Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
षोडशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


यज्ञपशुभूतस्य ब्राह्मणपुत्रस्य वधकरणाय विश्वामित्रनिषेधवर्णनम् -
राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना -


व्यास उवाच -
गतेऽथ वरुणे राजा रोगेणातीव पीडितः ।
दुःखाद्दुःखं परं प्राप्य व्यथितोऽभूद्‌ भृशं तदा ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन्!] वरुणदेवके चले जानेपर राजा हरिश्चन्द्र [जलोदर] रोगसे अत्यन्त पीड़ित हुए; एक-पर-एक महान् कष्ट पाकर वे अति व्याकुल हो उठे ॥ १ ॥

कुमारोऽसौ वने श्रुत्वा पितरं रोगपीडितम् ।
गमनाय मतिं राजंश्चकार स्नेहयन्त्रितः ॥ २ ॥
हे राजन् ! वनमें स्थित राजकुमार रोहितने अपने पिताके [जलोदर] रोगसे पीड़ित होनेकी बात सुनकर स्नेहमें बँधे होनेके कारण [अयोध्या लौट जानेका विचार किया ॥ २ ॥

संवत्सरे व्यतीते तु पितरं द्रष्टुमादरात् ।
गन्तुकामं तु तं ज्ञात्वा शक्रस्तत्राजगाम ह ॥ ३ ॥
वासवस्तु तदा रूपं कृत्वा विप्रस्य सत्वरः ।
वारयामास युक्त्या वै कुमारं गन्तुमुद्यतम् ॥ ४ ॥
एक वर्ष बीतनेपर जब रोहितने अपने पिताका आदरपूर्वक दर्शन करनेके लिये अयोध्या जानेकी इच्छा की तब यह जानकर इन्द्र उसके पास पहुँचे। शीघ्र ही ब्राह्मणका रूप धारण करके इन्द्रने अपने पिताके दर्शनार्थ जानेको उद्यत राजकुमारको युक्तिपूर्वक रोका ॥ ३-४ ॥

इन्द्र उवाच -
राजपुत्र न जानासि राजनीतिं सुदुर्लभाम् ।
अतः करोषि मूढस्त्वं गमनाय मतिं वृथा ॥ ५ ॥
इन्द्र बोले-हे राजपुत्र ! आप अत्यन्त दुष्कर राजनीतिक विषयमें नहीं जानते, इसीलिये मूर्खताको प्राप्त आपने अयोध्या जानेका व्यर्थ ही विचार किया है ॥ ५ ॥

पिता तव महाभाग ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ।
कारयिष्यति होमं ते ज्वलितेऽथ विभावसौ ॥ ६ ॥
हे महाभाग ! [आपके वहाँ जानेपर] आपके पिता वेदोंके पारगामी ब्राह्मणोंके द्वारा कराये गये यज्ञमें प्रज्वलित अग्निमें आपकी आहुति दे देंगे ॥ ६ ॥

आत्मा हि वल्लभस्तात सर्वेषां प्राणिनां खलु ।
तदर्थे वल्लभाः सन्ति पुत्रदारधनादयः ॥ ७ ॥
हे तात ! अपना प्राण सभी जीवोंको अवश्य ही अत्यन्त प्रिय होता है । उसीकी रक्षाके लिये पुत्र, स्त्री और धन आदि प्रिय लगते हैं ॥ ७ ॥

आत्मनो देहरक्षार्थं हत्वा त्वां वल्लभं सुतम् ।
हवनं कारयित्वासौ रोगमुक्तो भविष्यति ॥ ८ ॥
तस्मात्त्वया न गन्तव्यं राजपुत्र पितुर्गृहे ।
मृते पितरि गन्तव्यं राज्यार्थे सर्वथा पुनः ॥ ९ ॥
अपने शरीरकी रक्षाके निमित्त आप-जैसे प्रिय पुत्रका अग्निमें हवन करवाकर वे रोगसे मुक्त हो जायँगे । अतएव हे राजपुत्र ! इस समय आपको पिताके घर नहीं जाना चाहिये । पिताके मर जानेपर ही राज्य करनेके लिये आप वहाँ जाय ॥ ८-९ ॥

