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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
अष्टादशोऽध्यायः

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हरिश्चन्द्रद्वारा वृद्धब्राह्मणाय धनदानप्रतिज्ञावर्णनम् -
विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना -


व्यास उवाच -
कदाचित्तु हरिश्चन्द्रो मृगयार्थं वनं ययौ ।
अपश्यद्‌रुदतीं बालां सुन्दरीं चारुलोचनाम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-राजन् ! किसी समय राजा हरिश्चन्द्र आखेट करनेके लिये वनमें गये हुए थे । उन्होंने वहाँ मनोहर नेत्रोंवाली रोती हुई एक सुन्दर युवतीको देखा ॥ १ ॥

तामपृच्छन्महाराजः कामिनीं करुणापरः ।
पद्मपत्रविशालाक्षि किं रोदिषि वरानने ॥ २ ॥
केनासि पीडितात्यर्थं किं ते दुःखं वदाशु मे ।
का च त्वं विजने घोरे कस्ते भर्ता पिताथवा ॥ ३ ॥
करुणामय महाराज हरिश्चन्द्रने उस कामिनीसे पूछा-कमलपत्रके समान विशाल नेत्रोंवाली है वरानने ! तुम क्यों रो रही हो, तुम्हें किसने कष्ट दिया है, तुम्हें कौन-सा अपार दु:ख आ पड़ा है, इस निर्जन वनमें रहनेवाली तुम कौन हो और तुम्हारे पिता तथा पति कौन हैं ? यह सब मुझे शीघ्र बताओ ॥ २-३ ॥

न बाधते च राज्ये मे राक्षसोऽपि पराङ्गनाम् ।
तं हन्मि तरसा कान्ते यस्त्वां सुन्दरि बाधते ॥ ४ ॥
ब्रूहि दुःखं वरारोहे स्वस्था भव कृशोदरि ।
विषये मम पापात्मा न तिष्ठति सुमध्यमे ॥ ५ ॥
हे कान्ते ! मेरे राज्यमें तो राक्षस भी परायी स्त्रीको कष्ट नहीं पहुँचाते । हे सुन्दरि ! जो व्यक्ति तुम्हें पीड़ित करता होगा, उसे मैं अभी मार डा[गा । हे वरारोहे ! तुम मुझे अपना दुःख बताओ और निश्चिन्त हो जाओ । हे कृशोदरि ! हे सुमध्यमे ! मेरे राज्यमें दुराचारी व्यक्ति नहीं रह सकता ॥ ४-५ ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा नारी तमब्रवीन्नृपम् ।
प्रमृज्याश्रूणि वदनाद्धरिश्चन्द्रं नृपोत्तमम् ॥ ६ ॥
उनकी यह बात सुनकर वह स्त्री अपने मुखमण्डलके आँसू पोंछकर उन नृपश्रेष्ठ राजा हरिश्चन्द्रसे कहने लगी ॥ ६ ॥

नार्युवाच -
राजन् मां बाधतेऽत्यर्थं विश्वामित्रो महामुनिः ।
तपः करोति यद्‌घोरं मदर्थं कौशिको वने ॥ ७ ॥
तेनाहं दुःखिता राजन् विषये तव सुव्रत ।
विद्धि मां कमनां कान्तां पीडितां मुनिना भृशम् ॥ ८ ॥
नारी बोली-हे राजन् ! मेरे लिये वनमें रहकर जो घोर तपस्या कर रहे हैं, वे महामुनि विश्वामित्र मुझे बहुत कष्ट दे रहे हैं; उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हे राजन् ! आपके राज्यमें मैं इसी कारणसे दुःखी हूँ । उन मुनिके द्वारा अत्यधिक सतायी जानेवाली मुझ स्त्रीको आप 'कमना' नामवाली जान लीजिये ॥ ७-८ ॥

राजोवाच -
स्वस्था भव विशालाक्षि न ते दुःखं भविष्यति ।
तमहं वारयिष्यामि मुनिं तापपरायणम् ॥ ९ ॥
राजा बोले-हे विशाल नयनोंवाली ! तुम प्रसन्नचित्त रहो, अब तुम्हें कष्ट नहीं होगा । तपस्या तत्पर रहनेवाले उन मुनिको मैं मना कर दूंगा ॥ ९ ॥

