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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
सप्तविंशोऽध्यायः

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हरिश्चन्द्राख्यानश्रवणफलवर्णनम् -
चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत-वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय -


सूत उवाच -
ततः कृत्वा चितां राजा आरोप्य तनयं स्वकम् ।
भार्यया सहितो राजा बद्धाञ्जलिपुटस्तदा ॥ १ ॥
चिन्तयन्परमेशानीं शताक्षीं जगदीश्वरीम् ।
पञ्चकोशान्तरगतां पुच्छब्रह्मस्वरूपिणीम् ॥ २ ॥
रक्ताम्बरपरीधानां करुणारससागरम् ।
नानायुधधरामम्बां जगत्पालनतत्पराम् ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-तत्पश्चात् राजा हरिश्चन्द्रने चिता तैयार करके उसपर अपने पुत्रको लिटा दिया और भार्यासहित दोनों हाथ जोड़कर वे शताक्षी (सौ नेत्रोंवाली) परमेश्वरी, जगतकी अधिष्ठात्री, पंचकोशके भीतर सदा विराजमान रहनेवाली, पुच्छब्रह्मस्वरूपिणी, रक्तवर्णका वस्त्र धारण करनेवाली, करुणारसकी सागरस्वरूपा, अनेक प्रकारके आयुध धारण करनेवाली और जगत्की रक्षा करनेमें निरन्तर तत्पर जगदम्बाका ध्यान करने लगे ॥ १-३ ॥

तस्य चिन्तयमानस्य सर्वे देवाः सवासवाः ।
धर्मं प्रमुखतः कृत्वा समाजग्मुस्त्वरान्विताः ॥ ४ ॥
इस प्रकार ध्यानमग्न उन राजा हरिश्चन्द्रके समक्ष इन्द्रसहित सभी देवता धर्मको आगे करके तुरन्त उपस्थित हुए ॥ ४ ॥

आगत्य सर्वे प्रोचुस्ते राजञ्छ्रुणु महाप्रभो ।
अहं पितामहः साक्षाद्धर्मश्च भवगान्स्वयम् ॥ ५ ॥
साध्याः सविश्वे मरुतो लोकपालाः सचारणाः ।
नागाः सिद्धाः सगन्धर्वा रुद्राश्चैव तथाश्विनौ ॥ ६ ॥
एते चान्येऽथ बहवो विश्वामित्रस्तथैव च ।
विश्वत्रयेण यो मैत्रीं कर्तुमिच्छति धर्मतः ॥ ७ ॥
विश्वामित्रः स तेऽभीष्टमाहर्तुं सम्यगिच्छति ।
वहाँ आकर उन सबने कहा-हे राजन् ! हे महाप्रभो ! सुनिये, [ब्रह्माने कहा-] मैं साक्षात् पितामह ब्रह्मा हूँ और ये स्वयं भगवान् धर्मदेव हैं; इसी प्रकार साध्यगण, विश्वेदेव, मरुद्‌गण, चारणोंसहित लोकपाल, नाग, सिद्ध, गन्धर्वोके साथ स्ट्रगण, दोनों अश्विनीकुमार, महर्षि विश्वामित्र तथा अन्य ये बहुतसे देवता भी यहाँ उपस्थित हैं । जो धर्मपूर्वक तीनों लोकोंके साथ मित्रता करनेकी इच्छा रखते हैं, वे विश्वामित्र सम्यक् प्रकारसे आपका अभीष्ट सिद्ध करनेकी अभिलाषा प्रकट कर रहे हैं ॥ ५-७.५ ॥

धर्म उवाच -
मा राजन् साहसं कार्षीर्धर्मोऽहं त्वामुपागतः ॥ ८ ॥
धर्म बोले-हे राजन् ! आप ऐसा साहस मत कीजिये । आपमें जो सहनशीलता, इन्द्रियोंपर नियन्त्रण रखनेकी शक्ति तथा सत्त्व आदि गुण विद्यमान हैं; उनसे परम सन्तुष्ट होकर मैं साक्षात् धर्म आपके पास आया हूँ ॥ ८ ॥

