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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
अष्टमोऽध्यायः

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इक्ष्वाकुवंशवर्णनम् -
राजा रेवतकी कथा -


जनमेजय उवाच -
संशयोऽयं महान् ब्रह्मन् वर्तते मम मानसे ।
ब्रह्मलोकं गतो राजा रेवतीसंयुतः स्वयम् ॥ १ ॥
मया पूर्वं श्रुतं कृत्स्नं ब्राह्मणेभ्यः कथान्तरे ।
ब्राह्मणो ब्रह्मविच्छान्तो ब्रह्मलोकमवाप्नुयात् ॥ २ ॥
जनमेजय बोले-हे ब्रह्मन् ! मेरे मनमें यह महान् संशय हो रहा है कि स्वयं राजा रेवत अपनी कन्या रेवतीको साथ लेकर ब्रह्मलोक चले गये । मैंने पूर्वकालमें ब्राह्मणोंसे कथा-प्रसंगमें यह अनेक बार सुना है कि ब्रह्मको जाननेवाला शान्त-स्वभाव ब्राह्मण ही ब्रह्मलोक प्राप्त कर सकता है ॥ १-२ ॥

राजा कथं गतस्तत्र रेवतीसंयुतः स्वयम् ।
सत्यलोकेऽतिदुष्प्रापे भूर्लोकादिति संशयः ॥ ३ ॥
मृतः स्वर्गमवाप्नोति सर्वशास्त्रेषु निर्णयः ।
(मानुषेण तु देहेन ब्रह्मलोके गतिः कथम् । )
स्वर्गात्पुनः कथं लोके मानुषे जायते गतिः ॥ ४ ॥
एतन्मे संस्ययं विद्वंश्छेत्तुमर्हसि साम्प्रतम् ।
यथा राजा गतस्तत्र प्रष्टुकामः प्रजापतिम् ॥ ५ ॥
राजा रेवत अत्यन्त दुष्प्राप्य सत्यलोकमें स्वयं अपनी पुत्री रेवतीके साथ पृथ्वीलोकसे कैसे पहुँच गये-इसी बातका मुझे सन्देह है । सभी शास्त्रोंमें यही निर्णय विद्यमान है कि मृत व्यक्ति ही स्वर्ग प्राप्त कर सकता है; (इस मानवदेहसे ब्रह्मलोकमें जाना कैसे सम्भव है ?) और स्वर्गसे पुनः इस मनुष्यलोकमें पहुँच जाना कैसे हो सकता है ? हे विद्वन् ! महाराज रेवत जिस तरह ब्रह्माजीसे अपनी कन्याके लिये वर पूछनेकी इच्छासे वहाँ गये थे-इसे बताकर इस समय मेरे इस सन्देहको दूर करनेकी कृपा करें ॥ ३-५ ॥

व्यास उवाच -
मेरोस्तु शिखरे राजन् सर्वे लोकाः प्रतिष्ठिताः ।
इन्द्रलोको वह्निलोको या च संयमिनी पुरी ॥ ६ ॥
तथैव सत्यलोकश्च कैलासश्च तथा पुनः ।
वैकुण्ठश्च पुनस्तत्र वैष्णवं पदमुच्यते ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुमेरुपर्वतके शिखरपर ही इन्द्रलोक, वहिलोक, संयमिनीपुरी, सत्यलोक, कैलास और वैकुण्ठ-ये सभी लोक प्रतिष्ठित हैं । वैकुण्ठको ही वैष्णव पद कहा जाता है ॥ ६-७ ॥

यथार्जुनः शक्रलोके गतः पार्थो धनुर्धरः ।
पञ्चवर्षाणि कौन्तेयः स्थितस्तत्र सुरालये ॥ ८ ॥
मानुषेणैव देहेन वासवस्य च सन्निधौ ।
तथैवान्येऽपि भूपालाः ककुत्स्थप्रमुखाः किल ॥ ९ ॥
स्वर्लोकगतयः पश्चाद्दैत्याश्चापि महाबलाः ।
जित्वेन्द्रसदनं प्राप्य संस्थितास्तत्र कामतः ॥ १० ॥
जैसे धनुष धारण करनेवाले कुन्तीपुत्र अर्जुन इन्द्रलोक गये थे और वे इसी मनुष्य-शरीरसे उस इन्द्रलोकमें पाँच वर्षतक इन्द्रके सान्निध्यमें रहे, उसी प्रकार ककुत्स्थ आदि अन्य प्रमुख राजा भी स्वर्गलोक जा चुके हैं । इसके अतिरिक्त महाबलशाली दैत्य भी इन्द्रलोकको जीतकर वहाँ पहुँचकर अपनी इच्छाके अनुसार रह चुके हैं ॥ ८-१० ॥

