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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
दशमोऽध्यायः

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सत्यव्रताख्यानवर्णनम् -
सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र-जपमें रत होना -


व्यास उवाच -
बभूव चक्रवर्ती स नृपतिः सत्यसङ्गरः ।
मान्धाता पृथिवीं सर्वामजयन्नृपतीश्वरः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय !] वे महाराज मान्धाता सत्यप्रतिज्ञ तथा चक्रवर्ती नरेश हुए । उन राजाधिराजने सम्पूर्ण पृथ्वीको जीत लिया था ॥ १ ॥

दस्यवोऽस्य भयत्रस्ता ययुर्गिरिगुहासु च ।
इन्द्रेणास्य कृतं नाम त्रसद्दस्युरिति स्फुटम् ॥ २ ॥
उनके भयसे त्रस्त होकर सभी दस्यु (लुटेरे) पर्वतोंकी गुफाओंमें छिप गये थे । इसी कारण इन्द्रने इन्हें 'त्रसदस्यु' इस नामसे विख्यात कर दिया ॥ २ ॥

तस्य बिन्दुमती भार्या शशबिन्दोः सुताभवत् ।
पतिव्रता सुरूपा च सर्वलक्षणसंयुता ॥ ३ ॥
महाराज शशबिन्दुकी पुत्री बिन्दुमती उनकी भार्या थीं; जो पतिव्रता, रूपवती तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं ॥ ३ ॥

तस्यामुत्पादयामास मान्धाता द्वौ सुतौ नृप ।
पुरुकुत्सं सुविख्यातं मुचुकुन्दं तथापरम् ॥ ४ ॥
हे राजन् ! मान्धाताने उनसे दो पुत्र उत्पन्न किये । उनमें एक पुत्र पुरुकुत्स तथा दूसरा पुत्र मुचुकुन्द नामसे विख्यात हुआ ॥ ४ ॥

पुरुकुत्सात्ततोऽरण्यः पुत्रः परमधार्मिकः ।
पितृभक्तिरतश्चाभूद्‌बृहदश्वस्तदात्मजः ॥ ५ ॥
हर्यश्वस्तस्य पुत्रोऽभूद्‌धार्मिकः परमार्थवित् ।
तस्यात्मजस्त्रिधन्वाभूदरुणस्तस्य चात्मजः ॥ ६ ॥
अरुणस्य सुतः श्रीमान्सत्यव्रत इति श्रुतः ।
सोऽभूदिच्छाचरः कामी मन्दात्मा ह्यतिलोलुपः ॥ ७ ॥
उसके बाद पुरुकुत्ससे अरण्य नामक एक पुत्र हुआ । वे परम धार्मिक तथा पितृभक्त थे । उनके पुत्र बृहदश्व थे । उन बृहदश्वके भी हर्यश्व नामक पुत्र हुए, जो परम धर्मिष्ठ तथा परमार्थज्ञानी थे । उनके पुत्र त्रिधन्वा हुए और त्रिधन्वाके अरुण नामक पुत्र हुए । अरुणका पुत्र सत्यव्रत नामसे प्रसिद्ध हुआ, वह परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न था; किंतु वह स्वेच्छाचारी, कामी, मन्दबुद्धि तथा अत्यन्त लोभी निकला ॥ ५-७ ॥

स पापात्मा विप्रभार्यां हृतवान्काममोहितः ।
विवाहे तस्य विघ्नं स चकार नृपतेः सुतः ॥ ८ ॥
एक समयकी बात है-उस पापीने कामासक्त होकर एक विप्रकी भार्याका अपहरण कर लिया । जब उस विप्रका विवाह कन्याके साथ हो रहा था, उसी समय विवाह-मण्डपमें ही उस राजकुमारने यह विघ्न उपस्थित किया था ॥ ८ ॥

मिलिता ब्राह्मणास्तत्र राजानमरुणं नृप ।
ऊचुर्भृशं सुदुःखार्ता हा हताःस्मेति चासकृत् ॥ ९ ॥
हे राजन् ! तत्पश्चात् सभी ब्राह्मण एक साथ राजा अरुणके पास पहुँचे और अत्यधिक दुःखित होकर बार-बार कहने लगे-'हाय, हमलोग मारे गये ॥ ९ ॥

