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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
पञ्चदशोऽध्यायः

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हरिश्चन्द्रस्य जलोदरव्याधिप्राप्तिवर्णनम् -
प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना -


व्यास उवाच -
प्रवृत्ते सदने तस्य राज्ञः पुत्रमहोत्सवे ।
आजगाम तदा पाशी विप्रवेषधरः शुभः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[राजा जनमेजय !] राजा हरिश्चन्द्रके घरमें पुत्रका जन्मोत्सव मनाया जा रहा था, उसी समय सुन्दर ब्राह्मणका वेष धारण करके वरुणदेव वहाँ आ पहुँचे ॥ १ ॥

स्वस्तीत्युक्त्वा नृपं प्राह वरुणोऽहं निशामय ।
पुत्रो जातस्तवाधीश यजानेन नृपाशु माम् ॥ २ ॥
सत्यं कुरु वचो राजन् यत्प्रोक्तं भवतः पुरा ।
वन्ध्यत्वं तु गतं तेऽद्य वरदानेन मे किल ॥ ३ ॥
'आपका कल्याण हो'-ऐसा कहकर उन्होंने राजा हरिश्चन्द्रसे कहा-हे राजन् ! मैं वरुणदेव हूँ, मेरी बात सुनिये । हे नृप ! आपको पुत्र हो गया है, इसलिये अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ कीजिये । हे राजन् ! मेरे वरदानसे अब आपकी सन्तानहीनताका दोष समाप्त हो चुका है, अतः आपने जो बात पहले कही है, उसे सत्य कीजिये ॥ २-३ ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा राजा चिन्तां चकार ह ।
कथं हन्मि सुतं जातं जलजेन समाननम् ॥ ४ ॥
लोकपालः समायातो विप्रवेषेण वीर्यवान् ।
न देवहेलनं कार्यं सर्वथा शुभमिच्छता ॥ ५ ॥
पुत्रस्नेहः सुदुश्छेद्यः सर्वथा प्राणिभिः सदा ।
किं करोमि कथं मे स्यात्सुखं सन्ततिसम्भवम् ॥ ६ ॥
वरुणदेवकी बात सुनकर राजा चिन्तित हो उठे कि कमलके समान मुखवाले इस नवजात पुत्रका वध कैसे करूँ अर्थात् इसे बलिपशु बनाकर यज्ञ कैसे करूँ ? किंतु स्वयं लोकपाल तथा पराक्रमी वरुणदेव विप्रवेषमें आये हुए हैं । अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले व्यक्तिको देवताओंका अनादर कभी नहीं करना चाहिये । साथ ही, पुत्रस्नेहको दूर करना भी तो प्राणियोंके लिये सर्वदा अत्यन्त दुष्कर कार्य है । अतः अब मैं कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मुझे सन्तानजनित सुख प्राप्त हो ॥ ४-६ ॥

धैर्यमालम्ब्य भूपालस्तं नत्वा प्रतिपूज्य च ।
उवाच वचनं श्लक्ष्णं युक्तं विनयपूर्वकम् ॥ ७ ॥
तब धैर्य धारण करके राजा हरिश्चन्द्रने वरुणदेवको प्रणामकर उनकी पूजा की और वे विनम्रतापूर्वक मधुर तथा युक्तियुक्त वचन कहने लगे ॥ ७ ॥

राजोवाच -
देवदेव तवानुज्ञां करोमि करुणानिधे ।
वेदोक्तेन विधानेन मखं च बहुदक्षिणम् ॥ ८ ॥
पुत्रे जाते दशाहेन कर्मयोग्यो भवेत्पिता ।
मासेन शुध्येज्जननी दम्पती तत्र कारणम् ॥ ९ ॥
सर्वज्ञोऽसि प्रचेतस्त्वं धर्मं जानासि शाश्वतम् ।
कृपां कुरु त्वं वारीश क्षमस्व परमेश्वर ॥ १० ॥
राजा बोले-हे देवदेव ! मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा । हे करुणानिधान ! मैं वेदोक्त विधिविधानसे प्रचुर दक्षिणावाला यज्ञ करूँगा, किंतु अभी यज्ञ न करनेका कारण यह है कि पुत्र उत्पन्न होनेके दस दिन बाद पिता शुद्ध होकर कर्मानुष्ठानके योग्य होता है और एक महीने में माता शुद्ध होती है । अतः जबतक पति-पत्नी दोनों शुद्ध नहीं हो जाते, तबतक यज्ञ कैसे होगा ? वरुणदेव ! आप तो सर्वज्ञ हैं और सनातन धर्मको भलीभाँति जानते हैं । हे वारीश ! आप मुझपर दया कीजिये, हे परमेश्वर ! मुझे क्षमा कीजिये ॥ ८-१० ॥