महाभिषः पुरा राजा ब्रह्मलोकं गतः स्वराट् ।
आगच्छन्तीं नृपो गङ्गामपश्यच्चातिसुन्दरीम् ॥ ११ ॥
वायुनाम्बरमस्यास्तु दैवादपहृतं नृप ।
किञ्चिन्नग्ना नृपेणाथ दृष्टा सा सुन्दरी तथा ॥ १२ ॥
स्मितं चकार कामार्तः सा च किञ्चिज्जहास वै ।
ब्रह्मणा तौ तदा दृष्टौ शप्तौ जातौ वसुन्धराम् ॥ १३ ॥
वैकुण्ठेऽपि सुराः सर्वे पीडिता दैत्यदानवैः ।
गत्वा हरिं जगन्नाथमस्तुवन्कमलापतिम् ॥ १४ ॥
पूर्वकालमें महाराज महाभिष भी ब्रह्मलोक गये थे । उन नरेशने परम सुन्दरी गंगाजीको आते देखा । हे राजन् ! उस समय दैवयोगसे वायुने उनके वस्त्र उड़ा दिये, जिससे राजाने उन सुन्दरी गंगाको कुछ अनावृत अवस्थामें देख लिया । इसपर कामसे व्यथित राजा मुसकराने लगे और गंगाजी भी हँस पड़ीं । उस समय ब्रह्माजीने उन दोनोंको देख लिया और शाप दे दिया, जिससे उन दोनोंको पृथ्वीपर जन्म लेना पड़ा । दैत्यों और दानवोंसे पीड़ित सभी देवताओंने भी वैकुण्ठधाममें जाकर कमलाकान्त जगत्पति भगवान् विष्णुकी स्तुति की थी ॥ ११-१४ ॥

सन्देहो नात्र कर्तव्यः सर्वथा नृपसत्तम ।
गम्याः सर्वेऽपि लोकाः स्युर्मानवानां नराधिप ॥ १५ ॥
अवश्यं कृतपुण्यानां तापसानां नराधिप ।
पुण्यसद्‌भाव एवात्र गमने कारणं नृप ॥ १६ ॥
तथैव यजमानानां यज्ञेन भावितात्मनाम् ।
अतएव हे नृपश्रेष्ठ ! इस विषयमें किसी भी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिये । हे नराधिप ! पुण्यात्मा, तपस्वी और महापुरुष सभी लोकोंमें जा सकते हैं । हे नरेन्द्र ! हे राजन् ! जैसे पवित्र सदाचरण ही ब्रह्मादि लोकोंमें जानेका कारण है, वैसे ही पवित्र मनवाले यजमानलोग भी यज्ञके प्रभावसे वहाँ पहुँच जाते हैं ॥ १५-१६.५ ॥

जनमेजय उवाच -
रेवतो रेवतीं कन्यां गृहीत्वा चारुलोचनाम् ॥ १७ ॥
ब्रह्मलोकं गतः पश्चात्किं कृतं तेने भूभुजा ।
ब्रह्मणा किं समादिष्टं कस्मै दत्ता सुता पुनः ॥ १८ ॥
जनमेजय बोले-महाराज रेवत सुन्दर नेत्रोंवाली अपनी पुत्री रेवतीको साथमें लेकर ब्रह्मलोक पहुँच गये । उसके बाद उन्होंने क्या किया, ब्रह्माजीने उन्हें क्या आदेश दिया और उन रेवतने अपनी पुत्री किसे सौंपी ? हे ब्रह्मन् ! अब आप इन सारी बातोंको विस्तारपूर्वक मुझको बतलाइये ॥ १७-१८ ॥