पप्रच्छ राजा तान्विप्रान्दुःखितान्पुरवासिनः ।
किं कृतं मम पुत्रेण भवतामशुभं द्विजाः ॥ १० ॥
तब राजा अरुणने दु:खसे पीडित उन नगरवासी ब्राह्मणोंसे पूछा-हे विप्रगण ! मेरे पुत्रने आपलोगोंका क्या अनिष्ट किया है ? ॥ १० ॥

तन्निशम्य द्विजा वाक्यं राज्ञो विनयपूर्वकम् ।
तदोचुस्त्वरुणं विप्रां कृताशीर्वचना भृशम् ॥ ११ ॥
तब राजाकी यह वाणी सुनकर विप्रगण विपुल आशीर्वाद देते हुए उनसे विनम्रतापूर्वक कहने लगे ॥ ११ ॥

ब्राह्मणा ऊचुः -
राजंस्तव सुतेनाद्य विवाहे प्रहृता किल ।
विवाहिता विप्रकन्या बलेन बलिनांवर ॥ १२ ॥
ब्राह्मण बोले-बलशालियोंमें श्रेष्ठ हे राजन ! आज आपके पुत्र सत्यव्रतने विवाहमण्डपसे एक ब्राह्मणकी विवाहिता कन्याका बलपूर्वक हरण कर लिया है ॥ १२ ॥

व्यास उवाच -
श्रुत्वा तेषां वचस्तथ्यं राजा परमधार्मिकः ।
पुत्रमाह वृथा नाम कृतं ते दुष्टकर्मणा ॥ १३ ॥
गच्छ दूरं सुमन्दात्मन्दुराचार गृहान्मम ।
न स्थातव्यं त्वया पाप विषये मम सर्वथा ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-[हे महाराज जनमेजय !] उनकी तथ्यपूर्ण बात सुनकर परम धार्मिक राजा अरुणने पुत्रसे कहा-इस कुकर्मके कारण तुम्हारा 'सत्यव्रत' नाम व्यर्थ हो गया है । हे दुर्बुद्धि ! दुराचारी ! तुम मेरे घरसे दूर चले जाओ । अरे पापी ! अब तुम मेरे राज्यमें ठहरनेके योग्य बिलकुल ही नहीं रह गये हो ॥ १३-१४ ॥

कुपितं पितरं प्राह क्व गच्छामीति वै मुहुः ।
अरुणस्तमथोवाच श्वपाकैः सह वर्तय ॥ १५ ॥
श्वपचस्य कृतं कर्म द्विजदारापहारणम् ।
तस्मात्तैः सह संसर्गं कृत्वा तिष्ठ यथासुखम् ॥ १६ ॥
नाहं पुत्रेण पुत्रार्थी त्वया च कुलपांसन ।
यथेष्टं व्रज दुष्टात्मन् कीर्तिनाशः कृतस्त्वया ॥ १७ ॥
अपने पिताको कुपित देखकर वह बार-बार कहने लगा कि मैं कहाँ जाऊँ ? तब राजा अरुणने उससे कहा कि तुम 'चाण्डालोंके साथ रहो । विप्रकी भार्याका अपहरण करके तुमने चाण्डालका कर्म किया है, इसलिये अब तुम उन्हींके साथ संसर्ग करते हुए स्वेच्छापूर्वक रहो । अरे कुलकलंकी ! तुझ-जैसे पुत्रसे मैं पुत्रवान् नहीं बनना चाहता । अरे दुष्ट ! तुमने मेरी सारी कीर्ति नष्ट कर दी है; इसलिये जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहाँ चले जाओ ॥ १५-१७ ॥

स निशम्य पितुर्वाक्यं कुपितस्य महात्मनः ।
निश्चक्राम पुरात्तस्मात्तरसा श्वपचान्ययौ ॥ १८ ॥
सत्यव्रतस्तदा तत्र श्वपाकैः सह वर्तते ।
धनुर्बाणधरः श्रीमान्कवची करुणालयः ॥ १९ ॥
कोपसे युक्त अपने महात्मा पिताकी बात सुनकर सत्यव्रत उस नगरसे तत्काल निकल गया और चाण्डालोंके पास चला गया । उस समय ऐश्वर्यसम्पन्न तथा करुणालय सत्यव्रत कवच पहनकर तथा धनुष-बाण लेकर उन चाण्डालोंके साथ रहने लगा ॥ १८-१९ ॥

