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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
नवमोऽध्यायः

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मान्धातोत्पत्तिवर्णनम् -
सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा -


व्यास उवाच -
कदाचिदष्टकाश्राद्धे विकुक्षिं पृथिवीपतिः ।
आज्ञापयदसंमूढो मांसमानय सत्वरम् ॥ १ ॥
मेध्यं श्राद्धार्थमधुना वने गत्वा सूतादरात् ।
व्यासजी बोले-हे राजन् ! किसी समय अष्टका-श्राद्धके अवसरपर बुद्धिमान् भूपति इक्ष्वाकुने विकुक्षिको आज्ञा दी कि हे पुत्र ! इस समय वनमें जाकर श्राद्धके लिये शीघ्र ही आदरपूर्वक पवित्र कव्य ले आओ ॥ १.५ ॥

उत्युक्तोऽसौ तथेत्याशु जगाम वनमस्त्रभृत् ॥ २ ॥
गत्वा जघान बाणैः स वराहान्सूकरान्मृगान् ।
शशांश्चापि परिश्रान्तो बभूवाथ बुभूक्षितः ॥ ३ ॥
विस्मृता चाष्टका तस्य शशं चाददसौ वने ।
शेषं निवेदयामास पित्रे मांसमनुत्तमम् ॥ ४ ॥
प्रोक्षणाय समानीतं मांसं दृष्ट्वा गुरुस्तदा ।
अनर्हमिति तज्ज्ञात्वा चुकोप मुनिसत्तमः ॥ ५ ॥
राजाके इस प्रकार कहनेपर विकुक्षि आयुध धारण करके तुरंत वनकी ओर चल पड़ा । वहाँ जाकर वह थक गया तथा भूखसे व्याकुल हो उठा । इस कारणसे वह अष्टका-श्राद्धकी बात भूल गया और उसने वनमें ही एकत्रित किये गये श्राद्धद्रव्यके कुछ अंशका भक्षण कर लिया और बचा हुआ लाकर पिताजीको दे दिया । तब प्रोक्षणके निमित्त समक्ष लाये गये उस कव्यको देखकर और फिर उसे श्राद्धके लिये अनुपयुक्त जानकर मुनिश्रेष्ठ गुरु वसिष्ठ अत्यन्त कुपित हो उठे ॥ २-५ ॥

भुक्तशेषं तु न श्राद्धे प्रोक्षणीयमिति स्थितिः ।
राज्ञे निवेदयामास वसिष्ठः पाकदूषणम् ॥ ६ ॥
'भोजनसे शेष बचे हुए द्रव्यका श्राद्ध में प्रोक्षण नहीं करना चाहिये-ऐसा नियम है'-इस पाकदोषके विषयमें वसिष्ठने राजाको बता दिया ॥ ६ ॥

पुत्रस्य कर्म तज्ज्ञात्वा भूपतिर्गुरुणोदितम् ।
चुकोप विधिलोपात्तं देशान्निःसारयत्ततः ॥ ७ ॥
शशाप इति विख्यातो नाम्ना जातो नृपात्मजः ।
गतो वने शशादस्तु पितृकोपादसम्भ्रमः ॥ ८ ॥
गुरु वसिष्ठके कथनानुसार अपने पुत्र विकृक्षिका वह दुष्कर्म जानकर विधिलोपके कारण उन्होंने उसे अपने देशसे बाहर निकाल दिया । वह राजकुमार तभीसे 'शशाद'-इस नामसे विख्यात हो गया । वह शशाद पिताके कोपसे किंचित् भयभीत होकर वनमें चला गया । ७-८ ॥

वन्येन वर्तयन्कालं नीतवान् धर्मतत्परः ।
पितर्युपरते राज्यं प्राप्तं तेन महात्मना ॥ ९ ॥
शशादस्त्वकरोद्‌राज्यमयोध्यायाः पतिः स्वयम् ।
यज्ञाननेकशः पूर्णांश्चकार सरयूतटे ॥ १० ॥
वह विकुक्षि वहाँ वन्य आहारपर जीवनयापन करते हुए धर्मपरायण होकर रहने लगा । तत्पश्चात् पिताकी मृत्यु हो जानेपर उस मनस्वी शशादको राज्य प्राप्त हो गया और वह शासन करने लगा । उस अयोध्यापति शशादने स्वयं सरयूनदीके तटपर अनेक यज्ञ सम्पन्न किये ॥ ९-१० ॥