व्यास उवाच -
इत्युक्तस्तु प्रचेतास्तं प्रत्युवाच जनाधिपम् ।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि कुरु कार्याणि पार्थिव ॥ ११ ॥
आगमिष्यामि मासान्ते यष्टव्यं सर्वथा त्वया ।
कृत्वौत्थानिकमाचारं पुत्रस्य नृपसत्तम ॥ १२ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! राजा हरिश्चन्द्रके यह कहनेपर वरुणदेवने उनसे कहा-हे पृथ्वीपते ! आपका कल्याण हो; अब मैं जा रहा हूँ और आप अपने कार्य सम्पन्न करें । नृपश्रेष्ठ ! अब मैं एक मासके अन्तमें आऊँगा, तब आप अपने पुत्रका जातकर्म, नामकरण आदि संस्कार करनेके पश्चात् ही भलीभाँति मेरा यज्ञ कीजियेगा ॥ ११-१२ ॥

इत्युक्त्वा श्लक्ष्णया वाचा राजानं यादसां पतिः ।
हरिश्चन्द्रो मुदं प्राप गते पाशिनि पार्थिवः ॥ १३ ॥
कोटिशः प्रददौ गास्ता घटोध्नीर्हेमपूरिताः ।
विप्रेभ्यो वेदविद्‌भ्यश्च तथैव तिलपर्वतान् ॥ १४ ॥
जलाधिपति वरुणदेव मधुर वाणीमें राजा हरिश्चन्द्रसे ऐसा कहकर जब चले गये तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए । वरुणदेवके चले जानेपर राजाने वेदज्ञ ब्राह्मणोंको घट-जैसे बड़े-बड़े थनवाली तथा स्वर्णाभूषणोंसे अलंकृत करोड़ों गायों और तिलके पर्वतोंका दान किया ॥ १३-१४ ॥

राजा पुत्रमुखं दृष्ट्वा सुखमाप महत्तरम् ।
नामास्य रोहितश्चेति चकार विधिपूर्वकम् ॥ १५ ॥
अपने पुत्रका मुख देखकर राजा हरिश्चन्द्र परम आनन्दित हुए और उन्होंने विधिपूर्वक उसका नाम 'रोहित' रखा ॥ १५ ॥

पूर्णे मासे ततः पाशी विप्रवेषेण भूपतेः ।
आजगाम गृहे सद्यो यजस्वेति ब्रुवन्मुहुः ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् एक मास बीतनेपर वरुणदेव ब्राह्मणका वेष धारणकर 'शीघ्र यज्ञ करो'-ऐसा बार-बार कहते हुए पुनः राजाके घर आये ॥ १६ ॥

वीक्ष्य तं नृपतिर्देवं निमग्नः शोकसागरे ।
प्रणिपत्य कृतातिथ्यं तमुवाच कृताञ्जलिः ॥ १७ ॥
दिष्ट्या देव त्वमायातो गृहं मे पावितं प्रभो ।
मखं करोमि वारीश विधिवद्वाञ्छितं तव ॥ १८ ॥
अदन्तो न पशुः श्लाघ्य इत्याहुर्वेदवादिनः ।
तस्माद्दन्तोद्‌भवे तेऽहं करिष्यामि महामखम् ॥ १९ ॥
वरुणदेवको देखकर राजा हरिश्चन्द्र शोकसागरमें डूब गये । उन्हें प्रणाम तथा उनका अतिथिसत्कार करके राजाने दोनों हाथ जोड़कर कहा-हे देव ! मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि आप मेरे यहाँ पधारे हुए हैं । हे प्रभो ! आपने आज मेरे भवनको पवित्र कर दिया है । हे वारीश ! मैं विधिपूर्वक आपका अभिलषित यज्ञ अवश्य करूँगा । वेदवेत्ताओंने कहा है कि दन्तविहीन पशु यज्ञके लिये श्रेष्ठ नहीं होता, अत: इस पुत्रके दाँत निकल आनेके बाद मैं आपका महायज्ञ करूँगा ॥ १७-१९ ॥

