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त्रिशङ्कूपाख्यानवर्णनम् -
राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना -
एवं प्रबोधितः पित्रा त्रिशङ्कुः प्रणतो नृपः । तथेति पितरं प्राह प्रेमगद्गदया गिरा ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे महाराज जनमेजय !] इस प्रकार पिताके समझानेपर राजकुमार त्रिशंकुने हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीमें पितासे कहा'मैं वैसा ही करूँगा' ॥ १ ॥
तत्पश्चात् महाराज अरुणने वेदशास्त्रके पारगामी विद्वान् तथा मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणोंको बुलाकर अभिषेककी सारी सामग्रियाँ तुरंत एकत्र करायीं और सम्पूर्ण तीर्थोंका जल मँगाकर तथा सभी मन्त्रियों, सामन्तों और नरेशोंको बुलाकर शुभ दिनमें उस राजकुमारको विधिपूर्वक श्रेष्ठ राज्यासनपर आसीन कर दिया ॥ २-३.५ ॥
अभिषिच्य सुतं राज्ये त्रिशङ्कुं विधिवत्पिता ॥ ४ ॥ तृतीयमाश्रमं पुण्यं जग्राह भार्यया युतः । वने त्रिपथगाकूले चचार दुश्चरं तपः ॥ ५ ॥
इस प्रकार पिताने पुत्र त्रिशंकुको राज्यपर विधिपूर्वक अभिषिक्त करके अपनी धर्मपत्नीके साथ पवित्र तीसरे आश्रम (वानप्रस्थ)-को ग्रहण किया और वे वनमें गंगाके तटपर कठोर तप करने लगे ॥ ४-५ ॥
आयु समाप्त हो जानेपर वे स्वर्गको चले गये । वहाँ वे देवताओंके द्वारा भी पूजित हुए और इन्द्रके समीप स्थित रहते हुए सदा सूर्यकी भाँति सुशोभित होने लगे ॥ ६ ॥
राजोवाच - पूर्वं भगवता प्रोक्तं कथायोगेन साम्प्रतम् । सत्यव्रतो वसिष्ठेन शप्तो दोग्ध्रीवधात्किल ॥ ७ ॥ कुपितेने पिशाचत्वं प्रापितो गुरुणा ततः । कथं मुक्तः पिशाचत्वादित्येतत्संशयः प्रभो ॥ ८ ॥ न सिंहासनयोग्यो हि भवेच्छापसमन्वितः । मुनिना मोचितः शापात्केनान्येन च कर्मणा ॥ ९ ॥ एतन्मे ब्रूहि विप्रर्षे शापमोक्षणकारणम् । आनीतस्तु कथं पित्रा स्वगृहे तादृशाकृतिः ॥ १० ॥
राजा [जनमेजय] बोले-[हे व्यासजी !] आप पूज्यवरने कथाके प्रसंगमें अभी-अभी बताया कि गुरुदेव वसिष्ठने पयस्विनी गौका वध कर देनेके कारण राजकुमार सत्यव्रतको कुपित होकर शाप दे दिया और वह पिशाचत्वको प्राप्त हो गया । हे प्रभो ! तदनन्तर पैशाचिकतासे उसका कैसे उद्धार हुआ ? इस विषयमें मुझे संशय हो रहा है । शापग्रस्त मनुष्य सिंहासनके योग्य नहीं होता । सत्यव्रतके दूसरे किस कर्मक प्रभावसे मुनि वसिष्ठने उसे अपने शापसे मुक्त कर दिया । हे विप्रर्षे ! शापसे मुक्तिका कारण बताइये और मुझे यह भी बताइये कि वैसे [निन्द्य] आकृतिवाले पुत्रको उसके पिता [राजा अरुण]-ने अपने घर वापस क्यों बुला लिया ? ॥ ७-१० ॥
