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शताक्षीचरित्रवर्णनम् -
दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति -
जनमेजय उवाच - विचित्रमिदमाख्यानं हरिश्चन्द्रस्य कीर्तितम् । शताक्षीपादभक्तस्य राजर्षेर्धार्मिकस्य च ॥ १ ॥ शताक्षी सा कुतो जाता देवी भगवती शिवा । तत्कारणं वद मुने सार्थकं जन्म मे कुरु ॥ २ ॥ को हि देव्या गुणाञ्छृण्वंस्तृप्तिं यास्यति शुद्धधीः । पदे पदेऽश्वमेधस्य फलमक्षय्यमश्नुते ॥ ३ ॥
जनमेजय बोले-हे मुने ! भगवती शताक्षीके चरणोंके उपासक एवं धर्मपरायण राजर्षि हरिश्चन्द्रकी यह बड़ी अद्भुत कथा आपने कही । हे मुने ! वे कल्याणमयी देवी भगवती किस प्रकारसे शताक्षी (सौ नेत्रोंवाली) हुई ? उसका कारण बताइये । मेरे जन्मको सार्थक कीजिये । कौन ऐसा विमल बुद्धिवाला मनुष्य होगा, जो भगवतीके गुणोंका श्रवण करके पूर्णरूपसे तृप्त हो जाय ! इसे सुननेसे पद-पदपर अश्वमेधयज्ञका फल मनुष्यको प्राप्त होता है ॥ १-३ ॥
व्यास उवाच - शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि शताक्षीसम्भवं शुभम् । तवावाच्यं न मे किञ्चिद्देवीभक्तस्य विद्यते ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! मैं शताक्षीको मंगलकारिणी उत्पत्तिका वर्णन करता हूँ, आप सुनिये । आपसदृश देवीभक्तके प्रति कोई भी बात मेरे लिये अवाच्य नहीं है ॥ ४ ॥
दुर्गमाख्यो महादैत्यः पूर्वं परमदारुणः । हिरण्याक्षान्वये जातो रुरुपुत्रो महाखलः ॥ ५ ॥
प्राचीन कालकी बात है-दुर्गम नामक एक अत्यन्त भयंकर महादैत्य था । हिरण्याक्षके वंशमें उत्पन्न वह महान् दुष्ट दुर्गम रुरुका पुत्र था ॥ ५ ॥
'देवताओंका बल वेद है । उस वेदके नष्ट हो जानेपर देवताओंका भी नाश हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है । अतः पहले वही (वेदनाश) किया जाना चाहिये'-ऐसा सोचकर वह तप करनेके लिये हिमालयपर्वतपर चला गया । वहाँपर मनमें ब्रह्माजीका ध्यान करके उसने केवल वायु पीकर रहते हुए एक हजार वर्षतक कठोर तपस्या की । उसके तेजसे देवदानवसहित समस्त प्राणी सन्तप्त हो उठे ॥ ६-८ ॥
ततः प्रसन्नो भगवान् हंसारूढश्चतुर्मुखः । ययौ तस्मै वरं दातुं प्रसन्नमुखपङ्कजः ॥ ९ ॥
तब [उसके तपसे] प्रसन्न होकर विकसित कमलके समान सुन्दर मुखवाले चतुर्मुख भगवान् ब्रह्मा हंसपर आरूढ़ होकर उसे वर देनेके लिये वहाँ गये ॥ ९ ॥
समाधिस्थं मीलिताक्षं स्फुटमाह चतुर्मुखः । वरं वरय भद्रं ते यस्ते मनसि वर्तते ॥ १० ॥
