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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
त्रयोदशोऽध्यायः

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त्रिशङ्कुशापोद्धाराय विश्वामित्रसान्त्वनवर्णनम् -
राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना -


राजोवाच -
हरिश्चन्द्रः कृतो राजा सचिवैर्नृपशासनात् ।
त्रिशङ्कुस्तु कथं मुक्तस्तस्माच्चाण्डालदेहतः ॥ १ ॥
मृतो वा वनमध्ये तु गङ्गातीरे परिप्लुतः ।
गुरुणा वा कृपां कृत्वा शापात्तस्माद्‌विमोचितः ॥ २ ॥
एतद्‌ वृत्तान्तमखिलं कथयस्व ममाग्रतः ।
चरितं तस्य नृपतेः श्रोतुकामोऽ‍स्मि सर्वथा ॥ ३ ॥
राजा [ जनमेजय ] बोले-[हे व्यासजी !] राजा त्रिशंकुके आदेशसे सचिवोंने हरिश्चन्द्रको राजा बना दिया, किंतु स्वयं त्रिशंकुने उस चाण्डाल-देहसे मुक्ति कैसे प्राप्त की ? वे वनमें कहीं मर गये अथवा गंगा-तटपर जलमें डूब गये अथवा गुरु वसिष्ठने कृपा करके उन्हें शापसे मुक्त कर दिया । यह सम्पूर्ण वृत्तान्त आप मेरे समक्ष कहिये; मैं राजा त्रिशंकुका चरित्र भलीभीत सुनना चाहता हूँ ॥ १-३ ॥

व्यास उवाच -
अभिषिक्तं सुतं कृत्वा राजा सन्तुष्टमानसः ।
कालातिक्रमणं तत्र चकार चिन्तयञ्छिवाम् ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] अपने पुत्रका राज्याभिषेक करके राजा त्रिशंकुका चित्त बहुत प्रसन्न हुआ और वे वहीं जंगलमें कल्याणकारिणी भगवती जगदम्बाका ध्यान करते हुए समय व्यतीत करने लगे ॥ ४ ॥

एवं गच्छति काले तु तपस्तप्त्वा समाहितः ।
द्रष्टुं दारान्सुतादींश्च तदागात्कौशिको मुनिः ॥ ५ ॥
आगत्य स्वजनं दृष्ट्वा सुस्थितं मुदमाप्तवान् ।
भार्यां पप्रच्छ मेधावी स्थितामग्रे सपर्यया ॥ ६ ॥
दुर्भिक्षे तु कथं कालस्तया नीतः सुलोचने ।
अन्नं विना त्विमे बालाः पालिता केन तद्वद ॥ ७ ॥
इस तरह कुछ समय बीतनेके बाद कौशिकमुनि एकाग्रचित्त होकर तपस्या पूर्ण करके अपनी पत्नी तथा पुत्रों आदिको देखनेके लिये [अपने आश्रममें] आये । वहाँ आकर अपने स्त्री-पुत्रादिको स्वस्थ देखकर वे परम हर्षित हुए । मेधावी ऋषिने पूजाके लिये आगे स्थित अपनी भार्यासे पूछा-हे सुनयने ! दुर्भिक्षकी स्थितिमें तुमने समय कैसे व्यतीत किया ? तुमने अन्नके बिना इन बालकोंको किस उपायसे पाला; यह मुझे बताओ ॥ ५-७ ॥

अहं तपसि सन्नद्धो नागतः शृणु सुन्दरि ।
किं कृतं तु त्वया कान्ते विना द्रव्येण शोभने ॥ ८ ॥
हे सुन्दरि ! मैं तो तपस्यामें संलग्न था, इसलिये नहीं आ सका । हे प्रिये ! हे शोभने ! बिना धनके तुमने क्या व्यवस्था की ? ॥ ८ ॥

मया चिन्ता कृता तत्र श्रुत्वा दुर्भिक्षमद्‌भुतम् ।
नागतोऽहं विचार्यैवं किं करिष्यामि निर्धनः ॥ ९ ॥
यहाँ पर भीषण अकालका समाचार सुनकर मैं अत्यधिक चिन्तित था, किंतु यह सोचकर नहीं आया कि धनहीन मैं [वहाँ जाकर] करूँगा ही क्या ! ॥ ९ ॥

