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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
सप्तदशोऽध्यायः

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वसिष्ठविश्वामित्रपणवर्णनम् -
विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना -


व्यास उवाच -
रुदन्तं बालकं वीक्ष्य विश्वामित्रो दयातुरः ।
शुनःशेपमुवाचेदं गत्वा पार्श्वेऽतिदुःखितम् ॥ १ ॥
मन्त्रं प्रचेतसः पुत्र मयोक्तं मनसा स्मरन् ।
जपतस्तव कल्याणं भविष्यति ममाज्ञया ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-राजन् ! अत्यन्त दुःखित तथा करुण-क्रन्दन करते हुए बालक शुनःशेपको देखकर महर्षि विश्वामित्रको बड़ी दया आयी और वे उसके पास जाकर यह बोले-'हे पुत्र ! मैं तुम्हें वरुणदेवका मन्त्र बतला रहा हूँ । तुम मनमें उनका स्मरण करते हुए इस मन्त्रका जप करो । मेरी आज्ञासे इसका जप करनेसे तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा' ॥ १-२ ॥

विश्वामित्रवचः श्रुत्वा शुनःशेपः शुचाऽऽकुलः ।
मन्त्रं जजाप मनसा कौशिकोक्तं स्फुटाक्षरम् ॥ ३ ॥
दुःखसे अत्यन्त व्यग्र शुनःशेप मुनि विश्वामित्रकी बात सुनकर उनके द्वारा बताये गये स्पष्ट अक्षरोंवाले उस मन्त्रका मन-ही-मन जप करने लगा ॥ ३ ॥

जपतस्तत्र तस्याशु प्रचेतास्तु कृपाकरः ।
प्रादुर्बभूव सहसा प्रसन्नो नृप बालके ॥ ४ ॥
हे राजन् ! शुन:शेपके जप करते ही कृपानिधान वरुणदेव उस बालकपर प्रसन्न होकर शीघ्र ही प्रकट हो गये ॥ ४ ॥

दृष्ट्वा तमागतं सर्वे विस्मयं परमं गताः ।
तुष्टुवुर्वरुणं देवं मुदिता दर्शनेन ते ॥ ५ ॥
इस प्रकार वहाँ प्रकट हुए वरुणदेवको देखकर सभी लोग अत्यन्त आश्चर्यमें पड़ गये । उनके दर्शनसे आनन्दित होकर वे सब उनकी स्तुति करने लगे ॥ ५ ॥

राजातिविस्मितः पादौ प्रणनाम रुजातुरः ।
बद्धाञ्जलिपुटो देवं तुष्टाव पुरतः स्थितम् ॥ ६ ॥
जलोदर रोगसे पीड़ित राजा हरिश्चन्द्र अतीव विस्मित होकर उनके चरणोंमें प्रणाम करने लगे और दोनों हाथ जोड़कर वे अपने सम्मुख स्थित वरुणदेवकी स्तुति करने लगे ॥ ६ ॥

हरिश्चन्द्र उवाच -
देवदेव कृपासिन्धो पापात्माहं सुमन्दधीः ।
कृतापराधः कृपणः पावितः परमेष्ठिना ॥ ७ ॥
हरिश्चन्द्र बोले-हे देवदेव ! हे कृपासागर ! आप परमेश्वरने यहाँ आकर मुझ पापात्मा, अत्यन्त मन्दबुद्धि, अपराधी तथा भाग्यहीनको आज पवित्र कर दिया है ॥ ७ ॥

मया ते पुत्रकामेन दुःखसंस्थेन हेलनम् ।
कृतं क्षमाप्यं प्रभुणा कोऽपराधः सुदुर्मतेः ॥ ८ ॥
मैं पुत्रके अभावमें दुःखित था और आपकी कृपासे पुत्र होनेपर आपकी अवहेलना की । अतः आप प्रभु मेरे द्वारा किये गये अपराधको क्षमा कर दें; क्योंकि भ्रष्ट बुद्धिवालेका दोष ही क्या ? ॥ ८ ॥

