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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
चतुर्दशोऽध्यायः

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वरुणकृपया शैव्यायां पुत्रोप्तत्तिवर्णनम् -
विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु)-को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति -


व्यास उवाच -
विचिन्त्य मनसा कृत्यं गाधिसूनुर्महातपाः ।
प्रकल्प्य यज्ञसम्भारान्मुनीनामन्त्रयत्तदा ॥ १ ॥
मुनयस्तं मखं ज्ञात्वा विश्वामित्रनिमन्त्रिताः ।
नागताः सर्व एवैते वसिष्ठेन निवारिताः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! महातपस्वी गाधिपुत्र विश्वामित्रने यज्ञानुष्ठानका विचार करके यज्ञसम्बन्धी सामग्रियाँ जुटाकर सभी मुनियोंको निमन्त्रित किया । तत्पश्चात् विश्वामित्रके द्वारा निमन्त्रित किये गये मुनिगण उस यज्ञके बारेमें जानकर भी वहाँ नहीं आये; क्योंकि वसिष्ठजीने उन सबको आनेसे मना कर दिया था ॥ १-२ ॥

गाधिसूनुस्तदाज्ञाय विमनाश्चातिदुःखितः ।
आजगामाश्रमं तत्र यत्रासौ नृपतिः स्थितः ॥ ३ ॥
यह जानकर गाधिपुत्र विश्वामित्र खिन्नमनस्क तथा अतिदुःखित हुए और उस आश्रममें आये, जहाँ राजा [त्रिशंकु] विराजमान थे ॥ ३ ॥

तमाह कौशिकः क्रुद्धो वसिष्ठेन निवारिताः ।
नागताः ब्राह्मणाः सर्वे यज्ञार्थं नृपसत्तम ॥ ४ ॥
पश्य मे तपसः सिद्धिं यथा त्वां सुरसद्मनि ।
प्रापयामि महाराज वाञ्छितं ते करोम्यहम् ॥ ५ ॥
कुपित विश्वामित्रने उन त्रिशंकुसे कहा-हेनपश्रेष्ठ ! वसिष्ठजीके मना कर देनेके कारण सभी ब्राह्मण तो यज्ञमें नहीं आये, किंतु हे महाराज ! मेरे तपका वह प्रभाव देखिये, जिससे मैं आपको अभी सुरलोक पहुँचाता हूँ और आपकी अभिलाषा पूरी करता हूँ ॥ ४-५ ॥

इत्युक्त्वा जलमादाय हस्तेन मुनिसत्तमः ।
ददौ पुण्यं तदा तस्मै गायत्रीजपसम्भवम् ॥ ६ ॥
यह कहकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रने हाथमें जल लेकर गायत्रीजपसे अर्जित अपना समस्त पुण्य उन्हें दे दिया ॥ ६ ॥

दत्त्वाथ सुकृतं राज्ञे तमुवाच महीपतिम् ।
यथेष्टं गच्छ राजर्षे त्रिविष्टपमतन्द्रितः ॥ ७ ॥
पुण्येन मम राजेन्द्र बहुकालार्जितेन च ।
याहि शक्रपुरीं प्रीतः स्वस्ति तेऽस्तु सुरालये ॥ ८ ॥
राजाको अपना पुण्य देकर विश्वामित्रने उन पृथ्वीपतिसे कहा-हे राजर्षे ! अब आप अपने अभीष्ट स्वर्गलोकको जाइये । हे राजेन्द्र ! बहुत दिनोंसे मेरे द्वारा अर्जित किये गये पुण्यसे अब आप प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रलोक जायें और वहाँ देवलोकमें आपका कल्याण हो ॥ ७-८ ॥

व्यास उवाच -
इत्युक्तवति विप्रेन्द्रे त्रिशङ्कुस्तरसा ततः ।
उत्पपात यथा पक्षी वेगवांस्तपसो बलात् ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन] विप्रेन्द्र विश्वामित्रके इतना कहते ही राजा त्रिशंकु मुनिके तपोबलसे बड़े वेगसे उड़नेवाले पक्षीकी भाँति तुरंत ऊपरकी ओर उड़े ॥ ९ ॥