अहमप्यति वामोरु पीडितः क्षुधया वने ।
प्रविष्टश्चौरभावेन कुत्रचिच्छ्वपचालये ॥ १० ॥
श्वपचं निद्रितं दृष्ट्वा क्षुधया पीडितो भृशम् ।
महानसं परिज्ञाय भक्ष्यार्थं समुपस्थितः ॥ ११ ॥
हे सुजघने ! वनमें एक दिन मैं भी भूखसे अत्यधिक विकल होकर चोरकी भाँति एक चाण्डालके घरमें प्रविष्ट हुआ । वहाँ चाण्डालको सोया हुआ देखकर भूखसे अत्यन्त व्याकुल मैं रसोईघर खोजकर कुछ खानेके लिये उसमें पहुँच गया ॥ १०-११ ॥

यदा भाण्डं समुद्‌घाट्य पक्वं श्वतनुजामिषम् ।
गृह्णामि भक्षणार्थाय तदा दृष्टस्तु तेन वै ॥ १२ ॥
पृष्टः कस्त्वं कथं प्राप्तो गृहे मे निशि सादरम् ।
ब्रूहि कार्यं किमर्थं त्वमुद्‌घाटयसि भाण्डकम् ॥ १३ ॥
बर्तन खोलकर भोजन प्राप्त करनेके लिये मैंने ज्यों ही बर्तन में हाथ डाला, तभी उस चाण्डालने मुझे देख लिया । उसने आदरपूर्वक मुझसे पूछा-आप कौन हैं ? रातके समय मेरे घरमें आप क्यों प्रविष्ट हुए हैं और मेरे बर्तनको क्यों खोल रहे हैं ? आप अपना उद्देश्य बताइये ॥ १२-१३ ॥

इत्युक्तः श्वपचेनाहं क्षुधया पीडितो भृशम् ।
तमवोचं सुकेशान्ते कामं गद्‌गदया गिरा ॥ १४ ॥
ब्राह्मणोऽहं महाभाग तापसः क्षुधयार्दितः ।
चौरभावमनुप्राप्तो भक्ष्यं पश्यामि भाण्डके ॥ १५ ॥
चौरभावेन सम्प्राप्तोऽस्म्यतिथिस्ते महामते ।
क्षुधितोऽस्मि ददस्वाज्ञां मांसमद्मि सुसंस्कृतम् ॥ १६ ॥
हे सुन्दर केशोंवाली ! चाण्डालके यह पूछनेपर क्षुधासे अत्यधिक पीड़ित मैं गद्‌गद वाणीमें उससे कहने लगा-हे महाभाग ! मैं एक तपस्वी ब्राह्मण हूँ । मैं भूखसे विकल होकर चोरीके विचारसे युक्त होकर यहाँ आया हूँ और इस बर्तनमें कोई खानेकी वस्तु देख रहा हूँ । हे महामते ! चोरीके विचारसे यहाँ आया हुआ मैं आपका अतिथि हूँ । इस समय मैं भूखा हूँ । अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे मैं आपके द्वारा भलीभाँति पकाये गये पदार्थका भक्षण करूँ ॥ १४-१६ ॥