शशादस्याभवत्पुत्रः ककुत्स्थ इति विश्रुतः ।
तस्यैव नामभेदाद्वै इन्द्रवाहः पुरञ्जयः ॥ ११ ॥
उस शशादको एक पुत्र हुआ जो ककुत्स्थ'इस नामसे प्रसिद्ध हुआ । उस ककुत्स्थके इन्द्रवाह और पुरंजय-ये दो नाम और भी थे ॥ ११ ॥

जनमेजय उवाच -
नामभेदः कथं जातो राजपुत्रस्य चानघ ।
कारणं ब्रूहि मे सर्वं कर्मणा येन चाभवत् ॥ १२ ॥
जनमेजय बोले-हे निष्पाप मुने ! उस राजकुमारके अनेक नाम कैसे हुए ? उसके जिस-जिस कर्मके कारण ये नाम हुए, वह सब मुझे बताइये ॥ १२ ॥

व्यास उवाच -
शशादे स्वर्गते राजा ककुत्स्थ इति चाभवत् ।
[राज्यं चकार धर्मज्ञः पितृपैतामहं बलात् ।]
एतस्मिन्नन्तरे देवा दैत्यैः सर्वे पराजिताः ॥ १३ ॥
जग्मुस्त्रिलोकाधिपतिं विष्णुं शरणमव्ययम् ।
तान्प्रोवाच महाविष्णुस्तदा देवान्सनातनः ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! शशादके स्वर्गवासी हो जानेपर 'ककुत्स्थ' राजा बने । (वे धर्मज्ञ ककुत्स्थ पिता-पितामहसे परम्पराप्राप्त राज्यपर बलपूर्वक शासन करने लगे । ) उसी समय सभी देवगण दैत्योंसे पराजित होकर तीनों लोकोंके स्वामी अविनाशी भगवान् विष्णुको शरणमें गये । तब सनातन भगवान् श्रीहरि उन देवताओंसे कहने लगे ॥ १३-१४ ॥

विष्णुरुवाच -
पार्ष्णिग्राहं महीपालं प्रार्थयन्तु शशादजम् ।
स हनिष्यति वै दैत्यान्संग्रामे सुरसत्तमाः ॥ १५ ॥
आगमिष्यति धर्मात्मा साहाय्यार्थं धनुर्धरः ।
पराशक्तेः प्रसादेन सामर्थ्यं तस्य चातुलम् ॥ १६ ॥
भगवान् विष्णु बोले-हे श्रेष्ठ देवगण ! आपलोग शशादपुत्र राजा ककुत्स्थसे युद्ध में सहायक बननेके लिये प्रार्थना कीजिये । वे ही युद्ध में दैत्योंको मार सकेंगे । वे धर्मात्मा ककुत्स्थ धनुष धारण करके सहायताके लिये अवश्य आयेंगे । भगवती पराशक्तिकी कृपासे उनके पास अतुलनीय सामर्थ्य है ॥ १५-१६ ॥

हरेः सुवचनाद्देवा ययुः सर्वे सवासवाः ।
अयोध्यायां महाराज शशादतनयं प्रति ॥ १७ ॥
हे महाराज ! भगवान् विष्णुकी यह उत्तम वाणी सुनकर इन्द्रसमेत सभी देवतागण अयोध्यामें रहनेवाले शशादपुत्र महाराज ककुत्स्थके पास जा पहुँचे ॥ १७ ॥

तानागतान् सुरान् राजा पूजयामास धर्मतः ।
पप्रच्छागमने राजा प्रयोजनमतन्द्रितः ॥ १८ ॥
राजा ककुत्स्थने उन आये हुए देवताओंका धर्मपूर्वक अत्यन्त उत्साहके साथ पूजन किया और इसके बाद वे उनसे आनेका प्रयोजन पूछने लगे ॥ १८ ॥

