व्यास उवाच - विचिन्त्य मनसा कृत्यं गाधिसूनुर्महातपाः । प्रकल्प्य यज्ञसम्भारान्मुनीनामन्त्रयत्तदा ॥ १ ॥ मुनयस्तं मखं ज्ञात्वा विश्वामित्रनिमन्त्रिताः । नागताः सर्व एवैते वसिष्ठेन निवारिताः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! महातपस्वी गाधिपुत्र विश्वामित्रने यज्ञानुष्ठानका विचार करके यज्ञसम्बन्धी सामग्रियाँ जुटाकर सभी मुनियोंको निमन्त्रित किया । तत्पश्चात् विश्वामित्रके द्वारा निमन्त्रित किये गये मुनिगण उस यज्ञके बारेमें जानकर भी वहाँ नहीं आये; क्योंकि वसिष्ठजीने उन सबको आनेसे मना कर दिया था ॥ १-२ ॥
यह जानकर गाधिपुत्र विश्वामित्र खिन्नमनस्क तथा अतिदुःखित हुए और उस आश्रममें आये, जहाँ राजा [त्रिशंकु] विराजमान थे ॥ ३ ॥
तमाह कौशिकः क्रुद्धो वसिष्ठेन निवारिताः । नागताः ब्राह्मणाः सर्वे यज्ञार्थं नृपसत्तम ॥ ४ ॥ पश्य मे तपसः सिद्धिं यथा त्वां सुरसद्मनि । प्रापयामि महाराज वाञ्छितं ते करोम्यहम् ॥ ५ ॥
कुपित विश्वामित्रने उन त्रिशंकुसे कहा-हेनपश्रेष्ठ ! वसिष्ठजीके मना कर देनेके कारण सभी ब्राह्मण तो यज्ञमें नहीं आये, किंतु हे महाराज ! मेरे तपका वह प्रभाव देखिये, जिससे मैं आपको अभी सुरलोक पहुँचाता हूँ और आपकी अभिलाषा पूरी करता हूँ ॥ ४-५ ॥
यह कहकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रने हाथमें जल लेकर गायत्रीजपसे अर्जित अपना समस्त पुण्य उन्हें दे दिया ॥ ६ ॥
दत्त्वाथ सुकृतं राज्ञे तमुवाच महीपतिम् । यथेष्टं गच्छ राजर्षे त्रिविष्टपमतन्द्रितः ॥ ७ ॥ पुण्येन मम राजेन्द्र बहुकालार्जितेन च । याहि शक्रपुरीं प्रीतः स्वस्ति तेऽस्तु सुरालये ॥ ८ ॥
राजाको अपना पुण्य देकर विश्वामित्रने उन पृथ्वीपतिसे कहा-हे राजर्षे ! अब आप अपने अभीष्ट स्वर्गलोकको जाइये । हे राजेन्द्र ! बहुत दिनोंसे मेरे द्वारा अर्जित किये गये पुण्यसे अब आप प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रलोक जायें और वहाँ देवलोकमें आपका कल्याण हो ॥ ७-८ ॥
व्यास उवाच - इत्युक्तवति विप्रेन्द्रे त्रिशङ्कुस्तरसा ततः । उत्पपात यथा पक्षी वेगवांस्तपसो बलात् ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन] विप्रेन्द्र विश्वामित्रके इतना कहते ही राजा त्रिशंकु मुनिके तपोबलसे बड़े वेगसे उड़नेवाले पक्षीकी भाँति तुरंत ऊपरकी ओर उड़े ॥ ९ ॥
उत्पत्य गगने राजा गतः शक्रपुरीं यदा । दृष्टो देवगणैस्तत्र क्रूरश्चाण्डालवेषभाक् ॥ १० ॥ कथितोऽसौ सुरेन्द्राय कोऽयमायाति सत्वरः । गगने देववद्वा यो दुर्दर्शः श्वपचाकृतिः ॥ ११ ॥
आकाशमें उड़कर जब राजा त्रिशंकु इन्द्रपुरी पहुँचे, तब सभी देवताओंने देखा कि चाण्डालवेषधारी कोई क्रूर व्यक्ति चला आ रहा है । तत्पश्चात् उन लोगोंने इन्द्रसे पूछा कि चाण्डालके समान आकृतिवाला तथा दुर्दर्श यह कौन व्यक्ति देवताकी भाँति आकाशमार्गसे बड़े वेगसे चला आ रहा है ? ॥ १०-११ ॥
सहसोत्थाय शक्रस्तमपश्यत्पुरुषाधमम् । ज्ञात्वा त्रिशङ्कुमपि स निर्भर्त्स्य तरसाब्रवीत् ॥ १२ ॥ श्वपच क्व समायासि देवलोके जुगुप्सितः । याहि शीघ्रं ततो भूमौ नात्र स्थातुं त्वयोचितम् ॥ १३ ॥