विश्वामित्र उवाच -
श्वपचस्तु वचः श्रुत्वा मामुवाच सुनिश्चितम् ।
भक्षं मा कुरु वर्णाग्र्य जानीहि श्वपचालयम् ॥ १७ ॥
दुर्लभं खलु मानुष्यं तत्रापि च द्विजन्मता ।
द्विजत्वे ब्राह्मणत्वं च दुर्लभं वेत्सि किं न हि ॥ १८ ॥
दुष्टाहारो न कर्तव्यः सर्वथा लोकमिच्छता ।
अग्राह्या मनुना प्रोक्ताः कर्मणा सप्त चान्त्यजाः ॥ १९ ॥
त्याज्योऽहं कर्मणा विप्र श्वपचो नात्र संशयः ।
निवारयामि भक्ष्यात्त्वां न लोभेनाञ्जसा द्विज ॥ २० ॥
वर्णसङ्करदोषोऽयं मा यातु त्वां द्विजोत्तम ।
विश्वामित्र बोले-[हे सुन्दरि !] मेरी बात सुनकर चाण्डालने मुझसे कहा-हे चारों वर्णोमें अग्रगण्य ! इसे चाण्डालका घर जानिये, अतः आप मेरे यहाँ भोजन मत कीजिये; क्योंकि एक तो मानवयोनिमें जन्म पाना दुर्लभ है, उसमें भी द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य)-के यहाँ बड़ा ही दुर्लभ है । द्विजोंमें भी ब्राह्मण-कुलमें जन्म तो सर्वथा दुर्लभ है । क्या आप इसे नहीं जानते हैं ? उत्तम लोककी कामना करनेवाले व्यक्तिको कभी भी दूषित आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये । भगवान् मनुने कर्मानुसार सात जातियोंको अन्त्यज मानकर उन्हें अग्राह्य बतलाया है । हे विप्र ! मैं चाण्डाल हूँ, अतः अपने कर्मके अनुसार त्याज्य हूँ; इसमें कोई सन्देह नहीं है । हे द्विज ! मैं अपना धर्म समझकर ही आपको भोजन करनेसे रोक रहा हूँ, न कि [अपने पदार्थके] लोभसे । हे द्विजवर ! वर्णसंकरताका दोष आपको न लगे, केवल यही मेरा अभिप्राय है ॥ १७-२०.५ ॥

विश्वामित्र उवाच
सत्यं वदसि धर्मज्ञ मतिस्ते विशदान्त्यज ॥ २१ ॥
तथाप्यापदि धर्मस्य सूक्ष्ममार्गं ब्रवीम्यहम् ।
विश्वामित्र बोले-हे धर्मज्ञ ! तुम सत्य कह रहे हो । हे अन्त्यज ! तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त विशाल है, फिर भी मैं तुम्हें आपत्तिकालमें पालनीय धर्मका सूक्ष्म मार्ग बता रहा हूँ ॥ २१.५ ॥

देहस्य रक्षणं कार्यं सर्वथा यदि मानद ॥ २२ ॥
पापस्यान्ते पुनः कार्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये ।
दुर्गतिस्तु भवेत्पापादनापदि न चापदि ॥ २३ ॥
हे मानद ! मनुष्यको चाहिये कि जिस किसी भी उपायसे शरीरकी रक्षा करे । इसमें यदि कोई पाप हो जाय, तो बादमें पापसे मुक्तिके लिये प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये । आपत्तिकालमें किये गये पापकर्मके कारण दुर्गति नहीं होती, किंतु सामान्य समयमें किये गये पापके कारण दुर्गति अवश्य होती है । २२-२३ ॥

मरणात्क्षुधितस्याथ नरको नात्र संशयः ।
तस्मात्क्षुधापहरणं कर्तव्यं शुभमिच्छता ॥ २४ ॥
तेनाहं चौर्यधर्मेण देहं रक्षेऽप्यथान्त्यज ।
अवर्षणे च चौर्येण यत्पापं कथितं बुधैः ॥ २५ ॥
यो न वर्षति पर्जन्यस्तत्तु तस्मै भविष्यति ।
भूखसे मरनेवालेको नरक होता है, इसमें सन्देह नहीं है । अतः अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवालेको भूख मिटानेका प्रयत्न करना चाहिये । हे अन्त्यज ! इसीलिये मैं भी चौर-कर्मसे अपने देहकी रक्षा कर रहा हूँ । विद्वानोंने कहा है कि अनावृष्टिके समय चोरी करनेसे जो पाप होता है, वह पाप उस मेघको लगता है, जो पानी नहीं बरसाता है ॥ २४-२५.५ ॥

