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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

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सत्यव्रताय राजनीत्युपदेशवर्णनम् -
भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना -


जनमेजय उवाच -
वसिष्ठेन च शप्तोऽसौ त्रिशङ्कुर्नृपतेः सुतः ।
कथं शापाद्विनिर्मुक्तस्तन्मे ब्रूहि महामते ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-हे महामते ! वसिष्ठजी द्वारा शापित वह राजकुमार त्रिशंकु उस शापसे किस प्रकार मुक्त हुआ, उसे मुझे बताइये ॥१॥

व्यास उवाच -
सत्यव्रतस्तथा शप्तः पिशाचत्वमवाप्तवान् ।
तस्मिन्नेवाश्रमे तस्थौ देवीभक्तिपरायणः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन्!] इस प्रकार शापग्रस्त सत्यव्रत पिशाचत्वको प्राप्त हो गये। वे देवीभक्तिमें संलग्न होकर उसी आश्रममें रहने लगे॥२॥

कदाचिन्नृपतिस्तत्र जप्त्वा मन्त्रं नवाक्षरम् ।
होमार्थं ब्राह्मणान्गत्वा प्रणम्योवाच भक्तितः ॥ ३ ॥
भूमिदेवाः शृणुध्वं वै वचनं प्रणतस्य मे ।
ऋत्विजो मम सर्वेऽत्र भवन्तः प्रभवन्तु ह ॥ ४ ॥
जपस्य च दशांशेन होमः कार्यो विधानतः ।
भवद्‌भिः कार्यसिद्ध्यर्थं वेदविद्‌भिः कृपापरैः ॥ ५ ॥
सत्यव्रतोऽहं नृपतेः पुत्रो ब्रह्मविदांवराः ।
कार्यं मम विधातव्यं सर्वथा सुखहेतवे ॥ ६ ॥
किसी समय राजा सत्यव्रत नवाक्षर मन्त्रका जप समाप्त करके हवन करानेके लिये ब्राह्मणोंके पास जाकर भक्तिपूर्वक प्रणाम करके उनसे बोले-हे भूदेवगण! आपलोग मुझ शरणागतकी प्रार्थना सुनिये। इस समय आप सभी लोग मेरे यज्ञमें ऋत्विक् होनेकी कृपा कीजिये। आप सब कृपालु तथा वेदवेत्ता विप्रगण मेरे कार्यकी सिद्धिके लिये जपके दशांशसे हवन-कर्म सम्पन्न करा दीजिये। हे ब्रह्मविदोंमें श्रेष्ठ विप्रगण! मेरा नाम सत्यव्रत है; मैं एक राजकुमार हूँ। मेरे सर्वविध सुखके लिये आपलोग मेरा यह कार्य सम्पन्न कर दें॥३-६॥

तच्छ्रुत्वा ब्राह्मणास्तत्र तमूचुर्नृपतेः सुतम् ।
शप्तस्त्वं गुरुणा प्राप्तं पिशाचत्वं त्वयाधुना ॥ ७ ॥
न यागार्होऽसि तस्मात्त्वं वेदेष्वनधिकारतः ।
पिशाचत्वमनुप्राप्तं सर्वलोकेषु गर्हितम् ॥ ८ ॥
यह सुनकर ब्राह्मणोंने उस राजकुमारसे कहाअपने गुरुसे शापग्रस्त होकर इस समय तुम पिशाच बन गये हो, इसलिये वेदोंपर अधिकार न रहनेके कारण तुम यज्ञ करनेके योग्य नहीं हो। तुम सभी लोकोंमें निन्ध पैशाचिकतासे ग्रस्त हो चुके हो॥७-८॥