यदा निष्कासितः पित्रा कुपितेन महात्मना ।
गुरुणाथ वसिष्ठेन प्रेरितोऽसौ महीपतिः ॥ २० ॥
तस्मात्सत्यव्रतस्तस्मिन्बभूव क्रोधसंयुतः ।
वसिष्ठे धर्मशास्त्रज्ञे निवारणपराङ्‌मुखे ॥ २१ ॥
जब महात्मा राजा अरुणने कुपित होकर अपने पुत्र सत्यव्रतको निष्कासित किया था, तब गुरु वसिष्ठने उन्हें इस कार्यक लिये प्रेरित किया था। इसलिये राजकुमार सत्यव्रत निष्कासनसे न रोकनेवाले उन धर्मशास्त्रके ज्ञाता वसिष्ठजीपर कुपित था॥ २०-२१॥

केनचित्कारणेनाथ पिता तस्य महीपतिः ।
पुत्रार्थेऽसौ तपस्तप्तुं पुरं त्यक्त्वा वनं गतः ॥ २२ ॥
एक समय किसी प्रसंगवश उस सत्यव्रतके पिता राजा अरुण अयोध्यापुरी छोड़कर पुत्रकी कल्याणकामनासे तप करनेके लिये वनमें चले गये॥२२॥

न ववर्ष तदा तस्मिन्विषये पाकशासनः ।
समा द्वादश राजेन्द्र तेनाधर्मेण सर्वथा ॥ २३ ॥
हे महाराज! उस समय उस अधर्मके कारण इन्द्रने उस राज्यमें बारह वर्षोंतक बिलकुल जल नहीं बरसाया॥२३॥

विश्वामित्रस्तदा दारांस्तस्मिंस्तु विषये नृप ।
संन्यस्य कौशिकीतीरे चचार विपुलं तपः ॥ २४ ॥
हे राजन्! उस समय मुनि विश्वामित्र अपनी पत्नीको उस राज्यमें छोड़कर स्वयं कौशिकीनदीके तटपर कठोर तपस्या करने लगे थे॥२४॥

कातरा तत्र संजाता भार्या वै कौशिकस्य ह ।
कुटुम्बभरणार्थाय दुःखिता वरवर्णिनी ॥ २५ ॥
विश्वामित्रकी सुन्दर रूपवाली भार्या उस अकालके समय कुटुम्बके भरण-पोषणकी समस्याके कारण दुःखित होकर चिन्तासे व्याकुल हो उठीं ॥ २५ ॥

बालकान्क्षुधयाक्रान्तान्‌रुदतः पश्यती भृशम् ।
याचमानांश्च नीवारान्कष्टमाप पतिव्रता ॥ २६ ॥
भूखसे पीड़ित होकर रोते-कलपते तथा नीवार अन्न मांगते हुए अपने पुत्रोंको देख-देखकर उस पतिव्रताको महान् कष्ट होता था॥ २६॥

चिन्तयामास दुःखार्ता तोकान्वीक्ष्य क्षुधातुरान् ।
नृपो नास्ति पुरे ह्यद्य कं याचे वा करोमि किम् ॥ २७ ॥
भूखसे आक्रान्त पुत्रोंको देखकर दुःखसे व्याकुल हो वे सोचने लगीं कि इस समय नरेश भी नगरमें नहीं हैं; अतः अब मैं किससे माँगू अथवा अन्य कौन-सा उपाय करूँ॥२७॥

न मे त्रातास्ति पुत्राणां पतिर्मे नास्ति सन्निधौ ।
रुदन्ति बालकाः कामं धिङ्‌मे जीवनमद्य वै ॥ २८ ॥
यहाँ मेरे पुत्रोंकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। मेरे पतिदेव भी इस समय मेरे पास नहीं हैं। ये बालक बहुत रो रहे हैं, अब तो मेरे जीवनको धिक्कार है॥२८॥

धनहीनां च मां त्यक्त्वा तपस्तप्तुं गतः पतिः ।
न जानाति समर्थोऽपि दुःखितां धनवर्जिताम् ॥ २९ ॥
मैं धनरहित हूँ-ऐसा जानते हुए भी मुझे छोड़कर पतिदेव तप करनेके लिये चले गये। समर्थ होकर भी वे इस बातको नहीं समझते कि धनके अभावमें मैं यह कष्ट भोग रही हूँ॥ २९॥