तितिक्षादमसत्त्वाद्यैस्त्वद्‌गुणैः परितोषितः ।
इन्द्र उवाच -
हरिश्चन्द्र महाभाग प्राप्तः शक्रोऽस्मि तेऽन्तिकम् ॥ ९ ॥
त्वयाद्य भार्यापुत्रेण जिता लोकाः सनातनाः ।
आरोह त्रिदिवं राजन् भार्यापुत्रसमन्वितः ॥ १० ॥
इन्द्र बोले-हे महाभाग हरिश्चन्द्र ! मैं इन्द्र आपके समक्ष उपस्थित हूँ । हे राजन् ! आज स्त्रीपुत्रसहित आपने सनातन लोकोंपर विजय प्राप्त कर ली है । अत: अब आप अपनी भार्या तथा पुत्रको साथमें लेकर अपने श्रेष्ठ कोंके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य तथा अन्य लोगोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ स्वर्गके लिये प्रस्थान कीजिये ॥ ९-१० ॥

सुदुष्प्रापं नरैरन्यैर्जितमात्मीयकर्मभिः ।
सूत उवाच -
ततोऽमृतमयं वर्षमपमृत्युविनाशनम् ॥ ११ ॥
इन्द्रः प्रासृजदाकाशाच्चितामध्यगते शिशौ ।
पुष्पवृष्टिश्च महती दुन्दुभिस्वन एव च ॥ १२ ॥
सूतजी बोले-तत्पश्चात् इन्द्रने आकाशसे चिताके मध्यभागमें सोये हुए शिशु रोहितपर अपमृत्युका नाश करनेवाली अमृतमयी वृष्टि आरम्भ कर दी । उस समय पुष्पोंकी विपुल वर्षा तथा दुन्दुभियोंकी तेज ध्वनि होने लगी ॥ ११-१२ ॥

समुत्तस्थौ मृतः पुत्रो राज्ञस्तस्य महात्मनः ।
सुकुमारतनुः स्वस्थः प्रसन्नः प्रीतमानसः ॥ १३ ॥
ततो राजा हरिश्चन्द्रः परिष्वज्य सुतं तदा ।
सभार्यः स्वश्रिया युक्तो दिव्यमालाम्बरावृतः ॥ १४ ॥
बभूव तत्क्षणादिन्द्रो भूपं चैवमभाषत ॥ १५ ॥
सभार्यस्त्वं सपुत्रश्च स्वर्लोकं सद्‌गतिं पराम् ।
समारोह महाभाग निजानां कर्मणां फलम् ॥ १६ ॥
महान् आत्मावाले उन राजा हरिश्चन्द्रके सुकुमार अंगोंवाले मृत पुत्र रोहित स्वस्थ, प्रसन्न तथा आनन्दचित्त हो गये । तब राजाने अपने पुत्रको हदयसे लगा लिया । तत्पश्चात् पत्नीसहित वे राजा हरिश्चन्द्र दिव्य मालाओं तथा वस्त्रोंसे सहसा अलंकृत हो गये । उनके मनमें शान्ति छा गयी, उनके हदय हर्षसे भर गये और वे परम आनन्दसे समन्वित हो गये । उस समय इन्द्रने राजासे कहा-हे महाभाग ! अब आप स्त्री-पुत्रसहित स्वर्गलोकके लिये प्रस्थान कीजिये । आपने परम सद्‌गति प्राप्त की है, यह आपके अपने ही कर्मीका फल है ॥ १३-१६ ॥

हरिश्चन्द्र उवाच -
देवराजाननुज्ञातः स्वामिना श्वपचेन हि ।
अकृत्वा निष्कृतिं तस्य नारोक्ष्ये वै सुरालयम् ॥ १७ ॥
हरिश्चन्द्र बोले-हे देवराज ! अपने स्वामी चाण्डालसे बिना आज्ञा प्राप्त किये और बिना उनका प्रत्युपकार किये, मैं स्वर्गलोक नहीं जाऊँगा ॥ १७ ॥