इत्याश्वास्य स्त्रियं राजा तरसा मुनिसन्निधौ ।
नत्वा प्रणम्य शिरसा तमुवाच महीपतिः ॥ १० ॥
स्वामिन्किं क्रियतेऽत्यर्थं तपसा देहपीडनम् ।
किमर्थं ते समारम्भो ब्रूहि सत्यं महामते ॥ ११ ॥
उस स्त्रीको यह आश्वासन देकर पृथ्वीपति राजा हरिश्चन्द्र शीघ्र ही मुनिके पास गये और नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करके उनसे बोलेहे स्वामिन् ! आप ऐसी कठिन तपस्यासे अपने शरीरको अत्यधिक पीड़ित क्यों कर रहे हैं ? हे महामते ! किस प्रयोजनसे आप यह करनेके लिये उद्यत हैं ? सच-सच बताइये ॥ १०-११ ॥

वाञ्छितं तव गाधेय करोमि सफलं किल ।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ तरसा तपसालमतः परम् ॥ १२ ॥
विषये मम सर्वज्ञ न कर्तव्यं सुदारुणम् ।
लोकपीडाकरं घोरं तपः केनापि कर्हिचित् ॥ १३ ॥
हे गाधितनय ! मैं आपकी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा । अब इसी समय उठ जाइये और आगे तपस्या करनेका विचार त्याग दीजिये । हे सर्वज्ञ ! मेरे राज्यमें रहकर कभी किसीको भी अत्यन्त भीषण, लोकके लिये पीड़ाकारक तथा उग्र तप नहीं करना चाहिये ॥ १२-१३ ॥

इत्थं निषिध्य तं राजा विश्वामित्रं गृहं ययौ ।
मनसा क्रोधमाधाय गतोऽसौ कौशिको मुनिः ॥ १४ ॥
इस प्रकार विश्वामित्रजीको तपस्यासे रोककर राजा हरिश्चन्द्र अपने भवन चले गये और उनके इस कृत्यसे मुनि विश्वामित्र भी मन-ही-मन कुपित होकर वहाँसे चल दिये ॥ १४ ॥

स गत्वा चिन्तयामास नृपकृत्यमसाम्प्रतम् ।
वसिष्ठस्य च संवादं तपसः प्रतिषेधनम् ॥ १५ ॥
कोपाविष्टेन मनसा प्रतीकारमथाकरोत् ।
विचिन्त्य बहुधा चित्ते दानवं घोरविग्रहम् ॥ १६ ॥
प्रेषयामास तद्देशं विधाय सूकराकृतिम् ।
घर जाकर विश्वामित्रजी राजा हरिश्चन्द्रके अनुचित कृत्य, वसिष्ठकी कही हुई बात तथा तपस्यासे विरत कर दिये जानेके विषयमें सोचने लगे । वे कोपाविष्ट मनसे बदला लेनेके लिये तत्पर हो गये । इस प्रकार मनमें बहुत प्रकारसे सोचकर उन्होंने एक भयानक शरीरवाले दानवको सूअरके रूपमें बनाकर उसे राजाके यहाँ भेजा ॥ १५-१६.५ ॥

सोऽतिकायो महाकालः कुर्वन्नादं सुदारुणम् ॥ १७ ॥
राज्ञश्चोपवने प्राप्तस्त्रासयन् रक्षकांस्तदा ।
मालतीनां च खण्डानि कदम्बानां तथैव च ॥ १८ ॥
यूथिकानां च वृन्दानि कम्पयंश्च मुहुर्मुहुः ।
दन्तेन विलिखन्भूमिं समुन्मूलयते द्रुमान् ॥ १९ ॥
चम्पकान्केतकीखण्डान्मल्लिकानां च पादपान् ।
करवीरानुशीरांश्च निचखान शुभान्मृदून् ॥ २० ॥
मुचुकुन्दानशोकांश्च बकुलांस्तिलकांस्तथा ।
उन्मूल्य कदनं तत्र चकार सूकरो वने ॥ २१ ॥
महाकालके समान प्रतीत होनेवाला तथा विशाल शरीरवाला वह सूअर अत्यन्त भयावह शब्द करता हुआ राजा हरिश्चन्द्रके उपवनमें पहुँच गया । रक्षकोंको भयभीत करते हुए, मालतीकी तथा कदम्बोंकी लताको एवं जूहीसमूहोंको बार-बार रौंदते हुए और अपने दाँतसे जमीनको खोदते हुए उस सूअरने बड़े-बड़े वृक्षोंको जड़से उखाड़ डाला; उसने चम्पक, केतकी, मल्लिका, कनेर तथा उशीरके सुन्दर तथा कोमल पौधोंको बींध डाला तथा मुचुकुन्द, अशोक, मौलसिरी एवं तिलक आदि वृक्षोंको उखाड़कर उस सूअरने उपवनको विनष्ट कर दिया ॥ १७-२१ ॥

