रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूच्छित होना और विलाप करना -
सूतजी बोले-तत्पश्चात् राजा हरिश्चन्द्र नीचेकी ओर मुख करके रानीसे कहने लगे-हे बाले ! मुझ पापीके सामने यहाँ आकर बैठ जाओ । यदि मेरा हाथ मारनेमें समर्थ हो सका तो मैं तुम्हारा सिर काट लूँगा ॥ १.५ ॥
एवमुक्त्वा समुद्यम्य खड्गं हन्तुं गतो नृपः ॥ २ ॥ न जानाति नृपः पत्नीं सा न जानाति भूपतिम् । अब्रवीद् भृशदुःखार्ता स्वमृत्युमभिकाङ्क्षति ॥ ३ ॥
ऐसा कहकर हाथमें तलवार लेकर रानीको मारनेके लिये राजा हरिश्चन्द्र उनकी ओर गये । उस समय राजा न तो अपनी पत्नीको पहचान रहे थे और न तो रानी राजाको ही पहचान रही थीं । तब अत्यन्त दुःखसे पीड़ित रानी अपनी मृत्युकी इच्छा रखती हुई कहने लगीं ॥ २-३ ॥
स्त्र्युवाच - चाण्डाल शृणु मे वाक्यं किञ्चित्त्वं यदि मन्यसे । मृतस्तिष्ठति मे पुत्रो नातिदूरे बहिः पुरात् ॥ ४ ॥ तं दहामि हतं यावदानयित्वा तवान्तिकम् । तावत्प्रतीक्ष्यतां पश्चादसिना घातयस्व माम् ॥ ५ ॥
स्त्रीने कहा-हे चाण्डाल ! यदि तुम थोड़ा भी उचित समझते हो तो मेरी बात सुनो । इस नगरसे बाहर थोड़ी ही दूरीपर मेरा पुत्र मृत पड़ा है । मैं जबतक उस बालकको आपके पास लाकर उसका दाह न कर दूँ, तबतकके लिये मेरी प्रतीक्षा कीजिये, इसके बाद मुझे तलवारसे मार डालियेगा ॥ ४-५ ॥
तेनाथ बाढमित्युक्त्वा प्रेषिता बालकं प्रति । सा जगामातिदुःखार्ता विपलन्ती सुदारुणम् ॥ ६ ॥
'बहुत अच्छा'-ऐसा कहकर उसने रानीको बालकके पास भेज दिया । वे अत्यन्त शोकसे सन्तप्त होकर करुण विलाप करती हुई वहाँसे चली गयीं ॥ ६ ॥
भार्या तस्य नरेन्द्रस्य सर्पदष्टं हि बालकम् । हा पुत्र हा वत्स शिशो इत्येवं वदती मुहुः ॥ ७ ॥ कृशा विवर्णा मलिना पांसुध्वस्तशिरोरुहा । श्मशानभूमिमागत्य बालं स्थाप्याविशद्भुवि ॥ ८ ॥
उन राजा हरिश्चन्द्रकी भार्या 'हा पुत्र ! हा वत्स ! हा शिशो !' ऐसा बार-बार कहती हुई सर्पसे इंसे हुए उस बालकको लेकर तुरंत श्मशानभूमिमें आकर उसे जमीनपर लिटाकर स्वयं बैठ गयी । उस समय उनका शरीर दुर्बल हो गया था, उनका वर्ण विकृत था, उनका शरीर मलिन था और सिरके बाल धूलसे धूमिल हो गये थे ॥ ७-८ ॥
(राजन्नद्य स्वबालं तं पश्यसीह महीतले । रममाणं स्वसखिभिर्दष्टं दुष्टाहिना मृतम् ॥) तस्या विलापशब्दं तमाकर्ण्य स नराधिपः । शवसन्निधिमागत्य वस्त्रमस्याक्षिपत्तदा ॥ ९ ॥ तां तथा रुदतीं भार्यां नाभिजानाति भूमिपः । चिरप्रवाससन्तप्तां पुनर्जातामिवाबलाम् ॥ १० ॥ सापि तं चारुकेशान्तं पुरो दृष्ट्वा जटालकम् । नाभ्यजानान्नृपवरं शुष्कवृक्षत्वचोपमम् ॥ ११ ॥