व्यास उवाच -
तन्निशम्य वचस्तेषां राजा दुःखमवाप ह ।
धिग्जीवितमिदं मेऽद्य किं करोमि वने स्थितः ॥ ९ ॥
पित्रा चाहं परित्यक्तः शप्तश्च गुरुणा भृशम् ।
राज्याद्‌भ्रष्टः पिशाचत्वमनुप्राप्तः करोमि किम् ॥ १० ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन्!] उनकी बात सुनकर राजा अत्यन्त दुःखित हुए। [वे सोचने लगे-] मेरे जीवनको धिक्कार है, अब मैं वनमें रहकर क्या करूँ ? पिताने मेरा परित्याग कर दिया है, गुरुने मुझे घोर शाप दे दिया है, राज्यसे च्युत हो गया हूँ और पैशाचिकतासे ग्रस्त हो चुका हूँ, तो ऐसी स्थितिमें मैं क्या करूँ?॥९-१०॥

तदा पृथुतरां कृत्वा चितां काष्ठैर्नृपात्मजः ।
सस्मार चण्डिकां देवीं प्रवेशमनुचिन्तयन् ॥ ११ ॥
तत्पश्चात् उस राजकुमारने लकड़ियोंसे बहुत बड़ी चिता तैयार करके उसमें प्रवेश करनेका विचार करते हुए भगवती चण्डिकाका स्मरण किया॥११॥

स्मृता देवीं महामायां चितां प्रज्वलितां पुरः ।
कृत्वा स्नात्वा प्रवेशार्थं स्थितः प्राञ्जलिरग्रतः ॥ १२ ॥
भगवती महामायाका स्मरण करके उसने चिता प्रज्वलित की और स्नान करके उसमें प्रविष्ट होनेके लिये दोनों हाथ जोड़कर चिताके सामने खड़ा हो गया ॥१२॥

ज्ञात्वा भगवती तं तु मर्तुकामं महीपतिम् ।
आजगाम तदाऽऽकाशं प्रत्यक्षं तस्य चाग्रतः ॥ १३ ॥
दत्त्वाथ दर्शनं देवी तमुवाच नृपात्मजम् ।
सिंहारूढा महाराज मेघगम्भीरया गिरा ॥ १४ ।
राजकुमार सत्यव्रत मरनेहेतु उद्यत हैं-ऐसा जानकर भगवती जगदम्बा उनके सामने आकाशमें प्रत्यक्ष स्थित हो गयी। हे महाराज! सिंहपर आरूढ़ वे देवी राजकुमारको दर्शन प्रदान करके मेघके समान गम्भीर वाणीमें उनसे कहने लगीं ॥ १३-१४॥

देव्युवाच -
किं ते व्यवसितं साधो हुताशे मा तनुं त्यज ।
स्थिरो भव महाभाग पिता ते जरसान्वितः ॥ १५ ॥
राज्यं दत्त्वा वने तुभ्यं गन्तास्ति तपसे किल ।
विषादं त्यज हे वीर परश्वोऽहनि भूपते ॥ १६ ॥
नेतुं त्वामागमिष्यन्ति सचिवाश्व पितुस्तव ।
मत्प्रसादात्पिता च त्वामभिषिच्य नृपासने ॥ १७ ॥
जित्वा कामं ब्रह्मलोकं गमिष्येत्येष निश्चयः ।
देवी बोलीं-हे साधो! आप यह दुष्प्रयास क्यों कर रहे हैं? इस तरह अग्निमें देहत्याग मत | कीजिये। हे महाभाग! आप स्वस्थचित्त हो जाइये। आपके वृद्ध पिता आपको राज्य सौंपकर तपस्याके लिये वनमें जानेवाले हैं। हे वीर! शोकका त्याग कीजिये। हे राजन्! आपके पिताके मन्त्रीगण आपको ले जानेके लिये परसों आयेंगे। मेरी कृपाके प्रभावसे आपके पिताजी राजसिंहासनपर आपका अभिषेक करके कामनापर विजय प्राप्तकर ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थान करेंगे। यह सुनिश्चित है॥ १५-१७.५॥