उत्पत्य गगने राजा गतः शक्रपुरीं यदा ।
दृष्टो देवगणैस्तत्र क्रूरश्चाण्डालवेषभाक् ॥ १० ॥
कथितोऽसौ सुरेन्द्राय कोऽयमायाति सत्वरः ।
गगने देववद्वा यो दुर्दर्शः श्वपचाकृतिः ॥ ११ ॥
आकाशमें उड़कर जब राजा त्रिशंकु इन्द्रपुरी पहुँचे, तब सभी देवताओंने देखा कि चाण्डालवेषधारी कोई क्रूर व्यक्ति चला आ रहा है । तत्पश्चात् उन लोगोंने इन्द्रसे पूछा कि चाण्डालके समान आकृतिवाला तथा दुर्दर्श यह कौन व्यक्ति देवताकी भाँति आकाशमार्गसे बड़े वेगसे चला आ रहा है ? ॥ १०-११ ॥

सहसोत्थाय शक्रस्तमपश्यत्पुरुषाधमम् ।
ज्ञात्वा त्रिशङ्कुमपि स निर्भर्त्स्य तरसाब्रवीत् ॥ १२ ॥
श्वपच क्व समायासि देवलोके जुगुप्सितः ।
याहि शीघ्रं ततो भूमौ नात्र स्थातुं त्वयोचितम् ॥ १३ ॥
तब इन्द्रने सहसा उठकर उस अधम पुरुषकी ओर देखा । उसे त्रिशंकुके रूपमें पहचानकर तत्काल डाँटते हुए इन्द्र कहने लगे हे चाण्डाल ! घृणित कर्मवाले तुम देवलोकमें कहाँ चले आ रहे हो ! तुम अभी पृथ्वीलोकको लौट जाओ; क्योंकि तुम्हारे लिये यहाँ निवास करना सर्वथा उचित नहीं है ॥ १२-१३ ॥

इत्युक्तः स्खलितः स्वर्गाच्छक्रेणामित्रकर्शन ।
निपपात तदा राजा क्षीणपुण्यो यथामरः ॥ १४ ॥
[व्यासजी बोले-] हे शत्रुओंका दमन करनेवाले जनमेजय ! इन्द्रके ऐसा कहते ही त्रिशंकु स्वर्गसे वैसे ही नीचे गिरने लगे, जैसे पुण्यके क्षीण होनेपर देवताओंका स्वर्गसे पतन हो जाता है ॥ १४ ॥

पुनश्चुक्रोश भूपालो विश्वामित्रेति चासकृत् ।
पतामि रक्ष दुःखार्तं स्वर्गाच्चलितमाशुगम् ॥ १५ ॥
तब राजा त्रिशंकु वहींसे बार-बार चिल्लाने लगे-हे विश्वामित्र ! हे विश्वामित्र ! मैं स्वर्गसे च्युत होकर बड़े वेगसे नीचेकी ओर गिर रहा हूँ, अतः आप मुझ कष्टपीडितकी रक्षा कीजिये ॥ १५ ॥

तस्य तत्क्रन्दितं राजन् पतितः कौशिको मुनिः ।
श्रुत्वा तिष्ठेति होवाच पतन्तं वीक्ष्य भूपतिम् ॥ १६ ॥
हे राजन् ! गिरते हुए त्रिशंकुका करुणक्रन्दन सुनकर तथा उन्हें नीचेकी ओर गिरते देखकर विश्वामित्रने कहा-'वहीं रुक जाइये ॥ १६ ॥

वचनात्तस्य तत्रैव स्थितोऽसौ गगने नृपः ।
मुनेस्तपःप्रभावेण चलितोऽपि सुरालयात् ॥ १७ ॥
[हे राजन् !] यद्यपि त्रिशंकु देवलोकसे च्युत हो चुके थे तथापि मुनि विश्वामित्रके ऐसा कहते ही उनके तपोबलके प्रभावसे वे त्रिशंकु बहींपर आकाशमें ही स्थित हो गये ॥ १७ ॥

विश्वामित्रोऽप्यपः स्पृष्ट्वा चकारेष्टिं सुविस्तराम् ।
विधातुं नूतनां सृष्टिं स्वर्गलोकं द्वितीयकम् ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् विश्वामित्रने नयी सुष्टिकी रचनाद्वारा दूसरा स्वर्गलोक बनानेके लिये जलका स्पर्श करके एक दीर्घकालीन यज्ञ आरम्भ किया ॥ १८ ॥