[रानी यह कहकर विलाप कर रही थी] हे राजन् ! अपने मित्रोंके साथ खेलते समय क्रूर सर्पके द्वारा डंस लिये जानेसे मरे हुए पुत्रको आज आप पृथ्वीतलपर पड़ा हुआ देख लीजिये । तब उनके रुदनकी वह ध्वनि सुनकर राजा हरिश्चन्द्र शवके समीप आये और उन्होंने उसके ऊपरका वस्त्र हटाया । दीर्घ समयसे प्रवास-सम्बन्धी दुःख भोगनेके कारण दूसरे स्वरूपमें परिणत उन विलाप करती हुई अपनी अबला भार्याको उस समय राजा नहीं पहचान सके । पहले सुन्दर केशोंवाले उन नृपश्रेष्ठको अब जटाधारीके रूपमें तथा शुष्क वृक्षकी छालसदृश देखकर वे रानी भी उन्हें नहीं पहचान पायीं ॥ ९-११ ॥
भूमौ निपतितं बालं दृष्ट्वाशीविषपीडितम् । नरेन्द्रलक्षणोपेतमचिन्तयदसौ नृपः ॥ १२ ॥ अस्य पूर्णेन्दुवद्वक्त्रं शुभमुन्नसमव्रणम् । दर्पणप्रतिमोत्तुङ्गकपोलयुगशोभितम् ॥ १३ ॥ नीलान्केशान्कुञ्चिताग्रान् सान्द्रान्दीर्घांस्तरङ्गिणः । राजीवसदृशे नेत्रे ओष्ठौ बिम्बफलोपमौ ॥ १४ ॥ विशालवक्षा दीर्घाक्षो दीर्घबाहून्नतांसकः । विशालपादो गम्भीरःसूक्ष्माङ्गुल्यवनीधरः ॥ १५ ॥ मृणालपादो गम्भीरनाभिरुद्धतकन्धरः । अहो कष्टं नरेन्द्रस्य कस्याप्येष कुले शिशुः ॥ १६ ॥
सर्पके विषसे ग्रस्त होकर धरतीपर पड़े हुए बालकको देखकर वे महाराज हरिश्चन्द्र उसके राजोचित लक्षणोंपर विचार करने लगे-इसका मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाके सदृश है; इसकी नासिका अत्यन्त सुन्दर, उन्नत तथा व्रणरहित है और इसके दर्पणके समान चमकीले तथा ऊँचे दोनों कपोल अनुपम शोभा दे रहे हैं । इसके केश कृष्णवर्ण, धुंघराले अग्रभागवाले, स्निग्ध, लम्बे तथा लहरोंके समान हैं । इसके दोनों नेत्र कमलके समान हैं । इसके दोनों ओठ बिम्बाफलके सदृश हैं । यह बालक चौड़े वक्षःस्थल, विशाल नेत्र, लम्बी भुजाओं और ऊँचे स्कन्धोंवाला है । इसके बड़े-बड़े पैर हैं, इसकी छोटी-छोटी अँगुलियाँ हैं और यह गम्भीर स्वभाववाला कोई राजलक्षणयुक्त बालक जान पड़ता है । यह कमलनाल-सदृश चरणोंवाला, गहरी नाभिवाला और ऊँचे कन्धोंवाला है । अहो, महान् कष्टकी बात है कि किसी राजाके कुलमें उत्पन्न हुए इस बालकको दुरात्मा यमराजने अपने कालपाशमें बाँध लिया ॥ १२-१६ ॥
जातो नीतः कृतान्तेन कालपाशाद्दुरात्मना । सूत उवाच - एवं दृष्ट्वाथ तं बालं मातुरङ्के प्रसारितम् ॥ १७ ॥ स्मृतिमभ्यागतो राजा हाहेत्यश्रूण्यपातयत् । सोऽप्युवाच च वत्सो मे दशामेतामुपागतः ॥ १८ ॥ नीतो यदि च घोरेण कृतान्तेनात्मनो वशम् । विचारयित्वा राजासौ हरिश्चन्द्रस्तथा स्थितः ॥ १९ ॥ ततो राज्ञी महादुःखावेशादिदमभाषत ।
सूतजी बोले-माताकी गोदमें पड़े हुए उस बालकको देखकर ऐसा विचार करनेके उपरान्त राजा हरिश्चन्द्रको पूर्वकालकी स्मृति हो आयी और वे 'हाय, हाय'-ऐसा कहकर अश्रुपात करने लगे । वे कहने लगे कि कहीं मेरे ही पत्रकी यह दशा तो नहीं हो गयी है और क्रूर यमराजने उसे अपने अधीन कर लिया है', इस प्रकार विचार करके वे राजा हरिश्चन्द्र कुछ समयके लिये ठहर गये । तत्पश्चात् अत्यन्त शोकसे सन्तप्त रानी ऐसा कहने लगीं ॥ १७-१९.५ ॥