तत्सर्वं विस्तराद्‌बह्मन् कथय त्वं ममाधुना ।
व्यास उवाच -
निशामय महीपाल राजा रेवतकः किल ॥ १९ ॥
पुत्र्या वरं परिप्रष्टुं ब्रह्मलोकं गतो यदा ।
आवर्तमाने गान्धर्वे स्थितो लब्धक्षणः क्षणम् ॥ २० ॥
शृण्वन्नतृप्यद्‌धृष्टात्मा सभायां तु सकन्यकः ।
समाप्ते तत्र गान्धर्वे प्रणम्य परमेश्वरम् ॥ २१ ॥
दर्शयित्वा सुतां तस्मै स्वाभिप्रायं न्यवेदयत् ।
व्यासजी बोले-हे महीपाल ! सुनिये, जब राजा रेवत अपनी पुत्रीके वरके विषयमें पूछनेके लिये ब्रह्मलोक पहुँचे, उस समय गन्धर्वलोगोंका संगीत हो रहा था । वे अपनी कन्याके साथ कुछ देरतक सभामें रुककर संगीत सुनते हुए परम तृप्त हुए । पुनः गन्धर्वोका संगीत समाप्त हो जानेपर परमेश्वर (ब्रह्माजी)-को प्रणाम करके उन्हें अपनी कन्या रेवतीको दिखाकर अपना आशय प्रकट कर दिया । १९-२१.५ ॥

राजोवाच -
वरं कथय देवेश कन्येयं मम पुत्रिका ॥ २२ ॥
देया कस्मै मया ब्रह्मन् प्रष्टुं त्वां समुपागतः ।
बहवो राजपुत्रा मे वीक्षिताः कुलसम्भवाः ॥ २३ ॥
कस्मिंश्चिन्मे मनः कामं नोपतिष्ठति चञ्चलम् ।
तस्मात्त्वां देवदेवेश प्रष्टुमत्रागतोऽस्म्यहम् ॥ २३ ॥
तदाज्ञापय सर्वज्ञ योग्यं राजसुतं वरम् ।
कुलीनं बलवन्तं च सर्वलक्षणसंयुतम् ॥ २५ ॥
दातारं धर्मशीलं च राजपुत्रं समादिश ।
राजा बोले-हे देवेश ! यह कन्या मेरी पुत्री है, मैं इसे किसको प्रदान करूं-यही पूछनेके लिये आपके पास आया हूँ । अतः हे ब्रह्मन् ! आप इसके योग्य वर बतायें । मैंने उत्तम कुलमें उत्पन्न बहुतसे राजकुमारोंको देखा है, किंतु किसीमें भी मेरा चंचल मन स्थिर नहीं होता है । इसलिये हे देवदेवेश ! [वरके विषयमें] आपसे पूछनेके लिये यहाँ आया हूँ । हे सर्वज्ञ ! आप किसी योग्य राजकुमार वरके विषयमें बताइये । ऐसे राजकुमारका निर्देश कीजिये: जो कुलीन, बलवान्, समस्त लक्षणोंसे सम्पन्न, दानी तथा धर्मपरायण हो । २२-२५.५ ॥

व्यास उवाच -
तदाकर्ण्य जगत्कर्ता वचनं नृपतेस्तदा ॥ २६ ॥
तमुवाच हसन्वाक्यं दृष्ट्वा कालस्य पर्ययम् ।
व्यासजी बोले-हे राजन् ! तब राजाकी बात सुनकर जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजी कालपर्यय (ब्रह्मलोकके थोड़े समयमें पृथ्वीलोकका बड़ा लम्बा समय बीता हुआ) देखकर हंस करके उनसे कहने लगे- ॥ २६.५ ॥

