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त्रिशङ्कुशापोद्धाराय विश्वामित्रसान्त्वनवर्णनम् -
राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना -
राजोवाच - हरिश्चन्द्रः कृतो राजा सचिवैर्नृपशासनात् । त्रिशङ्कुस्तु कथं मुक्तस्तस्माच्चाण्डालदेहतः ॥ १ ॥ मृतो वा वनमध्ये तु गङ्गातीरे परिप्लुतः । गुरुणा वा कृपां कृत्वा शापात्तस्माद्विमोचितः ॥ २ ॥ एतद् वृत्तान्तमखिलं कथयस्व ममाग्रतः । चरितं तस्य नृपतेः श्रोतुकामोऽस्मि सर्वथा ॥ ३ ॥
राजा [ जनमेजय ] बोले-[हे व्यासजी !] राजा त्रिशंकुके आदेशसे सचिवोंने हरिश्चन्द्रको राजा बना दिया, किंतु स्वयं त्रिशंकुने उस चाण्डाल-देहसे मुक्ति कैसे प्राप्त की ? वे वनमें कहीं मर गये अथवा गंगा-तटपर जलमें डूब गये अथवा गुरु वसिष्ठने कृपा करके उन्हें शापसे मुक्त कर दिया । यह सम्पूर्ण वृत्तान्त आप मेरे समक्ष कहिये; मैं राजा त्रिशंकुका चरित्र भलीभीत सुनना चाहता हूँ ॥ १-३ ॥
व्यास उवाच - अभिषिक्तं सुतं कृत्वा राजा सन्तुष्टमानसः । कालातिक्रमणं तत्र चकार चिन्तयञ्छिवाम् ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] अपने पुत्रका राज्याभिषेक करके राजा त्रिशंकुका चित्त बहुत प्रसन्न हुआ और वे वहीं जंगलमें कल्याणकारिणी भगवती जगदम्बाका ध्यान करते हुए समय व्यतीत करने लगे ॥ ४ ॥
एवं गच्छति काले तु तपस्तप्त्वा समाहितः । द्रष्टुं दारान्सुतादींश्च तदागात्कौशिको मुनिः ॥ ५ ॥ आगत्य स्वजनं दृष्ट्वा सुस्थितं मुदमाप्तवान् । भार्यां पप्रच्छ मेधावी स्थितामग्रे सपर्यया ॥ ६ ॥ दुर्भिक्षे तु कथं कालस्तया नीतः सुलोचने । अन्नं विना त्विमे बालाः पालिता केन तद्वद ॥ ७ ॥
इस तरह कुछ समय बीतनेके बाद कौशिकमुनि एकाग्रचित्त होकर तपस्या पूर्ण करके अपनी पत्नी तथा पुत्रों आदिको देखनेके लिये [अपने आश्रममें] आये । वहाँ आकर अपने स्त्री-पुत्रादिको स्वस्थ देखकर वे परम हर्षित हुए । मेधावी ऋषिने पूजाके लिये आगे स्थित अपनी भार्यासे पूछा-हे सुनयने ! दुर्भिक्षकी स्थितिमें तुमने समय कैसे व्यतीत किया ? तुमने अन्नके बिना इन बालकोंको किस उपायसे पाला; यह मुझे बताओ ॥ ५-७ ॥
हे सुजघने ! वनमें एक दिन मैं भी भूखसे अत्यधिक विकल होकर चोरकी भाँति एक चाण्डालके घरमें प्रविष्ट हुआ । वहाँ चाण्डालको सोया हुआ देखकर भूखसे अत्यन्त व्याकुल मैं रसोईघर खोजकर कुछ खानेके लिये उसमें पहुँच गया ॥ १०-११ ॥
यदा भाण्डं समुद्घाट्य पक्वं श्वतनुजामिषम् । गृह्णामि भक्षणार्थाय तदा दृष्टस्तु तेन वै ॥ १२ ॥ पृष्टः कस्त्वं कथं प्राप्तो गृहे मे निशि सादरम् । ब्रूहि कार्यं किमर्थं त्वमुद्घाटयसि भाण्डकम् ॥ १३ ॥
बर्तन खोलकर भोजन प्राप्त करनेके लिये मैंने ज्यों ही बर्तन में हाथ डाला, तभी उस चाण्डालने मुझे देख लिया । उसने आदरपूर्वक मुझसे पूछा-आप कौन हैं ? रातके समय मेरे घरमें आप क्यों प्रविष्ट हुए हैं और मेरे बर्तनको क्यों खोल रहे हैं ? आप अपना उद्देश्य बताइये ॥ १२-१३ ॥