राज्ञ्युवाच - हा वत्स कस्य पापस्य त्वपध्यानादिदं महत् ॥ २० ॥ दुःखमापतितं घोरं तद्रूपं नोपलभ्यते । हा नाथ राजन् भवता मामपास्य सुदुःखिताम् ॥ २१ ॥ कस्मिन्संस्थीयते स्थाने विश्रब्धं केन हेतुना । राज्यनाशं सुहृत्त्यागो भार्यातनयविक्रयः ॥ २२ ॥
रानी बोलीं-हा वत्स ! किस पाप या अनिष्ट चिन्तनके परिणामस्वरूप यह महान् दारुण दुःख मेरे सामने आ पड़ा है ? इसका कारण भी समझमें नहीं आ रहा है । हे नाथ ! हे राजन् ! मुझ अत्यन्त दुःखिनीको छोड़कर इस समय आप किस स्थानपर विद्यमान हैं ? आप किस कारणसे निश्चिन्त हैं ? राजर्षि हरिश्चन्द्रको राज्यसे हाथ धोना पड़ा, उनके सुहृवर्ग अलग हो गये और उन्हें भार्या तथा पुत्रतकको बेच देना पड़ा । हा विधाता ! तुमने यह क्या कर दिया ? ॥ २०-२२ ॥
हरिश्चन्द्रस्य राजर्षेः किं विधातः कृतं त्वया । इति तस्या वचः श्रुत्वा राजा स्थानच्युतस्तदा ॥ २३ ॥ प्रत्यभिज्ञाय देवीं तां पुत्रं च निधनं गतम् । कष्टं ममैव पत्नीयं बालकश्चापि मे सुतः ॥ २४ ॥
तब रानीकी यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र अपने स्थानसे उठकर उनके समीप आ गये । तत्पश्चात् अपनी साध्वी पत्नी तथा मृत पुत्रको पहचानकर वे कहने लगे-'महान् कष्ट है कि यह स्त्री मेरी ही पत्नी है और यह बालक भी मेरा ही पुत्र है' ॥ २३-२४ ॥
ज्ञात्वा पपात सन्तप्तो मूर्च्छामतिजगाम ह । सा च तं प्रत्यभिज्ञाय तामवस्थामुपागतम् ॥ २५ ॥ मूर्च्छिता निपपातार्ता निश्चेष्टा धरणीतले । चेतनां प्राप्य राजेन्द्रो राजपत्नी च तौ समम् ॥ २६ ॥ विलेपतुः सुसन्तप्तौ शोकभारेण पीडितौ ।
यह सब जानकर असीम दुःखसे सन्तप्त राजा हरिश्चन्द्र मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े और वे रानी भी उन्हें पहचानकर उसी स्थितिको प्राप्त हो गयीं । वे दुःखके मारे मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं और उनकी समस्त इन्द्रियाँ चेष्टारहित हो गयीं । पुनः कुछ समय बाद चेतना आनेपर शोकके भारसे पीडित राजा और रानी दोनों अत्यन्त दुःखित होकर एक साथ विलाप करने लगे ॥ २५-२६.५ ॥
राजोवाच - हा वत्स सुकुमारं ते वदनं कुञ्चितालकम् ॥ २७ ॥ पश्यतो मे मुखं दीनं हृदयं किं न दीर्यते । तात तातेति मधुरं ब्रुवाणं स्वयमागतम् ॥ २८ ॥ उपगुह्य कदा वक्ष्ये वत्सवत्सेति सौहृदात् । कस्य जानुप्रणीतेन पिङ्गेन क्षितिरेणुना ॥ २९ ॥ ममोत्तरीयमुत्सङ्गं तथाङ्गं मलमेष्यति । न वालं मम सम्भूतं मनो हृदयनन्दन ॥ ३० ॥ (मयासि पितृमान्पित्रा विक्रीतो येन वस्तुवत् ।) गतं राज्यमशेषं मे सबान्धवधनं महत् । (हीनदैवान्नृशंसेन दृष्टो मे तनयस्ततः ।) अहं महाहिदष्टस्य पुत्रस्याननपङ्कजम् ॥ ३१ ॥ निरीक्षन्नद्य घोरेण विषेणाधिकृतोऽधुना ।
