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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
एकोनविंशोऽध्यायः

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कौशिकाय सर्वस्वसमर्पणं तद्दक्षिणादानवर्णनम् -
विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना -


व्यास उवाच -
इति तस्य वचः श्रुत्वा भूपतेः कौशिको मुनिः ।
प्रहस्य प्रत्युवाचेदं हरिश्चन्द्रं तथा नृप ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे नृप [जनमेजय] ! हरिश्चन्द्रको यह बात सुनकर मुनि विश्वामित्र हँस करके उनसे कहने लगे- ॥ १ ॥

राजंस्तीर्थमिदं पुण्यं पावनं पापनाशनम् ।
स्नानं कुरु महाभाग पितॄणां तर्पणं तथा ॥ २ ॥
हे राजन् ! यह तीर्थ अत्यन्त पुण्यमय, पवित्र तथा पापनाशक है । हे महाभाग ! इसमें स्नान करो और पितरोंका तर्पण करो ॥ २ ॥

कालः शुभतमोऽस्तीह तीर्थे स्नात्वा विशांपते ।
दानं ददस्व शक्त्यात्र पुण्यतीर्थेऽतिपावने ॥ ३ ॥
हे भूपते ! यह समय भी अति उत्तम है; इसलिये इस पुण्यमय तथा परम पावन तीर्थमें स्नान करके आप इस समय अपनी सामर्थ्यके अनुसार दान दीजिये ॥ ३ ॥

प्राप्य तीर्थं महापुण्यमस्नात्वा यस्तु गच्छति ।
स भवेदात्महा भूय इति स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ ४ ॥
'जो परम पवित्र तीर्थमें पहुँचकर बिना स्नान किये ही लौट जाता है, वह आत्मघाती होता है'ऐसा स्वायम्भुव मनुने कहा है ॥ ४ ॥

तस्मात्तीर्थवरे राजन् कुरु पुण्यं स्वशक्तितः ।
दर्शयिष्यामि मार्गं ते गन्तासि नगरं ततः ॥ ५ ॥
आगमिष्यामहं मार्गदर्शनार्थं तवानघ ।
त्वया सहाद्य काकुत्स्थ तव दानेन तोषितः ॥ ६ ॥
अतएव हे राजन् ! आप इस सर्वोत्तम तीर्थमें अपनी शक्तिके अनुसार पुण्यकर्म कीजिये । इससे [प्रसन्न होकर] मैं आपको मार्ग दिखा दूंगा और तब आप अपने नगरको चले जाइयेगा । हे अनघ ! हे काकुत्स्थ ! आपके दानसे प्रसन्न होकर आपको मार्ग दिखानेके लिये इसी समय मैं आपके साथ चलूँगा ॥ ५-६ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं राजा मुनेः कपटमण्डितम् ।
वासांस्युत्तार्य विधिवत्स्नातुमभ्याययौ नदीम् ॥ ७ ॥
बन्धयित्वा हयं वृक्षे मुनिवाक्येन मोहितः ।
अवश्यंभावियोगेन तद्वशस्तु तदाभवत् ॥ ८ ॥
मुनिकी यह कपटभरी वाणी सुनकर राजा हरिश्चन्द्र घोड़ेको एक वृक्षमें बाँधकर तथा अपने वस्त्र उतारकर विधिवत् स्नान करनेके लिये नदीके तटपर आ गये । होनहारके प्राबल्यके कारण उस समय राजा हरिश्चन्द्र मुनिके वाक्यसे मोहित होकर उनके वशीभूत हो गये थे ॥ ७-८ ॥