एवं निषेधितस्तत्र वासवेन नृपात्मजः ।
वनमध्ये स्थितः कामं पुनः संवत्सरं नृप ॥ १० ॥
[हे राजन् !] इस प्रकार इन्द्रके मना कर देनेपर राजकुमार रोहित उस वनमें एक वर्षतक रुके रह गये ॥ १० ॥

अत्यन्तं दुःखितं श्रुत्वा हरिश्चन्द्रं तदाऽऽत्मजः ।
गमनाय मतिं चक्रे मरणे कृतनिश्चयः ॥ ११ ॥
इसके बाद राजकुमारने जब सुना कि मेरे पिता अब बहुत दु:खी हैं, तब उसने मर जानेका निश्चय करके उनके पास जानेका दृढ़ विचार कर लिया ॥ ११ ॥

तुषाराड् द्विजरूपेण तत्रागत्य च रोहितम् ।
निवारयामास सुतं युक्तिवाक्यैः पुनः पुनः ॥ १२ ॥
तब इन्द्रने पुन: ब्राह्मणका रूप धारण करके वहाँ आकर राजकुमारको अपनी तर्कसंगत बातोंसे बारबार समझाकर उसे अयोध्या जानेसे रोक दिया ॥ १२ ॥

हरिश्चन्द्रोऽतिदुःखार्तो वसिष्ठं स्वपुरोहितम् ।
पप्रच्छ रोगनाशाय तत्रोपायं सुनिश्चितम् ॥ १३ ॥
इधर, कष्टसे अत्यधिक पीड़ित राजा हरिश्चन्द्रने अपने पुरोहित वसिष्ठजीसे इस रोगके नाशका निश्चित उपाय पूछा ॥ १३ ॥

तमाह ब्रह्मणः पुत्रो यज्ञं कुरु नृपोत्तम ।
क्रयक्रीतेन पुत्रेण शापमोक्षो भविष्यति ॥ १४ ॥
इसपर ब्रह्मापुत्र वसिष्ठजीने कहा-हे नृपश्रेष्ठ ! अब आप धनके द्वारा खरीदे गये पुत्रसे यज्ञ कीजिये इससे आप शापसे मुक्त हो जायेंगे ॥ १४ ॥

पुत्रा दशविधां प्रोक्ता ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ।
द्रव्येणानीय तस्मात्त्वं पुत्रं कुरु नृपोत्तम ॥ १५ ॥
वरुणोऽपि प्रसन्नः सन्सुखकारी भविष्यति ।
लोभात्कोऽपि द्विजः पुत्रं प्रदास्यति स्वराष्ट्रजः ॥ १६ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! वेदके पारगामी ब्राह्मणोंने दस प्रकारके पुत्र बतलाये हैं । अत: आप अपने द्रव्यसे क्रीत एक बालकको ले आकर उसे अपना पुत्र बना लीजिये । इससे वरुणदेव भी प्रसन्न होकर आपके लिये सुखकारी हो जायेंगे । आपके राज्यका कोई-न-कोई द्विज धनके लोभसे अपना पुत्र बेच भी देगा ॥ १५-१६ ॥

एवं प्रमोदितो राजा वसिष्ठेन महामना ।
प्रधानं प्रेरयामास तदन्वेषणकाम्यया ॥ १७ ॥
महात्मा वसिष्ठजीकी बातसे परम प्रसन्नताको प्राप्त राजा हरिश्चन्द्रने वैसा बालक ढूँढ़नेके उद्देश्यसे अपने प्रधान अमात्यको भेज दिया ॥ १७ ॥