अर्थी दोषं न जानाति तस्मात्पुत्रार्थिना मया ।
वञ्चितस्त्वं देवदेव भीतेन नरकाद्विभो ॥ ९ ॥
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।
भीतोऽहं तेन वाक्येन तस्मात्ते हेलनं कृतम् ॥ १० ॥
हे देवदेव ! स्वार्थपरायण व्यक्तिको अपने दोषका ज्ञान नहीं रहता । इसीलिये पुत्र पानेका स्वार्थी मैं अपना दोष नहीं देख सका और हे विभो ! नरकमें पड़नेके भयसे आपको धोखा देता रहा । पुत्रहीन व्यक्तिकी गति नहीं होती और उसे स्वर्ग नहीं मिलता-इस शास्त्रवचनसे मैं डर गया था, इसीलिये मैंने आपकी अवहेलना की ॥ ९-१० ॥

नाज्ञस्य दूषणं चिन्त्यं नूनं ज्ञानवता विभो ।
दुःखितोऽहं रुजाक्रान्तो वञ्चितः स्वसुतेन ह ॥ ११ ॥
हे विभो ! आप ज्ञानसम्पन्न हैं, अतः मुझ अज्ञानीके अपराधपर ध्यान न दें । इस समय मैं बहुत दुःखित तथा भयंकर रोगसे ग्रस्त हूँ और अपने पुत्रसे वंचित हो गया हूँ ॥ ११ ॥

न जानेऽहं महाराज पुत्रो मे क्व गतः प्रभो ।
वञ्चयित्वा वने भीतो मरणान्मां कृपानिधे ॥ १२ ॥
प्रययौ द्रविणं दत्वा गृहीतो द्विजबालकः ।
यज्ञोऽयं क्रीतपुत्रेण प्रारब्धस्तव तुष्टये ॥ १३ ॥
दर्शनं तव सम्प्राप्य गतं दुःखं ममाद्‌भुतम् ।
जलोदरकृतं सर्वं प्रसन्ने त्वयि साम्प्रतम् ॥ १४ ॥
हे महाराज ! हे प्रभो ! मुझे ज्ञात नहीं कि मेरा पुत्र कहाँ चला गया है । हे कृपानिधे ! ऐसा प्रतीत होता है कि मारे जानेके डरसे वह मुझे धोखा देकर वनमें चला गया है । तब मैंने धन देकर इस ब्राह्मणबालकको खरीदा और फिर आपको सन्तुष्ट करनेके लिये इस क्रीतपुत्रसे यह यज्ञ आरम्भ कर दिया । अब आपका दर्शन प्राप्त हो जानेसे मेरा महान् दु:ख दूर हो गया और आपके प्रसन्न हो जानेपर [भयंकर] जलोदर रोगसे होनेवाला सारा कष्ट भी समाप्त हो जायगा ॥ १२-१४ ॥

व्यास उवाच -
इति तस्य वचः श्रुत्वा राज्ञो रोगातुरस्य च ।
दयावान्देवदेवेशः प्रत्युवाच नृपोत्तमम् ॥ १५ ॥
व्यासजी बोले-रोगग्रस्त राजा हरिश्चन्द्रकी यह बात सुनकर देवदेवेश्वर दयालु वरुण नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्रसे कहने लगे- ॥ १५ ॥

वरुण उवाच -
मुञ्च राजञ्छुनःशेपं स्तुवन्तं मां भृशातुरम् ।
यज्ञोऽयं परिपूर्णस्ते रोगमुक्तो भवात्मना ॥ १६ ॥
वरुण बोले-हे राजन् ! अत्यन्त दुःखी होकर मेरी स्तुति करते हुए इस शुनःशेपको आप मुक्त कर दें । अब आपका यह यज्ञ भलीभाँति पूरा हो जायगा और आप रोगसे भी मुक्त हो जायेंगे ॥ १६ ॥