राजा स्नानविधिं कृत्वा सन्तर्प्य पितृदेवताः ।
विश्वामित्रमुवाचेदं स्वामिन् दानं ददामि ते ॥ ९ ॥
यदिच्छसि महाभाग तत्ते दास्यामि साम्प्रतम् ।
गावो भूमिर्हिरण्यं च गजाश्वरथवाहनम् ॥ १० ॥
नादेयं मे किमप्यस्ति कृतमेतद्‌ व्रतं पुरा ।
राजसूये मखश्रेष्ठे मुनीनां सन्निधावपि ॥ ११ ॥
तस्मात्त्वमिह सम्प्ताप्तस्तीर्थेऽस्मिन्प्रवरे मुने ।
यत्तेऽस्ति वाञ्छितं ब्रूहि ददामि तव वाञ्छितम् ॥ १२ ॥
विधिपूर्वक स्नान करनेके पश्चात् पितरों तथा देवताओंका तर्पण करके राजाने विश्वामित्रसे यह कहा-हे स्वामिन् ! अब मैं आपको दान देता हूँ । हे महाभाग ! इस समय आप जो चाहते हैं, उसे मैं आपको दूंगा । गाय, भृमि, सोना, हाथी, घोड़ा, रथ, वाहन आदि कुछ भी मेरे लिये अदेय नहीं है-ऐसी प्रतिज्ञा मैं पूर्वकालमें सर्वोत्तम राजसूययज्ञमें मुनियोंके समक्ष कर चुका है । अतः हे मुने ! आपकी जो आकांक्षा हो उसे बताइये; मैं आपकी वह अभिलषित वस्तु आपको दूंगा; क्योंकि आप इस सर्वोत्तम तीर्थमें पधारे हुए हैं ॥ ९-१२ ॥

विश्वामित्र उवाच -
मया पूर्वं श्रुता राजन् कीर्तिस्ते विपुला भुवि ।
वसिष्ठेन च सम्प्रोक्ता दाता नास्ति महीतले ॥ १३ ॥
हरिश्चन्द्रो नृपश्रेष्ठः सूर्यवंशे महीपतिः ।
तादृशो नृपतिर्दाता न भूतो न भविष्यति ॥ १४ ॥
पृथिव्यां परमोदारस्त्रिशङ्कुतनयो यथा ।
अतस्त्वां प्रार्थयाम्यद्य विवाहो मेऽस्ति पार्थिवः ॥ १५ ॥
पुत्रस्य च महाभाग तदर्थं देहि मे धनम् ।
विश्वामित्र बोले-हे राजन् ! संसारमें व्याप्त आपकी विपुल कीर्तिके विषयमें मैं बहुत पहले सुन चुका हूँ । महर्षि वसिष्ठने भी कहा था कि पृथ्वीतलपर उनके समान कोई दानी नहीं है । राजाओंमें श्रेष्ठ वे राजा हरिश्चन्द्र सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए हैं । जैसे दानी तथा परम उदार त्रिशंकुपुत्र महाराज हरिश्चन्द्र हैं, वैसा राजा पृथ्वीपर पहले न हुआ है और न तो आगे होगा । हे महाभाग ! हे पार्थिव ! आज मेरे पुत्रका विवाह होनेवाला है, अत: मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि इसके लिये आप मुझे धन प्रदान करें ॥ १३-१५.५ ॥

राजोवाच -
विवाहं कुरु विप्रेन्द्र ददामि प्रार्थितं तव ॥ १६ ॥
यदिच्छसि धनं कामं दाता तस्यास्मि निश्चितम् ।
राजा बोले-हे विप्रेन्द्र ! आप विवाह कीजिये, मैं आपकी अभिलषित वस्तु दूंगा । आप अधिकसे अधिक जितना धन चाहते हैं, मैं उसे अवश्य दूंगा ॥ १६.५ ॥