धर्म उवाच -
तवैवं भाविनं क्लेशमवगम्यात्ममायया ।
आत्मा श्वपचतां नीतो दर्शितं तच्च पक्कणम् ॥ १८ ॥
धर्म बोले-आपके भावी क्लेशके सम्बन्धमें विचार करके मैं ही अपनी मायाके प्रभावसे चाण्डाल बन गया था । आपको जो चाण्डालका घर दिखायी पड़ा था, वह भी मेरी माया ही थी ॥ १८ ॥

इन्द्र उवाच -
प्रार्थ्यते यत्परं स्थानं समस्तैर्मनुजैर्भुवि ।
तदारोह हरिश्चन्द्र स्थानं पुण्यकृतां नृणाम् ॥ १९ ॥
इन्द्र बोले-हे हरिश्चन्द्र ! पृथ्वीपर रहनेवाले मनुष्य जिस श्रेष्ठ स्थानकी प्राप्तिहेत कामना करते हैं. पुण्यात्मा पुरुषोंके उस पवित्र स्थानके लिये अब आप प्रस्थान कीजिये ॥ १९ ॥

हरिश्चन्द्र उवाच -
देवराज नमस्तुभ्यं वाक्यं चेदं निबोध मे ।
मच्छोकमग्नमनसः कौसले नगरे नराः ॥ २० ॥
तिष्ठन्ति तानपास्यैवं कथं यास्याम्यहं दिवम् ।
ब्रह्महत्या सुरापानं गोवधः स्त्रीवधस्तथा ॥ २१ ॥
तुल्यमेभिर्महत्पापं भक्तत्यागादुदाहृतम् ।
भजन्तं भक्तमत्याज्यं त्यजतः स्यात्कथं सुखम् ॥ २२ ॥
तैर्विना न प्रयास्यामि तस्माच्छक्र दिवं व्रज ।
यदि ते सहिताः स्वर्गं मया यान्ति सुरेश्वर ॥ २३ ॥
ततोऽहमपि यास्यामि नरकं वापि तैः सह ।
हरिश्चन्द्र बोले-हे देवराज ! आपको नमस्कार है । अब मेरी एक बात सुन लीजिये । अयोध्या नगरमें रहनेवाले सभी मानव मेरे शोकसे सन्तप्त मनवाले हैं, उन्हें यहाँ छोड़कर मैं स्वर्ग कैसे जाऊँगा ? ब्रह्महत्या, सुरापान, गोवध और स्त्रीहत्या-जैसे महापातकोंके ही समान अपने भक्तोंका त्याग भी महान् पाप बताया गया है । श्रद्धालु भक्त त्याज्य नहीं होता है, उसे त्यागनेवालेको सुख भला कैसे मिल सकता है ? अतएव हे इन्द्र ! उन्हें छोड़कर मैं स्वर्ग नहीं जाऊँगा, अब आप स्वर्ग प्रस्थान करें । हे सुरेन्द्र ! यदि मेरे साथ वे भी स्वर्ग चलें तो मैं स्वर्ग चल सकता हूँ । उनके साथ यदि नरकमें जाना हो तो मैं वहाँ भी चला जाऊँगा । २०-२३.५ ॥

इन्द्र उवाच -
बहूनि पुण्यपापानि तेषां भिन्नानि वै नृप ॥ २४ ॥
कथं सङ्घातभोज्यं त्वं भूप स्वर्गमभीप्ससि ।
इन्द्र बोले-हे राजन् ! उन अयोध्याके नागरिकोंके भिन्न-भिन्न प्रकारके पुण्य और पाप हैं । हे भूप ! समस्त जन-समूहके लिये स्वर्ग उपभोगका साधन हो जाय-ऐसी इच्छा आप क्यों प्रकट कर रहे हैं ? ॥ २४.५ ॥