व्यास उवाच -
इत्युक्त्वा तं तदा देवी तत्रैवान्तरधीयत ॥ १८ ॥
राजपुत्रो विरमितो मरणात्पावकात्ततः ।
व्यासजी बोले-राजकुमारसे ऐसा कहकर देवी वहींपर अन्तर्धान हो गयीं। तब राजकुमार सत्यव्रतने चितामें जलकर मरनेका विचार छोड़ दिया ॥ १८.५ ॥

योध्यायां तदाऽऽगत्य नारदेन महात्मना ॥ १९ ॥
वृत्तान्तः कथितः सर्वो राज्ञे सत्वरमादितः ।
तत्पश्चात् महात्मा नारदजीने अयोध्यामें आकर आरम्भसे लेकर सत्यव्रतका सारा वृत्तान्त राजा अरुणसे कह दिया ॥ १९.५ ॥

श्रुत्वा राजाथ पुत्रस्य तं तथा मरणोद्यमम् ॥ २० ॥
खेदमाधाय मनसि शुशोच बहुधा नृपः ।
अपने पुत्रकी उस प्रकारकी जलकर मरनेकी चेष्टा सुनकर राजा अत्यन्त दुःखीचित्त होकर तरहतरहकी बात सोचने लगे ॥ २०.५ ॥

सचिवानाह धर्मात्मा पुत्रशोकपरिप्लुतः ॥ २१ ॥
ज्ञातं भवद्‍‍भिरत्युग्रं पुत्रस्य मम चेष्टितम् ।
त्यक्तो मया वने धीमान्पुत्रः सत्यव्रतो मम ॥ २२ ॥
आज्ञयासौ गतः सद्यो राज्यार्हः परमार्थवित् ।
स्थितस्तत्रैव विज्ञाने धनहीनः क्षमान्वितः ॥ २३ ॥
वसिष्ठेन तथा शप्तः पिशाचसदृशः कृतः ।
पुत्रके शोकमें निमग्न धर्मात्मा राजा अरुणने मन्त्रियोंसे कहा-आपलोग मेरे पुत्रके द्वारा की गयी अत्यन्त भीषण चेष्टाके विषयमें जान गये हैं । मैंने अपने बुद्धिमान् पुत्र सत्यव्रतका वनमें त्याग कर दिया था । परमार्थका ज्ञान रखनेवाला वह पुत्र यद्यपि राज्यका अधिकारी था, फिर भी मेरी आज्ञासे वह तत्काल वन चला गया । मेरा वह क्षमाशील पुत्र धनहीन होकर अभी उसी वनमें [देवीकी] उपासनामें रत होकर रह रहा है । वसिष्ठजीने उसे शाप दे दिया है और पिशाचतुल्य बना दिया है ॥ २१-२३.५ ॥

सोऽद्य दुःखेन सन्तप्तः प्रवेष्टुञ्च हुताशनम् ॥ २४ ॥
उद्यतः श्रीमहादेव्या निषिद्धः संस्थितः पुनः ।
तस्माद्‌ गच्छन्तु तं शीघ्रं ज्येष्ठपुत्रं महाबलम् ॥ २५ ॥
आश्वास्य वचनैरत्र तरसैवानयन्त्विह ।
अभिषिच्य सुतं राज्ये औरसं पालनक्षमम् ॥ २६ ॥
वनं यास्यामि शान्तोऽहं तपसे कृतनिश्चयः ।
दुःखसे सन्तप्त वह सत्यव्रत आज अग्निमें प्रवेश करनेको तत्पर हो गया था, किंतु भगवतीने उसे ऐसा करनेसे मना कर दिया । इस समय वह वहींपर स्थित है । अत: आपलोग शीघ्र जाइये और मेरे उस महाबली ज्येष्ठ पुत्रको अपने वचनोंसे आश्वासन देकर तुरंत यहाँ ले आइये । प्रजापालन करनेमें समर्थ अपने औरस पुत्रका राज्याभिषेक करके मैं शान्त होकर वनमें चला जाऊँगा । अब मैंने तपस्याके लिये निश्चय कर लिया है । २४-२६.५ ॥