नेत्र मूंदकर समाधिकी स्थितिमें बैठे हुए उस दैत्यसे चार मुखवाले ब्रह्माजीने स्पष्ट वाणीमें कहा'तुम्हारा कल्याण हो । तुम्हारे मन में जो भी इच्छा हो, उसे वरके रूपमें माँग लो । वरदाताओंका स्वामी मैं तुम्हारी तपस्यासे प्रसन्न होकर इस समय उपस्थित हुआ हूँ' ॥ १० ॥
तवाद्य तपसा तुष्टो वरदेशोऽहमागतः । श्रुत्वा ब्रह्ममुखाद्वाणीं व्युत्थितः स समाधितः ॥ ११ ॥ पूजयित्वा वरं वव्रे वेदान्देहि सुरेश्वर । त्रिषु लोकेषु ये मन्त्रा ब्राह्मणेषु सुरेष्वपि ॥ १२ ॥ विद्यन्ते ते तु सान्निध्ये मम सन्तु महेश्वर । बलं च देहि येन स्याद्देवानां च पराजयः ॥ १३ ॥
ब्रह्माजीके मुखसे यह वाणी सुनकर वह दैत्य समाधिसे उठ खड़ा हुआ और उसने पूजा करके वर माँगते हुए कहा-हे सुरेश्वर ! मुझे सभी वेद देनेकी कृपा कीजिये । साथ ही हे महेश्वर ! तीनों लोकोंमें ब्राह्मणों और देवताओंके पास जो मन्त्र हों, वे सब मेरे पास आ जायँ और मुझे वह बल दीजिये, जिससे मेरे द्वारा देवताओंकी पराजय हो जाय ॥ ११-१३ ॥
उसी समयसे ब्राह्मणोंको समस्त वेद विस्मृत हो गये । स्नान, संध्या, नित्य होम, श्राद्ध, यज्ञ और जप आदिका लोप हो गया, जिससे भूमण्डलमें बड़ा हाहाकार मच गया । ब्राह्मण आपसमें कहने लगे'यह क्या हो गया, यह क्या हो गया; अब इसके बाद वेदके अभावकी स्थितिमें हमलोगोंको क्या करना चाहिये ?' ॥ १५-१६.५ ॥
इति भूमौ महानर्थे जाते परमदारुणे ॥ १७ ॥ निर्जराः सजरा जाता हविर्भागाद्यभावतः । रुरोध स तदा दैत्यो नगरीममरावतीम् ॥ १८ ॥
इस प्रकार जगत्में अत्यन्त भयंकर तथा घोर अनर्थ उत्पन्न होनेपर हविभाग न मिलनेके कारण सभी देवता जरारहित होते हुए भी जराग्रस्त हो गये । तब उसने देवताओंकी नगरी अमरावतीको घेर लिया ॥ १७-१८ ॥
अशक्तास्तेन ते योद्धुं वज्रदेहासुरेण च । पलायनं तदा कृत्वा निर्गता निर्जराः क्वचित् ॥ १९ ॥ निलयं गिरिदुर्गेषु रत्नसानुगुहासु च । संस्थिताः परमां शक्तिं ध्यायन्तस्ते पराम्बिकाम् ॥ २० ॥
देवतागण वज्रके समान शरीरवाले उस दैत्यके साथ युद्ध करनेमें असमर्थ हो गये । अतः भागकर वे देवता पर्वतकी कन्दराओं और सुमेरुपर्वतकी गुफाओंमें स्थान बनाकर परम शक्तिस्वरूपा पराम्बिकाका ध्यान करते हुए रहने लगे ॥ १९-२० ॥
हे राजन् ! अग्निमें हवन आदि न होनेके कारण वर्षाका भी अभाव हो गया । वर्षाक अभावमें भूतल शुष्क तथा जलविहीन हो गया । कुएँ, बावलियाँ, तालाब और नदियाँ-ये सभी सूख गये । हे राजन् ! यह अनावृष्टि सौ वर्षोंतक बनी रही, जिससे बहुत-सी प्रजाएँ और गाय-भैंस आदि पशु मर गये । इस प्रकार घर-घरमें मनुष्योंके शवके ढेर लग गये ॥ २१-२३ ॥