वाटिकारक्षकाः सर्वे दुद्रुवुः शस्त्रपाणयः ।
हाहेति चुक्रुशुस्तत्र मालाकारा भृशातुराः ॥ २२ ॥
हाथोंमें शस्त्र लिये हुए उस उपवनकी रखवाली करनेवाले सभी रक्षक वहाँसे भाग चले और अत्यन्त भयभीत मालियोंने हाय-हायकी ध्वनि करते हुए चिल्लाना आरम्भ कर दिया ॥ २२ ॥

बाणैः सन्ताड्यमानोऽपि यदा त्रस्तो न वै मृगः ।
रक्षकान्पीडयामास कोलः कालसमद्युतिः ॥ २३ ॥
ते तदातिभयाक्रान्ता राजानं शरणं ययुः ।
तमूचुस्त्राहि त्राहीति वेपमाना भयाकुलाः ॥ २४ ॥
साक्षात् कालके समान तेजवाला वह सूअर जब बाणोंसे मारे जानेपर भी त्रस्त नहीं हुआ और रक्षकोंको पीड़ित करता रहा, तब वे अत्यन्त भयाक्रान्त होकर राजा हरिश्चन्द्रकी शरणमें गये । भयसे व्याकुल तथा थर-थर काँपते हुए वे रक्षकगण 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये'-ऐसा उनसे कहने लगे ॥ २३-२४ ॥

तानागतान्समालोक्य भयार्तान्भूपतिस्तदा ।
पप्रच्छ किं भयं कस्मान्मां ब्रुवन्तु समागताः ॥ २५ ॥
नाहं बिभेमि देवेभ्यो राक्षसेभ्यश्च रक्षकाः ।
कस्माद्‌भयं समुत्पन्नं तद्‌ ब्रुवन्तु ममाग्रतः ॥ २६ ॥
हन्मि चैकेन बाणेन तं शत्रुं दुर्भगं किल ।
यो मेऽरातिः समुत्पन्नो लोके पापमतिः खलः ॥ २७ ॥
देवो वा दानवो वापि तं निहन्मि शरैः शितैः ।
क्व तिष्ठति कियद्‌रूपः कियद्‌बलसमन्वितः ॥ २८ ॥
तब भयसे घबड़ाये हुए उन रक्षकोंको समक्ष उपस्थित देखकर राजाने उनसे पूछा-आपलोगोंको क्या भय है और किसलिये आप सब यहाँ आये हुए हैं ? मुझे यह बताइये । हे रक्षको ! मैं देवताओं तथा राक्षसों-किसीसे भी नहीं डरता । तुम्हें यह भय किससे उत्पन्न हुआ है, मेरे सामने उसे बताओ, मैं उस अभागे शत्रुको एक ही बाणसे अभी मार डालता हूँ । जो पापबुद्धि तथा दुष्ट इस लोकमें मेरे शत्रुके रूपमें उत्पन्न हुआ हो, चाहे वह देवता हो या दानव, वह चाहे कहीं भी रहता हो, कैसे भी रूपवाला हो तथा कितना भी बलवान् हो, उसे मैं अपने तीक्ष्ण बाणोंसे मार डालूँगा ॥ २५–२८ ॥