ब्रह्मोवाच -
राजपुत्रास्त्वया राजन् वरा ये हृदये कृताः ॥ २७ ॥
ग्रस्ताः कालेन ते सर्वे सपितृपौत्रबान्धवाः ।
सप्तविंशतिमोऽद्यैव द्वापरस्तु प्रवर्तते ॥ २८ ॥
वंशजास्ते मृताः सर्वे पुरी दैत्यैर्विलुण्ठिता ।
सोमवंशोद्‌भवस्तत्र राजा राज्यं प्रशास्ति हि ॥ २९ ॥
उग्रसेन इति ख्यातो मथुराधिपतिः किल ।
ययातिवंशसम्भूतो राजा माथुरमण्डले ॥ ३० ॥
उग्रसेनात्मजः कंसः सुरद्वेषी महाबलः ।
दैत्यांशः पितरं सोऽपि कारागारं न्यवेशयत् ॥ ३१ ॥
स्वयं राज्यं चकारासौ नृपाणां मदगर्वितः ।
ब्रह्माजी बोले-हे राजन् ! आपने अपने हृदयमें जिन राजकुमारोंको वरके रूपमें समझ रखा था, वे सब-के-सब पुत्र-पौत्र तथा बन्धुओंसमेत कालकवलित हो चुके हैं । इस समय वहाँ सत्ताईसवाँ द्वापर चल रहा है । आपके सभी वंशज मृत हो चुके हैं और दैत्योंने आपकी पुरी भी विनष्ट कर डाली है । इस समय वहाँ चन्द्रवंशी राजा शासन कर रहे हैं । अब मथुरा नामसे प्रसिद्ध उस पुरीके अधिपतिके रूपमें उग्रसेन विख्यात हैं । ययातिवंशमें उत्पन्न वे उग्रसेन सम्पूर्ण मथुरामण्डलके नरेश हैं । उन महाराज उग्रसेनका एक कंस नामक पुत्र हुआ, जो महान् बलशाली तथा देवताओंसे द्वेष रखनेवाला था । राजाओंमें सबसे अधिक मदोन्मत्त उस दानववंशी कंसने अपने पिताको भी कारागारमें डाल दिया और वह स्वयं राज्य करने लगा ॥ २७-३१.५ ॥

मेदिनी चातिभारार्ता ब्रह्माणं शरणं गता ॥ ३२ ॥
दुष्टराजन्यसैन्यायां भारेणातिसमाकुला ।
अंशावतरणं तत्र गदितं सुरसत्तमैः ॥ ३३ ॥
वासुदेवः समुत्पन्नः कृष्णः कमललोचनः ।
देवक्यां देवरूपिण्यां योऽसौ नारायणो मुनिः ॥ ३४ ॥
तब पृथ्वी असह्य भारसे व्याकुल होकर ब्रह्माजीकी शरणमें गयी । श्रेष्ठ देवगणोंने ऐसा कहा है कि दुष्ट राजाओं तथा उनके सैनिकोंके भारसे पृथ्वीके अति व्याकुल होनेपर ही भगवानका अंशावतार होता है । अत: उस समय कमलके समान नेत्रवाले वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण देवीस्वरूपा देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए, वे साक्षात् नारायणमुनि ही थे ॥ ३२-३४ ॥

तपश्चचार दुःसाध्यं धर्मपुत्रः सनातनः ।
गङ्गातीरे नरसखः पुण्ये बदरिकाश्रमे ॥ ३५ ॥
सोऽवतीर्णो यदुकुले वासुदेवोऽपि विश्रुतः ।
तेनासौ निहतः पापः कंसः कृष्णेन सत्तम ॥ ३६ ॥
उग्रसेनाय राज्यं वै दत्तं हत्वा खलं सुतम् ।
उन सनातन धर्मपुत्र नरसखा नारायणमुनिने बदरिकाश्रममें गंगाजीके तटपर अत्यन्त कठोर तपस्या की थी । वे ही यदुकुलमें अवतार लेकर 'वासुदेव' नामसे विख्यात हुए । हे महाभाग ! उन्हीं वासुदेव भगवान् श्रीकृष्णने पापी कंसका संहार किया और इस प्रकार उस दुष्ट राजाको मारकर उन्होंने [उसके पिता] उग्रसेनको सम्पूर्ण राज्य दे दिया ॥ ३५-३६.५ ॥

कंसस्य श्वशुरः पापो जरासन्धो महाबलः ॥ ३७ ॥
आगत्य मथुरां क्रोधाच्चकार सङ्गरं मुदा ।
कृष्णेनासौ जितः संख्ये जरासन्धो महाबलः ॥ ३८ ॥
कंसका श्वसुर जरासन्ध महान् बलशाली तथा पापी था । वह अत्यन्त क्रोधित हो मथुरा आकर श्रीकृष्णके साथ आवेगपूर्वक युद्ध करने लगा । अन्तमें श्रीकृष्णने उस महाबली जरासन्धको युद्धमें जीत लिया । तब उसने सेनासहित कालयवनको [कृष्णके साथ] युद्ध करनेके लिये भेजा ॥ ३७-३८ ॥