अजीगर्तो द्विजः कश्चिद्विषये तस्य भूपतेः ।
तस्यासंश्च त्रयः पुत्रा निर्धनस्य विशेषतः ॥ १८ ॥
प्रधानेनाप्यसौ पृष्टः पुत्रार्थं दुर्बलो द्विजः ।
गवां शतं ददामीति देहि पुत्रं मखाय वै ॥ १९ ॥
शुनःपुच्छः शुनःशेपः शुनोलांगूल इत्यमी ।
तेषामेकतमं देहि ददामि तु गवां शतम् ॥ २० ॥
अजीगर्तस्तु तच्छ्रुत्वा क्षुधया पीडितो भृशम् ।
पुत्रं च कतमं तेभ्यो विक्रेतुं वै मनो दधे ॥ २१ ॥
राजा हरिश्चन्द्रके राज्यमें अजीगर्त नामक कोई ब्राह्मण रहता था । अति निर्धन उस ब्राह्मणके तीन पुत्र थे । पुत्र खरीदनेके लिये गये हुए प्रधान सचिवने उस दुर्बल ब्राह्मणसे कहा-मैं आपको एक सौ गायें दूंगा; आप अपना पुत्र यज्ञके लिये मुझे दे दीजिये । 'शुन:पुच्छ', 'शुन:शेप' तथा 'शुनोलांगूल' नामक जो आपके तीन पुत्र हैं, उनमेंसे कोई एक मुझे दे दीजिये और उसके बदले मैं आपको एक सौ गायें दे दूंगा । यह सुनकर भूखसे अत्यधिक व्याकुल अजीगर्तने उनमेंसे किसी एक पुत्रको बेच डालनेका मनमें निश्चय कर लिया ॥ १८-२१ ॥

कार्याधिकारिणं ज्येष्ठं मत्वा नासावदादमुम् ।
कनिष्ठं नाप्यदान्माता ममैष इति वादिनी ॥ २२ ॥
मध्यमं च शुनःशेपं ददौ गवां शतेन च ।
आनिनाय पशुं चक्रे नरमेधे नराधिपः ॥ २३ ॥
ज्येष्ठ पुत्र पिण्डदान आदि कर्मोका अधिकारी होता है-ऐसा सोचकर अजीगर्तने उसे नहीं दिया । कनिष्ठ पुत्रको ममताके कारण माताने यह कहकर नहीं दिया कि यह मेरा है । अतः अजीगर्तने एक सौ गायें लेकर अपने मँझले पुत्र शुन:शेपको बेच दिया । तब मन्त्री उसे राजाके पास ले गये और राजाने उसे यज्ञमें बलिपशु बनाया ॥ २२-२३ ॥

रुदन्तं दुःखितं दीनं वेपमानं भृशातुरम् ।
यूपे बद्धं निरीक्ष्यामुं चुक्रुशुर्मुनयस्तदा ॥ २४ ॥
यज्ञीय स्तम्भमें वधके निमित्त बाँधे गये उस बालकको रोते हुए, दुःखित, दीन, भयके मारे थरथर काँपते हुए तथा अत्यधिक व्याकुल देखकर उस समय ऋषिगण भी चिल्ला उठे ॥ २४ ॥

शामित्राय पशुं चक्रे नरमेधे नराधिपः ।
शमिता नाददे शस्त्रं तमालम्भयितुं शिशुम् ॥ २५ ॥
नाहं द्विजसुतं दीनं रुदन्तं करुणं भृशम् ।
हनिष्यामि स्वलोभार्थमित्युवाचाप्यसौ तदा ॥ २६ ॥
इत्युक्त्वा विररामासौ कर्मणो दुष्करादथ ।
राजा आभासदः प्राह किं कर्तव्यमिति द्विजाः ॥ २७ ॥
तभी राजा हरिश्चन्द्रने नरमेध-यजमें वध करनेके लिये उस बालकको पशुरूपसे शामित्र (वधकर्ता)को सौंप दिया, किंतु उसने आलम्भनके लिये उसपर शस्त्र नहीं चलाया । उस समय उसने यह भी कहा'मैं दुःखित तथा करुण स्वरसे बहुत विलाप करते हुए इस ब्राह्मणपुत्रको धनके लोभमें आकर नहीं मारूंगा' । ऐसा कहकर वह उस घृणित कर्मसे विरत हो गया । तब राजा हरिश्चन्द्रने सभासदोंसे पूछा-'हे विप्रगण ! अब क्या किया जाय ? ॥ २५-२७ ॥