व्यास उवाच - वसिष्ठेन च शप्तोऽसौ सद्यः पैशाचतां गतः । दुर्वेषश्चातिदुर्धर्षः सर्वलोकभयङ्करः ॥ ११ ॥ यदैवोपासिता देवी भक्त्या सत्यव्रतेन ह । तया प्रसन्नया राजन् दिव्यदेहः कृतः क्षणात् ॥ १२ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] मुनि वसिष्ठके द्वारा शापित वह सत्यव्रत तत्काल पैशाचिकताको प्राप्त हो गया । इसके फलस्वरूप वह कुरूप, दुर्धर्ष तथा सभी प्राणियोंके लिये भयंकर हो गया, किंतु हे राजन् ! जब उस सत्यव्रतने भक्तिपूर्वक भगवतीकी उपासना की, तब भगवतीने प्रसन्न होकर क्षणभरमें उसे दिव्य शरीरवाला बना दिया ॥ ११-१२ ॥
भगवतीके कृपारूपी अमृतसे उसकी पैशाचिकता समाप्त हो गयी और उसका पाप विनष्ट हो गया । अब वह पापरहित तथा अतितेजस्वी हो गया ॥ १३ ॥
वसिष्ठोऽपि प्रसन्नात्मा जातः शक्तिप्रसादतः । पितापि च बभूवास्य प्रेमयुक्तस्त्वनुग्रहात् ॥ १४ ॥
भगवतीकी कृपासे वसिष्ठजी भी प्रसन्नचित्त हो गये और उसके पिता [अरुण] भी प्रेमसे परिपूर्ण हो गये ॥ १४ ॥
राज्यं शशास धर्मात्मा मृते पितरि पार्थिवः । ईजे च विविधैर्यज्ञैर्देवदेवीं सनातनीम् ॥ १५ ॥
पिताके मृत हो जानेपर धर्मात्मा राजा सत्यव्रत राज्यपर सम्यक् शासन करने लगा । वह अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा देवेश्वरी सनातनी भगवतीकी उपासनामें तत्पर रहने लगा ॥ १५ ॥
तब राजा त्रिशंकु वसिष्ठके आश्रममें गये और उन्हें विधिवत् प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर प्रसन्नतापूर्वक उनसे यह वचन कहने लगे ॥ १८ ॥
राजोवाच - ब्रह्मपुत्र महाभाग सर्वमन्त्रविशारद । विज्ञप्तिं मे सुमनसा श्रोतुमर्हसि तापस ॥ १९ ॥ इच्छा मेऽद्य समुत्पन्ना स्वर्गलोकसुखाय च । अनेनैव शरीरेण भोगान्भोक्तुममानुषान् ॥ २० ॥ अप्सरोभिश्च संवासः क्रीडितुं नन्दने वने । देवगन्धर्वगानं च श्रोतव्यं मधुरं किल ॥ २१ ॥
राजा बोले-हे ब्रह्मपुत्र ! हे महाभाग ! हे सर्वमन्त्रविशारद ! हे तापस ! आप प्रसन्नतापूर्वक मेरी प्रार्थना सुननेकी कृपा कीजिये । अब स्वर्ग-लोकका सुख भोगनेकी इच्छा मेरे मनमें उत्पन्न हुई है । अप्सराओंके साथ रहने, नन्दनवनमें क्रीड़ा करने तथा देवगन्धाका मधुर गीत सुनने आदि दिव्य भोगोंको मैं इसी मानव-शरीरसे भोगना चाहता हूँ ॥ १९-२१ ॥
हे महामुने ! आप शीघ्र ही मुझसे ऐसा यज्ञ सम्पन्न कराइये, जिससे मैं इसी मानव-शरीरसे स्वर्गलोकमें निवास कर सकूँ । हे मुनिश्रेष्ठ ! आप सर्वसमर्थ हैं, अतः मेरा यह कार्य अब पूर्ण कर दीजिये; यज्ञ सम्पन्न कराकर मुझे अत्यन्त दुर्लभ देवलोककी प्राप्ति करा दीजिये ॥ २२-२३ ॥