प्रेषयामास युद्धाय सबलं यवनं ततः ।
श्रुत्वाऽऽयान्तं महाशूरं ससैन्यं यवनाधिपम् ॥ ३९ ॥
[कृष्णस्तु मथुरां त्यक्त्वा पुरीं द्वारावतीमगात् ।
प्रभग्नां तां पुरीं कृष्णः शिल्पिभिः सह सङ्गतैः ॥
कारयामास दुर्गाढ्यां हट्टशालाविमण्डिताम् ।
जीर्णोद्धारं पुरः कृत्वा वासुदेवः प्रतापवान् ।
उग्रसेनं च राजानं चकार वशवर्तिनम् ॥]
यादवान्स्थापयामास द्वारवत्यां यदूत्तमः ।
वासुदेवस्तु तत्राद्य वर्तते बान्धवैः सह ॥ ४० ॥
महापराक्रमी यवनाधिप कालयवनको सेनासहित आता सुनकर (कृष्ण मथुरा छोड़कर द्वारका चले गये । भगवान् श्रीकृष्णने कुशल शिल्पियोंके द्वारा बड़े-बड़े दुर्ग तथा बाजारोंसे सुशोभित उस नष्ट-भ्रष्ट पुरीका पुनः निर्माण कराया, उस पुरीका जीर्णोद्धार करके प्रतापी श्रीकृष्णने उग्रसेनको वहाँका अपना आज्ञाकारी राजा बनाया । ) तत्पश्चात् यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णने उस द्वारकापुरीमें यादवोंको भलीभाँति बसाया । इस समय वे वासुदेव अपने बन्धु-बान्धवोंके साथ उस द्वारकामें रह रहे हैं ॥ ३९-४० ॥

तास्याग्रतः स विख्यातो बलदेवो हलायुधः ।
शेषांशो मुसली वीरो वरोऽस्तु तव सम्मतः ॥ ४१ ॥
उनके बड़े भाई बलराम हैं । हल तथा मूसलको आयुधके रूपमें धारण करनेवाले वे शूरवीर बलराम शेषके अंशावतार कहे जाते हैं । वे ही आपकी कन्याके लिये उपयुक्त वर हैं ॥ ४१ ॥

सङ्कर्षणाय देह्याशु कन्यां कमललोचनाम् ।
रेवतीं बलभद्राय विवाहविधिना ततः ॥ ४२ ॥
दत्त्वा पुत्रीं नृपश्रेष्ठ गच्छ त्वं बदरिकाश्रमम् ।
तपस्तप्तुं सुरारामं पावनं कामदं नृणाम् ॥ ४३ ॥
अब आप वैवाहिक विधिके अनुसार शीघ्र ही संकर्षण बलरामको कमलके समान नेत्रोंवाली अपनी कन्या रेवती सौंप दीजिये । हे नृपश्रेष्ठ ! उन्हें कन्या प्रदानकर आप तप करनेके लिये देवोद्यान बदरिकाश्रम चले जाइये; क्योंकि तप मनुष्योंकी सारी अभिलाषाएँ पूर्ण कर देता है और उनके अन्त:करणको पवित्र बना देता है ॥ ४२-४३ ॥

व्यास उवाच -
इति राजा समादिष्टो ब्रह्मणा पद्मयोनिना ।
जगाम तरसा राजन् द्वारकां कन्ययान्वितः ॥ ४४ ॥
ददौ तां बलदेवाय कन्यां वै शुभलक्षणाम् ।
ततस्तप्त्वा तपस्तीव्रं नृपतिः कालपर्यये ॥ ४५ ॥
जगाम त्रिदशावासं त्यक्त्वा देहं सरित्तटे ।
व्यासजी बोले-हे राजन् ! पद्मयोनि ब्रह्माजीसे यह आदेश पाकर राजा रेवत अपनी कन्याके साथ शीघ्र ही द्वारका चले गये । वहाँ उन्होंने बलरामजीको शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न अपनी पुत्री सौंप दी । उसके बाद सुदीर्घ कालतक कठोर तपस्या करके वे राजा रेवत नदीके तटपर अपना शरीर त्यागकर देवलोक चले गये । ४४-४५.५ ॥