इत्युक्ते वचने कान्ते पर्जन्यः सहसापतत् ॥ २६ ॥
गगनाद्धस्तिहस्ताभिर्धाराभिरभिकाङ्‌क्षितः ।
मुदितोऽहं घनं वीक्ष्य वर्षन्तं विद्युता सह ॥ २७ ॥
विश्वामित्र बोले-हे प्रिये ! मेरे ऐसा यह वचन कहते ही आकाशसे हाथीकी सुंडकी तरह मोटी धारवाली मनोभिलषित जलवृष्टि सहसा होने लगी । बिजलीकी चमकके साथ बरसते हुए मेघको देखकर मैं अत्यन्त आनन्दित हुआ ॥ २६-२७ ॥

तदाहं तद्‌गृहं त्यक्त्वा निःसृतः परया मुदा ।
कथय त्वं वरारोहे कालो नीतस्त्वया कथम् ॥ २८ ॥
उसी समय उस चाण्डालका घर छोड़कर मैं परम प्रसन्नतापूर्वक बाहर निकल पड़ा । हे सुन्दरि ! अब यह बताओ कि तुमने प्राणियोंका विनाश करनेवाले उस अत्यन्त भीषण समयको इस वनमें किस प्रकार बिताया ? ॥ २८ ॥

कान्तारे परमः क्रूरः क्षयकृत्प्राणिनामिह ।
व्यास उवाच -
इति तस्य वचः श्रुत्वा पतिमाह प्रियंवदा ॥ २९ ॥
यथा शृणु मया नीतः कालः परमदारुणः ।
गते त्वयि मुनिश्रेष्ठ दुर्भिक्षं समुपागतम् ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] पतिकी यह बात सुनकर उस प्रियभाषिणी स्त्रीने पतिसे कहाहे मुनिश्रेष्ठ ! मैंने जिस प्रकार उस अत्यन्त कष्टकारी समयको व्यतीत किया, उसे आप सुनिये । आपके चले जानेके बाद यहाँ अकाल पड़ गया था । मेरे सभी पुत्र अन्नके लिये बड़े दुःखित हुए ॥ २९-३० ॥

अन्नार्थं पुत्रकाः सर्वे बभूवुश्चातिदुःखिताः ।
क्षुधितान्बालकान्वीक्ष्य नीवारार्थं वने वने ॥ ३१ ॥
भ्रान्ताहं चिन्तयाऽऽविष्टा किञ्चित्प्राप्तं फलं तदा ।
एवं च कतिचिन्मासा नीवारेणातिवाहिताः ॥ ३२ ॥
बालकोंको भूखा देखकर घोर चिन्तासे ग्रस्त मैं नीवार (जंगली धान्य)-के लिये वन-वन घूमती रही । उस समय मुझे कुछ फल मिल गये । इस प्रकार नीवार अन्नके द्वारा मैंने कुछ महीने व्यतीत किये ॥ ३१-३२ ॥

तदभावे मया कान्त चिन्तितं मनसा पुनः ।
न भिक्षा किल दुर्भिक्षे नीवारा नापि कानने ॥ ३३ ॥
न वृक्षेषु फलान्यासुर्न मूलानि धरातले ।
क्षुधया पीडिता बाला रुदन्ति भृशमातुराः ॥ ३४ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि किं ब्रवीमि क्षुधार्तितान् ।
हे कान्त ! उसके भी समाप्त हो जानेपर मैं मनही-मन पुनः सोचने लगी-'इस वनमें अब नीवारान भी नहीं मिल रहा है और इस अकालमें भिक्षा भी नहीं मिल सकती । वृक्षोंपर फल नहीं रह गये और धरतीमें कन्दमूल भी नहीं रहे । भूखसे पीड़ित बालक व्याकुल होकर बहुत रो रहे हैं । अब मैं क्या करूँ कहाँ जाऊँ और भूखसे तड़पते हुए इन बालकोंसे क्या कहूँ' ॥ ३३-३४.५ ॥