व्यास उवाच -
इत्युक्तस्तेन वरुणस्तथेत्युक्त्वा ययावथ ।
हरिश्चन्द्रो मुदं प्राप्य विजहार गृहाश्रमे ॥ २० ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! राजा हरिश्चन्द्रके ऐसा कहनेपर वरुणदेव 'वैसा ही हो'-यह कहकर वहाँसे लौट गये । इधर, राजा हरिश्चन्द्र आनन्दित होकर गृहस्थाश्रममें रहने लगे ॥ २० ॥

पुनर्दन्तोद्‌भवं ज्ञात्वा प्रचेता द्विजरूपवान् ।
आजगाम गृहे तस्य कुरु कार्यमिति ब्रुवन् ॥ २१ ॥
उसके बाद बालकको दाँत निकल आनेकी बात जानकर वरुणदेव ब्राह्मणका रूप धारणकर 'अब मेरा कार्य कर दो'-ऐसा बोलते हुए राजाके महलमें पुनः पहुँचे ॥ २१ ॥

भूपालोऽपि जलाधीशं वीक्ष्य प्राप्तं द्विजाकृतिम् ।
प्रणम्यासनसम्मानैः पूजयामास सादरम् ॥ २२ ॥
स्तुत्वा प्रोवाच वचनं विनयानतकन्धरः ।
करोमि विधिवत्कामं मखं प्रबलदक्षिणम् ॥ २३ ॥
बालोऽप्यकृतचौलोऽयं गर्भकेशो न सम्मतः ।
यज्ञार्थे पशुकरणे मया वृद्धमुखाच्छ्रुतम् ॥ २४ ॥
तावत्क्षमस्व वारीश विधिं जानासि शाश्वतम् ।
कर्तव्यः सर्वथा यज्ञो मुण्डनान्ते शिशोः किल ॥ २५ ॥
ब्राह्मणके वेषमें जलाधिनाथ वरुणको आया देखकर राजाने उन्हें प्रणाम किया और आसन, अर्घ्य, पाद्य आदिके द्वारा आदरपूर्वक उनकी पूजा की । तदनन्तर राजाने उनकी स्तुति करके विनम्रतापूर्वक सिर झुकाकर कहा-'मैं प्रचुर दान-दक्षिणाके साथ विधिपूर्वक आपका यज्ञ करूँगा; किंतु अभी तो इस बालकका चूडाकर्म-संस्कार भी नहीं हुआ है । मैंने वृद्धजनोंके मुखसे सुना है कि गर्भकालीन केशवाला बालक यज्ञके लिये पशु बनानेके योग्य नहीं माना गया है । हे जलेश्वर ! आप सनातन विधि तो जानते ही हैं, अत: चूडाकरणतककी अवधिके लिये मुझे क्षमा कीजिये । मैं इस बालकके मुण्डन-संस्कारके पश्चात् आपका यज्ञ अवश्य करूँगा । २२-२५ ॥

तस्येति वचनं श्रुत्वा प्रचेताः प्राह तं पुनः ।
प्रतारयसि मां राजन् पुनः पुनरिदं ब्रुवन् ॥ २६ ॥
तब राजाका यह वचन सुनकर वरुणदेवने उनसे कहा-हे राजन् ! आप बार-बार यही कहते हुए मुझे धोखा दे रहे हैं ॥ २६ ॥

अपि ते सर्वसामग्री वर्तते नृपतेऽधुना ।
पुत्रस्नेहनिबद्धस्त्वं वञ्चयस्येव साम्प्रतम् ॥ २७ ॥
हे राजन् ! इस समय आपके पास यज्ञकी सम्पूर्ण सामग्री तो विद्यमान है, किंतु पुत्रस्नेहमें बँधे होनेके कारण आप मुझे इस बार भी धोखा दे रहे हैं ॥ २७ ॥