हे सुन्दर केशोंवाली ! चाण्डालके यह पूछनेपर क्षुधासे अत्यधिक पीड़ित मैं गद्गद वाणीमें उससे कहने लगा-हे महाभाग ! मैं एक तपस्वी ब्राह्मण हूँ । मैं भूखसे विकल होकर चोरीके विचारसे युक्त होकर यहाँ आया हूँ और इस बर्तनमें कोई खानेकी वस्तु देख रहा हूँ । हे महामते ! चोरीके विचारसे यहाँ आया हुआ मैं आपका अतिथि हूँ । इस समय मैं भूखा हूँ । अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे मैं आपके द्वारा भलीभाँति पकाये गये पदार्थका भक्षण करूँ ॥ १४-१६ ॥
विश्वामित्र उवाच - श्वपचस्तु वचः श्रुत्वा मामुवाच सुनिश्चितम् । भक्षं मा कुरु वर्णाग्र्य जानीहि श्वपचालयम् ॥ १७ ॥ दुर्लभं खलु मानुष्यं तत्रापि च द्विजन्मता । द्विजत्वे ब्राह्मणत्वं च दुर्लभं वेत्सि किं न हि ॥ १८ ॥ दुष्टाहारो न कर्तव्यः सर्वथा लोकमिच्छता । अग्राह्या मनुना प्रोक्ताः कर्मणा सप्त चान्त्यजाः ॥ १९ ॥ त्याज्योऽहं कर्मणा विप्र श्वपचो नात्र संशयः । निवारयामि भक्ष्यात्त्वां न लोभेनाञ्जसा द्विज ॥ २० ॥ वर्णसङ्करदोषोऽयं मा यातु त्वां द्विजोत्तम ।
विश्वामित्र बोले-[हे सुन्दरि !] मेरी बात सुनकर चाण्डालने मुझसे कहा-हे चारों वर्णोमें अग्रगण्य ! इसे चाण्डालका घर जानिये, अतः आप मेरे यहाँ भोजन मत कीजिये; क्योंकि एक तो मानवयोनिमें जन्म पाना दुर्लभ है, उसमें भी द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य)-के यहाँ बड़ा ही दुर्लभ है । द्विजोंमें भी ब्राह्मण-कुलमें जन्म तो सर्वथा दुर्लभ है । क्या आप इसे नहीं जानते हैं ? उत्तम लोककी कामना करनेवाले व्यक्तिको कभी भी दूषित आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये । भगवान् मनुने कर्मानुसार सात जातियोंको अन्त्यज मानकर उन्हें अग्राह्य बतलाया है । हे विप्र ! मैं चाण्डाल हूँ, अतः अपने कर्मके अनुसार त्याज्य हूँ; इसमें कोई सन्देह नहीं है । हे द्विज ! मैं अपना धर्म समझकर ही आपको भोजन करनेसे रोक रहा हूँ, न कि [अपने पदार्थके] लोभसे । हे द्विजवर ! वर्णसंकरताका दोष आपको न लगे, केवल यही मेरा अभिप्राय है ॥ १७-२०.५ ॥
विश्वामित्र बोले-हे धर्मज्ञ ! तुम सत्य कह रहे हो । हे अन्त्यज ! तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त विशाल है, फिर भी मैं तुम्हें आपत्तिकालमें पालनीय धर्मका सूक्ष्म मार्ग बता रहा हूँ ॥ २१.५ ॥
देहस्य रक्षणं कार्यं सर्वथा यदि मानद ॥ २२ ॥ पापस्यान्ते पुनः कार्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये । दुर्गतिस्तु भवेत्पापादनापदि न चापदि ॥ २३ ॥
हे मानद ! मनुष्यको चाहिये कि जिस किसी भी उपायसे शरीरकी रक्षा करे । इसमें यदि कोई पाप हो जाय, तो बादमें पापसे मुक्तिके लिये प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये । आपत्तिकालमें किये गये पापकर्मके कारण दुर्गति नहीं होती, किंतु सामान्य समयमें किये गये पापके कारण दुर्गति अवश्य होती है । २२-२३ ॥
मरणात्क्षुधितस्याथ नरको नात्र संशयः । तस्मात्क्षुधापहरणं कर्तव्यं शुभमिच्छता ॥ २४ ॥ तेनाहं चौर्यधर्मेण देहं रक्षेऽप्यथान्त्यज । अवर्षणे च चौर्येण यत्पापं कथितं बुधैः ॥ २५ ॥ यो न वर्षति पर्जन्यस्तत्तु तस्मै भविष्यति ।