एवं विचिन्त्य मनसा निश्चयस्तु मया कृतः ॥ ३५ ॥
पुत्रमेकं ददाम्यद्य कस्मैचिद्धनिने किल ।
गृहीत्वा तस्य मौल्यं तु तेन द्रव्येण बालकान् ॥ ३६ ॥
ऐसा सोचकर मैंने मनमें यही निश्चय किया कि किसी धनी व्यक्तिके हाथ आज अपने एक पुत्रको बेचूंगी और उसका मूल्य लेकर उस द्रव्यसे भूखसे पीड़ित अपने बालकोंका पालन करूँगी: क्योंकि इनके पालन-पोषणका कोई दूसरा उपाय नहीं रह गया है ॥ ३५-३६ ॥

पालयेऽहं क्षुधार्तांस्तु नान्योपायोऽस्ति पालने ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा पुत्रोऽयं प्रहितो मया ॥ ३७ ॥
विक्रयार्थं महाभाग क्रन्दमानो भृशातुरः ।
क्रन्दमानं गृहीत्वैनं निर्गताहं गतत्रपा ॥ ३८ ॥
अपने मनमें यह विचार करके मैंने इस पुत्रको बेचनेका दृढ़ निश्चय कर लिया । हे महाभाग ! उस समय मेरा यह पुत्र व्याकुल होकर जोर-जोरसे रोने-चिल्लाने लगा, किंतु मैं निर्लज्ज होकर अपने रोते-चिल्लाते इस पुत्रको लेकर घरसे निकल पड़ी ॥ ३७-३८ ॥

तदा सत्यव्रतो मार्गे मामुद्वीक्ष्य भृशातुराम् ।
पप्रच्छ स च राजर्षिः कस्माद्‌रोदिति बालकः ॥ ३९ ॥
उस समय राजर्षि सत्यव्रतने मार्गमें मुझ अति व्याकुल चित्तवालीको देखकर पूछा कि यह बालक क्यों रो रहा है ? ॥ ३९ ॥

तदाहं तमुवाचेदं वचनं मुनिसत्तम ।
विक्रयार्थं नीयतेऽसौ बालकोऽद्य मया नृप ॥ ४० ॥
हे मुनिवर ! तब मैंने उनसे यह वचन कहाहे राजन् ! मैं इस बालकको आज बेचनेके लिये ले जा रही हूँ ॥ ४० ॥

श्रुत्वा मे वचनं राजा दयार्द्रहृदयस्ततः ।
मामुवाच गृहं याहि गृहीत्वैनं कुमारकम् ॥ ४१ ॥
भोजनार्थे कुमाराणामामिषं विहितं तव ।
प्रापयिष्याम्यहं नित्यं यावन्मुनिसमागमः ॥ ४२ ॥
तब मेरी बात सुनकर राजाका हृदय दयासे भर गया और उन्होंने मुझसे कहा-'तुम इस बालकको लेकर अपने घर लौट जाओ । जबतक मुनि विश्वामित्र लौटकर आ नहीं जाते, तबतक तुम्हारे इन बालकोंके भोजनके लिये सामग्री प्रतिदिन तुम्हारे यहाँ पहुँचा दिया करूँगा' ॥ ४१-४२ ॥

अहन्यहनि भूपालो वृक्षेऽस्मिन्मृगसूकरान् ।
विन्यस्य याति हत्वासौ प्रत्यहं दययान्वितः ॥ ४३ ॥
तभीसे दयालु राजा सत्यव्रत प्रतिदिन कुछ भोज्य-सामग्री इस पेड़पर रखकर चले जाते थे ॥ ४३ ॥

तेनैव बालकाः कान्त पालिता वृजिनार्णवात् ।
वसिष्ठेनाथ शप्ताऽसौ भूपतिर्मम कारणात् ॥ ४४ ॥
हे कान्त ! उन्होंने ही संकटके सागरसे इन बालकोंकी रक्षा की, किंतु मेरे ही कारण राजा सत्यव्रतको मुनि वसिष्ठके शापका भागी होना पड़ा ॥ ४४ ॥