राजोवाच -
धन्योऽहं पावितश्चास्मि जीवितं सफलं मम ।
यदागत्य गृहे देवा ददुश्च दर्शनं महत् ॥ १९ ॥
ब्रुवन्तु कृत्यं देवेशा दुःसाध्यमपि मानवैः ।
करिष्यामि महत्कार्यं सर्वथा भवतां महत् ॥ २० ॥
राजा बोले-हे देवगण ! मैं धन्य और पवित्र हो गया: मेरा जीवन सार्थक हो गया, जो कि आपलोगोंने मेरे घर पधारकर मुझे अपना महनीय दर्शन दिया है । हे देवेश्वरो ! आप मुझे अपने कार्यके विषयमें बतलाएँ । आपका वह कार्य चाहे मनुष्योंके लिये परम दुःसाध्य ही हो, मैं वह महान् कार्य हर प्रकारसे सम्पन्न करूँगा ॥ १९-२० ॥

देवा ऊचुः -
साहाय्यं कुरु राजेन्द्र सखा भव शचीपतेः ।
संग्रामे जय दैत्येन्द्रान्दुर्जयांस्त्रिदशैरपि ॥ २१ ॥
पराशक्तिप्रसादेन दुर्लभं नास्ति ते क्वचित् ।
विष्णुना प्रेरिताश्चैवमागतास्तव सन्निधौ ॥ २२ ॥
देवता बोले-हे राजेन्द्र ! हमारी सहायता कीजिये; शचीपति इन्द्रके सखा बन जाइये और देवताओंके लिये भी अजेय महान् दैत्योंको युद्धमें परास्त कर दीजिये । पराशक्ति जगदम्बाके अनुग्रहसे आपके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है । भगवान् विष्णुके भेजनेपर ही हमलोग आपके पास आये हैं । २१-२२ ॥

राजोवाच -
पार्ष्णिग्राहो भवाम्यद्य देवानां सुरसत्तमाः ।
इन्द्रो मे वाहनं तत्र भवेद्यदि सुराधिपः ॥ २३ ॥
संग्रामं तु करिष्यामि दैत्यैर्देवकृतेऽधुना ।
आरुह्येन्द्रं गमिष्यामि सत्यमेतद्‌ब्रवीम्यहम् ॥ २४ ॥
राजा बोले-हे श्रेष्ठ देवतागण ! यदि इन्द्र उस युद्धमें मेरा वाहन बनें तो मैं अभी देवताओंकी ओरसे सेनापति बन जाऊँगा । मैं इसी समय इन्द्रपर आरूढ़ होकर युद्धक्षेत्रमें जाऊँगा और देवताओंके लिये युद्ध करूँगा, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ २३-२४ ॥

तदोचुर्वासवं देवाः कर्तव्यं कार्यमद्‌भुतम् ।
पत्रं भव नरेन्द्रस्य त्यक्त्वा लज्जां शचीपते ॥ २५ ॥
तब देवताओंने इन्द्रसे कहा-हे शचीपते ! [इस समय] आपको यह अद्‌भुत कार्य करना है । आप लज्जा छोड़कर राजा ककुत्स्थका वाहन बन जाइये ॥ २५ ॥

लज्जमानस्तदा शक्रः प्रेरितो हरिणा भृशम् ।
बभूव वृषभस्तूर्णं रुद्रस्येवापरो महान् ॥ २६ ॥
उस समय इन्द्र बड़े संकोचमें पड़ गये, फिर भगवान् श्रीहरिके बार-बार प्रेरणा करनेपर वे तुरंत एक ऐसे वृषभके रूपमें प्रकट हो गये मानो भगवान् रुद्रके दूसरे महान् नन्दी ही हो ॥ २६ ॥

तमारुरोह राजासौ संग्रामगमनाय वै ।
स्थितः ककुदि येनास्य ककुत्स्थस्तेन चाभवत् ॥ २७ ॥
इन्द्रो वाहः कृतो येन तेन नाम्नेन्द्रवाहकः ।
पुरं जितं तु दैत्यानां तेनाभूच्च पुरञ्जयः ॥ २८ ॥
तब संग्राममें जानेके लिये वे राजा उस वृषभपर चढ़े और उसके ककुद्पर बैठे, इसी कारणसे वे 'ककुत्स्थ' नामवाले हो गये । उन्होंने इन्द्रको अपना वाहन बनाया था, इसलिये वे 'इन्द्रवाहक' नामसे प्रसिद्ध हुए और उन्होंने दैत्योंके पुर (नगर)-पर विजय प्राप्त की थी, इसलिये वे 'पुरंजय' नामवाले भी हो गये । २७-२८ ॥