राजा बोले-हा वत्स ! कुंचित अलकावलीसे घिरा हुआ तुम्हारा मुख बड़ा ही सुकमार है । तुम्हारे दीन मुखको देखकर मेरा हृदय विदीर्ण क्यों नहीं हो जाता ? पहले तुम 'तात, तात'-ऐसा मधुर वाणीमें बोलते हुए मेरे पास स्वयं आ जाते थे, किंतु अब मैं तुम्हें बाहोंमें भरकर 'वत्स, वत्स'-ऐसा प्रेमपूर्वक कब पुकारूँगा ? अब भूमिकी पीतवर्णवाली धूलसे सने हुए किसके घुटने मेरी चादर, गोद और शरीरके अंगोंको मलिन करेंगे ? हे हृदयनन्दन ! मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं हो सका; (क्योंकि जिसने सामान्य वस्तुकी भाँति तुम्हें बेच दिया था, उसी पितासे तुम पितावाले बने थे । ) बहुतसे बन्धु-बान्धवों तथा अपार धनसहित मेरा सम्पूर्ण राज्य चला गया । (आज दुर्भाग्यके कारण मुझ निर्दयीको अपना ही पुत्र दिखायी पड़ गया । ) विषधर सपके द्वारा डैसे गये पुत्रके कमलसदृश मुखको देखता हुआ मैं इस समय स्वयं भीषण विषसे ग्रस्त हो गया हूँ ॥ २७-३१.५ ॥
तदनन्तर पृथ्वीपर गिरे हुए उन राजाको देखकर रानी शैव्याने मनमें ऐसा सोचा कि पुरुषों में श्रेष्ठ ये महानुभाव तो अपने स्वरसे ही पहचानमें आ जाते हैं । इसमें अब कोई सन्देह नहीं कि ये विद्वानोंके मनको प्रसन्न करनेवाले चन्द्रमारूपी हरिश्चन्द्र ही हैं । इन परम यशस्वी महात्मा पुरुषकी सुन्दर तथा ऊँची नासिका तिलके पुष्पके समान शुभ है और इनके दाँत पुष्पोंकी अधखिली कलियोंकी भाँति प्रतीत हो रहे हैं । इस प्रकार यदि ये वे ही राजा हरिश्चन्द्र हैं, तो इस श्मशानपर वे कैसे आ गये ? ॥ ३३-३५.५ ॥
अब पुत्र-शोकका त्याग करके वे रानी भूमिपर गिरे हुए अपने पत्तिको देखने लगीं । उस समय पति और पुत्र दोनोंके दुःखसे पीडित असहाय उन रानीके मनमें विस्मय और हर्ष-दोनों उत्पन्न हो उठे । राजाको देखती हुई वे सहसा मूछित होकर पृथ्वीतलपर गिर पड़ी और धीरे-धीरे चेतनामें आनेपर गद्गद वाणीमें कहने लगीं- 'अरे दयाहीन, मर्यादारहित तथा निन्दनीय दैव ! तुम्हें धिक्कार है, जो कि तुमने देवतुल्य इन नरेशको चाण्डाल बना दिया । इनका राज्य नष्ट हो गया, इनके बन्धु-बान्धव इनसे अलग हो गये और इन्हें अपनी पत्नी तथा पुत्रतक बेचने पड़े, ऐसी स्थितिमें पहुँचानेके बाद भी तुमने इन्हें चाण्डाल बना दिया ॥ ३६-३९.५ ॥
नाद्य पश्यामि ते छत्रं सिंहासनमथापि वा ॥ ४० ॥ चामरव्यजने वापि कोऽयं विधिविपर्ययः ।
[हे राजन् !] आज मैं आपके छत्र, सिंहासन, चामर अथवा व्यजन-कुछ भी नहीं देख रही हूँ विधाताकी यह कैसी विडम्बना है ! ॥ ४०.५ ॥