क्षौरकर्मविधिं कृत्वा न कर्तासि मखं यदि ।
तदाहं दारुणं शापं दास्ये कोपसमन्वितः ॥ २८ ॥
अद्य गच्छामि राजेन्द्र वचनात्तव मानद ।
न मृषा वचनं कार्यं त्वयेक्ष्वाकुकुलोद्‌भव ॥ २९ ॥
अब इसका मुण्डन-संस्कार हो जानेके बाद भी यदि आप यज्ञ नहीं करेंगे, तो मैं कोपाविष्ट होकर आपको भीषण शाप दे दूंगा । हे राजेन्द्र ! हे मानद ! आज तो मैं आपकी बात मानकर चला जा रहा हूँ, किंतु हे इक्ष्वाकुवंशज ! आप अपनी बात असत्य मत कीजियेगा ॥ २८-२९ ॥

इत्याभाष्य ययावाशु प्रचेता नृपतेर्गृहात् ।
राजा परमसन्तुष्टो ननन्द भवने तदा ॥ ३० ॥
ऐसा कहकर वरुणदेव राजाके भवनसे तुरंत चले गये । तब राजा हरिश्चन्द्र भी अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने राजमहलमें आनन्द करने लगे ॥ ३० ॥

चूडाकरणकाले तु प्रवृत्ते परमोत्सवे ।
सम्प्राप्तस्तरसा पाशी भवनं नृपतेः पुनः ॥ ३१ ॥
यदाङ्के सुतमादाय राज्ञी नृपतिसन्निधौ ।
उपविष्टा क्रियाकाले तदैव वरुणोऽभ्यगात् ॥ ३२ ॥
कुरु कर्मेति विस्पष्टं वचनं कथयन्नृपम् ।
विप्ररूपधरः श्रीमान् प्रत्यक्ष इव पावकः ॥ ३३ ॥
इसके बाद जब चूडाकरणके समय महान् उत्सव मनाया जा रहा था, उसी समय वरुणदेव शीघ्रतापूर्वक राजाके महलमें पुन: आ पहुँचे । महारानी शैव्या पुत्रको अपनी गोदमें लेकर राजाके पासमें बैठी थीं और ज्यों ही मुण्डनका कार्य आरम्भ हुआ, उसी समय साक्षात् अग्निके समान तेजवाले विप्ररूपधारी श्रीमान् वरुणदेव 'यज्ञकर्म करो'-ऐसा स्पष्ट वचन बोलते हुए राजाके समीप पहुँच गये ॥ ३१-३३ ॥

नृपतिस्त्वं समालोक्य बभूवातीव विह्वलः ।
नमश्चकार तं भीत्या कृताञ्जलिपुटः पुरः ॥ ३४ ॥
उन्हें देखकर राजा हरिश्चन्द्र बहुत व्याकुल हो गये । राजाने डरते हुए उन्हें नमस्कार किया और वे दोनों हाथ जोड़कर उनके आगे खड़े हो गये ॥ ३४ ॥

विधिवत्पूजयित्वा तं राजोवाच विनीतवान् ।
स्वामिन् कार्यं करोम्यद्य मखस्य विधिपूर्वकम् ॥ ३५ ॥
वक्तव्यमस्ति तत्रापि शृणुष्वैकमना विभो ।
युक्तं चेन्मन्यसे स्वामिंस्तद्‌ ब्रवीमि तवाग्रतः ॥ ३६ ॥
तत्पश्चात् वरुणदेवकी विधिपूर्वक पूजा करके विनयशील राजा हरिश्चन्द्रने उनसे कहा-हे स्वामिन् ! मैं आज ही विधिपूर्वक आपका यज्ञकार्य करूंगा, किंतु हे विभो ! इस सम्बन्धमें मुझे आपसे कुछ कहना है, आप एकाग्रचित्त होकर उसे सुनें । हे स्वामिन् ! मैं आपके समक्ष उसे अब कह रहा हूँ, यदि आप उचित समझें तो स्वीकार कर लें ॥ ३५-३६ ॥

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः ।
संस्कृताश्चान्यथा शूद्रा एवं वेदविदो विदुः ॥ ३७ ॥
तस्मादयं सुतो मेऽद्य शुद्रवद्वर्तते शिशुः ।
उपनीतः क्रियार्हः स्यादिति वेदेषु निर्णयः ॥ ३८ ॥
राज्ञामेकादशे वर्षे सदोपनयनं स्मृतम् ।
अष्टमे ब्राह्मणानां च वैश्यानां द्वादशे किल ॥ ३९ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-ये तीनों वर्ण संस्कार-सम्पन्न हो जानेके बाद ही द्विजाति कहलाते हैं, अन्यथा ये शूद्र रहते हैं-ऐसा वेदवेत्ताओंने कहा है; इसलिये मेरा यह पुत्र अभी शूद्रके समान है । कोई बालक उपनयन-संस्कारसे संम्पन्न हो जानेके पश्चात् ही यज्ञ-क्रियाके योग्य होता है-ऐसा निर्णय वेदोंमें उल्लिखित है । क्षत्रियोंका उपनयन संस्कार ग्यारहवें वर्ष, ब्राह्मणोंका आठवें वर्ष और वैश्योंका बारहवें वर्षमें हो जाना बताया गया है ॥ ३७-३९ ॥