व्यास उवाच -
इत्युक्तः कौशिकस्तेन वञ्चनातत्परो मुनिः ॥ १७ ॥
उद्‌भाव्य मायां गान्धर्वीं पार्थिवायाप्यदर्शयत् ।
कुमारः सुकामारश्च कन्या च दशवार्षिकी ॥ १८ ॥
एतयोः कार्यमप्यद्य कर्तव्यं नृपसत्तम ।
राजसूयाधिकं पुण्यं गृहस्थस्य विवाहतः ॥ १९ ॥
भविष्यति तवाद्यैव विप्रपुत्रविवाहतः ।
व्यासजी बोले-हरिश्चन्द्रके ऐसा कहनेपर उन्हें ठगनेके लिये तत्पर मुनि विश्वामित्रने गान्धर्वी माया रचकर राजाके समक्ष एक सुकुमार पुत्र और दस वर्षकी कन्या उपस्थित कर दी और कहा-हे नृपश्रेष्ठ ! आज इन्हीं दोनोंका विवाह सम्पन्न करना है । किसी गृहस्थकी सन्तानका विवाह करा देनेका पुण्य राजसूययज्ञसे भी बढ़कर होता है । अतः आज ही इस विप्रपुत्रका विवाह सम्पन्न करा देनेसे आपको महान् पुण्य होगा ॥ १७-१९.५ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं राजा मायया तस्य मोहितः ॥ २० ॥
तथेति च प्रतिज्ञाय नोवाचाल्पं वचस्तथा ।
तेन दर्शितमार्गोऽसौ नगरं प्रति जग्मिवान् ॥ २१ ॥
विश्वामित्रोऽपि राजानं वञ्चयित्वाऽऽश्रमं ययौ ।
विश्वामित्रकी बात सुनकर उनकी मायासे मोहित हुए राजा हरिश्चन्द्र 'वैसा ही करूँगा'-यह प्रतिज्ञा करके आगे कुछ भी नहीं बोले । इसके बाद मुनिके द्वारा मार्ग दिखा दिये जानेपर वे अपने नगरको चले गये और राजाको ठगकर विश्वामित्र भी अपने आश्रमके लिये प्रस्थान कर गये ॥ २०-२१.५ ॥

कृतोद्वाहविधिस्तावद्‌विश्वामित्रोऽब्रवीन्नृपम् ॥ २२ ॥
वेदीमध्ये नृपाद्य त्वं देहि दानं यथेप्सितम् ।
विवाह-कार्य पूर्ण होनेके पूर्व विश्वामित्रने राजा हरिश्चन्द्रसे कहा-हे राजन् ! अब आप हवनवेदीके मध्य मुझे अभिलषित दान दीजिये । २२.५ ॥

राजोवाच -
किं तेऽभीष्टं द्विज ब्रूहि ददामि वाञ्छितं किल ॥ २३ ॥
अदेयमपि संसरे यशःकामोऽस्मि साम्प्रतम् ।
व्यर्थं हि जीवितं तस्य विभवं प्राप्य येन वै ॥ २४ ॥
नोपार्जितं यशः शुद्धं परलोकसुखप्रदम् ।
राजा बोले-हे द्विज ! आपकी क्या अभिलाषा है, उसे बताइए; मैं आपको अभिलषित वस्तु अवश्य दूंगा । इस संसारमें मेरे लिये कुछ भी अदेय नहीं है । अब मैं केवल यश प्राप्त करना चाहता हूँ; क्योंकि वैभव प्राप्त करके भी जिसने परलोकमें सुख देनेवाले पवित्र यशका उपार्जन नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है ॥ २३-२४.५ ॥

विश्वामित्र उवाच -
राज्यं देहि महाराज वराय सपरिच्छदम् ॥ २५ ॥
गजाश्वरथरत्‍नाढ्यं वेदीमध्येऽतिपावने ।
विश्वामित्र बोले-हे राजन् ! इस परम पुनीत हवनवेदीकेमध्य आप हाथी, घोड़े, रथ, स्त्न और अनुचरोंसे युक्त सम्पूर्ण राज्य वरको दे दीजिये ॥ २५.५ ॥

व्यास उवाच -
मोहितो मायया तस्य श्रुत्वा वाक्यं मुनेर्नृपः ॥ २६ ॥
दत्तमित्युक्तवान् राज्यमविचार्य यदृच्छया ।
गृहीतमिति तं प्राह विश्वामित्रोऽतिनिष्ठुरः ॥ २७ ॥
दक्षिणां देहि राजेन्द्र दानयोग्यां महामते ।
दक्षिणारहितं दानं निष्फलं मनुरब्रवीत् ॥ २८ ॥
व्यासजी बोले-मुनिकी बात सुनते ही उनकी मायासे मोहित होनेके कारण बिना कुछ सोचे-विचारे राजाने अकस्मात् कह दिया-'सारा राज्य आपको दे दिया । तत्पश्चात् परम निष्ठुर विश्वामित्रने उनसे कहा'मैंने पा लिया और हे राजेन्द्र ! हे महामते ! अब दानकी सांगता-सिद्धिके लिये उसके योग्य दक्षिणा भी दे दीजिये; क्योंकि मनुने कहा है कि दक्षिणारहित दान व्यर्थ होता है । अतएव दानका पूर्ण फल प्राप्त करनेके लिये आप यथोचित दक्षिणा भी दीजिये' ॥ २६-२८ ॥