तस्योद्यमं तथा ज्ञात्वा त्वरितस्तु शचीपतिः ।
तत्राजगाम सहसा मुनिं प्रति तु गाधिजम् ॥ १९ ॥
किं ब्रह्मन् क्रियते साधो कस्मात्कोपसमाकुलः ।
अलं सृष्ट्या मुनिश्रेष्ठ ब्रूहि किं करवाणि ते ॥ २० ॥
उनके उस प्रकारके प्रयत्नको जानकर इन्द्र गाधि-पुत्र मुनि विश्वामित्रके पास तुरंत आ पहुंचे । [इन्द्र बोले-] हे ब्रह्मन् ! आप यह क्या कर रहे हैं ? हे साधो ! आप कुपित क्यों हैं ? हे मुनिश्रेष्ठ ! आप दूसरी सृष्टि मत कीजिये और बताइये कि मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ ? ॥ १९-२० ॥

विश्वामित्र उवाच -
स्वं निवासं महीपालं च्युतं त्वद्‌भुवनाद्‌ विभो ।
नयस्व प्रीतियोगेन त्रिशङ्कुं चातिदुःखितम् ॥ २१ ॥
विश्वामित्र बोले-हे विभो ! आपके लोकसे च्युत होकर अत्यन्त दुःखमें पडे हए राजा त्रिशंकुको आप प्रेमपूर्वक अपने निवास स्थान (स्वर्गलोक)-में ले जाइये ॥ २१ ॥

व्यास उवाच -
तस्य तं निश्चयं ज्ञात्वा तुराषाडतिशङ्‌कितः ।
तपोबलं विदित्वोग्रमोमित्योवाच वासवः ॥ २२ ॥
दिव्यदेहं नृपं कृत्वा विमानवरसंस्थितम् ।
आपृच्छ्य कौशिकं शक्रोऽगमन्निजपुरीं तदा ॥ २३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! विश्वामित्रका वह निश्चय जानकर इन्द्रको बहुत भय हुआ । उन्होंने मुनिका उग्र तपोबल समझकर कहा-'ठीक है । ' तत्पश्चात् राजाको दिव्य शरीरवाला बनाकर तथा उन्हें एक उत्तम विमानपर बैठाकर इन्द्रने विश्वामित्रसे आज्ञा लेकर अपनी पुरीके लिये प्रस्थान किया ॥ २२-२३ ॥

गते शक्रे तु वै स्वर्गं त्रिशङ्कुसहिते ततः ।
विश्वामित्रः सुखं प्राप्य स्वाश्रमे सुस्थिरोऽभवत् ॥ २४ ॥
राजा त्रिशंकुसहित इन्द्रके स्वर्ग चले जानेके उपरान्त विश्वामित्र सुखी होकर अपने आश्रम में निश्चिन्त होकर रहने लगे ॥ २४ ॥

हरिश्चन्द्रोऽथ तच्छ्रुत्वा विश्वामित्रोपकारकम् ।
पितुः स्वर्गमनं कामं मुदितो राज्यमन्वशात् ॥ २५ ॥
इधर राजा हरिश्चन्द्र मुनि विश्वामित्रके द्वारा किये गये अपने पिताके स्वर्गगमन-सम्बन्धी उपकारको सुनकर अत्यन्त हर्षित हुए और राज्यशासन करने लगे ॥ २५ ॥

अयोध्याधिपतिः क्रीडां चकार सह भार्यया ।
रूपयौवनचातुर्ययुक्तया प्रीतिसंयुतः ॥ २६ ॥
अयोध्यापति [हरिश्चन्द्र] रूप, यौवन तथा चातुर्यसे सम्पन्न अपनी भायकि साथ प्रेमपूर्वक विहार करने लगे । ॥ २६ ॥

अतीतकाले युवती न सा गर्भवती ह्यभूत् ।
तदा चिन्तातुरो राजा बभूवातीव दुःखितः ॥ २७ ॥
इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जानेपर भी जब वह युवती रानी गर्भवती नहीं हुई, तब राजा बड़े चिन्तित तथा दुःखी हुए ॥ २७ ॥