बालानां भरणं केन करोमि पतिना विना ।
मरिष्यन्ति सुताः सर्वे क्षुधया पीडिता भृशम् ॥ ३० ॥
एकं सुतं तु विक्रीय द्रव्येण कियता पुनः ।
पालयामि सुतानन्यानेष मे विहितो विधिः ॥ ३१ ॥
पतिकी अनुपस्थितिमें अब मैं किसकी सहायतासे बालकोंका भरण-पोषण करूँ। अब तो भूखसे तड़पतड़पकर मेरे सभी पुत्र मर जायेंगे। अतः अब एक यह उपाय मुझे सूझ रहा है कि इनमेंसे एक पुत्रको बेचकर जो कुछ भी धन प्राप्त हो, उस धनसे अन्य पुत्रोंका पालन-पोषण करूँ ॥३०-३१ ॥

सर्वेषां मारणं नाद्धा युक्तं मम विपर्यये ।
कालस्य कलनायाहं विक्रीणामि तथात्मजम् ॥ ३२ ॥
इस प्रकार भूखसे सभी पुत्रोंको मार डालना मेरे विचारसे उचित नहीं है। अत: इस संकटकी स्थितिसे निबटनेके लिये मैं एक पुत्रको बेचूंगी ॥ ३२॥

हृदयं कठिनं कृत्वा संचिन्त्य मनसा सती ।
सा दर्भरज्ज्वा बद्ध्वाथ गले पुत्रं विनिर्गता ॥ ३३ ॥
मन-ही-मन इस तरहका संकल्प करके अपने हदयको कठोर बनाकर वह साध्वी एक पुत्रके गलेमें कुशकी रस्सी बाँधकर घरसे निकल पड़ी॥३३॥

मुनिपत्‍नी गले बद्ध्वा मध्यमं पुत्रमौरसम् ।
शेषस्य भरणार्थाय गृहीत्वा चलिता गृहात् ॥ ३४ ॥
दृष्टा सत्यव्रतेनार्ता तापसी शोकसंयुता ।
पप्रच्छ नृपतिस्तां तु किं चिकीर्षसि शोभने ॥ ३५ ॥
रुदन्तं बालकं कण्ठे बद्ध्वा नयसि काधुना ।
किमर्थं चारुसर्वाङ्‌गि सत्यं ब्रूहि ममाग्रतः ॥ ३६ ॥
जब वह मुनि-पत्नी शेष पुत्रोंके रक्षार्थ अपने औरस मझले पुत्रके गलेमें रस्सी बाँधकर उसे लेकर अपने घरसे निकली, तभी [उसके कुछ दूर जानेपर] राजकुमार सत्यव्रतने उस शोकसन्तप्त तथा घबरायी हुई तपस्विनीको देख लिया और उससे पूछा-हे शोभने! आप क्या करना चाहती हो? हे सर्वांगसुन्दरि! आप कौन हैं और इस रोते हुए बालकके गलेमें रस्सी बाँधकर किसलिये ले जा रही हैं ? यह सब आप मेरे समक्ष सच-सच बताइये ॥३४-३६॥

ऋषिपत्‍न्युवाच -
विश्वामित्रस्य भार्याहं पुत्रोऽयं मे नृपात्मज ।
विक्रेतुमौरसं कामं गमिष्ये विषमे सुतम् ॥ ३७ ॥
अन्नं नास्ति पतिर्मुक्त्वा गतस्तप्तुं नृप क्वचित् ।
विक्रीणामि क्षुधार्तैनं शेषस्य भरणाय वै ॥ ३८ ॥
ऋषिपत्नी बोलीं-हे राजकुमार! मैं ऋषि विश्वामित्रकी पत्नी हूँ और यह मेरा पुत्र है। विषम संकटमें पड़कर मैं अपने इस औरस पुत्रको बेचनेके लिये जा रही हूँ। हे राजन् ! मेरे पास अन्न नहीं है और मेरे पति मुझे छोड़कर तपस्या करनेके लिये कहीं चले गये हैं, अत: भूखसे व्याकुल मैं अब अपने शेष पुत्रोंके भरण-पोषणके निमित्त इसे बेचूंगी ॥३७-३८॥