इत्युक्त्वा वरुणस्तूर्णं राजानं विरुजं तथा ।
चकार पश्यतां तत्र सदस्यानां सुसंस्थितम् ॥ १७ ॥
यह कहकर वरुणदेवने वहाँ यज्ञमण्डपमें स्थित राजा हरिश्चन्द्रको सभी सभासदोंके समक्ष ही रोगरहित कर दिया ॥ १७ ॥

विमुक्तोऽसौ द्विजः पाशाद्वरुणेन महात्मना ।
जयशब्दस्ततस्तत्र सञ्जातो मखमण्डपे ॥ १८ ॥
महात्मा वरुणदेवके द्वारा उस ब्राह्मणपुत्रके बन्धनमुक्त करा देनेपर वहाँ यज्ञमण्डपमें जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी ॥ १८ ॥

राजा प्रमुदितः सद्यो रोगान्मुक्तः सुदारुणात् ।
यूपान्मुक्तः शुनःशेपो बभूवातीव संस्थितः ॥ १९ ॥
अत्यन्त भीषण रोगसे तत्काल मुक्त हो जानेपर राजा हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और शुन:शेप भी यज्ञस्तम्भसे मुक्त होकर अत्यन्त स्वस्थचित्त हो गया ॥ १९ ॥

राजा त्विमं मखं पूर्णं चकार विनयान्वितः ।
शुनःशेपस्तदा सभ्यानित्युवाच कृताञ्जलिः ॥ २० ॥
भो भोः सभ्या सुधर्मज्ञाः ब्रुवन्तु धर्मनिर्णयम् ।
वेदशास्त्रानुसारेण यथार्थवादिनः किल ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् राजा हरिश्चन्द्रने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक इस यज्ञको सम्पन्न किया । इसके बाद शुनःशेपने हाथ जोड़कर सभासदोंसे कहा-हे सभासद्‌गण ! आपलोग धर्मशास्त्रके पूर्ण ज्ञाता तथा यथार्थवादी हैं; अतः आपलोग वेदशास्त्रानुसार धर्मका निर्णय कीजिये ॥ २०-२१ ॥

पुत्रोऽहं कस्य सर्वज्ञाः पिता के कोऽग्रतः परम् ।
भवतां वचनात्तस्य शरणं प्रव्रजाम्यहम् ॥ २२ ॥
हे सर्वज्ञ [ऋषिगण] ! अब मैं किसका पुत्र हुआ और आगे मेरा पिता कौन होगा ? आपलोगोंके वचनानुसार ही मैं उसीकी शरणमें जाऊँगा । शुनःशेपके द्वारा यह वचन कहे जानेपर सभी सभासद् आपसमें परामर्श करने लगे ॥ २२ ॥

इत्युक्ते वचने तत्र सभ्याः प्रोचुः परस्परम् ।
सभ्या ऊचूः -
अजीगर्तस्य पुत्रोऽयं कस्यान्यस्य भवेदसौ ॥ २३ ॥
अङ्गादङ्गात्समुद्‌भूतः पालितस्तेन भक्तितः ।
अन्यस्य कस्य पुत्रोऽसौ प्रभवेदिति निश्चयः ॥ २४ ॥
सभासद् बोले-यह तो अजीगर्तका पुत्र है, तब यह अन्य किसका पुत्र हो सकता है ? यह उसीके अंगसे उत्पन्न हुआ है तथा उसीने स्नेहपूर्वक इसका लालन-पालन किया है तो फिर यह अन्य किस व्यक्तिका पुत्र हो सकता है, हमलोगोंका यही निर्णय है ॥ २३-२४ ॥