वसिष्टस्याश्रमं गत्वा प्रणम्य शिरसा मुनिम् ।
अनपत्यत्वजां चिन्तां गुरवे समवेदयत् ॥ २८ ॥
इसके बाद वसिष्ठमुनिके आश्रममें जाकर तथा मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम करनेके पश्चात् उन्होंने सन्तान उत्पन्न न होनेके कारण अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए गुरुसे कहा-हे धर्मज्ञ ! हे मानद ! आप महान् ज्योतिर्विद् तथा मन्त्रविद्याके परम विद्वान् हैं । अत: आप मेरे लिये सन्तानप्राप्तिका कोई उपाय कीजिये ॥ २८-२९ ॥

दैवज्ञोऽसि भवान्कामं मन्त्रविद्याविशारदः ।
उपायं कुरु धर्मज्ञ सन्ततेर्मम मानद ॥ २९ ॥
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति जानासि द्विजसत्तम ।
कस्मादुपेक्षसे जानन् दुःखं मम च शक्तिमान् ॥ ३० ॥
हे द्विज श्रेष्ठ ! आप तो जानते ही हैं कि पुत्रहीनकी गति नहीं होती । मेरे दुःखको जानते हुए तथा [उसे दूर करनेमें] समर्थ होते हुए भी आप उपेक्षा क्यों कर रहे हैं ? ॥ ३० ॥

कलविंकास्त्विमे धन्या ये शिशुं लालयन्ति हि ।
मन्दभाग्योऽहमनिशं चिन्तयामि दिवानिशम् ॥ ३१ ॥
ये गौरैया पक्षी बड़े धन्य हैं, जो अपने शिशुका लालन-पालन कर रहे हैं । मैं ही ऐसा भाग्यहीन हूँ, जो सदा दिन-रात चिन्तित रहता हूँ ॥ ३१ ॥

व्यास उवाच -
इत्याकर्ण्य मुनिस्तस्य निर्वेदमिश्रितं वचः ।
सञ्चिन्त्य मनसा सम्यक् तमुवाच विधेः सुतः ॥ ३२ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उनकी व्यथाभरी वाणी सुनकर ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठजी भलीभांति मनमें विचार करके उनसे कहने लगे ॥ ३२ ॥

वसिष्ठ उवाच -
सत्यं ब्रूहि महाराज संसारेऽस्मिन्न विद्यते ।
अनपत्यत्वजं दुःखं यत्तथा दुःखमद्‌भुतम् ॥ ३३ ॥
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र वरुणं यादसां पतिम् ।
समाराधय यत्‍नेन स ते कार्यं करिष्यति ॥ ३४ ॥
वसिष्ठजी बोले-हे महाराज ! आप ठीक कह रहे हैं । जो दुःख पत्र न होनेके कारण होता है, वैसा अद्‌भुत दुःख इस संसारमें नहीं है । अतएव हे राजेन्द्र ! आप प्रयत्नपूर्वक जलाधिपति वरुणदेवकी आराधना कीजिये, वे ही आपका कार्य करेंगे ॥ ३३-३४ ॥

वरुणादधिको नास्ति देवः सन्तानदायकः ।
तमाराधय धर्मिष्ठ कार्यसिद्धिर्भविष्यति ॥ ३५ ॥
हे धर्मिष्ठ ! वरुणदेवसे बढ़कर कोई दूसरा सन्तानदाता देवता नहीं है । इसलिये आप उन्हींकी आराधना कीजिये, इससे आपका प्रयोजन अवश्य सिद्ध हो जायगा ॥ ३५ ॥

दैवं पुरुषकारश्च माननीयाविमौ नृभिः ।
उद्यमेन विना कार्यसिद्धिः सञ्जायते कथम् ॥ ३६ ॥
मनुष्योंको भाग्य तथा पुरुषार्थ-इन दोनोंका आदर करना चाहिये; क्योंकि बिना उद्योग किये कार्य-सिद्धि कैसे हो सकती है ? ॥ ३६ ॥