वसिष्ठजी बोले-हे राजन ! मानव-शरीरसे स्वर्ग-लोकमें निवास अत्यन्त दुर्लभ है । मरनेके पश्चात् ही पुण्य कर्मके प्रभावसे स्वर्गकी सुनिश्चित प्राप्ति कही गयी है । अतः हे सर्वज ! तुम्हारे इस दुर्लभ मनोरथको पूर्ण करने में मैं डर रहा हूँ । जीवित प्राणीके लिये अप्सराओंके साथ निवास दुर्लभ है । अतः हे महाभाग ! आप अनेक यज्ञ कीजिये, मृत्युके अनन्तर आप स्वर्ग प्राप्त कर लेंगे ॥ २४-२५.५ ॥
व्यास उवाच - इत्याकर्ण्य वचस्तस्य राजा परमदुर्मनाः ॥ २६ ॥ उवाच वचनं भूयो वसिष्ठं पूर्वरोषितम् । न त्वं याजयसे ब्रह्मन् गर्वावेशाच्च मां यदि ॥ २७ ॥ अन्यं पुरोहितं कृत्वा यक्ष्येऽहं किल साम्प्रतम् ।
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] वसिष्ठजीक यह वचन सुनकर अत्यन्त उदास मनवाले राजा त्रिशंकुने पहलेसे ही कुपित उन मुनिवर वसिष्ठसे कहा-हे ब्रह्मन् ! यदि आप अभिमानवश मेरा यज्ञ नहीं करायेंगे, तो मैं किसी दूसरेको अपना पुरोहित बनाकर इसी समय यज्ञ करूँगा ॥ २६-२७.५ ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य वसिष्ठः कोपसंयुतः ॥ २८ ॥ शशाप भूपतिं चेति चाण्डालो भव दुर्मते । अनेन त्वं शरीरेण श्वपचो भव सत्वरम् ॥ २९ ॥ स्वर्गकृन्तन पापिष्ठ सुरभीवधदूषित । ब्रह्मपत्नीहरोच्छिन्न धर्ममार्गविदूषक ॥ ३० ॥ न ते स्वर्गगतिः पाप मृतस्यापि कथञ्चन ।
उनका यह वचन सुनते ही वसिष्ठजीने क्रोधित होकर राजाको शाप दे दिया-'हे दुर्बुद्धि ! चाण्डाल हो जाओ । इसी शरीरसे तुम अभी नीच योनिको प्राप्त हो जाओ । स्वर्गको नष्ट करनेवाले तथा सुरभीक वधके दोषसे युक्त हे पापिष्ठ ! विप्रकी भार्याका हरण करनेवाले तथा धर्ममार्गको दूषित करनेवाले हे पापी ! मरनेके बाद भी तुम किसी प्रकार स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकते ॥ २८-३०.५ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! गुरु वसिष्ठके ऐसा कहते ही त्रिशंकु तत्क्षण उसी शरीरसे चाण्डाल हो गये । उनके रत्नमय कुण्डल उसी क्षण पत्थर हो गये तथा शरीरमें लगा हुआ सुगन्धित चन्दन दुर्गन्धयुक्त हो गया । उनके शरीरपर धारण किये हुए दिव्य पीताम्बर कृष्ण वर्णके हो गये । महात्मा वसिष्ठके शापसे उनका शरीर गजवर्ण-जैसा धूमिल हो गया ॥ ३१-३३.५ ॥
शक्त्युपासकरोषेण फलमेतदभून्नृप ॥ ३४ ॥ तस्माच्छ्रीशक्तिभक्तो हि नावमान्यः कदाचन । गायत्रीजपनिष्ठो हि वसिष्ठो मुनिसत्तमः ॥ ३५ ॥
हे राजन् ! भगवतीके उपासक मुनि वसिष्ठके रोषके कारण ही त्रिशंकुको यह फल प्राप्त हुआ । इसलिये भगवती जगदम्बाके भक्तका कभी भी अपमान नहीं करना चाहिये । मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ बड़ी निष्ठाके साथ गायत्रीजपमें संलग्न रहते थे । ३४-३५ ॥