दयसे यदि देवेश दीनं मां सेवकं तव ।
तदोपनीय कर्तास्मि पशुना यज्ञमुत्तमम् ॥ ४० ॥
हे देवेश ! यदि आप मुझ दीन सेवकपर दया करें तो मैं इसका उपनयनसंस्कार करनेके पश्चात् इसे यज्ञ-पशु बनाकर आपका श्रेष्ठ यज्ञ करूँ ॥ ४० ॥

लोकपालोऽसि धर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
मन्यसे मद्वचः सत्यं तद्‌ गच्छ भवनं विभो ॥ ४१ ॥
सभी शास्त्रोंके विद्वान् तथा धर्मके ज्ञाता हे विभो ! आप लोकपाल हैं, यदि आप मेरी बात सत्य मानते हों, तो अपने भवनको लौट जाइये ॥ ४१ ॥

व्यास उवाच -
इति तस्य वचः श्रुत्वा दयावान् यादसां पतिः ।
ओमित्युक्त्वा ययावाशु प्रसन्नवदनो नृपः ॥ ४२ ॥
व्यासजी बोले-उनकी यह बात सुनकर दयालु वरुणदेव 'ठीक है'-ऐसा कहकर वहाँसे तुरंत चले गये और राजा प्रसन्न मुखमण्डलवाले हो गये ॥ ४२ ॥

गतेऽथ वरुणो राजा बभूवातिमुदान्वितः ।
सुखं प्राप्य सुतस्यैवं राजा मुदमवाप ह ॥ ४३ ॥
वरुणदेवके चले जानेपर राजा हरिश्चन्द्र परम आनन्दित हुए । इस प्रकार पुत्र-सुख प्राप्त करके राजाको अपार हर्ष प्राप्त हुआ ॥ ४३ ॥

चकार राजकार्याणि हरिश्चन्द्रस्तदा नृपः ।
कालेन व्रजता पुत्रो बभूव दशवार्षिकः ॥ ४४ ॥
तदनन्तर राजा हरिश्चन्द्र अपने राज-कार्यमें तत्पर हो गये । इस प्रकार समय बीतनेके साथ उनका पुत्र दस वर्षका हो गया । ॥ ४४ ॥

तस्योपवीतसामग्रीं विभूतिसदृशीं नृपः ।
चकार ब्राह्मणैः शिष्टैरन्वितः सचिवैस्तथा ॥ ४५ ॥
तब राजाने श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा सचिवोंकी सम्मतिके अनुसार अपने विभवके अनुरूप राजकुमारके उपनयनसंस्कारकी सामग्री एकत्र की ॥ ४५ ॥

एकादशे सुतास्याब्दे व्रतबन्धविधौ नृपः ।
विदधे विधिवत्कार्यं चित्ते चिन्तातुरः पुनः ॥ ४६ ॥
वर्तमाने तथा कार्ये उपनीते कुमारके ।
आजगामाथ वरुणो विप्रवेषधरस्तदा ॥ ४७ ॥
पुत्रका ग्यारहवाँ वर्ष लगते ही राजाने व्रतबन्धके विधानके अनुसार विधिवत् कार्य आरम्भ किया, किंतु उनके मनमें चिन्ताके कारण बड़ी उद्विग्नता थी । जब राजकुमारका यज्ञोपवीत हो गया तथा इससे सम्बन्धित अन्य कार्य हो रहे थे, उसी समय वरुणदेव ब्राह्मणका वेष धारण करके वहाँ आ पहुँचे ॥ ४६-४७ ॥