तस्माद्दानफलाय त्वं यथोक्तां देहि दक्षिणाम् ।
इत्युक्तस्तु तदा राजा तमुवाचातिविस्मितः ॥ २९ ॥
ब्रूहि कियद्धनं तुभ्यं देयं स्वामिन् मयाधुना ।
दक्षिणानिष्क्रयं साधो वद तावत्प्रमाणकम् ॥ ३० ॥
मुनिके यह कहनेपर राजा हरिश्चन्द्र उस समय बड़े आश्चर्यमें पड़ गये । उन्होंने मुनिसे कहा-हे स्वामिन् । आप यह तो बताइये कि इस समय कितना धन आपको और देना है । हे साधो ! दक्षिणाके रूपमें निष्क्रय-द्रव्यका परिमाण बता दीजिये । हे तपोधन ! आप निश्चिन्त रहिये; दानको पूर्णताके लिये मैं वह दक्षिणा अवश्य दूंगा ॥ २९-३० ॥

दानपूर्त्यै प्रदास्यामि स्वस्थो भव तपोधन ।
विश्वामित्रस्तु तच्छ्रुत्वा तमाह मेदिनीपतिम् ॥ ३१ ॥
हेमभारद्वयं सार्धं दक्षिणां देहि साम्प्रतम् ।
दास्यामीति प्रतिश्रुत्य तस्मै राजातिविस्मितः ॥ ३२ ॥
यह सुनकर विश्वामित्रने राजा हरिश्चन्द्रसे कहा कि आप दक्षिणाके रूपमें ढाई भार सोना अभी दीजिये । तत्पश्चात् 'आपको दूंगा'-यह प्रतिज्ञा विश्वामित्रसे करके राजा बड़े विस्मयमें पड़ गये ॥ ३१-३२ ॥

तदैव सैनिकास्तस्य वीक्षमाणाः समागताः ।
दृष्ट्वा महीपतिं व्यग्रं तुष्टुवुस्ते मुदान्विताः ॥ ३३ ॥
उसी समय उनके सभी सैनिक भी उन्हें खोजते हुए वहाँ आ गये । राजाको देखकर वे बहुत हर्षित हुए और उन्हें चिन्तित देखकर सान्त्वना देने लगे ॥ ३३ ॥

व्यास उवाच -
श्रुत्वा तेषां वचो राजा नोक्त्वा किञ्चिच्छुभाशुभम् ।
चिन्तयन्स्वकृतं कर्म ययावन्तःपुरे ततः ॥ ३४ ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय !] उनकी बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र शुभाशुभ कुछ भी उत्तर न देकर अपने किये हुए कार्यपर विचार करते हुए अन्तःपुरमें चले गये ॥ ३४ ॥

किं मया स्वीकृतं दानं सर्वस्वं यत्समर्पितम् ।
वञ्चितोऽहं द्विजेनात्र वने पाटच्चरैरिव ॥ ३५ ॥
राज्यं सोपस्करं तस्मै मया सर्वं प्रतिश्रुतम् ।
भारद्वयं सुवर्णस्य सार्धं च दक्षिणा पुनः ॥ ३६ ॥
किं करोमि मतिर्भ्रष्टा न ज्ञातं कपटं मुनेः ।
प्रतारितोऽहं सहसा ब्राह्मणेन तपस्विना ॥ ३७ ॥
न जाने दैवकार्यं वै हा दैव किं भविष्यति ।
इति चिन्तापरो राजा गृहं प्राप्तोऽतिविह्वलः ॥ ३८ ॥
यह मैंने कैसा दान देना स्वीकार कर लिया, जो कि मैंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया । इस ब्राह्मणने तो ठगोंकी भाँति वनमें मुझे बड़ा धोखा दिया । सामग्रियोंसहित सम्पूर्ण राज्य उस ब्राह्मणको देनेके लिये मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी और फिर साथमें ढाई भार स्वर्णकी भी प्रतिज्ञा कर ली है । अब मैं क्या करूँ ? मेरी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी है । मुनिके कपटको मैं नहीं जान पाया और उस तपस्वी ब्राह्मणने मुझे अकस्मात् ही ठग लिया । विधिका विधान मैं बिलकुल नहीं समझ पा रहा हूँ । हा दैव ! पता नहीं भविष्यमें क्या होनेवाला है-इसी चिन्तामें पड़े हुए अत्यन्त क्षुब्धचित्त राजा हरिश्चन्द्र अपने महलमें पहुँचे ॥ ३५-३८ ॥