राजोवाच -
पतिव्रते रक्ष पुत्रं दास्यामि भरणं तव ।
तावदेव पतिस्ते‍ऽत्र वनाच्चैवागमिष्यति ॥ ३९ ॥
वृक्षे तवाश्रमाभ्याशे भक्ष्यं किञ्चिन्निरन्तरम् ।
बन्धयित्वा गमिष्यामि सत्यमेतद्‌ब्रवीम्यहम् ॥ ४० ॥
राजा बोले-हे पतिव्रते! आप अपने पुत्रकी रक्षा करें। जबतक आपके पति वनसे यहाँ वापस नहीं आ जाते, तबतक मैं आपके भरण-पोषणका प्रबन्ध कर दे रहा हूँ। मैं आपके आश्रमके समीपवाले वृक्षपर कुछ भोज्य-सामग्री प्रतिदिन बाँधकर चला जाया करूँगा, मैं यह सत्य कह रहा हूँ॥३९-४०॥

इत्ययुक्ता सा तदा तेन राज्ञा कौशिककामिनी ।
विबन्धं तनयं कृत्वा जगामाश्रममण्डलम् ॥ ४१ ॥
राजकुमारके यह कहनेपर विश्वामित्रकी भार्या अपने पुत्रके गलेसे रस्सी खोलकर अपने आश्रमको लौट गयीं ॥ ४१॥

सोऽभवद्‌ गालवो नाम गलबन्धान्महातपाः ।
सा तु स्वस्याश्रमे गत्वा मुमोद बालकैर्वृता ॥ ४२ ॥
गला बँधनेके कारण उस बालकका नाम 'गालव' पड़ गया और वह महान् तपस्वी हुआ। अपने आश्रममें जाकर वे बालकोंके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगीं ॥ ४२ ॥

सत्यव्रतस्तु भक्त्या च कृपया च परिप्लुतः ।
विश्वामित्रस्य च मुनेः कलत्रं तद्‌ बभार ह ॥ ४३ ॥
वने स्थितान्मृगान्हत्वा वराहान्महिषांस्तथा ।
विश्वामित्रवनाभ्याशे मांसं वृक्षे बबन्ध ह ॥ ४४ ॥
ऋषिपत्‍नी गृहीत्वा तन्मांसं पुत्रानदात्ततः ।
निर्वृत्तिं परमां प्राप प्राप्य भक्ष्यमनुत्तमम् ॥ ४५ ॥
राजकुमार सत्यव्रत भी आदर और दयासे परिपूर्ण होकर मुनि विश्वामित्रकी पत्नीका भरणपोषण करने लगे। वे वन्य भोज्य-पदार्थीको लाकर विश्वामित्रके तपोवनके समीपवाले वृक्षपर बाँध दिया करते थे और ऋषिपत्नी प्रतिदिन उसे लाकर अपने पुत्रोंको देती थी। वह उत्तम भोज्य पदार्थ प्राप्त करके उसे परम तृप्ति मिलती थी॥ ४३-४५॥

अयोध्यां चैव राज्यं च तथैवान्तःपुरं मुनिः ।
गते तप्तुं नृपे तस्मिन्वसिष्ठः पर्यरक्षत ॥ ४६ ॥
राजा अरुणके तपस्या करनेके लिये चले जानेके बाद महर्षि वसिष्ठ अयोध्यानगरीके सम्पूर्ण राज्य तथा अन्तःपुरकी भलीभाँति रक्षा करने लगे॥ ४६॥

सत्यव्रतोऽपि धर्मात्मा ह्यतिष्ठन्नगराद्‌ बहिः ।
पितुराज्ञां समास्थाय पशुघ्नव्रतवान्वने ॥ ४७ ॥
धर्मात्मा सत्यव्रत भी पिताकी आज्ञाका पालन करते हुए सदा नगरके बाहर ही रहते थे तथा वनमें पशुओंका आखेट किया करते थे। ४७ ॥

सत्यव्रतो ह्यकस्माच्च कस्यचित्कारणान्नृपः ।
वसिष्ठे चाधिकं मन्युं धारयामास नित्यदा ॥ ४८ ॥
अकस्मात् एक समय राजकुमार सत्यव्रत किसी कारणवश महर्षि वसिष्ठके प्रति अत्यधिक कुपित हो उठे और उनका यह कोप निरन्तर बढ़ता ही गया ॥४८॥

त्यज्यमानं वने पित्रा धर्मिष्ठं च प्रियं सुतम् ।
न वारयामास मुनिर्वसिष्ठः कारणेन ह ॥ ४९ ॥
[वे बार-बार यही सोचते थे कि जब मेरे पिता राजा अरुण मुझ धर्मपरायण तथा प्रिय पुत्रका त्याग कर रहे थे, उस समय मुनि वसिष्ठने उन्हें किस कारणसे नहीं रोका?॥४९॥