मालाकारा ऊचुः -
न देवो न च दैत्योऽस्ति न यक्षो न च किन्नरः ।
कश्चित्कोलो महाकायो राजंस्तिष्ठति कानने ॥ २९ ॥
पुष्पवृक्षानतिमृदून्दन्तेनोन्मूलयत्यसौ ।
विदीर्णं तद्वनं सर्वं सूकरेणातिरंहसा ॥ ३० ॥
विशिखैस्ताडितोऽस्माभिर्दृषद्‌भिर्लकुटैस्तथा ।
न बिभेति महाराज हन्तुमस्मानुपाद्रवत् ॥ ३१ ॥
मालाकार बोले-हे राजन् ! वह न देवता है, न दैत्य है, न यक्ष है और न तो किन्नर ही है । विशाल शरीरवाला एक सूअर उपवन में आया हुआ है । उसने अपने दाँतसे अत्यन्त कोमल पुष्पमय वृक्षोंको उखाड़ डाला है । अत्यन्त तीव्र गतिवाले उस सूअरने सारे उपवनको तहस-नहस कर दिया है । हे महाराज ! बाणों, पत्थरों और लाठियोंसे हमलोगोंके प्रहार करनेपर भी वह भयभीत नहीं हुआ और हमें मारनेके लिये दौड़ पड़ा ॥ २९-३१ ॥

व्यास उवाच -
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां राजा कोपसमाकुलः ।
अश्वमारुह्य तरसा जगामोपवनं प्रति ॥ ३२ ॥
व्यासजी बोले-उनकी यह बात सुनते ही राजा हरिश्चन्द्र कुपित हो उठे और उसी क्षण घोड़ेपर सवार होकर उपवनकी ओर शीघ्रतापूर्वक चल पड़े ॥ ३२ ॥

सैन्येन महता युक्तो गजाश्वरथसंयुतः ।
पदातिवृन्दसहितः प्रययौ वनमुत्तमम् ॥ ३३ ॥
हाथी, घोड़े, रथ और पैदल चलनेवाले सैनिकोंसे युक्त एक विशाल सेनाके साथ वे उस श्रेष्ठ उपवनमें पहुँच गये ॥ ३३ ॥

तत्रापश्यन्महाकोलं घुर्घुरन्तं भयानकम् ।
वनं भग्नं च संवीक्ष्य राजा क्रोधयुतोऽभवत् ॥ ३४ ॥
चापे बाणं समारोप्य विकृष्य च शरासनम् ।
तं हन्तुं सूकरं पापं तरसा समुपाक्रमत् ॥ ३५ ॥
वहाँ उन्होंने एक विशाल शरीरवाले भयानक सूअरको घुरघुराते हुए देखा । उसके द्वारा उजाड़े गये उपवनको देखकर राजा कुपित हो उठे । फिर वे धनुषपर बाण चढ़ाकर तथा धनुषको खींचकर उस दुष्ट सूअरको मारनेके लिये वेगपूर्वक आगे बढ़े ॥ ३४-३५ ॥

समालोक्य च राजानं चापहस्तं रुषाकुलम् ।
सम्मुखोऽभ्यद्रवत्तूर्णं कुर्वञ्छब्दं सुदारुणम् ॥ ३६ ॥
हाथमें धनुष लिये हुए कोपाविष्ट राजा हरिश्चन्द्रको देखकर वह सूअर अत्यन्त भयानक शब्द करता हुआ तुरंत उनके सामने आ गया ॥ ३६ ॥

तमायान्तं समालोक्य वराहं विकृताननम् ।
मुमोच विशिखं तस्मिन्हन्तुकामो महीपतिः ॥ ३७ ॥
उस विकृत मुखवाले सूअरको सामने आता हुआ देखकर राजा हरिश्चन्द्रने उसे मार डालनेकी इच्छासे उसपर बाण छोड़ा ॥ ३७ ॥

वञ्चयित्वाथ तद्बाणं सूकरस्तरसा बलात् ।
निर्जगाम महावेगात्तमुल्लंघ्य नृपं तदा ॥ २८ ॥
तब उस बाणसे अपनेको बचाकर वह सूअर राजाको बड़े वेगसे लाँघकर बलपूर्वक शीघ्रताके साथ वहाँसे निकल भागा ॥ ३८ ॥

गच्छन्तं तं समालोक्य राजा कोपसमन्वितः ।
मुमोच विशिखांस्तीक्ष्णांश्चापमाकृष्य यत्‍नतः ॥ ३९ ॥
उसे भागते हुए देखकर राजा हरिश्चन्द्र क्रोधित होकर धनुष खींचकर सावधानीपूर्वक उसपर तीक्ष्ण बाण छोड़ने लगे ॥ ३९ ॥