हरिश्चन्द्र उवाच -
भुङ्क्ते शक्र नृपो राज्यं प्रभावात्प्रकृतेध्रुवम् ॥ २५ ॥
यजते च महायज्ञैः कर्म पूर्तं करोति च ।
तच्च तेषां प्रभावेण मया सर्वमनुष्ठितम् ॥ २६ ॥
उपदादान्न संत्यक्ष्ये तानहं स्वर्गलिप्सया ।
तस्माद्यन्मम देवेश किञ्चिदस्ति सुचेष्टितम् ॥ २७ ॥
दत्तमिष्टमथो जप्तं सामान्यं तैस्तदस्तु नः ।
बहुकालोपभोज्यं च फलं यन्मम कर्मगम् ॥ २८ ॥
तदस्तु दिनमप्येकं तैः समं त्वप्रसादतः ।
हरिश्चन्द्र बोले-हे इन्द्र ! प्रजाके प्रभावसे ही राजा राज्यका भोग करता है, यह सुनिश्चित है और उन्हींकी सहायतासे ही राजा बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा देवताओंकी उपासना करता है और पूर्तकर्म (कुएँ-तालाब आदिका निर्माण) करता है । मैंने भी उन्हींके बलपर यह सब कृत्य किया है । उनके द्वारा की गयी सहायताके कारण मैं स्वर्गके लोभसे उनका त्याग नहीं करूँगा । अतः हे देवेश ! मैंने जो कुछ भी उत्तम कार्य किया हो; दान, यज्ञ और जप आदि किया हो, उसका फल हमें उन सभीके साथ प्राप्त हो; और मेरे उत्तम कर्मके फलस्वरूप बहुत समयतक भोग करनेका जो फल मिल रहा हो, वह भले ही एक दिनके लिये हो, उन नागरिकोंके साथ भोगनेके लिये मुझे आपकी कृपासे मिल जाय ॥ २५-२८.५ ॥

सूत उवाच -
एवं भविष्यतीत्युक्त्वा शक्रस्त्रिभुवनेश्वरः ॥ २९ ॥
प्रसन्नचेता धर्मश्च विश्वामित्रश्च गाधिजः ।
गत्वा तु नगरं सर्वे चातुर्वर्ण्यसमाकुलम् ॥ ३० ॥
हरिश्चन्द्रस्य निकटे प्रोवाच विबुधाधिपः ।
आगच्छन्तु जनाः शीघ्रं स्वर्गलोकं सुदुर्लभम् ॥ ३१ ॥
सूतजी बोले-त्रिलोकीके स्वामी इन्द्रने 'ऐसा ही होगा'-इस प्रकार कहा । इससे धर्म और गाधिपुत्र विश्वामित्रके मनमें प्रसन्नता छा गयी । तदनन्तर वे सभी लोग चारों वर्गों के लोगोंसे भरी हुई अयोध्या नगरीमें पहुंचे । वहाँपर सुरपति इन्द्रने राजा हरिश्चन्द्रके सन्निकट आकर कहा-हे नागरिको ! अब आप सभी लोग परम दुर्लभ स्वर्गलोक चलिये । धर्मके फलस्वरूप ही आप सभीको यह स्वर्ग सुलभ हुआ है ॥ २९-३१ ॥

धर्मप्रसादात्सम्प्राप्तं सर्वैर्युष्माभिरेव तु ।
हरिश्चन्द्रोऽपि तान्सर्वाञ्जनान्नगरवासिनः ॥ ३२ ॥
तत्पश्चात् धर्मपरायण राजा हरिश्चन्द्रने उन सभी नगरवासियोंसे कहा कि आप सभी लोग मेरे साथ स्वर्गलोक प्रस्थान कीजिये ॥ ३२ ॥