तच्छ्रुत्वा वामदेवस्तु तानुवाच सभासदः ।
विक्रीतस्तेन तातेन द्रव्यलोभात्सुतः किल ॥ २५ ॥
पुत्रोऽयं धनदातुश्च राज्ञस्तत्र न संशयः ।
अथवा वरुणस्यैष पाशान्मुक्तोऽस्त्यनेन वै ॥ २६ ॥
यह निर्णय सुनकर महर्षि वामदेवने उन सभासदोंसे कहा कि उस पिताने धनके लोभसे अपने पुत्रको बेच दिया है, इसलिये अब यह बालक धन देकर क्रय करनेवाले राजा हरिश्चन्द्रका पुत्र हुआ; इसमें संशय नहीं है । अथवा यह वरुणदेवका पुत्र हुआ; क्योंकि इन्होंने ही इसे बन्धनसे मुक्त कराया है ॥ २५-२६ ॥

अन्नदाता भयत्राता तथा विद्याप्रदश्च यः ।
तथा वित्तप्रदश्चैव पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥ २७ ॥
अन्न प्रदान करनेवाला, भयसे बचानेवाला, विद्याका दान करनेवाला, धन प्रदान करनेवाला और जन्म देनेवाला-ये पाँच पिता कहे गये हैं ॥ २७ ॥

तदा केचित्पितुः प्राहुः केचिद्‌राज्ञस्तथापरे ।
वरुणस्येति संवादे निर्णयं न ययुश्च ते ॥ २८ ॥
उस समय कुछ सभासदोंने उसे पिता अजीगर्तका पुत्र, कुछ सभासदोंने राजा हरिश्चन्द्रका पुत्र और अन्यने उसे वरुणदेवका पुत्र बतलाया । इस प्रकार परस्पर बातचीतमें वे किसी निर्णयपर नहीं पहुँचे ॥ २८ ॥

इत्थं सन्देहमापन्ने वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत् ।
सभ्यान्विवदतस्तत्र सर्वज्ञः सर्वपूजितः ॥ २९ ॥
शृणुध्वं भो महाभागा निर्णयं श्रुतिसम्मतम् ।
निःस्नेहेन यदा पित्रा विक्रीतोऽयं सुतः शिशुः ॥ ३० ॥
सम्बन्धस्तु गतस्तस्य तदैव धनसंग्रहात् ।
हरिश्चन्द्रस्य सञ्जातः पुत्रोऽसौ क्रीत एव च ॥ ३१ ॥
यूपे बद्धो यदा राज्ञा तदा तस्य न वै सुतः ।
वरुणस्तु स्तुतोऽनेन तेन तुष्टेन मोचितः ॥ ३२ ॥
तस्मान्नायं महाभागा ह्यसौ पुत्रः प्रचेतसः ।
यो यं स्तौति महामन्त्रैः सोऽपि तुष्टो ददाति च ॥ ३३ ॥
धनं प्राणान्पशून् राज्यं तथा मोक्षं किलेप्सितम् ।
कौशिकस्य सुतश्चायमरिष्टे येन रक्षितः ॥ ३४ ॥
इस तरहकी सन्देहकी स्थिति उत्पन्न हो जानेपर सर्वज्ञ तथा सर्वपूजित महर्षि वसिष्ठने वहाँ परस्पर विवाद करते हुए सभासदोंसे यह बात कही-हे महाभाग ! अब आपलोग मेरा वेदानुकूल निर्णय सुनिये-जिस समय इसके पिता अजीगर्तने स्नेहका त्याग करके इस बालकको बेच दिया था, उसी समय धन लेते ही अपने पुत्रसे उसका सम्बन्ध समाप्त हो गया और यह राजा हरिश्चन्द्रका क्रीतपुत्र हो गया । बादमें जब राजाने यज्ञके स्तम्भमें इस बालकको बाँध दिया, तब यह उनका भी पुत्र नहीं रहा । जब इसने वरुणदेवकी स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर इसे बन्धनमुक्त करा दिया, अत: हे महाभाग सभासद्‌गण ! यह वरुणदेवका भी पुत्र नहीं हो सकता । इसका कारण यह है कि जब जो व्यक्ति महामन्त्रोंके द्वारा जिस देवताकी स्तुति करता है, तभी वह प्रसन्न होकर उस व्यक्तिकी कामनाके अनुसार उसे धन, प्राण, पशु, राज्य तथा मोक्ष प्रदान करता है । वास्तवमें यह बालक मुनि विश्वामित्रका पुत्र हुआ, जिन्होंने विषम प्राण-संकटके समय परम शक्तिशाली वरुणमन्त्र देकर इसकी रक्षा की है ॥ २९-३४ ॥