पहले जिनके यात्रा करते समय राजालोग भी सेवाकार्य में लग जाते थे और अपने उत्तरीय वस्त्रोंसे धूलयुक्त भूमिमार्गको स्वच्छ करते थे, वे ही ये महाराज इस समय दुःखसे व्यथित होकर अपवित्र श्मशानमें भटक रहे हैं; जहाँ सर्वत्र खोपड़ियाँ बिखरी पड़ी हैं, फूटे हुए घड़े तथा फटे वस्त्र पड़े हैं, जो मृतकोंके शरीरसे उतारे गये सूत्र तथा उनमें लगे हुए केशसे अत्यन्त भयंकर लगता है, जहाँकी भूमि शुष्क चर्बियोंकी विशाल स्थिर राशिसे पटी पड़ी है, जो भस्म, अंगारों, अधजली हड्डियों और मज्जाओंके समूहसे अति भीषण दिखायी पड़ता है, जहाँ गीध और सियार सदा बोलते रहते हैं, जहाँ क्षुद्र जातिके हष्ट-पुष्ट पक्षी मँडराते रहते हैं, जहाँकी सभी दिशाएँ चितासे निकले धुएँरूपी मेघसे अन्धकारयुक्त रहती हैं और जहाँपर शवोंके मांसको खाकर प्रसन्नतासे युक्त निशाचर दृष्टिगोचर हो रहे हैं । ४१-४५.५ ॥
ऐसा कहकर दुःख तथा शोकसे सन्तप्त रानी शैव्या राजाके कण्ठसे लिपटकर कातर वाणीमें विलाप करने लगी-हे राजन् ! यह स्वप्न है अथवा सत्य, जिसे आप मान रहे हैं । हे महाभाग ! यह आप स्पष्ट बतायें; क्योंकि मेरा मन व्याकुल हो रहा है । हे धर्मज्ञ ! यदि ऐसा ही है तो धर्ममें, सत्यपालनमें, ब्राह्मण और देवता आदिके पूजनमें सहायता करनेकी शक्ति विद्यमान नहीं है । जब आप-जैसे धर्मपरायण पुरुषको अपने राज्यसे च्युत होना पड़ा तो फिर धर्म, सत्य, सरलता और अनृशंसता (अहिंसा)-का कोई महत्त्व ही नहीं रहा ॥ ४६-४९ ॥
सूतजी बोले-उनका यह वचन सुनकर राजाने उष्ण श्वास छोड़कर रुंधे कण्ठसे उन कृश शरीरवाली शैव्यासे वह सब कुछ बताया, जिस प्रकार उन्हें चाण्डालत्व प्राप्त हुआ था । इसके बाद वह वृत्तान्त सुनकर रानी अत्यन्त दुःखित होकर बहुत देरतक रोती रहीं; फिर उष्ण श्वास छोड़कर उन्होंने भीरुतापूर्वक अपने पुत्रके मरणसम्बन्धी वृत्तान्तका यथावत् वर्णन राजासे कर दिया । वह वृत्तान्त सुनते ही राजा पृथ्वीपर गिर पड़े और फिर उठकर मृतपुत्रको बाहोंमें लेकर बार-बार जिहासे उसके मुखका स्पर्श करने लगे ॥ ५०-५२.५ ॥
तत्पश्चात् शैव्याने हरिश्चन्द्रसे गद्गद वाणीमें कहा-अब आप मेरा सिर काटकर अपने स्वामीकी आज्ञाका पालन कीजिये, जिससे आपको स्वामिद्रोहका दोष न लगे और आप सत्यसे च्युत न हों । हे राजेन्द्र ! आपकी वाणी असत्य नहीं होनी चाहिये और दूसरोंके प्रति द्रोह भी महान् पाप है ॥ ५३-५४.५ ॥
राजा बोले-हे प्रिये ! तुमने ऐसा अतिनिष्ठुर वचन कैसे कह दिया ? जो बात कही नहीं जा सकती, उसे कार्यरूपमें कैसे परिणत किया जाय ? ॥ ५६.५ ॥
पत्न्युवाच - मया च पूजिता गौरी देवा विप्रास्तथैव च ॥ ५७ ॥ भविष्यसि पतिस्त्वं मे ह्यन्यस्मिञ्जन्मनि प्रभो ।
पत्नीने कहा-हे प्रभो ! मैंने भगवती गौरीकी उपासना की है और उसी प्रकार मैंने देवताओं तथा ब्राह्मणोंकी भी भलीभाँति पूजा की है । उनके आशीर्वादसे आप अगले जन्ममें भी मेरे पति होंगे ॥ ५७.५ ॥