प्राह राजा धर्मपरो दिवमारुह्यतामिति ।
सूत उवाच -
तदिन्द्रस्य वचः श्रुत्वा प्रीतास्तस्य च भूपतेः ॥ ३३ ॥
ये संसारेषु निर्विण्णास्ते धुरं स्वसुतेषु वै ।
कृत्वा प्रहृष्टमनसो दिवमारुरुहुर्जनाः ॥ ३४ ॥
विमानवरमारूढाः सर्वे भास्वरविग्रहाः ।
तदा सम्भूतहर्षास्ते हरिश्चन्द्रश्च पार्थिवः ॥ ३५ ॥
राज्येऽभिषिच्य तनयं रोहिताख्यं महामनाः ।
अयोध्याख्ये पुरे रम्ये हृष्टपुष्टजनान्विते ॥ ३६ ॥
तनयं सुहृदश्चापि प्रतिपूज्याभिनन्द्य च ।
पुण्येन लभ्यां विपुलां देवादीनां सुदुर्लभाम् ॥ ३७ ॥
सम्प्राप्य कीर्तिमतुलां विमाने स महीपतिः ।
आसाञ्चक्रे कामगमे क्षुद्रघण्टाविराजिते ॥ ३८ ॥
सूतजी बोले-देवराज इन्द्र तथा राजा हरिश्चन्द्रका वचन सुनकर सभी नागरिक प्रफुल्लित हो उठे । जो नागरिक सांसारिकतासे विरक्त हो चुके थे, वे गृहस्थीका भार अपने पुत्रोंको सौंपकर प्रसन्न मनसे स्वर्ग जानेके लिये तैयार हो गये । वे सभी लोग उत्तम विमानोंपर चढ़ गये । उनके शरीरसे सूर्यके समान तेज निकलने लगा । उस समय वे परम आनन्दित हो गये । उदार चित्तवाले राजा हरिश्चन्द्र भी हष्ट-पुष्ट नागरिकोंसे युक्त अयोध्या नामक रमणीक पुरीमें अपने रोहित नामसे प्रसिद्ध पुत्रका राज्याभिषेक करके अपने पुत्र तथा सुहदोंका सम्मानपूजन करके और पुण्यसे प्राप्त होनेवाली तथा देवता आदिके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ महान् कीर्तिको प्राप्त करके छोटी-छोटी घण्टियोंसे सुशोभित तथा इच्छाके अनुसार चलनेवाले विमानपर बैठ गये ॥ ३३-३८ ॥

ततस्तर्हि समालोक्य श्लोकमन्त्रं तदा जगौ ।
दैत्याचार्यो महाभागः सर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित् ॥ ३९ ॥
यह सब देखकर दैत्योंके आचार्य एवं सभी शास्त्रकि अर्थों तथा तत्त्वोंको जाननेवाले महाभाग शुक्राचार्यने यह श्लोकरूपी मन्त्र उच्चारित किया- ॥ ३९ ॥

शुक्र उवाच -
अहो तितिक्षामाहात्म्यमहो दानफलं महत् ।
यदागतो हरिश्चन्द्रो महेन्द्रस्य सलोकताम् ॥ ४० ॥
शुक्राचार्य बोले-अहो, सहिष्णुताकी ऐसी महिमा और दानका इतना महान् फल कि राजा हरिश्चन्द्रने इन्द्रका लोक प्राप्त कर लिया ॥ ४० ॥

सूत उवाच -
एतत्ते सर्वमाख्यानं हरिश्चन्द्रस्य चेष्टितम् ।
यः शृणोति च दुःखार्तः स सुखं लभतेऽन्वहम् ॥ ४१ ॥
स्वर्गार्थी प्राप्नुयात् स्वर्गं सुतार्थी सुतमाप्नुयात् ।
भार्यार्थी प्राप्नुयाद्‌भार्यां राज्यार्थीं राज्यमाप्नुयात् ॥ ४२ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्रके सम्पूर्ण चरित्रका वर्णन मैंने आपलोगोंसे कर दिया । जो दुःखी प्राणी इस आख्यानका श्रवण करता है, वह सदा सुखी रहता है । इसका श्रवण करनेसे स्वर्गकी इच्छा रखनेवाला स्वर्ग प्राप्त कर लेता है, पुत्रकी अभिलाषा रखनेवाला पुत्र प्राप्त कर लेता है, पत्नीकी कामना करनेवाला पत्नी प्राप्त कर लेता है और राज्यकी वांछा रखनेवाला राज्य प्राप्त कर लेता है ॥ ४१-४२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे
हरिश्चन्द्राख्यानश्रवणफलवर्णनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
अध्याय सत्ताइसवाँ समाप्त ॥ २७ ॥


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