न्यायतस्तु नरैः कार्य उद्यमस्तत्त्वदर्शिभिः ।
कृते तस्मिन्भवेत्सिद्धिर्नान्यथा नृपसत्तम ॥ ३७ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! तत्त्वदर्शी मनुष्योंको न्यायपूर्वक उद्योग करना चाहिये । वैसा करनेसे सिद्धि अवश्य मिलती है, अन्यथा नहीं ॥ ३७ ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा गुरोरमिततेजसः ।
प्रणम्य निर्ययौ राजा तपसे कृतनिश्चयः ॥ ३८ ॥
अपरिमित तेजवाले उन गुरु वसिष्ठकी यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्रने तप करनेका निश्चय किया और गुरुको प्रणाम करके वे निकल पड़े ॥ ३८ ॥

गङ्गातीरे शुभे स्थाने कृतपद्मासनो नृपः ।
ध्यायन्पाशधरं चित्ते चचार दुश्चरं तपः ॥ ३९ ॥
राजा हरिश्चन्द्र गंगानदीके तटपर एक शुभ स्थानमें पद्मासन लगाकर बैठ गये और अपने मनमें पाशधारी वरुणदेवका ध्यान करते हुए कठोर तप करने लगे ॥ ३९ ॥

एवं तपस्यतस्तस्य प्रचेता दृष्टिगोचरः ।
कृपयाभून्महाराज प्रसन्नमुखपङ्कजः ॥ ४० ॥
हरिश्चन्द्रमुवाचेदं वचनं यादसां पतिः ।
वरं वरय धर्मज्ञ तुष्टोऽस्मि तपसा तव ॥ ४१ ॥
हे महाराज ! इस प्रकारका तप करनेवाले उन [राजा हरिश्चन्द्र]-पर कृपा करके प्रसन्न मुखकमलवाले वरुणदेव उनके सम्मुख प्रकट हो गये । जलाधिपति वरुणदेवने हरिश्चन्द्रसे यह वचन कहाहे धर्मज्ञ ! आपके तपसे मैं प्रसन्न हूँ, आप मुझसे वर माँगिये ॥ ४०-४१ ॥

राजोवाच -
अनपत्योऽस्मि देवेश पुत्रं देहि सुखप्रदम् ।
ऋणत्रयापहारार्थमुद्यमोऽयं मया कृतः ॥ ४२ ॥
राजा बोले-हे देवेश ! मैं सन्तानहीन हूँ, अतः आप मुझे सुखदायक पुत्र दीजिये । मैंने देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृ-ऋण-इन तीनों ऋणोंसे मुक्त होनेके लिये यह [तपरूप] उद्यम किया है ॥ ४२ ॥

नृपस्य वचनं श्रुत्वा प्रगल्भं दुःखितस्य च ।
स्मितपूर्वं ततः पाशी तमाह पुराः स्थितम् ॥ ४३ ॥
तब दुःखित राजाका यह प्रगल्भ वचन सुनकर वरुणदेव अपने सम्मुख स्थित राजा हरिश्चन्द्रसे मुसकराते हुए कहने लगे ॥ ४३ ॥

वरुण उवाच -
पुत्रो यदि भवेद्‌राजन् गुणी मनसि वाञ्छितः ।
सिद्धे कार्ये ततः पश्चात्किं करिष्यसि मे प्रियम् ॥ ४४ ॥
वरुण बोले-हे राजन् ! यदि आपको मनोवांछित गुणवान् पुत्र उत्पन्न हो तब मनोरथ पूरा हो जानेके पश्चात् आप मेरा कौन-सा प्रिय कार्य करेंगे ? ॥ ४४ ॥

यदि त्वं तेन पुत्रेण मां यजेथा विशङ्‌कितः ।
पशुबन्धेन तेनैव ददामि नृपते वरम् ॥ ४५ ॥
हे राजन् ! यदि आप शंकारहित भावसे उस पुत्रको बलिपशु बनाकर मेरा यज्ञ करें, तो मैं आपको वर प्रदान करूँगा ॥ ४५ ॥