कस्मिंश्चिद्दिवसे मांसं न प्राप्तं तेन कानने ।
हता दोग्ध्री वसिष्ठस्य तेनासौ कुपितो मुनिः ॥ ४५ ॥
किसी दिन राजा सत्यव्रत जंगलमें कोई सामग्री नहीं पा सके । तब उन्होंने वसिष्ठजीकी दूध देनेवाली गाय मार डाली; इससे मुनि वसिष्ठ उनपर बहुत कुपित हुए ॥ ४५ ॥

त्रिशङ्कुरिति भूपस्य कृतं नाम महात्मना ।
कुपितेन वधाद्धेतोश्चाण्डालश्च कृतो नृपः ॥ ४६ ॥
कुपित महात्मा वसिष्ठने राजाका नाम 'त्रिशंकु' रख दिया और गोवध करनेके कारण राजाको चाण्डाल बना दिया ॥ ४६ ॥

तेनाहं दुःखिता जाता तस्य दुःखेन कौशिक ।
श्वपचत्वमसौ प्राप्तो मत्कृते नृपनन्दनः ॥ ४७ ॥
येन केनाप्युपायेन भवता नृपतेः किल ।
तस्माद्रक्षा प्रकर्तव्या तपसा प्रबलेन ह ॥ ४८ ॥
हे कौशिक ! उनके इसी कष्टसे मैं अत्यन्त दुःखित हूँ; क्योंकि मेरे ही कारण वे राजकुमार सत्यव्रत चाण्डाल हो गये हैं । इसलिये अब आपको जिस किसी भी उपायसे; यहाँतक कि अपनी उग्र तपस्याके प्रभावसे राजाकी रक्षा अवश्य करनी चाहिये ॥ ४७-४८ ॥

व्यास उवाच -
इति भार्यावचः श्रुत्वा कौशिको मुनिसत्तमः ।
तामाह कामिनीं दीनां सान्त्वपूर्वमरिन्दम ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-हे शत्रुका दमन करनेवाले [राजा जनमेजय] ! अपनी पत्नीकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र उस दुःखित स्त्रीको सान्त्वना देते हुए कहने लगे ॥ ४९ ॥

विश्वामित्र उवाच -
मोचयिष्यामि तं शापान्नृपं कमललोचने ।
उपकारः कृतो येन कान्ताराद्‌रक्षितासि वै ॥ ५० ॥
विश्वामित्र बोले-हे कमलनयने ! जिन्होंने तुम्हारा उपकार किया है और घोर वनमें तुम्हारी रक्षा की है, उन राजा सत्यव्रतको मैं शापमुक्त अवश्य करूंगा । मैं अपनी योगविद्या तथा तपस्याके प्रभावसे उनका दुःख दूर कर दूंगा ॥ ५० ॥

विद्यातपोबलेनाहं करिष्ये दुःखसंक्षयम् ।
इत्याश्वास्य प्रियां तत्र कौशिकः परमार्थवित् ॥ ५१ ॥
चिन्तयामास नृपतेः कथं स्याद्दुःखनाशनम् ।
संविमृश्य मुनिस्तत्र जगाम यत्र पार्थिवः ॥ ५२ ॥
त्रिशङ्कुः पक्वणे दीनः संस्थितः श्वपचाकृतिः ।
परमतत्त्ववेत्ता विश्वामित्रजी अपनी भार्याको इस तरह आश्वस्त करके सोचने लगे कि राजा सत्यव्रतका दुःख किस प्रकार दूर हो सकता है ? तब भलीभाँति विचार करके मुनि विश्वामित्र उस स्थानपर गये, जहाँ राजा सत्यव्रत (त्रिशंकु) दीन अवस्थाको प्राप्त होकर चाण्डालके रूपमें एक कुटियामें रह रहे थे ॥ ५१-५२.५ ॥