क्षणं दृष्टिपथं राज्ञः क्षणं चादर्शनं गतः ।
कुर्वन्बहुविधारावं सूकरं समुपाद्रवत् ॥ ४० ॥
वह सूअर किसी क्षण दिखायी पड़ता था, दूसरे क्षण आँखोंसे ओझल हो जाता था और क्षणभरमें ही अनेक प्रकारके शब्द करता हुआ राजाके पास पहुँच जाता था । ॥ ४० ॥

हरिश्चन्द्रोऽतिकुपितो मृगस्यानुजगाम ह ।
अश्वेन वायुवेगेन विकृष्य च शरासनम् ॥ ४१ ॥
इतस्ततस्ततः सैन्यमगमच्च वनान्तरम् ।
एकाकी नृपतिः कोलं व्रजन्तं समुपाद्रवत् ॥ ४२ ॥
तब राजा हरिश्चन्द्र वायुके समान तीव्रगामी अश्वपर सवार होकर और धनुष खींचकर अत्यन्त क्रोधके साथ उस सूअरका पीछा करने लगे । तत्पश्चात् उनकी सेना इधर-उधर उनके साथ दौड़ती हुई दूसरे वनमें चली गयी और राजा उस भागते हुए सूअरका अकेले ही पीछा करते रहे ॥ ४१-४२ ॥

मध्याह्नसमये राजा सम्प्राप्तो विजने वने ।
तृषितः क्षुधितोऽत्यर्थं बभूव श्रान्तवाहनः ॥ ४३ ॥
इस तरह राजा मध्याह्नकालमें एक निर्जन वनमें जा पहुंचे । वे अत्यधिक भूख तथा प्याससे व्याकुल हो गये तथा उनका वाहन बहुत थक गया ॥ ४३ ॥

सूकरोऽदर्शनं प्राप्तो राजा चिन्तातुरोऽभवत् ।
मार्गभ्रष्टोऽतिविपिने दारुणे दीनवत्स्थितः ॥ ४४ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि न सहायोऽस्ति मे वने ।
अज्ञातस्वपथः कुत्र व्रजामीति व्यचिन्तयत् ॥ ४५ ॥
सूअर आँखोंसे ओझल हो चुका था, अत: वे चिन्तासे व्यग्न हो गये । उस घने जंगलमें मार्गज्ञान न होनेके कारण वे रास्तेसे भटक भी गये; उनकी दशा बड़ी दयनीय हो गयी थी । वे सोचने लगे कि अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? इस वनमें मेरा कोई सहायक भी नहीं है । अब अपना मार्ग भूल जानेके कारण मैं किधर जाऊँ ? ॥ ४४-४५ ॥

एवं चिन्तयतस्तत्र विपिने जनवर्जिते ।
राज्ञा चिन्तातुरोऽपश्यन्नदीं सुविमलोदकाम् ॥ ४६ ॥
इस प्रकार उस निर्जन वनमें सोचते हुए चिन्तातुर राजा हरिश्चन्द्रकी दृष्टि एक स्वच्छ जलवाली नदीपर पड़ गयी ॥ ४६ ॥

वीक्ष्य तां मुदितो राजा पाययित्वा तुरङ्गकम् ।
अश्वादुत्तेर्य विमलं पपौ पानीयमुत्तमम् ॥ ४७ ॥
जलं पीत्वा नृपस्तत्र सुखमाप महीपतिः ।
इत्येष नगरं गन्तुं दिग्भ्रमेणातिमोहितः ॥ ४८ ॥
उसे देखकर राजा बहुत हर्षित हुए । घोड़ेसे उतरकर उन्होंने उसे स्वादिष्ट जल पिलाकर स्वयं भी पीया । जल पी लेनेपर राजाको बड़ी शान्ति मिली । अब वे अपने नगर जानेकी इच्छा करने लगे, किंतु दिशाज्ञान न रहनेसे उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी ॥ ४७-४८ ॥

विश्वामित्रस्तु सम्प्राप्तो वृद्धब्राह्मणरूपधृक् ।
ननाम वीक्ष्य राजा तं प्रीतिपूर्वं द्विजोत्तमम् ॥ ४९ ॥
इतने में विश्वामित्रजी एक वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करके वहाँ आ गये । उस श्रेष्ठ ब्राह्मणको देखकर राजा हरिश्चन्द्रने आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया ॥ ४९ ॥