इत्युक्त्वा मन्त्रिणः सर्वान्प्रेषयामास पार्थिवः ॥ २७ ॥
तस्यैवानयनार्थं हि प्रीतिप्रवणमानसः ।
ऐसा कहकर पुत्रप्रेममें प्रवृत्त मनवाले राजा अरुणने सत्यव्रतको लानेके लिये अपने सभी मन्त्रियोंको वहाँ भेज दिया ॥ २७.५ ॥


ते गत्वा तं समाश्वास्य मन्त्रिणः पार्थिवात्मजम् ॥ २८ ॥
अयोध्यायां महात्मानं मानपूर्वं समानयन् ।
वनमें जाकर वे मन्त्री महात्मा राजकुमार सत्यव्रतको आश्वासन देकर उन्हें सम्मानपूर्वक अयोध्या ले आये ॥ २८.५ ॥

दृष्ट्वा सत्यव्रतं राजा दुर्बलं मलिनाम्बरम् ॥ २९ ॥
जटाजूटधरं क्रूरं चिन्तातुरमचिन्तयत् ।
किं कृतं निष्ठुरं कर्म मया पुत्रो विवासितः ॥ ३० ॥
राज्यार्हश्चातिमेधावी जानता धर्मनिश्चयम् ।
सत्यव्रतको अत्यन्त दुर्बल, मलिन वस्त्र धारण किये, बड़े-बड़े जटा-जूटवाला, भयंकर तथा चिन्तासे व्यग्र देखकर राजा [अरुण] सोचने लगे कि मैंने यह कैसा निष्ठुर कर्म कर डाला था, जो कि धर्मका वास्तविक स्वरूप जानते हुए भी मैंने राजपदके योग्य तथा अत्यन्त मेधावी पुत्रको निर्वासित कर दिया था ॥ २९-३०.५ ॥

इति सञ्चिन्त्य मनसा तमालिङ्य महीपतिः ॥ ३१ ॥
आसने स्वसमीपशे समाश्वास्योपवेशयत् ।
उपविष्टं सुतं राजा प्रेमपूर्वमुवाच ह ॥ ३२ ॥
प्रेमगद्‌गदया वाचा नीतिशास्त्रविशारदः ।
[हे राजन् । ] इस प्रकार मन-ही-मन सोचकर महाराज [अरुण]-ने राजकुमार सत्यव्रतको वक्षःस्थलसे लगा लिया और उसे सम्यक् आश्वासन देकर अपने पासमें ही स्थित आसनपर बैठा लिया । तत्पश्चात् नीतिशास्त्रके पारगामी विद्वान् राजा अरुण पासमें बैठे हुए अपने उस पुत्रसे प्रेमयुक्त गद्‌गद वाणीमें कहने लगे ॥ ३१-३२.५ ॥

राजोवाच -
पुत्र धर्मे मतिः कार्या माननीया मुखोद्‌भवाः ॥ ३३ ॥
न्यायागतं धनं ग्राह्यं रक्षणीयाः सदा प्रजाः ।
नासत्यं क्वापि वक्तव्यं नामार्गे गमनं क्वचित् ॥ ३४ ॥
शिष्टप्रोक्तं प्रकर्तव्यं पूजनीयास्तपस्विनः ।
हन्तव्या दस्यवः क्रूरा इन्द्रियाणां तथा जयः ॥ ३५ ॥
कर्तव्यं कार्यसिद्ध्यर्थं राज्ञा पुत्र सदैव हि ।
मन्त्रस्तु सर्वथा गोप्यः कर्तव्यः सचिवैः सह ॥ ३६ ॥
नोपेक्ष्योऽल्पोऽपि कृतिना रिपुः सर्वात्मना सुत ।
न विश्वसेत्परासक्तं सचिवं च तथा नतम् ॥ ३७ ॥
राजा बोले-हे पुत्र ! तुम सदा धर्ममें ही अपनी बुद्धि लगाना, विप्रोंका सम्मान करना, न्यायपूर्वक प्राप्त धन ही ग्रहण करना, प्रजाओंकी सर्वदा रक्षा करना, कभी असत्य भाषण मत करना, निन्दित मार्गका अनुसरण मत करना, शिष्टजनोंके आज्ञानुसार कार्य करना, तपस्वियोंकी पूजा करना, क्रूर लुटेरोंका दमन करना और इन्द्रियोंको अपने वशमें रखना । हे पुत्र ! कार्यसिद्धिके लिये राजाको अपने मन्त्रियोंके साथ सदा गुप्त मन्त्रणा करते रहना चाहिये । हे सुत ! सबके आत्मास्वरूप राजाको चाहिये कि छोटे-सेछोटे शत्रुकी भी उपेक्षा न करे । शत्रुसे मिले हुए अपने अत्यन्त विनम्र मन्त्रीपर भी राजाको विश्वास नहीं करना चाहिये ॥ ३३-३७ ॥