जित्वा दैत्यान्महाबाहुर्धनं तेषां प्रदत्तवान् ।
पप्रच्छ चैवं राजर्षेरिति सख्यं बभूव ह ॥ २९ ॥
तत्पश्चात् उन महाबाहु ककुत्स्थने दैत्योंको जीतकर उनका धन देवताओंको दे दिया और [फिर वहाँसे प्रस्थान करनेके लिये देवताओंसे] पूछा । इस प्रकार इन्द्रके साथ राजर्षि ककुत्स्थकी मैत्री हुई ॥ २९ ॥

ककुत्स्थश्चातिविख्यातो नृपतिस्तस्य वंशजाः ।
काकुत्स्था भुवि राजानो बभूवुर्बहुविश्रुताः ॥ ३० ॥
महाराज ककुत्स्थ महान् प्रसिद्ध राजा थे । उनके वंशमें उत्पन्न सभी राजा 'काकुत्स्थ' नामसे पृथ्वीलोकमें अत्यधिक प्रसिद्ध हुए ॥ ३० ॥

ककुत्स्थस्याभवत्पुत्रो धर्मपत्‍न्यां महाबलः ।
अनेना विश्रुतस्तस्य पृथुः पुत्रश्च वीर्यवान् ॥ ३१ ॥
विष्णोरंशः स्मृतः साक्षात्पराशक्तिपदार्चकः ।
विश्वरन्धिस्तु विज्ञेयः पृथोः पुत्रो नराधिपः ॥ ३२ ॥
राजा ककुत्स्थकी धर्मपत्नीके गर्भसे एक महाबली पुत्र हुआ, जो 'अनेना' नामसे विख्यात हुआ । उस 'अनेना' को एक पृथु नामक पराक्रमी पुत्र हुआ; उसे साक्षात् भगवान् विष्णुका अंश कहा गया है । वह पराशक्ति जगदम्बाके चरणोंका उपासक था, उन पृथुके पुत्ररूपमें राजा विश्वरन्धिको जानना चाहिये ॥ ३१-३२ ॥

चन्द्रस्तस्य सुतः श्रीमान् राजा वंशकरः स्मृतः ।
तत्सुतो युवनाश्वस्तु तेजस्वी बलवत्तरः ॥ ३३ ॥
उन 'विश्वरन्धि' के चन्द्र नामक परम ऐश्वर्यशाली पुत्र हुए, वे चन्द्रवंशकी वृद्धि करनेवाले कहे जाते हैं । उनके पुत्र युवनाश्व थे, जो परम तेजस्वी तथा महान् बलशाली थे ॥ ३३ ॥

शावन्तो युवनाश्वस्य जज्ञे परमधार्मिकः ।
शावन्ती निर्मिता तेन पुरी शक्रपुरीसमा ॥ ३४ ॥
उन युवनाश्वके 'शावन्त' नामक परम धार्मिक पुत्र उत्पन्न हुए । उन्होंने इन्द्रपुरीके समान प्रतीत होनेवाली शावन्ती नामकी पुरीका निर्माण कराया ॥ ३४ ॥

बृहदश्वस्तु पुत्रोऽभूच्छावन्तस्य महात्मनः ।
कुवलयाश्वः सुतस्तस्य बभूव पृथिवीपतिः ॥ ३५ ॥
धुन्धुर्नामा हतो दैत्यस्तेनासौ पृथिवीतले ।
धुन्धुमारेति विख्यातं नाम प्रापातिविश्रुतम् ॥ ३६ ॥
उन महात्मा शावन्तके 'बृहदश्व' नामक पुत्र हुए और बृहदश्वके पुत्र राजा कुवलयाश्व हुए । उन कुवलयाश्वने 'धुन्धु' नामक दैत्यका संहार किया, तभीसे उन्होंने पृथ्वीलोकमें 'धुन्धुमार' नामसे परम प्रसिद्धि प्राप्त की ॥ ३५-३६ ॥

पुत्रस्तस्य दृढाश्वस्तु पालयामास मेदिनीम् ।
दृढाश्वस्य सुतः श्रीमान्हर्यश्व इति कीर्तितः ॥ ३७ ॥
उनके पुत्र दृढाश्व हुए, जिन्होंने पृथ्वीकी भलीभाँति रक्षा की । उन दृढाश्वके पुत्र श्रीमान् हर्यश्व कहे गये हैं ॥ ३७ ॥