राजोवाच -
देव मे मास्तु वन्ध्यत्वं यजिष्येऽहं जलाधिप ।
पशुं कृत्वा सुतं पुत्रं सत्यमेतद्‌ब्रवीमि ते ॥ ४६ ॥
वन्ध्यत्वे परमं दुःखमसह्यं भुवि मानद ।
शोकाग्निशमनं नॄणां तस्माद्देहि सुतं शुभम् ॥ ४७ ॥
राजा बोले-हे देव ! मैं सन्तानहीन न रहूँ । हे जलाधिप ! मैं उस पुत्रको बलिपशु बनाकर आपका यज्ञ करूँगा । मैं आपसे यह सत्य कह रहा हूँ । हे मानद ! इस पृथ्वीलोकमें मनुष्यों के लिये सन्तान न होनेका दुःख अत्यन्त असह्य होता है, अत: आप मुझे कल्याणकारी तथा मेरी शोकाग्निको शान्त करनेवाला पुत्र प्रदान कीजिये ॥ ४६-४७ ॥

वरुण उवाच -
भविष्यति सुतः कामं राजन् गच्छ गृहाय वै ।
सत्यं तद्वचनं कार्यं यद्‌ब्रवीषि ममाग्रतः ॥ ४८ ॥
वरुण बोले-राजन् ! आपको अपनी कामनाके अनुकूल पुत्र प्राप्त होगा । अब आप घर लौट जाइये, किंतु अभी मेरे सामने आपने जो वचन कहा है, उसे सत्य कीजियेगा ॥ ४८ ॥

व्यास उवाच -
इत्युक्तो वरुणेनासौ हरिश्चन्द्रो गृहं ययौ ।
भार्यायै कथयामास वृत्तान्तं वरदानजम् ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-वरुणदेवके ऐसा कहनेपर राजा हरिश्चन्द्र घर चले गये और वरदान-सम्बन्धी सारा वृत्तान्त अपनी रानीसे कहा ॥ ४९ ॥

तस्य भार्याशतं पूर्णं बभूवातिमनोहरम् ।
पट्टराज्ञी शुभा शैव्या धर्मपत्‍नी पतिव्रता ॥ ५० ॥
उनकी एक सौ परम सुन्दर रानियाँ थीं । उनमेंसे कल्याणी तथा पतिव्रता शैव्या ही उनकी प्रधान धर्मपत्नी तथा पटरानी थीं ॥ ५० ॥

काले गतेऽथ सा गर्भं दधार वरवर्णिनी ।
बभूव मुदितो राजा श्रुत्वा दोहदचेष्टितम् ॥ ५१ ॥
कुछ समय बीतनेपर सुन्दरी शैव्याने गर्भ धारण किया । तब उनकी गर्भकालीन अभिलाषाको सुनकर राजा परम प्रसन्न हुए ॥ ५१ ॥

कारयामास विधिवत्संस्कारान्नृपतिस्तदा ।
मासेऽथ दशमे पूर्णे सुषुवे सा शुभे दिने ॥ ५२ ॥
उस समय राजाने विधिपूर्वक [पुंसवन आदि] सभी संस्कार सम्पन्न कराये । दसवाँ महीना पूरा होनेपर रानीने नक्षत्र तथा ग्रहके उत्तम प्रभावसे युक्त शुभ दिनमें देवपुत्रके समान कान्तिमान् पुत्रको जन्म दिया ॥ ५२ ॥

ताराग्रहबलोपेते पुत्रं देवसुतोपमम् ।
पुत्रे जाते नृपः स्नात्वा ब्राह्मणैः परिवेष्टितः ॥ ५३ ॥
चकार जातकर्मादौ ददौ दानानि भूरिशः ।
राज्ञश्चातिप्रमोदोऽभूत्पुत्रजन्मसमुद्‌भवः ॥ ५४ ॥
बभूव परमोदारो धनधान्यसमन्वितः ।
विशेषदानसंयुक्तो गीतवादित्रसंकुलः ॥ ५५ ॥
पुत्रके जन्म लेनेपर राजाने ब्राह्मणोंके साथ जाकर स्नान करके सर्वप्रथम बालकका जातकर्मसंस्कार किया और बहुत दान दिये । पुत्रका जन्म होनेसे राजाको परम प्रसन्नता हुई । उस समय उन्होंने धन-धान्यसे युक्त होकर परम उदारतापूर्वक अनेक प्रकारके विशिष्ट दान दिये और गीत-वाद्योंके साथ महोत्सव मनाया ॥ ५३-५५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे वरुणकृपया शैव्यायां
पुत्रोप्तत्तिवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
अध्याय चौदहवाँ समाप्त ॥ १४ ॥


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