चाराः सर्वत्र योक्तव्याः शत्रुमित्रेषु सर्वथा ।
धर्मे मतिः सदा कार्या दानं दद्याच्च नित्यशः ॥ ३८ ॥
शुष्कवादो न कर्तव्यो दुष्टसङ्गं च वर्जयेत् ।
यष्टव्या विविधा यज्ञाः पूजनीया महर्षयः ॥ ३९ ॥
न विश्वसेत्स्त्रियं क्वापि स्त्रैणं द्यूतरतं नरम् ।
अत्यादरो न कर्तव्यो मृगयायां कदाचन ॥ ४० ॥
सर्वत्र शत्रु तथा मित्रकी गतिविधियोंको जाननेके लिये सर्वदा गुप्तचरोंकी नियुक्ति करनी चाहिये, धर्ममें सदा बुद्धि लगाये रखनी चाहिये और प्रतिदिन दान देते रहना चाहिये । नीरस सम्भाषण नहीं करना चाहिये, दुष्टोंकी संगतिका त्याग कर देना चाहिये, विविध यज्ञानुष्ठान करते रहना चाहिये और महर्षियोंकी सदा पूजा करनी चाहिये । स्त्री, नपुंसक तथा द्यूतपरायण व्यक्तिपर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये और आखेटके प्रति अत्यन्त आदरबुद्धि कभी नहीं रखनी चाहिये ॥ ३८-४० ॥

द्यूते मद्ये तथा गेये नूनं वारवधूषु च ।
स्वयं तद्विमुखो भूयात् प्रजास्तेभ्यश्च रक्षयेत् ॥ ४१ ॥
ब्राह्मे मुहूर्ते कर्तव्यमुत्थानं सर्वथा सदा ।
स्नानादिकं सर्वविधिं विधाय विधिवद्यथा ॥ ४२ ॥
पराशक्तेः परां पूजां भक्त्या कुर्यात्सुदीक्षितः ।
पुत्रैतज्जन्मसाफल्यं पराशक्तेः पदार्चनम् ॥ ४३ ॥
द्यूत, मदिरा, अश्लील संगीत तथा वेश्याओंसे स्वयं बचना चाहिये और अपनी प्रजाओंको भी इनसे बचाना चाहिये । ब्राह्ममुहर्तमें [शयनसे] सदा निश्चय ही उठ जाना चाहिये । तत्पश्चात् दीक्षित मनुष्यको स्नान आदि सभी नित्य नियमोंसे निवृत्त होकर भलीभाँति भक्तिपूर्वक पराशक्ति जगदम्बाको पूजा करनी चाहिये । हे पुत्र ! पराशक्ति जगदम्बाके चरणोंकी पूजा ही इस जन्मकी सफलता है ॥ ४१-४३ ॥

सकृत्कृत्वा महापूजां दैवीपादजलं पिबन् ।
न जातु जननीगर्भे गच्छेदिति विनिश्चयः ॥ ४४ ॥
एक बार भी भगवती जगदम्बाकी महापूजा करके उनके चरणोदकका पान करनेवाला मनुष्य फिर कभी माताके गर्भ में नहीं जाता, यह सर्वथा निश्चित है ॥ ४४ ॥