जातः किलकिलाशब्दो जनानां क्रोशतां तदा ।
क्रन्दमाने शुनःशेपे सभायां भृशमद्‌भुतम् ॥ २८ ॥
उसी समय शुन:शेपके बड़े विचित्र ढंगसे करुणक्रन्दन करनेपर सभामें चीखती-चिल्लाती जनताके बीच हाहाकार मच गया ॥ २८ ॥

अजीगर्तस्तदोत्थाय तमुवाच नृपोत्तमम् ।
राजन् कार्यं करिष्यामि तवाहं सुस्थिरो भव ॥ २९ ॥
वेतनं द्विगुणं देहि हनिष्यामि पशुं किल ।
कर्तव्यं मखकार्यं वै मया तेऽद्य धनार्थिना ॥ ३० ॥
दुःखितस्य धनार्थस्य सदासूया प्रसूयते ।
तभी अजीगर्त उठकर उन नृपश्रेष्ठसे बोलाहे राजन् ! आप निश्चिन्त रहें, मैं स्वयं आपका यह कार्य करूँगा । उस (वधकर्ता)-को दिये जानेवाले धनसे दूना धन मुझे दीजिये, तो मैं इस बलिपशुका वध अवश्य कर दूंगा । धन-लोलुप होनेके कारण मैं आज आपका यज्ञकार्य निश्चित-रूपसे पूर्ण कर दूंगा; जो दुःखी है अथवा धनका लोभी है, उसके गुणोंमें भी दोष आ जाते हैं ॥ २९-३०.५ ॥

व्यास उवाच -
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य हरिश्चन्द्रो मुदान्वितः ॥ ३१ ॥
तमुवाच ददाम्यद्य गवां शतमनुत्तमम् ।
व्यासजी बोले-हे राजन् ! अजीगर्तकी यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और उससे बोले कि मैं अभी एक सौ श्रेष्ठ गायें आपको दूंगा ॥ ३१.५ ॥

तदाकर्ण्य पिता तस्य पुत्रं हन्तुं समुद्यतः ॥ ३२ ॥
लोभेनाकुलचित्तोऽसौ शामित्रे कृतनिश्चयः ।
उनकी यह बात सुनकर अजीगत अपने पुत्र शुनःशेपका वध करने हेतु तैयार हो गया । लोभके कारण उद्विग्न चित्तवाले अजीगर्तने शामिता बननेका पूर्ण निश्चय कर लिया ॥ ३२.५ ॥