पतिं चिन्तापरं दृष्त्वा राज्ञी पप्रच्छ कारणम् ।
किं प्रभो विमना भासि का चिन्ता ब्रूहि साम्प्रतम् ॥ ३९ ॥
अपने पति राजा हरिश्चन्द्रको चिन्ताग्रस्त देखकर रानीने इसका कारण पूछा-हे प्रभो ! इस समय आप उदास क्यों दिखायी दे रहे हैं, आपको कौन-सी चिन्ता है ? मुझे बताइये ॥ ३९ ॥

वनात्पुत्रः समायातो राजसूयः कृतः पुरा ।
कस्माच्छोचसि राजेन्द्र शोकस्य कारणं वद ॥ ४० ॥
अब तो आपका पुत्र भी वनसे लौट आया है और आपने बहुत पहले ही राजसूययज्ञ भी सम्पन्न कर लिया है, तो फिर आप किसलिये शोक कर रहे हैं ? हे राजेन्द्र ! अपनी चिन्ताका कारण बताइये ॥ ४० ॥

नारातिर्विद्यते क्वापि बलवान्दुर्बलोऽपि वा ।
वरुणोऽपि सुसन्तुष्टः कृतकृत्योऽसि भूतले ॥ ४१ ॥
चिन्तया क्षीयते देहो नास्ति चिन्तासमा मृतिः ।
त्यज्यतां नृपशार्दूल स्वस्थो भव विचक्षण ॥ ४२ ॥
इस समय बलशाली अथवा बलहीन आपका कोई शत्रु भी कहीं नहीं है । वरुणदेव भी आपसे परम सन्तुष्ट हैं । आपने संसारमें अपने सारे मनोरथ सफल कर लिये हैं । हे बुद्धिमान् नृपश्रेष्ठ ! चिन्तासे शरीर क्षीण हो जाता है, चिन्ताके समान तो मृत्यु भी नहीं है; इसलिये आप चिन्ता छोड़िये और स्वस्थ रहिये ॥ ४१-४२ ॥

तन्निशम्य प्रियावाक्यं प्रीतिपूर्वं नराधिपः ।
प्रोवाच किञ्चिच्चिन्तायाः कारणं च शुभाशुभम् ॥ ४३ ॥
[हे जनमेजय !] अपनी पत्नीकी बात सुनकर राजाने प्रेमपूर्वक उन्हें चिन्ताका शुभाशुभ थोड़ा-बहुत कारण बतला दिया ॥ ४३ ॥

भोजनं न चकाराऽसौ चिन्ताविष्टस्तथा नृपः ।
सुप्त्वापि शयने शुभ्रे लेभे निद्रां न भूमिपः ॥ ४४ ॥
उस समय चिन्तासे आकुल राजा हरिश्चन्द्रने भोजनतक नहीं किया । सुन्दर शय्यापर लेटे रहनेपर भी राजाको निद्रा नहीं आयी ॥ ४४ ॥

प्रातरुत्थाय चिन्तार्तो यावत्सन्ध्यादिकाः क्रियाः ।
करोति नृपतिस्तावद्‌विश्वामित्रः समागतः ॥ ४५ ॥
चिन्ताग्रस्त राजा हरिश्चन्द्र प्रात:काल उठकर जब सन्ध्या-वन्दन आदि क्रियाएँ कर रहे थे, उसी समय मुनि विश्वामित्र वहाँ आ पहुँचे ॥ ४५ ॥

क्षत्रा निवेदितो राज्ञे मुनिः सर्वस्वहारकः ।
आगत्योवाच राजानं प्रणमन्तं पुनः पुनः ॥ ४६ ॥
राजाका सर्वस्व हरण कर लेनेवाले मुनिके आनेकी सूचना द्वारपालने राजाको दी । तब मुनि विश्वामित्र उनके पास गये और बार-बार प्रणाम करते हुए राजासे कहने लगे- ॥ ४६ ॥