निकुम्भस्तत्सुतः प्रोक्तो बभूव पृथिवीपतिः ।
बर्हणाश्वो निकुम्भस्य कुशाश्वस्तस्य वै सुतः ॥ ३८ ॥
उन हर्यश्वके 'निकुम्भ' नामक पुत्र कहे गये हैं । वे महान् राजा हुए; निकुम्भके पुत्र बर्हणाश्व और उनके पुत्र कृशाश्व हुए ॥ ३८ ॥

प्रसेनजित्कृशाश्वस्य बलवान्सत्यविक्रमः ।
तस्य पुत्रो महाभागो यौवनाश्वेति विश्रुतः ॥ ३९ ॥
उन कृशाश्वके प्रसेनजित् नामक बलवान् तथा सत्यपराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए और प्रसेनजित्के एक भाग्यशाली पुत्र उत्पन्न हुए, वे 'यौवनाश्व'-इस नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ ३९ ॥

यौवनाश्वसुतः श्रीमान्मान्धातेति महीपतिः ।
अष्टोत्तरसहस्रं तु प्रासादा येन निर्मिताः ॥ ४० ॥
भगवत्यास्तु तुष्ट्यर्थं महातीर्थेषु मानद ।
मातृगर्भे न जातोऽसावुत्पन्नो जनकोदरे ॥ ४१ ॥
निःसारितस्ततः पुत्रः कुक्षिं भित्त्वा पितुः पुनः ।
उन यौवनाश्वके पुत्र श्रीमान् राजा मान्धाता थे । हे मानद ! उन्होंने भगवती जगदम्बाको प्रसन्न करनेके लिये महातीर्थोंमें एक हजार आठ देवालयोंका निर्माण कराया था । ये माताके गर्भसे जन्म न लेकर पिताके उदरसे उत्पन्न हुए थे । पिताको कुक्षिका भेदनकर उन्हें वहाँसे निकाला गया था ॥ ४०-४१.५ ॥

राजोवाच -
न श्रुतं न च दृष्टं वा भवता तदुदाहृतम् ॥ ४२ ॥
असंभाव्यं महाभाग तस्य जन्म यथोदितम् ।
विस्तरेण वदस्वाद्य मान्धातुर्जन्मकारणम् ॥ ४३ ॥
राजोदरे यथोत्पन्नः पुत्रः सर्वाङ्गसुन्दरः ।
राजा बोले-हे महाभाग [व्यासजी !] उन महाराज मान्धाताके जन्मके विषयमें जैसा आपने कहा है, वह तो असम्भव-सी घटना है, मैंने ऐसा न तो सुना है और न देखा ही है । अब आप राजा मान्धाताके जन्मका वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताइये । वह सर्वांगसुन्दर पुत्र राजा यौवनाश्वके उदरसे जिस प्रकार उत्पन्न हुआ, उसे कहिये ॥ ४२-४३.५ ॥

व्यास उवाच -
यौवनाश्वोऽनपत्योऽभूद्‌राजा परमधार्मिकः ॥ ४४ ॥
भार्याणां च शतं तस्य बभूव नृपतेर्नृप ।
राजा चिन्तापरः प्रायश्चिन्तयामास नित्यशः ॥ ४५ ॥
अपत्यार्थे यौवनाश्वो दुःखितस्तु वनं गतः ।
व्यासजी बोले-हे राजन् ! परम धर्मनिष्ठ राजा यौवनाश्व सन्तानहीन थे । उन महाराजकी एक सौ रानियाँ थीं, किंतु किसीसे भी सन्तान न होनेके कारण वे प्रायः चिन्तित रहते और सन्तानके लिये नित्य सोचमें पड़े रहते थे । अन्तमें अत्यन्त दु:खित होकर वे यौवनाश्व वनमें चले गये ॥ ४४-४५.५ ॥