राजा बोले-हे प्रिये ! अब दीर्घ समयतक इस प्रकारका कष्ट भोगना मुझे अभीष्ट नहीं है । अब मैं अपने शरीरको स्वयं बचाये रखनेमें समर्थ नहीं हूँ । हे तन्वंगि ! मेरी मन्दभाग्यताको तो देखो कि यदि मैं इस चाण्डालसे बिना आज्ञा लिये ही आगमें जल जाऊँ तो अगले जन्ममें मुझे फिर चाण्डालकी दासता करनी पड़ेगी और मैं घोर नरकमें पड़कर भयंकर यातना भोगूंगा । इतना ही नहीं, महारौरव नरकमें भी गिरकर अनेक प्रकारके संताप सहने पडेंगे. फिर भी दुःखरूपी सागरमें डूबे हुए मुझ अभागेका अब प्राण त्याग देना ही श्रेयस्कर है ॥ ५९-६२ ॥
वंशकी वृद्धि करनेवाला मेरा जो यह एकमात्र पुत्र था, वह भी आज बलवान् दैवके प्रकोपसे मर गया । इस प्रकारकी दुर्गतिको प्राप्त हुआ मैं पराधीन होनेके कारण प्राणोंका त्याग कैसे करूँ ? फिर भी इस असीम दुःखसे ऊबकर अब मैं अपना शरीर त्याग ही दूंगा ॥ ६३-६४ ॥
तीनों लोकोंमें, असिपत्रवनमें और वैतरणीनदीमें वैसा क्लेश नहीं है; जैसा पुत्रशोकमें है । अत: हे तन्वंगि ! मैं पुत्र-देहके साथ प्रज्वलित अग्निमें स्वयं भी कूद पड़ेंगा, इसके लिये तुम मुझे क्षमा करना ॥ ६५-६६ ॥
न वक्तव्य त्वया किञ्चिदतः कमललोचने । मम वाक्यं च तन्वङ्गि निबोधाहतमानसा ॥ ६७ ॥ अनुज्ञाताथ गच्छ त्वं विप्रवेश्म शुचिस्मिते । यदि दत्तं यदि हुतं गुरवो यदि तोषिताः ॥ ६८ ॥ सङ्गमः परलोके मे निजपुत्रेण चेत्त्वया । इहलोके कुतस्त्वेतद्भविष्यति समीप्सितम् ॥ ६९ ॥
हे कमललोचने ! पुनः कुछ भी मत कहना । हे तन्वंगि ! सन्तप्त मनवाली तुम मेरी बात सुन लो । हे पवित्र मुसकानवाली प्रिये ! अब तुम मेरी आज्ञाके अनुसार ब्राह्मणके घर जाओ । यदि मैंने दान किया है, हवन किया है और सेवा आदिसे गुरुजनोंको सन्तुष्ट किया है तो उसके फलस्वरूप परलोकमें तुम्हारे साथ और अपने इस पुत्रके साथ मेरा मिलन अवश्य होगा । इस लोकमें अभिलषित मिलन अब कहाँसे होगा ? ॥ ६७-६९ ॥
यन्मया हसता किञ्चिद्रहसि त्वां शुचिस्मिते । अशेषमुक्तं तत्सर्वं क्षन्तव्यं मम यास्यतः ॥ ७० ॥ राजपत्नीति गर्वेण नावज्ञेयः स मे द्विजः । सर्वयत्नेन तोष्यं स्यात्स्वामी दैवतवच्छुभे ॥ ७१ ॥
हे शुचिस्मिते ! अब यहाँसे प्रस्थान करते हुए मेरेद्वारा एकान्तमें हँसीके रूपमें जो कुछ भी अनुचित वचन तुम्हें कहा गया हो, उन सबको तुम क्षमा कर देना । हे शुभे ! 'मैं राजाकी पत्नी हूँ'-ऐसा सोचकर अभिमानपूर्वक तुम्हें मेरे उस ब्राह्मणकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि स्वामीको देवतुल्य समझकर पूर्ण प्रयत्नके साथ उन्हें सन्तुष्ट रखना चाहिये । ७०-७१ ॥
रानी बोली-हे राजर्षे ! हे देव ! अत्यधिक दुःखके भारको सहन करनेमें असमर्थ मैं भी इस आगमें कूद पड़ेंगी और आपके साथ ही चलूँगी । हे मानद ! आपके साथ जानेमें मेरा परम कल्याण है, इसमें सन्देह नहीं है । आपके साथ रहकर मैं स्वर्ग और नरक-सबकुछ भोगूंगी । यह सुनकर राजा बोले-हे पतिव्रते ! ऐसा ही हो ॥ ७२-७३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे हरिश्चन्द्रोपाख्याने राज्ञो हुताशनप्रवेशोद्योगवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