राजोवाच -
भगवन्महदाश्चर्यं भवता समुदाहृतम् ॥ ४६ ॥
रेवतस्तु स्थितस्तत्र ब्रह्मलोके सुतार्थतः ।
युगानां तु गतं तत्र शतमष्टोत्तरं किल ॥ ४७ ॥
कन्या वृद्धा न सञ्जाता राजा वातितरां नु किम् ।
एतावन्तं तथा कालमायुः पूर्णं तयोः कथम् ॥ ४८ ॥
राजा बोले-हे भगवन् ! आपने यह तो महान् आश्चर्यजनक बात कही कि राजा रेवत कन्याके योग्य वर जाननेके उद्देश्यसे ब्रह्मलोक गये और उनके वहाँ ठहरे हुए एक सौ आठ युग बीत गये, तबतक वह कन्या तथा वे राजा वृद्ध क्यों नहीं हुए अथवा इतने दीर्घ समयकी पूर्ण आयु ही उन्हें कैसे प्राप्त हुई ? ॥ ४६-४८ ॥

व्यास उवाच -
न जरा क्षुपित्पासा वा न मृत्युर्न भयं पुनः ।
न तु ग्लानिः प्रभवति ब्रह्मलोके सदानघ ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-हे निष्पाप जनमेजय ! ब्रह्मलोकमें भूख, प्यास, मृत्यु, भय, वृद्धावस्था तथा ग्लानिइनमें कोई भी विकार कभी भी उत्पन्न नहीं होता ॥ ४९ ॥

मेरुं गतस्य शर्यातेः सन्तती राक्षसैर्हता ।
गताः कुशस्थलीं त्यक्त्वा भयभीता इतस्ततः ॥ ५० ॥
जब राजा रेवत वहाँसे सुमेरुपर्वतपर चले गये, तब राक्षसोंने शांति-वंशकी संततियोंको नष्ट कर डाला । वहाँके सभी लोग भयभीत होकर कुशस्थली छोड़कर इधर-उधर भाग गये ॥ ५० ॥

मनोश्च क्षुवतः पुत्र उत्पन्नो वीर्यवत्तरः ।
इक्ष्वाकुरिति विख्यातः सूर्यवंशकरस्तु सः ॥ ५१ ॥
कुछ समयके बाद क्षुव नामक मनुसे एक परम ओजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ । इक्ष्वाकु नामसे विख्यात वे ही सूर्यवंशके प्रवर्तक माने जाते हैं ॥ ५१ ॥

वंशार्थं तप आतिष्ठद्देवीं ध्यात्वा निरन्तरम् ।
नारदस्योपदेशेन प्राप्य दीक्षामनुत्तमाम् ॥ ५२ ॥
नारदजीके उपदेशसे और उनसे श्रेष्ठ दीक्षा प्राप्त करके उन्होंने वंशवृद्धिके उद्देश्यसे भगवतीके ध्यानमें निरन्तर संलग्न रहकर कठोर तपस्या की ॥ ५२ ॥

तस्य पुत्रशतं राजन्निक्ष्वाकोरिति विश्रुतम् ।
विकुक्षिः प्रथमस्तेषां बलवीर्यसमन्वितः ॥ ५३ ॥
हे राजन् ! ऐसा सुना गया है कि उन इक्ष्वाकुके एक सौ पुत्र हुए । उनमें सबसे बड़े विकुक्षि थे, जो बल तथा पराक्रमसे सम्पन्न थे ॥ ५३ ॥

अयोध्यायां स्थितो राजा इक्ष्वाकुरिति विश्रुतः ।
शकुनिप्रमुखाः पुत्रा पञ्चाशद्‌बलवत्तराः ॥ ५४ ॥
उत्तरापथदेशस्य रक्षितारः कृताः किल ।
दक्षिणस्यां तथा राजन्नादिष्टास्तेन ते सुताः ॥ ५५ ॥
चत्वारिंशत्तथाष्टौ च रक्षणार्थं महात्मना ।
अन्यौ द्वौ संस्थितौ पार्श्वे सेवार्थं तस्य भूपतेः ॥ ५६ ॥
वे इक्ष्वाकु राजाके रूपमें अयोध्या निवास करते थे-यह बात प्रसिद्ध है । उनके शकुनि आदि पचास परम बलवान् पुत्र उत्तरापथ नामक देशके रक्षक नियुक्त किये गये और हे राजन् ! उनके जो अड़तालीस पुत्र थे, वे सब उन महात्मा इक्ष्वाकुके द्वारा दक्षिणी देशोंकी रक्षाके लिये आदेशित किये गये । इनके अतिरिक्त अन्य दो पुत्र राजा इक्ष्वाकुकी सेवाके लिये उनके पास रहने लगे ॥ ५४-५६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे इक्ष्वाकुवंशवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
अध्याय आठवाँ समाप्त ॥ ८ ॥


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