समुद्यतं च तं दृष्ट्वा जनाः सर्वे सभासदः ॥ ३३ ॥
चुक्रुशुर्भृशदुःखार्ता हाहेति जगदुर्वचः ।
पिशाचोऽयं महापापी क्रूरकर्मा द्विजाकृतिः ॥ ३४ ॥
यत्स्वयं स्वसुतं हन्तुमुद्यतः कुलपांसनः ।
धिक्चाण्डाल किमेतत्ते पापकर्म चिकीर्षितम् ॥ ३५ ॥
हत्वा सुतं धनं प्राप्य किं सुखं ते भविष्यति ।
आत्मा वै जायते पुत्र अङ्गाद्वै वेदभाषितम् ॥ ३६ ॥
तत्कथं पापबुद्धे त्वमात्मानं हन्तुमिच्छसि ।
एवं कोलाहले तत्र जाते कुशिकनन्दनः ॥ ३७ ॥
समीपं नृपतेर्गत्वा तमुवाच दयापरः ।
उसे हथियार उठाकर अपने पुत्रको मारनेहेतु उद्यत देखकर वहाँ उपस्थित सभासद्‌गण तथा सारी जनता दुःखसे विकल होकर चीखने-चिल्लाने लगी तथा हाय-हाय करते हुए कहने लगी कि ब्राह्मणके रूपमें यह पिशाच, महापापी तथा क्रूर कर्म करनेवाला है; यह अपने कुलको कलंकित करता हुआ स्वयं अपने ही पुत्रका वध करनेके लिये उद्यत है । हे चाण्डाल ! तुम्हें धिक्कार है, तुमने यह पापकर्म करनेकी इच्छा क्यों की ? पुत्रका वध करनेके बाद धन प्राप्त करके तुम कौन-सा सुख पा जाओगे ? वेदोंमें कहा गया है कि पुत्ररूपमें अपनी आत्मा ही शरीरसे जन्म लेती है, इसलिये हे पापबुद्धि ! तुम अपनी ही आत्माका वध किसलिये करना चाहते हो ? । यज्ञस्थलमें इस प्रकारका कोलाहल होनेपर विश्वामित्रजी दयाई हो गये और वे राजा हरिश्चन्द्रके पास जाकर उनसे कहने लगे ॥ ३३-३७.५ ॥

विश्वामित्र उवाच -
राजन्नमुं शुनःशेपं रुदन्तं भृशदुःखितम् ॥ ३८ ॥
क्रतुस्ते भविता पूर्णो रोगनाशश्च सर्वथा ।
विश्वामित्र बोले-हे राजन् ! अत्यधिक दुःखित होकर करुण क्रन्दन करते हुए इस शुन:शेपको आप पाशमुक्त कर दीजिये । ऐसा करनेसे एक तो यज्ञ पूरा होगा और आपका रोग भी दूर हो जायगा ॥ ३८.५ ॥

दयासमं नास्ति पुण्यं पापं हिंसासमं नहि ॥ ३९ ॥
रागिणां रोचनार्थाय नोदनेयं विचारय ।
दयाके समान कोई पुण्य नहीं है और हिंसाके समान कोई पाप नहीं है । यज्ञोंमें हिंसा करनेका जो विधिवाद बना, उसका उद्देश्य जिहालोलुपोंके जिलास्वादकी पूर्तिके माध्यमसे उनमें यज्ञ करनेकी प्रवृत्ति बढ़ाना है, किंतु यथासम्भव हिंसासे विरत रहना ही शास्त्रका आशय है* ॥ ३९.५ ॥

आत्मदेहस्य रक्षार्थं परदेहनिकृन्तनम् ॥ ४० ॥
न कर्तव्यं महाराज सर्वतः शुभमिच्छता ।
हे महाराज ! सब प्रकारसे अपना कल्याण चाहनेवाले व्यक्तिको अपने शरीरकी रक्षाके लिये दूसरेके शरीरको विनष्ट नहीं करना चाहिये ॥ ४०.५ ॥

दयया सर्वभूतेषु सन्तुष्टो येन केन च ॥ ४१ ॥
सर्वेन्द्रियोपशान्त्या च तुष्यत्याशु जगत्पतिः ।
जो सभी प्राणियोंके प्रति दयाभाव रखता है, जो कुछ भी प्राप्त हो जाय; उसीसे सन्तोष करता और अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखता है, उसके ऊपर जगत्पति भगवान् श्रीविष्णु शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४१.५ ॥