पाणिग्रहणमन्त्राणां निष्ठा स्यात्सप्तमे पदे ।
जानन्नपि स धर्मात्मा विप्रदारपरिग्रहे ॥ ५० ॥
सप्तपदी होनेके अनन्तर ही विवाहके मन्त्रोंकी पूर्ण प्रतिष्ठा होती है। [जब मैंने सप्तपदीके पहले ही कन्याका हरण कर लिया तो] यह विवाहित विप्रस्त्रीका हरण हुआ ही नहीं-यह सब जानते हुए भी धर्मात्मा वसिष्ठने उन्हें ऐसा करनेसे नहीं रोका ॥५०॥

कस्मिंश्चिद्दिवसेऽरण्ये मृगाभावे महीपतिः ।
वसिष्ठस्य च गां दोग्ध्रीमपश्यद्वनमध्यगाम् ॥ ५१ ॥
तां जघान क्षुधार्तस्तु क्रोधान्मोहाच्च दस्युवत् ।
वृक्षे बबन्ध तन्मांसं नीत्वा स्वयमभक्षयत् ॥ ५२ ॥
ऋषिपत्‍नी सुतान्सर्वान्भोजयमास तत्तदा ।
शङ्कमाना मृगस्येति न गोरिति च सुव्रता ॥ ५३ ॥
वसिष्ठस्तु हतां दोग्ध्रीं ज्ञात्वा क्रुद्धस्तमब्रवीत् ।
दुरात्मन् किं कृतं पापं धेनुघातात्पिशाचवत् ॥ ५४ ॥
एवं ते शङ्कवः क्रूराः पतन्तु त्वरितास्त्रयः ।
गोवधाद्दारहरणात्पितुः क्रोधात्तथा भृशम् ॥ ५५ ॥
त्रिशङ्कुरिति नाम्ना वै भुवि ख्यातो भविष्यसि ।
पिशाचरूपमात्मानं दर्शयन्सर्वदेहिनाम् ॥ ५६ ॥
किसी दिन वनमें आखेटके लिये गये सत्यव्रतको कोई भी मृग न मिलनेपर वे घूमते-घूमते वनके मध्यमें पहुँच गये। वहाँपर उन्हें मुनि वसिष्ठकी दुधारू गौ दिखायी पड़ गयी। भूखसे पीड़ित रहने तथा मुनि वसिष्ठपर कुपित होनेके कारण अज्ञानपूर्वक राजकुमार सत्यव्रतने एक दस्युकी भाँति उसका वध कर डाला। 'सत्यव्रतने मेरी दुधारू गायको मार डाला है'-यह जानकारी होनेपर मुनि वसिष्ठने कुपित होकर उससे कहा-अरे दुरात्मन् ! पिशाचकी भाँति गायका वध करके तुमने यह कैसा पाप कर डाला! उन्होंने [शाप देते हुए] कहा-'गोवध, विप्रभाके हरण और पिताके भयंकर कोप-इन तीनोंके कारण तुम्हारे मस्तकपर तत्काल तीन गहरे शंकु (पाप-चिह्न) पड़ जायें। अब सभी प्राणियोंको अपना पैशाचिक रूप दिखलाते हुए तुम संसारमें 'त्रिशंकु' नामसे प्रसिद्ध होओगे'॥५१-५६॥

व्यास उवाच -
एवं शप्तो वसिष्ठेन तदा सत्यव्रतो नृपः ।
चचार च तपस्तीव्रं तस्मिन्नेवाश्रमे स्थितः ॥ ५७ ॥
कस्माच्चिन्मुनिपुत्रात्तु प्राप्य मन्त्रमनुत्तमम् ।
ध्यायन्भगवतीं देवीं प्रकृतिं परमां शिवाम् ॥ ५८ ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय!] तब मुनि वसिष्ठसे इस तरह शापग्रस्त होकर राजकुमार सत्यव्रतने उसी आश्रममें रहते हुए कठोर तप आरम्भ कर दिया। किसी मुनि-पुत्रसे श्रेष्ठ देवी-मन्त्रकी दीक्षा प्राप्त करके परम कल्याणमयी प्रकृतिस्वरूपिणी भगवती जगदम्बाका ध्यान करते हुए वह सत्यव्रत उस मन्त्रका जप करने लगा ॥५७-५८॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे सत्यव्रताख्यानवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
अध्याय दसवाँ समाप्त ॥ १० ॥


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