विश्वामित्र उवाच -
राजंस्त्यज स्वराज्यं मे देहि वाचा प्रतिश्रुतम् ।
सुवर्णं स्पृश राजेन्द्र सत्यवाग्भव साम्प्रतम् ॥ ४७ ॥
विश्वामित्र बोले-हे राजन् ! अपना राज्य छोड़िये और अपने वचनसे संकल्पित इस राज्यको मुझे दे दीजिये । हे राजेन्द्र ! अब प्रतिज्ञा की हुई सुवर्णकी दक्षिणा भी दीजिये और सत्यवादी बनिये ॥ ४७ ॥

हरिश्चन्द्र उवाच -
स्वामिन् राज्यं तवेदं मे मया दत्तं किलाधुना ।
त्यक्त्वान्यत्र गमिष्यामि मा चिन्ता कुरु कौशिक ॥ ४८ ॥
हरिश्चन्द्र बोले-हे स्वामिन् ! मेरा यह राज्य अब आपका है; क्योंकि मैंने इसे आपको दे दिया है । हे कौशिक ! इसे छोड़कर अब मैं अन्यत्र चला जाऊँगा, आप चिन्ता न करें । ४८ ॥

सर्वस्वं मम ते ब्रह्मन् गृहीतं विधिवद्‌विभो ।
सुवर्णदक्षिणां दातुमशक्तोऽस्म्यधुना द्विज ॥ ४९ ॥
दानं ददामि ते तावद्यावन्मे स्याद्धनागमः ।
पुनश्चेत्कालयोगेन तदा दास्यामि दक्षिणाम् ॥ ५० ॥
हे ब्रह्मन् ! मेरा सर्वस्व तो विधिपूर्वक आपने ग्रहण कर लिया है, अतः हे विभो ! इस समय मैं आपको स्वर्ण-दक्षिणा देनेमें असमर्थ हूँ । हे द्विज ! जब मेरे पास धन हो जायगा, तब मैं आपको दक्षिणा दे दूंगा और यदि दैवयोगसे धन उपलब्ध हो गया, तो उसी समय मैं आपकी दक्षिणा चुका दूंगा ॥ ४९-५० ॥

इत्युक्त्वा नृपतिः प्राह पुत्रं भार्यां च माधवीम् ।
राज्यमस्मै प्रदत्तं वै मया वेद्यां सुविस्तरम् ॥ ५१ ॥
हस्त्यश्वरथसंयुक्तं रत्‍नहेमसमन्वितम् ।
त्यक्त्वा त्रीणि शरीराणि सर्वं चास्मै समर्पितम् ॥ ५२ ॥
त्यक्त्वायोध्यां गमिष्यामि कुत्रचिद्‌वनगह्वरे
गृह्णात्विदं मुनिः सम्यग्‌राज्यं सर्वसमृद्धिमत् ॥ ५३ ॥
विश्वामित्रसे यह कहकर राजा हरिश्चन्द्रने अपने पुत्र रोहित तथा पत्नी माधवीसे कहा-हाथी, घोड़े, रथ, स्वर्ण तथा रत्न आदिसहित अपना सारा विस्तृत राज्य में विवाहवेदीपर इन ब्राह्मणदेवको दान कर चुका हूँ; केवल हमलोगोंके इन तीन शरीरोंको छोड़कर और सब कुछ इन्हें समर्पित कर दिया है । अतः अब मैं अयोध्या छोड़कर किसी वनकी गुफामें चला जाऊँगा । अब ये मुनि इस सर्वसमृद्धिशाली राज्यको भलीभाँति ग्रहण करें ॥ ५१-५३ ॥

इत्याभाष्य सुतं भार्यां हरिश्चन्द्रः स्वमन्दिरात् ।
विनिर्गतः सुधर्मात्मा मानयंस्तं द्विजोत्तमम् ॥ ५४ ॥
[हे जनमेजय !] अपने पुत्र तथा पत्नीसे यह कहकर परम धार्मिक राजा हरिश्चन्द्र द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रको सम्मान देते हुए अपने भवनसे निकल पड़े ॥ ५४ ॥