मन्त्रं दत्त्वा महावीर्यं वरुणस्यातिसङ्कटे ।
व्यास उवाच -
श्रुत्वा वाक्यं वसिष्ठस्य बाढमूचुः सभासदः ॥ ३५ ॥
विश्वामित्रस्तु जग्राह तं करे दक्षिणे तदा ।
एहि पुत्र गृहं मे त्वमित्युक्त्वा प्रेमपूरितः ॥ ३६ ॥
शुनःशेपो जगामाशु तेनैव सह सत्वरः ।
वरुणस्तु प्रसन्नात्मा जगाम च स्वमालयम् ॥ ३७ ॥
ऋत्विजश्च तथा सभ्याः स्वगृहान्निर्ययुस्तदा ।
व्यासजी बोले-हे राजन् ! महर्षि वसिष्ठकी बात सुनकर सभासदोंने बहुत ठीक' ऐसा कहकर उनका समर्थन कर दिया । तब मुनि विश्वामित्र प्रेमसे पूरित हो उठे । 'हे पुत्र ! अब तुम मेरे आश्रममें चलो'-ऐसा कहकर उन्होंने उसका दाहिना हाथ पकड़ लिया । तब शुन:शेप भी तुरंत उनके साथ शीघ्रतापूर्वक चल दिया और वरुणदेव भी प्रसन्नचित्त होकर अपने लोकको चले गये । सभी ऋत्विक् और सभासद् भी अपने-अपने भवनोंके लिये प्रस्थित हो गये ॥ ३५-३७.५ ॥

राजापि रोगनिर्मुक्तो बभूवातिमुदान्वितः ॥ ३८ ॥
प्रजास्तु पालयामास सुप्रसन्नेन चेतसा ।
राजा हरिश्चन्द्र भी जलोदर रोगसे मुक्त हो जानेसे परम आनन्दित हो गये । वे अत्यन्त प्रसन्न मनसे प्रजापालनमें तत्पर हो गये ॥ ३८ ॥

रोहिताख्यस्तु तच्छ्रुत्वा वृत्तान्तं वरुणस्य ह ॥ ३९ ॥
आजगाम गृहं प्रीतो दुर्गमाद्वनपर्वतात् ।
इधर, वरुणदेवसम्बन्धी सारा वृत्तान्त सुनकर राजकुमार रोहितको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे दर्गम वनों तथा पर्वतोंको पार करते हुए अपने राजमहलके पास आ पहुँचे ॥ ३९.५ ॥

दूता राजानमभ्येत्य प्रोचुः पुत्रं समागतम् ॥ ४० ॥
मुदितोऽसौ जगामाशु सम्मुखः कोसलाधिपः ।
तब दूतोंने राजाके पास जाकर उनसे पुत्रके आ जानेकी बात बतायी । यह सुनते ही कोसलराज हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और वे शीघ्र उसके समीप पहुँच गये ॥ ४०.५ ॥

दृष्ट्वा पितरमायान्तं प्रेमोद्रिक्तः सुसम्भ्रमः ॥ ४१ ॥
दण्डवत्पतितो भूमावश्रुपूर्णमुखः शुचा ।
पिताको आया हुआ देखकर रोहितका प्रेम उमड़ पड़ा और वे बड़े सम्मानपूर्वक भूमिपर दण्डकी भाँति गिर पड़े । शोकके कारण रोहितका मुखमण्डल अश्रुसे भीग गया ॥ ४१.५ ॥