आत्मवत्सर्वभूतेषु चिन्तनीयं नृपोत्तम ॥ ४२ ॥
जीवितव्यं प्रियं नूनं सर्वेषां सर्वदा किल ।
त्वमिच्छसि सुखं कर्तुं देहे हत्वा त्वमुं द्विजम् ॥ ४३ ॥
कथं नेच्छेदसौ देहं रक्षितुं स्वसुखास्पदम् ।
हे नृपश्रेष्ठ ! सभी प्राणियोंमें आत्मभावका चिन्तन करना चाहिये । जिस प्रकार अपनेको देह प्रिय होती है, उसी प्रकार सभी जीवोंको अपना शरीर प्रिय होता है । आप इस शुनःशेप द्विजका वध करके शरीरको रोगमुक्त करके सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो यह बालक सुखके आश्रयस्वरूप अपने देहको क्यों नहीं बचाना चाहेगा ॥ ४२-४३.५ ॥

पूर्वजन्मकृतं वैरं नानेन सह ते नृप ॥ ४४ ॥
येनामुं हन्तुकामस्त्वं द्विजपुत्रं निरागसम् ।
यो यं हन्ति विना वैरं स्वकामः सततं पुनः ॥ ४५ ॥
हन्तारं हन्ति तं प्राप्य जननं जननान्तरे ।
हे नृप ! इसके साथ आपका पूर्वजन्मका कोई वैर नहीं है, जो कि आप इस निरपराध द्विजपुत्रका वध करनेके इच्छुक हैं । जो व्यक्ति सदा अपनी कामनाकी पूर्तिके लिये बिना वैरभावके ही किसी प्राणीका वध करता है, दूसरी योनिमें जन्म लेकर वही जीव अपने संहर्ताका वध करता है ॥ ४४-४५.५ ॥

जनकोऽस्य सुदुष्टात्मा येनासौ ते समर्पितः ॥ ४६ ॥
स्वात्मजो धनलोभेन पापाचारः सुदुर्मतिः ।
इस बालकका पिता अत्यन्त दुष्टात्मा, दुर्बुद्धि तथा पापाचारी है, जिसने धनके लोभमें अपने ही पुत्रको आपके हाथों बेच डाला ॥ ४६.५ ॥

एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत् ॥ ४७ ॥
यजेत चाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ।
लोगोंको यह इच्छा रखनी चाहिये कि मेरे बहुतसे पुत्र हों, जिससे उनमेंसे कोई एक भी पुत्र गयातीर्थ जाय, अश्वमेधयज्ञ करे अथवा नील वृषभ छोड़े ॥ ४७.५ ॥

देशमध्ये च यः कश्चित्पापकर्म समाचरेत् ॥ ४८ ॥
षष्ठांशस्तस्य पापस्य राजा भुङ्क्ते न संशयः ।
निषेधनीयो राज्ञासौ पापं कर्तुं समुद्यतः ॥ ४९ ॥
न निषिद्धस्त्वया कस्मात्पुत्रं विक्रेतुमुद्यतः ।
[हे राजन् !] राज्यमें जो कोई भी व्यक्ति पापकर्म करता है तो उसके पापका छठाँ अंश राजाको भोगना पड़ता है । इसमें कोई सन्देह नहीं है । अतः राजाको चाहिये कि पापकर्म करनेके लिये उद्यत उस व्यक्तिको मना करे, तो फिर आपने पुत्रको बेचनेके लिये तत्पर उस अजीगर्तको क्यों नहीं रोका ? ॥ ४८-४९.५ ॥

सूर्यवंशे समुत्पन्नस्त्रिशङ्कुतनयः शुभः ॥ ५० ॥
आर्यस्त्वनार्यवत्कर्म कर्तुमिच्छसि पार्थिव ।
हे राजन् ! आप सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए हैं और महाराज त्रिशंकुके कल्याणकारी पुत्र हैं । आप आर्य होकर भी अनार्यों-जैसा कर्म करना चाहते हैं ? ॥ ५०.५ ॥