भूखसे मरनेवालेको नरक होता है, इसमें सन्देह नहीं है । अतः अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवालेको भूख मिटानेका प्रयत्न करना चाहिये । हे अन्त्यज ! इसीलिये मैं भी चौर-कर्मसे अपने देहकी रक्षा कर रहा हूँ । विद्वानोंने कहा है कि अनावृष्टिके समय चोरी करनेसे जो पाप होता है, वह पाप उस मेघको लगता है, जो पानी नहीं बरसाता है ॥ २४-२५.५ ॥
इत्युक्ते वचने कान्ते पर्जन्यः सहसापतत् ॥ २६ ॥ गगनाद्धस्तिहस्ताभिर्धाराभिरभिकाङ्क्षितः । मुदितोऽहं घनं वीक्ष्य वर्षन्तं विद्युता सह ॥ २७ ॥
विश्वामित्र बोले-हे प्रिये ! मेरे ऐसा यह वचन कहते ही आकाशसे हाथीकी सुंडकी तरह मोटी धारवाली मनोभिलषित जलवृष्टि सहसा होने लगी । बिजलीकी चमकके साथ बरसते हुए मेघको देखकर मैं अत्यन्त आनन्दित हुआ ॥ २६-२७ ॥
तदाहं तद्गृहं त्यक्त्वा निःसृतः परया मुदा । कथय त्वं वरारोहे कालो नीतस्त्वया कथम् ॥ २८ ॥
उसी समय उस चाण्डालका घर छोड़कर मैं परम प्रसन्नतापूर्वक बाहर निकल पड़ा । हे सुन्दरि ! अब यह बताओ कि तुमने प्राणियोंका विनाश करनेवाले उस अत्यन्त भीषण समयको इस वनमें किस प्रकार बिताया ? ॥ २८ ॥
कान्तारे परमः क्रूरः क्षयकृत्प्राणिनामिह । व्यास उवाच - इति तस्य वचः श्रुत्वा पतिमाह प्रियंवदा ॥ २९ ॥ यथा शृणु मया नीतः कालः परमदारुणः । गते त्वयि मुनिश्रेष्ठ दुर्भिक्षं समुपागतम् ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] पतिकी यह बात सुनकर उस प्रियभाषिणी स्त्रीने पतिसे कहाहे मुनिश्रेष्ठ ! मैंने जिस प्रकार उस अत्यन्त कष्टकारी समयको व्यतीत किया, उसे आप सुनिये । आपके चले जानेके बाद यहाँ अकाल पड़ गया था । मेरे सभी पुत्र अन्नके लिये बड़े दुःखित हुए ॥ २९-३० ॥
अन्नार्थं पुत्रकाः सर्वे बभूवुश्चातिदुःखिताः । क्षुधितान्बालकान्वीक्ष्य नीवारार्थं वने वने ॥ ३१ ॥ भ्रान्ताहं चिन्तयाऽऽविष्टा किञ्चित्प्राप्तं फलं तदा । एवं च कतिचिन्मासा नीवारेणातिवाहिताः ॥ ३२ ॥
बालकोंको भूखा देखकर घोर चिन्तासे ग्रस्त मैं नीवार (जंगली धान्य)-के लिये वन-वन घूमती रही । उस समय मुझे कुछ फल मिल गये । इस प्रकार नीवार अन्नके द्वारा मैंने कुछ महीने व्यतीत किये ॥ ३१-३२ ॥
हे कान्त ! उसके भी समाप्त हो जानेपर मैं मनही-मन पुनः सोचने लगी-'इस वनमें अब नीवारान भी नहीं मिल रहा है और इस अकालमें भिक्षा भी नहीं मिल सकती । वृक्षोंपर फल नहीं रह गये और धरतीमें कन्दमूल भी नहीं रहे । भूखसे पीड़ित बालक व्याकुल होकर बहुत रो रहे हैं । अब मैं क्या करूँ कहाँ जाऊँ और भूखसे तड़पते हुए इन बालकोंसे क्या कहूँ' ॥ ३३-३४.५ ॥
ऐसा सोचकर मैंने मनमें यही निश्चय किया कि किसी धनी व्यक्तिके हाथ आज अपने एक पुत्रको बेचूंगी और उसका मूल्य लेकर उस द्रव्यसे भूखसे पीड़ित अपने बालकोंका पालन करूँगी: क्योंकि इनके पालन-पोषणका कोई दूसरा उपाय नहीं रह गया है ॥ ३५-३६ ॥