व्रजन्तं भूपतिं वीक्ष्य भार्यापुत्रावुभावपि ।
चिन्तातुरौ सुदीनास्यौ जग्मतुः पृष्ठतस्तदा ॥ ५५ ॥
राजाको जाते देखकर उनकी पत्नी माधवी तथा पुत्र रोहित चिन्तित हो गये तथा उनके मुखपर उदासी छा गयी । वे दोनों भी उनके पीछे-पीछे चल दिये ॥ ५५ ॥

हाहाकारो महानासीन्नगरे वीक्ष्य तांस्तथा ।
चुक्रुशुः प्राणिनः सर्वे साकेतपुरवासिनः ॥ ५६ ॥
हा राजन् किं कृतं कर्म कुतः क्लेशः समागतः ।
वञ्चितोऽसि महाराज विधिनापण्डितेन ह ॥ ५७ ॥
उन सभीको इस स्थितिमें देखकर नगरमें बड़ा हाहाकार मच गया । अयोध्यामें रहनेवाले सभी प्राणी चीख-चीखकर रोने लगे-हा राजन् ! आपने यह कैसा कर्म कर डाला ! आपके ऊपर यह संकट कहाँसे आ पड़ा । हे महाराज ! यह निश्चय है कि आप विवेकहीन विधाताद्वारा ठग लिये गये हैं ॥ ५६-५७ ॥

सर्वे वर्णास्तदा दुःखमाप्नुयुस्तं महीपतिम् ।
विलोक्य भार्यया सार्धं पुत्रेण च महात्मना ॥ ५८ ॥
महात्मा पुत्र रोहित तथा भार्या माधवीके सहित उन राजा हरिश्चन्द्रको इस दशामें देखकर सभी वर्णके लोग बहुत दुःखी हुए । ५८ ॥

निनिन्दुर्ब्राह्मणं तं तु दुराचारं पुरौकसः ।
धूर्तोऽयमिति भाषन्तो दुःखार्ता ब्राह्मणादयः ॥ ५९ ॥
'यह महान् धूर्त है'-ऐसा कहते हुए नगरवासी ब्राह्मण आदि लोग दुःखसे व्याकुल होकर उस दुराचारी ब्राह्मण (विश्वामित्र)-की निन्दा करने लगे ॥ ५९ ॥

निर्गत्य नगरात्तस्माद्विश्वामित्रः क्षितीश्वरम् ।
गच्छन्तं तमुवाचेदं समेत्य निष्ठुरं वचः ॥ ६० ॥
दक्षिणायाः सुवर्णं मे दत्त्वा गच्छ नराधिप ।
नाहं दास्यामि वा ब्रूहि मया त्यक्तं सुवर्णकम् ॥ ६१ ॥
राज्यं गृहाण वा सर्वं लोभश्चेद्‌धृति वर्तते ।
दत्तं चेन्मन्यसे राजन् देहि यत्तत्प्रतिश्रुतम् ॥ ६२ ॥
महाराज हरिश्चन्द्र अभी नगरसे निकलकर जा ही रहे थे कि इतनेमें विश्वामित्र पुनः उनके सम्मुख आकर उनसे यह निष्ठुर वचन कहने लगे-हे राजन् ! मेरी सुवर्ण दक्षिणा देकर आप जाइये अथवा यह कह दीजिये कि मैं नहीं दूंगा तो मैं वह सुवर्ण छोड़ दूंगा । हे राजन् ! यदि आपके हृदयमें लोभ हो तो आप अपना सारा राज्य वापस ले लीजिये और यदि आप यह मानते हैं कि 'मैं वस्तुतः दान दे चुका हूँ' तो जिस सुवर्णकी आप प्रतिज्ञा कर चुके हैं, उसे मुझको दे दीजिये ॥ ६०-६२ ॥

एवं ब्रुवन्तं गाधेयं हरिश्चन्द्रो महीपतिः ।
प्रणिपत्य सुदीनात्मा कृताञ्जलिपुटोऽब्रवीत् ॥ ६३ ॥
विश्वामित्रके यह कहनेपर अत्यन्त उदास मनवाले राजा हरिश्चन्द्र उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ ६३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे कौशिकाय सर्वस्वसमर्पणं
तद्दक्षिणादानवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
अध्याय उन्निसवाँ समाप्त ॥ १९ ॥


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