सर्वं दृश्यं महादेवी द्रष्टा साक्षी च सैव हि ।
इति तद्‌भावभरितस्तिष्ठेन्निर्भयचेतसा ॥ ४५ ॥
सारा जगत् दृश्य है और महादेवी द्रष्टा तथा साक्षी हैं-इस प्रकारकी भावनासे युक्त होकर सदा भयमुक्त चित्तसे रहना चाहिये ॥ ४५ ॥

कृत्वा नित्यविधिं सम्यग्गन्तव्यं सदसि द्विजान् ।
समाहूय च प्रष्टव्यो धर्मशास्त्रविनिर्णयः ॥ ४६ ॥
[हे पुत्र !] तुम प्रतिदिन नित्य-नियमका पालन करके सभामें जाना और द्विजोंको बुलाकर उनसे धर्मशास्त्रसम्बन्धी निर्णय पूछना ॥ ४६ ॥

सम्पूज्य ब्राह्मणान्पूज्यान्वेदवेदान्तपारगान् ।
गोभूहिरण्यादिकं च देयं पात्रेषु सर्वदा ॥ ४७ ॥
वेद-वेदान्तके पारगामी आदरणीय विद्वानोंकी विधिवत् पूजा करके सुयोग्य पात्रोंको गौ, भूमि तथा सुवर्ण आदिका सदा दान करना ॥ ४७ ॥

अविद्वान्ब्राह्मणः कोऽपि नैव पूज्यः कदाचन ।
आहारादधिकं नैव देयं मूर्खाय कर्हिचित् ॥ ४८ ॥
न वा लोभात्त्वया पुत्र कर्तव्यं धर्मलङ्घनम् ।
अतः परं न कर्तव्यं क्वचिद्विप्रावमाननम् ॥ ४९ ॥
ब्राह्मणा भूमिदेवाश्च माननीयाः प्रयत्‍नतः ।
कारणं क्षत्रियाणां च द्विजा एव न संशयः ॥ ५० ॥
तुम कभी भी किसी मूर्ख ब्राह्मणकी पूजा मत करना और मूर्ख व्यक्तिको कभी भी भोजनसे अधिक कुछ भी मत देना । हे पुत्र ! तुम किसी भी परिस्थितिमें लोभवश धर्मका उल्लंघन मत करना । इसके अतिरिक्त तुम्हें कभी भी विप्रोंका अपमान नहीं करना चाहिये । पृथ्वीके देवतास्वरूप ब्राह्मणोंका प्रयत्नपूर्वक सम्मान करना चाहिये । क्षत्रियोंके एकमात्र आधार ब्राह्मण ही हैं, इसमें सन्देह नहीं है । ४८-५० ॥

अद्‌भ्योऽग्निर्ब्रह्मणः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् ।
तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ॥ ५१ ॥
तस्माद्‌राज्ञा विशेषेण माननीया मुखोद्‌भवाः ।
दानेन विनयेनैव सर्वथा भूतिमिच्छता ॥ ५२ ॥
दण्डनीतिः सदा कार्या धर्मशास्त्रानुसारतः ।
कोशस्य संग्रहः कार्यो नूनं न्यायागतस्य ह ॥ ५३ ॥
जलसे अग्निकी, ब्राह्मणसे क्षत्रियकी और पत्थरसे लोहेकी उत्पत्ति हुई है । उनका सर्वत्रगामी तेज अपनी ही योनिमें शान्त होता है । अतः ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले राजाको विशेषरूपसे विनम्रतापूर्वक दानके द्वारा ब्राह्मणोंका सत्कार करना चाहिये । राजाको चाहिये कि वह धर्मशास्त्रके अनुसार दण्डनीतिका पालन करे और न्यायसे उपार्जित धनका निरन्तर संग्रह करे ॥ ५१-५३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे सत्यव्रताय राजनीत्युपदेशवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
अध्याय ग्यारहवाँ समाप्त ॥ ११ ॥


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