथिव्यां विश्रुतोऽभवत् ॥ ४२ ॥
उसी समयसे यज-स्तम्भसे सुशोभित वह सरोवर भी विख्यात हो गया तथा मुनिके आश्रमकी प्रसिद्धि सम्यक्-रूपसे पृथ्वीपर सर्वत्र व्याप्त हो गयी ॥ ४२ ॥

शर्यातिरपि सन्तुष्टो ह्यभवत्तेन कर्मणा ।
यज्ञं समाप्य नगरे जगाम सचिवैर्वृतः ॥ ४३ ॥
उस कर्मसे राजा शर्याति भी सन्तुष्ट हो गये और यज्ञसम्पन्न करके मन्त्रियोंके साथ नगरको चले गये ॥ ४३ ॥

राज्यं चकार धर्मज्ञो मनुपुत्रः प्रतापवान् ।
आनर्तस्तस्य पुत्रोऽभूदानर्ताद्‌रेवतोऽभवत् ॥ ४४ ॥
सोऽन्तःसमुद्रे नगरीं विनिर्माय कुशस्थलीम् ।
आस्थितोऽभुङ्क्त विषयानानर्तादीनरिन्दमः ॥ ४५ ॥
इसके बाद धर्मज्ञ तथा प्रतापी मनुपुत्र शर्याति राज्य करने लगे । उनके पुत्र 'आनर्त' हुए और आनर्तसे 'रेवत' उत्पन्न हुए । शत्रुओंका दमन करनेवाले वे रेवत समुद्रके मध्य कुशस्थली नामक नगरी स्थापित करके वहींपर रहकर आनर्त आदि देशोपर शासन करने लगे । ४४-४५ ॥

तस्य पुत्रशतं जज्ञे ककुद्मिज्येष्ठमुत्तमम् ।
पुत्री च रेवती नाम्ना सुन्दरी शुभलक्षणा ॥ ४६ ॥
उनके सौ पुत्र हुए, उनमें ककुद्यी सबसे ज्येष्ठ तथा उत्तम था । उनकी रेवती नामक एक पुत्री भी थी, जो परम सुन्दर तथा शुभ लक्षणोंसे युक्त थी ॥ ४६ ॥

वरयोग्या यदा जाता तदा राजा च रेवतः ।
चिन्तयामास राजेन्द्रो राजपुत्रान्कुलोद्‌भवान् ॥ ४७ ॥
जब वह कन्या विवाहके योग्य हो गयी, तब महाराज रेवत उत्तम कुलमें उत्पन्न राजकुमारोंके विषयमें सोचने लगे ॥ ४७ ॥

रैवतं नाम च गिरिमाश्रितः पृथिवीपतिः ।
चकार राज्यं बलवानानर्तेषु नराधिपः ॥ ४८ ॥
उस समय वे बलशाली नरेश 'रैवत' नामक पर्वतपर रहते हुए आनर्त आदि देशोंपर राज्य कर रहे थे ॥ ४८ ॥

विचिन्त्य मनसा राजा कस्मै देया मया सुता ।
गत्वा पृच्छामि ब्रह्माणं सर्वज्ञं सुरपूजितम् ॥ ४९ ॥
इति सञ्चिन्त्य भूपालः सुतामादाय रेवतीम् ।
ब्रह्मलोकं जगामाशु प्रष्टुकामः पितामहम् ॥ ५० ॥
यत्र देवाश्च यज्ञाश्च छन्दांसि पर्वतास्तथा ।
अब्धयः सिद्धगन्धर्वाः दिव्यरूपधराः स्थिताः ॥ ५१ ॥
ऋषयः सिद्धगन्धर्वाः पन्नगाश्चारणास्तथा ।
तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे स्तुवन्तश्च पुरातनाः ॥ ५२ ॥
वे मन-ही-मन सोचने लगे 'मैं यह कन्या किसे प्रदान करूँ, अतः सर्वज्ञ तथा देवपूजित ब्रह्माजीके पास जाकर उन्हींसे पूछ लूँ'-ऐसा विचार करके राजा रेवत अपनी पुत्री रेवतीको साथ लेकर पितामह ब्रह्माजीसे वर पूछनेकी अभिलाषासे शीघ्र ही ब्रह्मलोक जा पहुँचे; जहाँपर देवता, यज्ञ, छन्द, पर्वत, समुद्र और नदियाँ दिव्य रूप धारण करके विराजमान थे और सनातन ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व, पन्नग तथा चारणवन्द-ये सभी हाथ जोड़कर स्तुति करते हुए खड़े थे ॥ ४९-५२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे रेवतस्य रेवतीवरार्थं
ब्रह्मलोकगमनवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
अध्याय सातवाँ समाप्त ॥ ७ ॥


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