इस प्रकार अनर्थके उपस्थित होनेपर शान्त चित्तवाले वे ब्राह्मण कल्याणस्वरूपिणी जगदम्बाकी आराधना करनेके विचारसे हिमालयपर्वतपर जाकर समाधि, ध्यान और पूजाके द्वारा भगवतीको निरन्तर प्रसन्न करने लगे । वे निराहार रहते हुए एकमात्र उन्हीं भगवतीमें चित्त लगाकर उनके शरणापन्न हो गये [और उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे-] ॥ २४-२५ ॥
दयां कुरु महेशानि पामरेषु जनेषु हि । सर्वापराधयुक्तेषु नैतच्छ्लाघ्यं तवाम्बिके ॥ २६ ॥ कोपं संहर देवेशि सर्वान्तर्यामिरूपिणि । त्वया यथा प्रेर्यतेऽयं करोति स तथा जनः ॥ २७ ॥ नान्या गतिर्जनस्यास्य किं पश्यसि पुनः पुनः । यथेच्छसि तथा कर्तुं समर्थासि महेश्वरि ॥ २८ ॥ समुद्धर महेशानि संकटात्परमोत्थितात् । जीवनेन विनास्माकं कथं स्यात्स्थितिरम्बिके ॥ २९ ॥ प्रसीद त्वं महेशानि प्रसीद जगदम्बिके । अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायिके ते नमो नमः ॥ ३० ॥ नमः कूटस्थरूपायै चिद्रूपायै नमो नमः । नमो वेदान्तवेद्यायै भुवनेश्यै नमो नमः ॥ ३१ ॥ नेति नेतीति वाक्यैर्या बोध्यते सकलागमैः । तां सर्वकारणां देवीं सर्वभावेन सन्नताः ॥ ३२ ॥
हे महेश्वरि ! हम असहाय जनोंपर दया कीजिये । हे अम्बिके ! समस्त अपराधोंसे युक्त हमलोगोंपर कृपा न करना आपके लिये शोभनीय नहीं है । सभीके भीतर निवास करनेवाली हे देवेश्वरि ! आप अपना कोप दूर कीजिये । आप प्राणीको जैसी प्रेरणा देती हैं, वैसा ही वह करता है । इस मानवकी अन्य गति है ही नहीं । हे महेश्वरि ! आप बार-बार क्या देख रही हैं ? आप जैसा चाहें, वैसा करने में पूर्ण समर्थ हैं । हे महशानि ! इस उत्पन्न हुए घोर संकटसे हमारा उद्धार कीजिये । हे अम्बिके ! जीवनी शक्तिके अभावमें हमारी स्थिति कैसे रह सकती है ? हे महेश्वरि ! आप प्रसन्न हो जाइये । हे जगदम्बिके ! आप प्रसन्न हो जाइये । अनन्तकोटि ब्रह्माण्डकी अधीश्वरि ! आपको बार-बार नमस्कार है । कूटस्थरूपिणी देवीको नमस्कार है, चिद्रूपा देवीको बार-बार नमस्कार है, वेदान्तोंके द्वारा ज्ञात होनेवालीको नमस्कार है और अखिल भुवनकी स्वामिनीको बार-बार नमस्कार है । सम्पूर्ण आगमशास्त्र 'नेति-नेति' इन वचनोंसे जिनका ज्ञान कराते हैं, हम सब प्रकारसे उन सर्वकारण-स्वरूपिणी भगवतीके शरणागत हैं ॥ २६-३२ ॥
इस प्रकार ब्राह्मणोंके प्रार्थना करनेपर समस्त भुवनपर शासन करनेवाली भगवती भुवनेशी महेश्वरी पार्वतीने उन्हें अनन्त नेत्रोंसे युक्त अपना रूप दिखाया । उनका विग्रह काले कज्जलके सदृश था, नीलकमलके समान विशाल नेत्रोंसे सम्पन्न था और अत्यन्त कठोर, समान आकार-प्रकारवाले, उन्नत, गोल, स्थूल एवं सुडौल स्तनोंसे सुशोभित था । वे अपने हाथोंमें मुट्ठीभर बाण, विशाल धनुष, कमल, पुष्प-पल्लव, जड़ तथा फलोंसे सम्पन्न, अनन्त रससे युक्त तथा भूख-प्यास और बुढ़ापेको दूर करनेवाले शाक आदि धारण किये हुए थीं ॥ ३३-३५.५ ॥