तब इन्द्रने सहसा उठकर उस अधम पुरुषकी ओर देखा । उसे त्रिशंकुके रूपमें पहचानकर तत्काल डाँटते हुए इन्द्र कहने लगे हे चाण्डाल ! घृणित कर्मवाले तुम देवलोकमें कहाँ चले आ रहे हो ! तुम अभी पृथ्वीलोकको लौट जाओ; क्योंकि तुम्हारे लिये यहाँ निवास करना सर्वथा उचित नहीं है ॥ १२-१३ ॥
इत्युक्तः स्खलितः स्वर्गाच्छक्रेणामित्रकर्शन । निपपात तदा राजा क्षीणपुण्यो यथामरः ॥ १४ ॥
[व्यासजी बोले-] हे शत्रुओंका दमन करनेवाले जनमेजय ! इन्द्रके ऐसा कहते ही त्रिशंकु स्वर्गसे वैसे ही नीचे गिरने लगे, जैसे पुण्यके क्षीण होनेपर देवताओंका स्वर्गसे पतन हो जाता है ॥ १४ ॥
तब राजा त्रिशंकु वहींसे बार-बार चिल्लाने लगे-हे विश्वामित्र ! हे विश्वामित्र ! मैं स्वर्गसे च्युत होकर बड़े वेगसे नीचेकी ओर गिर रहा हूँ, अतः आप मुझ कष्टपीडितकी रक्षा कीजिये ॥ १५ ॥
[हे राजन् !] यद्यपि त्रिशंकु देवलोकसे च्युत हो चुके थे तथापि मुनि विश्वामित्रके ऐसा कहते ही उनके तपोबलके प्रभावसे वे त्रिशंकु बहींपर आकाशमें ही स्थित हो गये ॥ १७ ॥
तत्पश्चात् विश्वामित्रने नयी सुष्टिकी रचनाद्वारा दूसरा स्वर्गलोक बनानेके लिये जलका स्पर्श करके एक दीर्घकालीन यज्ञ आरम्भ किया ॥ १८ ॥
तस्योद्यमं तथा ज्ञात्वा त्वरितस्तु शचीपतिः । तत्राजगाम सहसा मुनिं प्रति तु गाधिजम् ॥ १९ ॥ किं ब्रह्मन् क्रियते साधो कस्मात्कोपसमाकुलः । अलं सृष्ट्या मुनिश्रेष्ठ ब्रूहि किं करवाणि ते ॥ २० ॥
उनके उस प्रकारके प्रयत्नको जानकर इन्द्र गाधि-पुत्र मुनि विश्वामित्रके पास तुरंत आ पहुंचे । [इन्द्र बोले-] हे ब्रह्मन् ! आप यह क्या कर रहे हैं ? हे साधो ! आप कुपित क्यों हैं ? हे मुनिश्रेष्ठ ! आप दूसरी सृष्टि मत कीजिये और बताइये कि मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ ? ॥ १९-२० ॥
विश्वामित्र बोले-हे विभो ! आपके लोकसे च्युत होकर अत्यन्त दुःखमें पडे हए राजा त्रिशंकुको आप प्रेमपूर्वक अपने निवास स्थान (स्वर्गलोक)-में ले जाइये ॥ २१ ॥
व्यास उवाच - तस्य तं निश्चयं ज्ञात्वा तुराषाडतिशङ्कितः । तपोबलं विदित्वोग्रमोमित्योवाच वासवः ॥ २२ ॥ दिव्यदेहं नृपं कृत्वा विमानवरसंस्थितम् । आपृच्छ्य कौशिकं शक्रोऽगमन्निजपुरीं तदा ॥ २३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! विश्वामित्रका वह निश्चय जानकर इन्द्रको बहुत भय हुआ । उन्होंने मुनिका उग्र तपोबल समझकर कहा-'ठीक है । ' तत्पश्चात् राजाको दिव्य शरीरवाला बनाकर तथा उन्हें एक उत्तम विमानपर बैठाकर इन्द्रने विश्वामित्रसे आज्ञा लेकर अपनी पुरीके लिये प्रस्थान किया ॥ २२-२३ ॥
गते शक्रे तु वै स्वर्गं त्रिशङ्कुसहिते ततः । विश्वामित्रः सुखं प्राप्य स्वाश्रमे सुस्थिरोऽभवत् ॥ २४ ॥
राजा त्रिशंकुसहित इन्द्रके स्वर्ग चले जानेके उपरान्त विश्वामित्र सुखी होकर अपने आश्रम में निश्चिन्त होकर रहने लगे ॥ २४ ॥