ऋषीणामाश्रमे पुण्ये निर्विण्णः स च पार्थिवः ॥ ४६ ॥
मुमोच दुःखितः श्वासांस्तापसानां च पश्यताम् ।
दृष्ट्वा तु दुःखितं विप्रा बभूवुश्च कृपालवः ॥ ४७ ॥
तमूचुर्ब्राह्मणा राजन्कस्माच्छोचसि पार्थिव ।
किं ते दुःखं महाराज ब्रूहि सत्यं मनोगतम् ॥ ४८ ॥
प्रतीकारं करिष्यामो दुःखस्य तव सर्वथा ।
वहाँ ऋषियोंके पवित्र आश्रममें रहते हुए वे महाराज यौवनाश्व सदा खिन्न रहते थे और व्यथित होकर सदा दीर्घ श्वास छोड़ते रहते थे, इसे वहाँ रहनेवाले तपस्वीजन बराबर देखा करते थे । उन्हें इस प्रकार दुःखित देखकर सभी विप्रोंको उनपर दया आ गयी । ब्राह्मणोंने उनसे पूछाहे राजन् ! आप यह चिन्ता किसलिये कर रहे हैं ? हे पार्थिव ! आपको कौन-सा कष्ट है ? हे महाराज ! आप अपने मनकी बात सच-सच बताइये, हमलोग हर तरहसे आपका दुःख दूर करनेका उपाय करेंगे ॥ ४६-४८.५ ॥

यौवनाश्व उवाच -
राज्यं धनं सदश्वाश्च वर्तन्ते मुनयो मम ॥ ४९ ॥
भार्याणां च शतं शुद्धं वर्तते विशदप्रभम् ।
नारातिस्त्रिषु लोकेषु कोऽप्यस्ति बलवान्मम ॥ ५० ॥
आज्ञाकरास्तु सामन्ता वर्तन्ते मन्त्रिणस्तथा ।
यौवनाश्व बोले-हे मुनियो ! मेरे पास राज्य, धन तथा उत्तम कोटिके बहुत-से घोड़े विद्यमान हैं; दिव्य प्रभासे युक्त एक सौ साध्वी रानियाँ मेरे पास हैं, तीनों लोकोंमें मेरा कोई भी बलवान् शत्रु नहीं है और मेरे सभी मन्त्री तथा सामन्त सदा मेरे आज्ञापालनमें तत्पर रहते हैं ॥ ४९-५०.५ ॥

एकं सन्तानजं दुःखं नान्यत्पश्यामि तापसाः ॥ ५१ ॥
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।
तस्माच्छोचामि विप्रेन्द्राः सन्तानार्थं भृशं ततः ॥ ५२ ॥
वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञास्तापसाश्च कृतश्रमाः ।
इष्टिं सन्तानकामस्य युक्तां ज्ञात्वा दिशन्तु मे ॥ ५३ ॥
कुर्वन्तु मम कार्यं वै कृपा चेदस्ति तापसाः ।
हे तपस्वियो ! मुझे एकमात्र दुःख सन्तान न होनेका है । इसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी दु:ख मेरी दृष्टिमें नहीं है । हे विप्रेन्द्रो ! पुत्रहीन व्यक्तिकी न तो सद्‌गति होती है और न उसे स्वर्ग ही मिलता है, अतः सन्तानके लिये मैं सदा अत्यधिक शोकाकुल रहता हूँ । हे तपस्वियो ! आपलोग महान् परिश्रम करके वेद-शास्त्रोंके रहस्य जाननेवाले हैं, मुझ सन्तानकामीके लिये करणीय जो उपयुक्त यज्ञ हो, उसे सोच-समझकर मुझे बतायें । हे तापसो ! यदि मुझपर आपलोगोंकी कृपा हो, तो मेरा यह कार्य सम्पन्न कर दें ॥ ५१-५३.५ ॥

व्यास उवाच -
तच्छ्रुत्वा वचनं राज्ञः कृपया पूर्णमानसाः ॥ ५४ ॥
कारयामासुरव्यग्रास्तस्येष्टिमिन्द्रदेवताम् ।
कलशः स्थापितस्तत्र जलपूर्णस्तु वाडवैः ॥ ५५ ॥
मन्त्रितो वेदमन्त्रैश्च पुत्रार्थं तस्य भूपतेः ।
व्यासजी बोले-हे राजन् ! राजा यौवनाश्वकी बात सुनकर दयासे परिपूर्ण हृदयवाले उन ब्राह्मणोंने इन्द्रको प्रधान देवता बनाकर अत्यन्त सावधानीपूर्वक उन नरेशसे एक यज्ञ करवाया । ब्राह्मणोंने वहाँपर जलसे परिपूर्ण एक कलश स्थापित कराया और राजा यौवनाश्वकी पुत्रप्राप्तिके निमित्त वेदमन्त्रोंके द्वारा उस कलशका अभिमन्त्रण किया ॥ ५४-५५.५ ॥