राजापि तं समुत्थाप्य परिरभ्य मुदान्वितः ॥ ४२ ॥
तमाघ्राय सुतं मूर्ध्नि पप्रच्छ कुशलं पुनः ।
उत्सङ्गे तं समारोप्य मुदितो मेदिनीपतिः ॥ ४३ ॥
उष्णैर्नेत्रजलैः शीर्षण्यभिषेकमथाकरोत् ।
राज्यं शशास तेनासौ पुत्रेणातिप्रियेण च ॥ ४४ ॥
वृत्तान्तं नरमेधस्य कथयामास विस्तरात् ।
राजा हरिश्चन्द्रने भी उन्हें उठाकर हृदयसे लगा लिया और आनन्दपूर्वक पुत्रका मस्तक सँघकर उससे कुशल-क्षेम पूछा । राजकुमार रोहितको गोदमें बिठाकर हर्षसे परिपूर्ण पृथ्वीपति हरिश्चन्द्रने प्रेमातिरेकके कारण नेत्रोंसे गिरते हुए उष्ण अश्रुओंसे उनका अभिषेक कर दिया । वे अपने परम प्रिय पुत्र रोहितके साथ राज्यका शासन करने लगे । बादमें उन्होंने राजकुमारसे यज्ञकी सारी बातें विस्तारपूर्वक बतलायीं ॥ ४२-४४.५ ॥

राजसूयं क्रतुवरं चकार नृपसत्तमः ॥ ४५ ॥
वसिष्ठं पूजयित्वाथ होतारमकरोद्‌विभुः ।
कुछ दिनोंके अनन्तर नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्रने सभी यज्ञोंमें उत्तम राजसूययज्ञ प्रारम्भ किया । राजाने गुरु वसिष्ठकी पूजा करके उन्हें उस यज्ञका 'होता' बनाया ॥ ४५.५ ॥

समाप्ते त्वथ यज्ञेशे वसिष्ठोऽतीव पूजितः ॥ ४६ ॥
शक्रस्य सदनं रम्यं जगाम मुनिरादरात् ।
उस सर्वश्रेष्ठ यज्ञके समाप्त होनेपर वसिष्ठजीका बहुत अधिक सम्मान किया गया । तदनन्तर मुनि वसिष्ठ श्रद्धापूर्वक इन्द्रकी रमणीक नगरी अमरावतीपुरीमें गये ॥ ४६.५ ॥

विश्वामित्रोऽपि तत्रैव वसिष्ठेन च सङ्गतः ॥ ४७ ॥
मिलित्वा तौ स्थितौ देवसदने मुनिसत्तम ।
विश्वामित्रोऽपि पप्रच्छ वसिष्ठं प्रतिपूजितम् ॥ ४८ ॥
वीक्ष्य विस्मयचित्तस्तं सभायां तु शचीपतेः ।
वहींपर विश्वामित्र भी वसिष्ठजीको मिल गये । मिलनेके बाद वे दोनों महर्षि देवसभामें एक साथ बैठे । तब ऐसी विशेष पूजा पाये हुए महर्षि वसिष्ठको देखकर विश्वामित्रके मनमें महान् आश्चर्य हुआ और वे हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा सम्बोधन करके शचीपति इन्द्रकी सभामें ही उनसे पूछने लगे ॥ ४७-४८.५ ॥

विश्वामित्र उवाच -
क्वेयं पूजा त्वया प्राप्ता महती मुनिसत्तम ॥ ४९ ॥
कृता केन महाभाग सत्यं ब्रूहि ममान्तिके ।
विश्वामित्र बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! आपने इतना बड़ा सम्मान कहाँ पाया ? हे महाभाग ! आपकी ऐसी पूजा किसने की; आप मुझे यह बात सच-सच बतलाइये ॥ ४९.५ ॥