तमुवाच गाधिराजः प्रणमन्तं नृपोत्तमम् ।
स्वस्ति तेऽस्तु महाराज किमर्थमिह चागतः ॥ ५० ॥
एकाकी विजने राजन् किं चिकीर्षितमत्र ते ।
ब्रूहि सर्वं स्थिरो भूत्वा कारणं नृपसत्तम ॥ ५१ ॥
प्रणाम करते हुए उन नृपश्रेष्ठ राजा हरिश्चन्द्रसे विश्वामित्र कहने लगे-हे महाराज ! आपका कल्याण हो । आप यहाँ किसलिये आये हुए हैं ? हे राजन् ! इस निर्जन वनमें अकेले आनेका आपका क्या उद्देश्य है ? हे नृपश्रेष्ठ ! शान्तचित्त होकर अपने आगमनका सारा कारण बताइये ॥ ५०-५१ ॥

राजोवाच -
सूकरोऽतिमहाकायो बलवान्पुष्पकाननम् ।
समुपेत्य ममर्दाशु कोमलान्पुष्पपादपान् ॥ ५२ ॥
तं निवारयितुं दुष्टं करे कृत्वा च कार्मुकम् ।
ससैन्योऽहं स्वनगरान्निर्गतो मुनिसत्तम ॥ ५३ ॥
राजा बोले-विशाल शरीरवाला एक बलशाली सूअर मेरे पुष्पोद्यानमें पहुँचकर वहाँके कोमल पुष्पमय वृक्षोंको रौंदने लगा । हे मुनिश्रेष्ठ ! उसी दुष्टको रोकनेके लिये हाथमें धनुष लेकर मैं सेनासहित अपने नगरसे निकल पड़ा ॥ ५२-५३ ॥

गतोऽसौ दृक्पथात्पापो मायावी क्वापि वेगवान् ।
पृष्ठतोऽहमपि प्राप्तः सैन्यं क्वापि गतं मम ॥ ५४ ॥
अब वह पापी तथा मायावी सूअर वेगपूर्वक मेरी आँखोंसे ओझल होकर न जाने कहाँ चला गया ! मैं भी उसके पीछे-पीछे यहाँ आ गया तथा मेरी सेना कहीं और निकल गयी ॥ ५४ ॥

क्षुधितस्तृषितश्चाहं सैन्यभ्रष्टस्त्विहागतः ।
न जाने पुरमार्गं च तथा सैन्यगतिं मुने ॥ ५५ ॥
पन्थानं दर्शय विभो व्रजामि नगरं प्रति ।
ममात्र भाग्ययोगेन प्राप्तस्त्वं विजने वने ॥ ५६ ॥
सेनाका साथ छूट जानेपर भूख तथा प्याससे व्याकुल होकर मैं यहाँ आ पहुँचा । हे मुने ! मुझे अपने नगरके मार्गका ज्ञान नहीं रहा और मेरी सेना किधर गयी-यह भी मैं नहीं जानता । हे विभो ! आप मुझे मार्ग दिखा दीजिये, जिससे मैं अपने नगर चला जाऊँ; मेरे सौभाग्यसे आप इस निर्जन वनमें पधारे हुए हैं ॥ ५५-५६ ॥

अयोध्यादिपतिश्चाहं हरिश्चन्द्रोऽतिविश्रुतः ।
राजसूयस्य कर्ता च वाञ्छितार्थप्रदः सदा ॥ ५७ ॥
धनेच्छा यदि ते ब्रह्मन् यज्ञार्थं द्विजसत्तम ।
आगन्तव्यमयोध्यायां दास्यामि विपुलं धनम् ॥ ५८ ॥
मैं अयोध्याका राजा हूँ और हरिश्चन्द्र नामसे विख्यात हूँ । मैं राजसूययज्ञ कर चुका हूँ और याचना करनेवालोंको उनकी हर अभिलषित वस्तु सर्वदा प्रदान करता हूँ । हे ब्रह्मन् ! हे द्विजश्रेष्ठ ! यदि आपको भी यज्ञके निमित्त धनकी आवश्यकता हो तो अयोध्या आयें, मैं आपको प्रचुर धन प्रदान करूंगा ॥ ५७-५८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे हरिश्चन्द्रद्वारा वृद्धब्राह्मणाय
धनदानप्रतिज्ञावर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
अध्याय अठारवाँ समाप्त ॥ १८ ॥


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