दृष्ट्वा निन्द्यं निजं देहं राजा दुःखमवाप्तवान् । न जगाम गृहे दीनो वनमेवाभितो ययौ ॥ ३६ ॥
[हे राजन् !] उस समय अपना कलंकित शरीर देखकर राजा त्रिशंकु अत्यन्त दुःखित हुए । इस प्रकार दीन-दशाको प्राप्त वे राजा घर नहीं गये, अपितु जंगलकी ओर चले गये ॥ ३६ ॥
चिन्तयामास दुःखार्तास्त्रिशङ्कुः शोकविह्वलः । किं करोमि क्व गच्छामि देहो मेऽतीव निन्दितः ॥ ३७ ॥ कर्तव्यं नैव पश्यामि येन मे दुःखसंक्षयः । गृहे गच्छामि चेत्पुत्रः पीडितोऽद्य भविष्यति ॥ ३८ ॥ भार्यापि श्वपचं दृष्ट्वा नाङ्गीकारं करिष्यति । सचिवा नादरिष्यन्ति वीक्ष्य मामीदृशं पुनः ॥ ३९ ॥ ज्ञातयो बन्धुवर्गश्च सङ्गतो न भजिष्यति । सर्वैस्तक्तस्य मे नूनं जीवितान्मरणं वरम् ॥ ४० ॥ विषं वा भक्षयित्वाद्य पतित्वा वा जलाशये । कृत्वा वा कण्ठपाशं च देहत्यागं करोम्यहम् ॥ ४१ ॥ अग्नौ वा ज्वलिते देहं जुहोमि विधिवद् बलात् । कृत्वा वानशनं प्राणांस्त्यजामि दूषितान्भृशम् ॥ ४२ ॥
शोक-सन्तप्त वे त्रिशंकु दुःखित होकर सोचने लगे-अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? मेरा शरीर तो अत्यन्त निन्दित हो गया । मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं सूझ रहा है, जिससे मेरा दुःख दूर हो सके । यदि मैं आज घर जाता हूँ, तो मुझे इस स्वरूपमें देखकर पुत्रको महान् पीड़ा होगी और भार्या भी मुझे चाण्डालके रूपमें देखकर स्वीकार नहीं करेगी । इस प्रकारके चाण्डाल रूपवाले मुझ निन्द्यको देखकर मेरे मन्त्रीगण तथा जातिवाले भी आदर नहीं करेंगे और भाई-बन्धु भी संगमें नहीं रहेंगे । इस प्रकार सभी लोगोंके द्वारा परित्यक्त किये जानेवाले मेरे लिये तो जीनेकी अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है । अतः अब मैं विष खाकर, जलाशयमें कूदकर या गलेमें फाँसी लगाकर देह-त्याग कर दूं अथवा विधिवत् प्रज्वलित अग्निमें अपने देहको जला डालूं या फिर अनशन करके अपने कलंकित प्राणोंका त्याग कर दूँ ॥ ३७-४२ ॥
[ऐसा विचार आते ही उन्होंने पुनः सोचा] आत्महत्या करनेसे मुझे निश्चय ही जन्म-जन्मान्तरमें पुनः चाण्डाल होना पड़ेगा और आत्महत्यादोषके परिणामस्वरूप मैं शापसे कभी मुक्त नहीं हो सकूँगा ॥ ४३ ॥
ऐसा सोचनेके बाद राजाने अपने मनमें पुनः विचार किया कि इस समय मुझे किसी भी स्थितिमें आत्महत्या नहीं करनी चाहिये, अपितु वनमें रहकर मुझे अपने द्वारा किये गये कर्मका फल इसी शरीरसे भोग लेना चाहिये; क्योंकि इससे इस कुकर्मका फल सर्वथा समाप्त हो जायगा ॥ ४४-४५ ॥