वसिष्ठ उवाच -
यजमानोऽस्ति मे राजा हरिश्चन्द्रः प्रतापवान् ॥ ५० ॥
राजसूयः कृतस्तेन राज्ञा प्रवरदक्षिणः ।
नेदृशोऽस्ति नृपश्चान्यः सत्यवादी धृतव्रतः ॥ ५१ ॥
दाता च धर्मशीलश्च प्रजारञ्जनतत्परः ।
तस्य यज्ञे मया पूजा प्राप्ता कौशिकनन्दन ॥ ५२ ॥
[ किं पृच्छसि पुनः सत्यं ब्रवीम्यकृत्रिमं द्विज ]
हरिश्चन्द्रसमो राजा न भूतो न भविष्यति ।
सत्यवादी तथा दाता शूरः परमधार्मिकः ॥ ५३ ॥
वसिष्ठजी बोले-परम प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र मेरे यजमान हैं । उन्होंने प्रचुर दक्षिणावाला राजसूययज्ञ किया है । उनके-जैसा सत्यवादी, दृढव्रती, दानी, धर्मपरायण तथा प्रजाको प्रसन्न रखनेवाला दूसरा राजा नहीं है । हे विश्वामित्र ! उन्हींके यज्ञमें मुझे यह पूजा प्राप्त हुई है । (हे द्विज ! आप मुझसे बार-बार क्या पूछ रहे हैं ! मैं आपसे सत्य तथा यथार्थ कह रहा हूँ । ) हरिश्चन्द्रके समान सत्यवादी, दानी, पराक्रमी तथा परम धार्मिक राजा न तो हुआ है और न होगा ॥ ५०-५३ ॥

व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा विश्वामित्रोऽतिकोपनः ।
बभूव क्रोधसंरक्तलोचनोऽप्यब्रवीच्च तम् ॥ ५४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! उनकी यह बात सुनकर विश्वामित्रजी बहुत कुपित हो उठे और क्रोधसे आँखें लाल करके उनसे कहने लगे- ॥ ५४ ॥

विश्वामित्र उवाच
एवं स्तौषि नृपं मिथ्यावादिनं कपटप्रियम् ।
वञ्चितो वरुणो येन प्रतिश्रुत्य वरं पुनः ॥ ५५ ॥
विश्वामित्र बोले-आप ऐसे मिथ्याभाषी तथा कपटी राजाकी प्रशंसा कर रहे हैं, जिसने पुत्रप्राप्तिका वर पाकर प्रतिज्ञा करके भी वरुणदेवको बार-बार धोखा दिया ॥ ५५ ॥

मम जन्मार्जितं पुण्यं तपसः पठितस्य च ।
त्वदीयं वातितपसो ग्लहं कुरु महामते ॥ ५६ ॥
अहं चेत्तं नृपं सद्यो न करोम्यतिसंस्तुतम् ।
असत्यवादिनं काममदातारं महाखलम् ॥ ५७ ॥
आजन्मसञ्चितं सर्वं पुण्यं मम विनश्यतु ।
अन्यथा त्वत्कृतं सर्वं पुण्यं त्विति पणावहे ॥ ५८ ॥
हे महामते ! इस जन्ममें मेरे द्वारा किये गये तप तथा वेदाध्ययनके फलस्वरूप संचित पुण्य तथा अपने महान् तपकी शर्त लगा लीजिये । यदि मैं आपके द्वारा अति प्रशंसित किये गये राजा हरिश्चन्द्रको शीघ्र ही मिथ्याभाषी, दान न देनेवाला तथा महादुष्ट न प्रमाणित कर दूं तो सम्पूर्ण जन्मका मेरा संचित पुण्य नष्ट हो जाय; अन्यथा आपके द्वारा उपार्जित सारा पुण्य नष्ट हो जाय-इसी बातकी हम दोनों शर्त लगा लें ॥ ५६-५८ ॥

ग्लहं कृत्वा ततस्तौ तु विवदन्तौ मुनी तदा ।
स्वाश्रमं स्वर्गलोकाच्च गतौ परमकोपनौ ॥ ५९ ॥
तब यह शर्त लगाकर अत्यधिक कुपित हुए वे दोनों मुनि परस्पर विवाद करते हुए स्वर्गलोकसे अपने-अपने आश्रमको लौट गये ॥ ५९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे
वसिष्ठविश्वामित्रपणवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
अध्याय सत्रहवाँ समाप्त ॥ १७ ॥


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