मोचनान्मुनिपुत्रस्य करणाद्वचनस्य मे ॥ ५१ ॥
तव देहे सुखं राजन् भविष्यत्यविचारणात् ।
हे राजन् ! मेरी बात मानकर मुनिपुत्र शुन:शेपको बन्धनमुक्त कर देनेसे आपका देह अवश्य ही रोगमुक्त हो जायगा ॥ ५१.५ ॥

पिता ते शापयोगेन चाण्डालत्वमुपागतः ॥ ५२ ॥
मयासौ तेन देहेन स्वर्लोकं प्रापितः किल ।
तेनैव प्रीतियोगेन कुरु मे वचनं नृप ॥ ५३ ॥
मुञ्चैनं बालकं दीनं रुदन्तं भृशमातुरम् ।
महर्षि वसिष्ठके शापके कारण आपके पिता चाण्डाल हो गये थे, तब मैंने उसी देहसे उन्हें स्वर्गलोक पहुंचा दिया था । हे राजन् ! उसी उपकारको समझकर आप मेरी बात मान लीजिये और अत्यधिक विलाप करते हुए इस दीन तथा भयाकुल बालकको मुक्त कर दीजिये ॥ ५२-५३.५ ॥

याचितोऽसि मया नूनं यज्ञेऽस्मिन् राजसूयके ॥ ५४ ॥
प्रार्थनाभङ्गजं दोषं कथं त्वं नावबुध्यसे ।
प्रार्थितं सर्वदा देयं मखेऽस्मिन्नृपसत्तम ॥ ५५ ॥
अन्यथा पापमेव स्यात्तव राजन्न संशयः ।
हे राजन् ! आपके इस राजसूययज्ञमें मैं आपसे मात्र इसकी प्राण-रक्षाकी याचना कर रहा हूँ । क्या आप प्रार्थनाभंगसे होनेवाले दोषके विषयमें नहीं जानते ? हे नृपश्रेष्ठ ! इस राजसूययज्ञमें प्रार्थीको उसकी कामनाके अनुकूल वस्तु दी जानी चाहिये । यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपको पाप ही लगेगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५४-५५.५ ॥

व्यास उवाच -
इति तस्य वचः श्रुत्वा कौशिकस्य नृपोतमः ॥ ५६ ॥
प्रत्युवाच महाराज कौशिकं मुनिसत्तमम् ।
जलोदरेण गाधेय दुःखितोऽहं भृशं मुने ॥ ५७ ॥
तस्मान्न मोचयाम्येनमन्यत्प्रार्थय कौशिक ।
न त्वया विग्रहः कार्यः कार्येऽस्मिन्मम सर्वथा ॥ ५८ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजा जनमेजय !] विश्वामित्रकी यह बात सुनकर राजाओंमें श्रेष्ठ हरिश्चन्द्रने मुनिवर विश्वामित्रसे कहा-गाधिपुत्र ! मुने ! मैं जलोदर रोगसे बहुत पीड़ित हूँ, इसलिये इस बालकको नहीं छोड़ सकता । हे कौशिक ! इसके अतिरिक्त आप दूसरी वस्तु माँग लीजिये और मेरे इस कार्यमें किसी तरहकी बाधा मत उत्पन्न कीजिये ॥ ५६-५८ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं राज्ञो विश्वामित्रोऽतिकोपनः ।
बभूव दुःखसन्तप्तो वीक्ष्य दीनं द्विजात्मजम् ॥ ५९ ॥
राजा हरिश्चन्द्रकी यह बात सुनकर तथा दुःखित ब्राह्मण-पुत्र शुनःशेपको देखकर मुनि विश्वामित्र अत्यधिक कुपित हो उठे ॥ ५९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे यज्ञपशुभूतस्य ब्राह्मणपुत्रस्य वधकरणाय
विश्वामित्रनिषेधवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
अध्याय सोलहवाँ समाप्त ॥ १६ ॥


GO TOP