प्रारब्धकर्मणां भोगादन्यथा न क्षयो भवेत् । तस्मान्मयात्र भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ ४६ ॥ कुर्वन्पुण्याश्रमाभ्याशे तीर्थानां सेवनं तथा । स्मरणं चाम्बिकायास्तु साधूनां सेवनं तथा ॥ ४७ ॥ एवं कर्मक्षयं नूनं करिष्यामि वने वसन् । भाग्ययोगात्कदाचित्तु भवेत्साधुसमागमः ॥ ४८ ॥
भोगसे ही प्रारब्ध कौका क्षय होता है, अन्यथा इनका क्षय नहीं होता । इसलिये अब यहींपर तीर्थोंका सेवन, भगवती जगदम्बाका स्मरण तथा साधुजनोंकी सेवा करते हुए मुझे अपने द्वारा किये गये शुभ तथा अशुभ कर्मोंका फल भोग लेना चाहिये । इस प्रकार वनमें रहते हुए मैं अपने कर्मोका क्षय अवश्य ही करूँगा । साथ ही, सम्भव है कि भाग्यवश किसी साधुजनसे मिलनेका भी कभी अवसर प्राप्त हो जाय ॥ ४६-४८ ॥
मन्त्रीगण वहाँ शीघ्र पहुँचकर बार-बार दीर्घ श्वास ले रहे चाण्डालकी आकृतिवाले राजा त्रिशंकुको प्रणामकर विनम्रतापूर्वक उनसे बोले-हे राजन् ! आपके पुत्र हरिश्चन्द्रकी आज्ञासे यहाँ आये हुए हमलोगोंको आप मन्त्री समझिये । हे महाराज ! आपके पुत्र युवराज हरिश्चन्द्रने [हमसे] जो कहा है, उसे आप सुनिये-'आपलोग मेरे पिता राजा त्रिशंकुको सम्मानपूर्वक यहाँ ले आइये ॥ ५१-५३ ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय !] उनकी बात सुनकर चाण्डालकी आकृतिवाले राजा त्रिशंकुने अपने घर चलनेका कोई विचार मनमें नहीं किया । उस समय राजाने उनसे कहा-हे सचिवगण ! आपलोग नगरको लौट जाइये और हे महाभाग ! वहाँ जाकर [हरिश्चन्द्रसे] मेरे शब्दोंमें कह दीजिये-'हे पुत्र ! मैं नहीं आऊँगा । तुम अनेकविध यज्ञोंके द्वारा ब्राह्मणोंका सम्मान करते हुए तथा देवताओंकी पूजा करते हुए सदा सावधान होकर राज्य करो' ॥ ५७-५९ ॥
[हे सचिवगण !] महात्माओंके द्वारा सर्वथा निन्दित इस चाण्डाल-वेशसे अब मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा । आप सभी लोग यहाँसे शीघ्र लौट जाइये । [वहाँ जाकर मेरे महाबली पुत्र हरिश्चन्द्रको सिंहासनपर बिठाकर आपलोग मेरी आज्ञासे राज्यके समस्त कार्य कीजिये ॥ ६०-६१ ॥
इस प्रकार त्रिशंकुके उपदेश देनेपर सभी मन्त्री अत्यधिक दुःखी होकर रोने लगे और उन्हें प्रणाम करके वानप्रस्थ-आश्रममें जीवन व्यतीत करनेवाले उन [राजा त्रिशंकु]-के पाससे लौट आये । अयोध्यामें आकर उन मन्त्रियोंने शुभ दिनमें हरिश्चन्द्रके मस्तकपर विधिपूर्वक अभिषेक किया । ६२-६३ ॥
राजा [त्रिशंकु]-की आज्ञासे मन्त्रियोंके द्वारा राज्याभिषिक्त होकर तेजस्वी तथा धर्मपरायण हरिश्चन्द्र अपने पिताका निरन्तर स्मरण करते हुए राज्य करने लगे ॥ ६४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे त्रिशङ्कूपाख्यानवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