तं वीक्ष्य नृपतिस्तूर्णं प्रणम्य पुरतः स्थितः ।
कृताञ्जलिपुटः प्रीतः प्रत्युवाच सुरोत्तमम् ॥ ४८ ॥
देव दत्तोपवीतोऽयं पशुयोग्योऽस्ति मे सुतः ।
प्रसादात्तव मे शोको गतो वन्ध्यापवादजः ॥ ४९ ॥
उन्हें देखते ही राजा हरिश्चन्द्र तुरंत प्रणामकर उनके सामने खड़े हो गये और दोनों हाथ जोड़कर प्रसन्नतापूर्वक सुरश्रेष्ठ वरुणदेवसे बोले-हे देव ! अब यज्ञोपवीत हो जानेके बाद मेरा पुत्र यज्ञपशुके योग्य हो गया है और अब आपकी कृपासे मेरा निःसन्तान रहनेसे होनेवाली लोकनिन्दासे उत्पन्न शोक भी दूर हो चुका है ॥ ४८-४९ ॥

कर्तुमिच्छाम्यहं यज्ञं प्रभूतवरदक्षिणम् ।
समये शृणु धर्मज्ञ सत्यमद्य ब्रवीम्यहम् ॥ ५० ॥
समावर्तनकर्मान्ते करिष्यामि तवेप्सितम् ।
ममोपरि दयां कृत्वा तावत्त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ ५१ ॥
अब मैं चाहता हूँ कि प्रचुर दक्षिणावाला आपका श्रेष्ठ यज्ञ उपयुक्त अवसरपर कर डालूँ । हे धर्मज्ञ ! आज मैं आपसे सत्य बात कह रहा हूँ, उसे सुन लीजिये । इस बालकके समावर्तन-संस्कारके पश्चात् मैं आपका अभिलषित यज्ञ करूँगा, मेरे ऊपर दया करके आप तबतकके लिये मुझे क्षमा करें ॥ ५०-५१ ॥

वरुण उवाच -
प्रतारयसि मां राजन् पुत्रप्रेमाकुलो भृशम् ।
मुहुर्मुहुर्मतिं कृत्वा युक्तियुक्तां महामते ॥ ५२ ॥
गच्छाम्यद्य महाराज वचसा तव नोदितः ।
आगमिष्यामि समये समावर्तनकर्मणि ॥ ५३ ॥
वरुण बोले-हे राजन् ! हे महामते ! अत्यधिक पुत्र-प्रेममें बँधे होनेके कारण आप बार-बार कोई-न-कोई युक्तिसंगत बुद्धिका प्रयोग करके मुझे धोखा देते चले आ रहे हैं । हे महाराज ! आपकी बात मानकर आज तो मैं बिना कुछ कहे चला जा रहा हूँ, किंतु समावर्तन-कर्मके समय पुनः आऊँगा ॥ ५२-५३ ॥

इत्युक्त्वा प्रययौ पाशी तपापृच्छ्य विशांपते ।
राजा प्रमुदितः कार्यं चकार च यथोत्तरम् ॥ ५४ ॥
हे राजा जनमेजय ! राजा हरिश्चन्द्रसे यह कहकर तथा उनसे विदा लेकर वरुणदेव चले गये और राजा हर्षित होकर आगेका काम करने लगे ॥ ५४ ॥

आगतं वरुणं दृष्ट्वा कुमारोऽतिविचक्षणः ।
यज्ञस्य समयं ज्ञात्वा तदा चिन्तातुरोऽभवत् ॥ ५५ ॥
परम प्रतिभासम्पन्न राजकुमार (रोहित) बारबार वरुणदेवको आते देखकर और यज्ञ-सम्बन्धी प्रतिज्ञा जानकर चिन्तित हो उठे ॥ ५५ ॥

शोकस्य कारणं राज्ञः पर्यपृच्छदितस्ततः ।
ज्ञात्वात्मवधमायुष्मन् गमनाय मतिं दधौ ॥ ५६ ॥
निश्चयं परमं कृत्वा सम्मन्त्र्य सचिवात्मजैः ।
प्रययौ नगरात्तस्मान्निर्गत्य वनमप्यसौ ॥ ५७ ॥
उन्होंने राजाके शोकका कारण इधर-उधर लोगोंसे पूछा । हे आयुष्मान जनमेजय ! वरुणदेवके यज्ञमें होनेवाले अपने वधकी बात जानकर राजकुमारने भाग जानेका निश्चय किया । तदनन्तर मन्त्रिकुमारोंसे परामर्श करनेके बाद दृढ़ निश्चय करके उस नगरसे निकलकर वे वनकी ओर चल पड़े ॥ ५६-५७ ॥