इसके बाद वसिष्ठमुनिके आश्रममें जाकर तथा मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम करनेके पश्चात् उन्होंने सन्तान उत्पन्न न होनेके कारण अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए गुरुसे कहा-हे धर्मज्ञ ! हे मानद ! आप महान् ज्योतिर्विद् तथा मन्त्रविद्याके परम विद्वान् हैं । अत: आप मेरे लिये सन्तानप्राप्तिका कोई उपाय कीजिये ॥ २८-२९ ॥
दैवज्ञोऽसि भवान्कामं मन्त्रविद्याविशारदः । उपायं कुरु धर्मज्ञ सन्ततेर्मम मानद ॥ २९ ॥ अपुत्रस्य गतिर्नास्ति जानासि द्विजसत्तम । कस्मादुपेक्षसे जानन् दुःखं मम च शक्तिमान् ॥ ३० ॥
हे द्विज श्रेष्ठ ! आप तो जानते ही हैं कि पुत्रहीनकी गति नहीं होती । मेरे दुःखको जानते हुए तथा [उसे दूर करनेमें] समर्थ होते हुए भी आप उपेक्षा क्यों कर रहे हैं ? ॥ ३० ॥
कलविंकास्त्विमे धन्या ये शिशुं लालयन्ति हि । मन्दभाग्योऽहमनिशं चिन्तयामि दिवानिशम् ॥ ३१ ॥
ये गौरैया पक्षी बड़े धन्य हैं, जो अपने शिशुका लालन-पालन कर रहे हैं । मैं ही ऐसा भाग्यहीन हूँ, जो सदा दिन-रात चिन्तित रहता हूँ ॥ ३१ ॥
वसिष्ठजी बोले-हे महाराज ! आप ठीक कह रहे हैं । जो दुःख पत्र न होनेके कारण होता है, वैसा अद्भुत दुःख इस संसारमें नहीं है । अतएव हे राजेन्द्र ! आप प्रयत्नपूर्वक जलाधिपति वरुणदेवकी आराधना कीजिये, वे ही आपका कार्य करेंगे ॥ ३३-३४ ॥
हे महाराज ! इस प्रकारका तप करनेवाले उन [राजा हरिश्चन्द्र]-पर कृपा करके प्रसन्न मुखकमलवाले वरुणदेव उनके सम्मुख प्रकट हो गये । जलाधिपति वरुणदेवने हरिश्चन्द्रसे यह वचन कहाहे धर्मज्ञ ! आपके तपसे मैं प्रसन्न हूँ, आप मुझसे वर माँगिये ॥ ४०-४१ ॥
राजा बोले-हे देवेश ! मैं सन्तानहीन हूँ, अतः आप मुझे सुखदायक पुत्र दीजिये । मैंने देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृ-ऋण-इन तीनों ऋणोंसे मुक्त होनेके लिये यह [तपरूप] उद्यम किया है ॥ ४२ ॥
राजा बोले-हे देव ! मैं सन्तानहीन न रहूँ । हे जलाधिप ! मैं उस पुत्रको बलिपशु बनाकर आपका यज्ञ करूँगा । मैं आपसे यह सत्य कह रहा हूँ । हे मानद ! इस पृथ्वीलोकमें मनुष्यों के लिये सन्तान न होनेका दुःख अत्यन्त असह्य होता है, अत: आप मुझे कल्याणकारी तथा मेरी शोकाग्निको शान्त करनेवाला पुत्र प्रदान कीजिये ॥ ४६-४७ ॥
उस समय राजाने विधिपूर्वक [पुंसवन आदि] सभी संस्कार सम्पन्न कराये । दसवाँ महीना पूरा होनेपर रानीने नक्षत्र तथा ग्रहके उत्तम प्रभावसे युक्त शुभ दिनमें देवपुत्रके समान कान्तिमान् पुत्रको जन्म दिया ॥ ५२ ॥
पुत्रके जन्म लेनेपर राजाने ब्राह्मणोंके साथ जाकर स्नान करके सर्वप्रथम बालकका जातकर्मसंस्कार किया और बहुत दान दिये । पुत्रका जन्म होनेसे राजाको परम प्रसन्नता हुई । उस समय उन्होंने धन-धान्यसे युक्त होकर परम उदारतापूर्वक अनेक प्रकारके विशिष्ट दान दिये और गीत-वाद्योंके साथ महोत्सव मनाया ॥ ५३-५५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे वरुणकृपया शैव्यायां पुत्रोप्तत्तिवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