आगच्छन्तं मुनिं दृष्ट्वा विस्मितोऽसौ नराधिपः ॥ ५३ ॥
दण्डवन्निपपातोर्व्यां पादयोस्तरसा मुनेः ।
गृहीत्वा तं करे भूपं पतितं कौशिकस्तदा ॥ ५४ ॥
उत्थाप्योवाच वचनं सान्त्वपूर्वं द्विजोत्तमः ।
मत्कृते त्वं महीपाल शप्तोऽसि मुनिना यतः ॥ ५५ ॥
वाञ्छितं ते करिष्यामि ब्रूहि किं करवाण्यहम् ।
मुनिको आते देखकर राजा त्रिशंकु विस्मयमें पड़ गये । वे तत्काल मुनिके चरणोपर दण्डकी भाँत गिर पड़े । तब भूमिपर पड़े हुए राजाको हाथसे पकड़कर द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रने उठाया और उन्हें सान्त्वना देते हुए यह वचन कहा-'हे राजन ! मेरे ही कारण वसिष्ठमुनिने आपको शाप दिया है, अत: मैं आपकी सारी कामना पूर्ण करूँगा । अब आप बताइये कि मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ ?' ॥ ५३-५५.५ ॥

राजोवाच -
मया सम्प्रार्थितः पूर्वं वसिष्ठो मखहेतवे ॥ ५६ ॥
मां याजय मुनिश्रेष्ठ करोमि मखमुत्तमम् ।
यथेष्टं कुरु विप्रेन्द्र यथा स्वर्गं व्रजाम्यहम् ॥ ५७ ॥
। राजा बोले-पूर्वकालमें मैंने यज्ञ करानेके लिये वसिष्ठजीसे यह प्रार्थना की थी-हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं महान् यज्ञ करना चाहता हूँ, अतः आप मुझसे यज्ञ सम्पन्न कराइये । हे विप्रेन्द्र ! आप मेरा यह अभीष्ट कार्य कीजिये, जिससे मैं स्वर्ग चला जाऊँ मैं इसी मानव-देहसे सुखोंके निधान इन्द्रलोक जाना चाहता हूँ ॥ ५६-५७.५ ॥

अनेनैव शरीरेण शक्रलोकं सुखालयम् ।
कोपं कृत्वा वसिष्ठोऽसौ मामाहेति सुदुर्मते ॥ ५८ ॥
मानुषेण हि देहेन स्वर्गवासः कुतस्तव ।
इसपर वसिष्ठमुनिने क्रोधित होकर मुझसे कहाअरे दुर्बुद्धि ! इस मानवशरीरसे तुम्हारा स्वर्गमें वास कैसे हो सकता है ? ॥ ५८.५ ॥

पुनर्मयोक्तो भगवान्स्वर्गलुब्धेन चानघ ॥ ५९ ॥
अन्यं पुरोहितं कृत्वा यक्ष्येऽहं यज्ञमुत्तमम् ।
तदा तेनैव शप्तोऽहं चाण्डालो भव पामर ॥ ६० ॥
तब स्वर्गकी उत्कट लालसावाले मैंने भगवान् वसिष्ठसे पुनः कहा-हे निष्पाप ! तब मैं किसी अन्यको पुरोहित बनाकर वह श्रेष्ठ यज्ञ आरम्भ करूँगा । उसी समय उन्होंने मुझे यह शाप दे दिया 'हे नीच ! तुम चाण्डाल हो जाओ' ॥ ५९-६० ॥

इत्येतत्कथितं सर्वं कारणं शापसम्भवम् ।
मम दुःखविनाशाय समर्थोऽसि मुनीश्वर ॥ ६१ ॥
हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने शाप पानेका सारा कारण आपसे कह दिया । अब एकमात्र आप ही मेरा दुःख दूर करनेमें समर्थ हैं ॥ ६१ ॥

इत्युक्त्वा विररमासौ राजा दुःखरुजार्दितः ।
कौशिकोऽपि निराकर्तुं शापं तस्य व्यचिन्तयत् ॥ ६२ ॥
कष्टकी पीड़ासे व्यथित राजा त्रिशंकु इतना कहकर चुप हो गये और विश्वामित्रजी भी उनके शापको दूर करनेका उपाय सोचने लगे ॥ ६२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे त्रिशङ्कुशापोद्धाराय
विश्वामित्रसान्त्वनवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
अध्याय तेरहवाँ समाप्त ॥ १३ ॥


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