राजा तद्यज्ञसदनं प्रविष्टस्तृषितो निशि ॥ ५६ ॥
विप्रान्दृष्ट्वा शयानान्स पपौ मन्त्रजलं स्वयम् ।
राजा यौवनाश्वको रातमें प्यास लग गयी, जिससे वे यज्ञशालामें चले गये । [वहाँ कहीं भी जल न देखकर तथा] ब्राह्मणोंको सोता हुआ देखकर उन्होंने कलशवाला अभिमन्त्रित जल स्वयं ही पी लिया ॥ ५६.५ ॥

भार्यार्थं संस्कृतं विप्रैर्मन्त्रितं विधिनोद्‌धृतम् ॥ ५७ ॥
पीतं राज्ञा तृषार्तेन तदज्ञानान्नृपोत्तम ।
हे नृपश्रेष्ठ ! प्याससे व्याकुल राजा यौवनाश्व ब्राह्मणोंके द्वारा विधिपूर्वक अभिमन्त्रित करके रानीके लिये रखे गये उस पवित्र जलको अज्ञानपूर्वक पी गये ॥ ५७.५ ॥

व्युदकं कलशं दृष्ट्वा तदा विप्रा विशङ्‌किताः ॥ ५८ ॥
पप्रच्छुस्ते नृपं केन पीतं जलमिति द्विजाः ।
तत्पश्चात् कलशको जल-विहीन देखकर ब्राह्मण सशंकित हो गये । उन विप्रोंने राजा यौवनाश्वसे पूछा कि इस जलको किसने पीया है ? ॥ ५८.५ ॥

राज्ञा पीतं विदित्वा ते ज्ञात्वा दैवबलं महत् ॥ ५९ ॥
इष्टिं समापयामासुर्गतास्ते मुनयो गृहान् ।
स्वयं राजा यौवनाश्वने जल पीया है-इस बातको जानकर और दैव सबसे बढ़कर बलवान् होता है-यह समझकर उन महर्षियोंने यज्ञ सम्पन्न किया और बादमें वे अपने-अपने घर चले गये ॥ ५९.५ ॥

गर्भं दधार नृपतिस्ततो मन्त्रबलादथ ॥ ६० ॥
ततः काले स उत्पन्नः कुक्षिं भित्त्वाऽस्य दक्षिणाम् ।
तदनन्तर मन्त्रके प्रभावसे राजा यौवनाश्वने गर्भ धारण कर लिया । तब गर्भके पूर्ण होनेपर राजाकी दाहिनी कोखका भेदन करके वे (मान्धाता) उत्पन्न हुए । ६०.५ ॥

पुत्रं निष्कासमायासुर्मन्त्रिणस्तस्य भूपतेः ॥ ६१ ॥
देवानां कृपया तत्र न ममार महीपतिः ।
कं धास्यति कुमारोऽयं मन्त्रिणश्चुक्रुशुर्भृशम् ॥ ६२ ॥
तदेन्द्रो देशिनीं प्रादान्मां धातेत्यवदद्वचः ।
सोऽभवद्‌बलवान् राजा मान्धाता पृथिवीपतिः ।
तदुत्पत्तिस्तु भूपाल कथिता तव विस्तरात् ॥ ६३ ॥
राजके मन्त्रियोंने पुत्रको बाहर निकाला । देवताओंकी कृपासे राजा यौवनाश्वकी मृत्यु नहीं हुई । तब चिन्तित होकर मन्त्रीलोग यह कहकर जोरसे चिल्ला उठे-यह कुमार किसका दूध पीयेगा ? इतनेमें इन्द्रने उसके मुखमें अपनी तर्जनी अंगुली डाल दी और यह वचन कहा-'मां धाता' अर्थात् यह मेरा दुग्ध-पान करेगा । वे ही मान्धाता नामक महान् बलशाली राजा हुए । हे राजन् ! इस प्रकार मैंने उनकी उत्पत्तिका विस्तारपूर्वक वर्णन आपसे कर दिया ॥ ६१-६३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे मान्धातोत्पत्तिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
अध्याय नववाँ समाप्त ॥ ९ ॥


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