गते पुत्रे नृपः कामं दुःखितोऽभूद्‌ भृशं तदा ।
प्रेरयामास दूतान्स्वांस्तस्यान्वेषणकाम्यया ॥ ५८ ॥
पुत्रके चले जानेपर राजा बहुत दु:खी हुए और उन्होंने राजकुमारको खोजनेके उद्देश्यसे अपने दूतोंको भेजा ॥ ५८ ॥

एवं गतेऽथ कालेऽसौ वरुणस्तद्‌गृहं गतः ।
राजानं शोकसन्तप्तं कुरु यज्ञमिति ब्रुवन् ॥ ५९ ॥
इस प्रकार कुछ समय बीतनेके पश्चात् वे वरुणदेव शोक-संतप्त राजासे 'मेरा यज्ञ करो'-ऐसा बोलते हुए उनके घर पहुँचे ॥ ५९ ॥

राजा प्रणम्य तं प्राह देवदेव करोमि किम् ।
न जाने क्वापि पुत्रो मे गतस्त्वद्य भयाकुलः ॥ ६० ॥
राजाने उन्हें प्रणाम करके कहा-हे देवदेव ! अब मैं क्या करूँ ? भयसे व्याकुल होकर मेरा पुत्र न जाने कहाँ चला गया है ? ॥ ६० ॥

सर्वत्र गिरिदुर्गेषु मुनीनामाश्रमेषु च ।
अन्वेषितो मे दूतैस्तु न प्राप्तो यादसांपते ॥ ६१ ॥
आज्ञापय महाराज किं करोमि गते सुते ।
न मे दोषोऽत्र सर्वज्ञ भाग्यदोषस्तु सर्वथा ॥ ६२ ॥
हे वरुणदेव ! मैंने अपने दूतोंसे पर्वतकी कन्दराओं तथा मुनियोंके आश्रमों में उसे सर्वत्र खोजवाया, किंतु वह कहीं नहीं मिला । हे महाराज ! पुत्रके चले जानेपर अब आप ही बताइये कि मैं क्या करूँ ? हे सर्वज्ञ ! इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, इसमें हर प्रकारसे भाग्यका ही दोष है । ६१-६२ ॥

व्यास उवाच -
इति भूपवचः श्रुत्वा प्रचेताः कुपितो भृशम् ।
शशाप च नृपं क्रोधाद्वञ्चितस्तु पुनः पुनः ॥ ६३ ॥
नृपतेऽहं त्वया यस्माद्वचसा च प्रवञ्चितः ।
तस्माज्जलोदरो व्याधिस्त्वां तुदत्वतिदारुणः ॥ ६४ ॥
व्यासजी बोले-हे जनमेजय ! राजाकी यह बात सुनकर वरुणदेव अत्यन्त कुपित हुए । राजाके द्वारा बार-बार धोखा दिये जानेके कारण उन्होंने क्रोधपूर्वक शाप दे दिया-'हे राजन् ! आपने तरह-तरहकी बातोंसे मुझे सदा धोखा दिया है, इसलिये अत्यन्त भयंकर जलोदर रोग आपको पीड़ित करे' ॥ ६३-६४ ॥

व्यास उवाच -
इति शप्तो महीपालः कुपितेन प्रचेतसा ।
पीडितोऽभूत्तदा राजा व्याधिना दुःखदेन तु ॥ ६५ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! तब वरुणदेवके कुपित होकर इस प्रकारका शाप देनेसे राजा हरिश्चन्द्र कष्टदायक जलोदर रोगसे ग्रस्त हो गये ॥ ६५ ॥

एवं शप्त्वा नृपं पाशी जगाम निजमास्पदम् ।
राजा प्राप्य महाव्याधिं बभूवातीव दुःखितः ॥ ६६ ॥
इस प्रकार राजाको शाप देकर पाश धारण करनेवाले वरुणदेव अपने लोकको चले गये और राजा हरिश्चन्द्र उस महाव्याधिसे ग्रस्त होकर महान् कष्टमें पड़ गये ॥ ६६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे हरिश्चन्द्रस्य
जलोदरव्याधिप्राप्तिवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
अध्याय पंद्रहवाँ समाप्त ॥ १५ ॥


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