अपने मनमें यह विचार करके मैंने इस पुत्रको बेचनेका दृढ़ निश्चय कर लिया । हे महाभाग ! उस समय मेरा यह पुत्र व्याकुल होकर जोर-जोरसे रोने-चिल्लाने लगा, किंतु मैं निर्लज्ज होकर अपने रोते-चिल्लाते इस पुत्रको लेकर घरसे निकल पड़ी ॥ ३७-३८ ॥
तदा सत्यव्रतो मार्गे मामुद्वीक्ष्य भृशातुराम् । पप्रच्छ स च राजर्षिः कस्माद्रोदिति बालकः ॥ ३९ ॥
उस समय राजर्षि सत्यव्रतने मार्गमें मुझ अति व्याकुल चित्तवालीको देखकर पूछा कि यह बालक क्यों रो रहा है ? ॥ ३९ ॥
तब मेरी बात सुनकर राजाका हृदय दयासे भर गया और उन्होंने मुझसे कहा-'तुम इस बालकको लेकर अपने घर लौट जाओ । जबतक मुनि विश्वामित्र लौटकर आ नहीं जाते, तबतक तुम्हारे इन बालकोंके भोजनके लिये सामग्री प्रतिदिन तुम्हारे यहाँ पहुँचा दिया करूँगा' ॥ ४१-४२ ॥
हे कौशिक ! उनके इसी कष्टसे मैं अत्यन्त दुःखित हूँ; क्योंकि मेरे ही कारण वे राजकुमार सत्यव्रत चाण्डाल हो गये हैं । इसलिये अब आपको जिस किसी भी उपायसे; यहाँतक कि अपनी उग्र तपस्याके प्रभावसे राजाकी रक्षा अवश्य करनी चाहिये ॥ ४७-४८ ॥
व्यासजी बोले-हे शत्रुका दमन करनेवाले [राजा जनमेजय] ! अपनी पत्नीकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र उस दुःखित स्त्रीको सान्त्वना देते हुए कहने लगे ॥ ४९ ॥
विश्वामित्र बोले-हे कमलनयने ! जिन्होंने तुम्हारा उपकार किया है और घोर वनमें तुम्हारी रक्षा की है, उन राजा सत्यव्रतको मैं शापमुक्त अवश्य करूंगा । मैं अपनी योगविद्या तथा तपस्याके प्रभावसे उनका दुःख दूर कर दूंगा ॥ ५० ॥
परमतत्त्ववेत्ता विश्वामित्रजी अपनी भार्याको इस तरह आश्वस्त करके सोचने लगे कि राजा सत्यव्रतका दुःख किस प्रकार दूर हो सकता है ? तब भलीभाँति विचार करके मुनि विश्वामित्र उस स्थानपर गये, जहाँ राजा सत्यव्रत (त्रिशंकु) दीन अवस्थाको प्राप्त होकर चाण्डालके रूपमें एक कुटियामें रह रहे थे ॥ ५१-५२.५ ॥
मुनिको आते देखकर राजा त्रिशंकु विस्मयमें पड़ गये । वे तत्काल मुनिके चरणोपर दण्डकी भाँत गिर पड़े । तब भूमिपर पड़े हुए राजाको हाथसे पकड़कर द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रने उठाया और उन्हें सान्त्वना देते हुए यह वचन कहा-'हे राजन ! मेरे ही कारण वसिष्ठमुनिने आपको शाप दिया है, अत: मैं आपकी सारी कामना पूर्ण करूँगा । अब आप बताइये कि मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ ?' ॥ ५३-५५.५ ॥
। राजा बोले-पूर्वकालमें मैंने यज्ञ करानेके लिये वसिष्ठजीसे यह प्रार्थना की थी-हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं महान् यज्ञ करना चाहता हूँ, अतः आप मुझसे यज्ञ सम्पन्न कराइये । हे विप्रेन्द्र ! आप मेरा यह अभीष्ट कार्य कीजिये, जिससे मैं स्वर्ग चला जाऊँ मैं इसी मानव-देहसे सुखोंके निधान इन्द्रलोक जाना चाहता हूँ ॥ ५६-५७.५ ॥
तब स्वर्गकी उत्कट लालसावाले मैंने भगवान् वसिष्ठसे पुनः कहा-हे निष्पाप ! तब मैं किसी अन्यको पुरोहित बनाकर वह श्रेष्ठ यज्ञ आरम्भ करूँगा । उसी समय उन्होंने मुझे यह शाप दे दिया 'हे नीच ! तुम चाण्डाल हो जाओ' ॥ ५९-६० ॥