सम्पूर्ण सुन्दरताके सारस्वरूप, कमनीयता-सम्पन्न, करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान और करुणारसके सागरस्वरूप उस विग्रहका दर्शन कराकर अनन्त नेत्रोंके साथ प्रकट वे जगद्धात्री भगवती समस्त लोकोंमें अपनी आँखोंसे सहस्रों जलधाराएँ गिराने लगीं । इस तरह उनके नेत्रोंसे निकले हुए जलसे नौ राततक महान् वृष्टि होती रही ॥ ३६-३८ ॥
समस्त प्राणियोंको दु:खी देखकर भगवती अपने नेत्रोंसे आँसू गिराती रहीं, उससे वे सभी प्राणी और सभी औषधियाँ भी तृप्त हो गयीं । हे राजन् ! उस वृष्टिके द्वारा सभी नदियाँ और समुद्र जलसे परिपूर्ण हो गये । पहले जो देवता छिपकर रह रहे थे, वे अब बाहर निकल आये । इसके बाद सभी देवता और ब्राह्मण एक साथ मिलकर देवीकी स्तुति करने लगे- ॥ ३९-४०.५ ॥
हे वेदान्तवेद्ये ! आपको नमस्कार है । हे ब्रह्मस्वरूपिणि ! आपको नमस्कार है । अपनी मायासे सम्पूर्ण जगत्की रचना करनेवाली, भक्तोंके लिये देह धारण करनेवाली तथा कल्पवृक्षके समान उनके मनोरथ पूर्ण करनेवाली हे देवि ! आपको बार-बार नमस्कार है । सदा सन्तुष्ट रहनेवाली और सभी उपमाओंसे रहित हे भुवनेश्वरि ! आपको नमस्कार है । हे देवि ! हमारी शान्तिके लिये आपने सहस्र नेत्रोंसे सम्पन्न अनुपम रूप धारण किया है, अतः आप 'शताक्षी' नामसे विख्यात हों । हे जननि ! भूखसे अत्यन्त पीडित होनेके कारण आपकी स्तुति करनेके लिये हमलोगोंमें सामर्थ्य नहीं है । हे महेशानि ! हे अम्बिके ! अब आप कृपा कीजिये और हमें वेदोंको प्राप्त कराइये । ४१-४४.५ ॥
व्यासजी बोले-उनका यह वचन सुनकर कल्याण-कारिणी भगवतीने उन्हें खानेके लिये अपने हाथमें स्थित शाक तथा स्वादिष्ट फल-मूल प्रदान किये । साथ ही नानाविध अन्न तथा पशुओंके खानेयोग्य पदार्थ और अनन्त काम्य रसोंसे सम्पन्न भोज्य पदार्थ उन्हें नवीन अन्नोत्पत्तितकके लिये प्रदान किये । हे नृप ! उसी दिनसे शाकम्भरी-यह उनका एक और भी नाम पड़ गया ॥ ४५-४७ ॥
इसके बाद जगत्में कोलाहल मच जाने तथा दूतके सब कुछ बता देनेपर वह दुर्गम नामक दैत्य युद्ध करनेके लिये अस्त्र-शस्त्र लेकर सेनाके साथ चल पड़ा । एक हजार अक्षौहिणी सेनासे युक्त उस दैत्यने शीघ्रतापूर्वक बाण छोड़ते हुए पहले देवीके आगे स्थित देवसेनाको अवरुद्ध कर दिया और उसी प्रकार उसने सभी ब्राह्मणोंको भी चारों ओरसे रोक दिया । इससे देवताओंकी मण्डलीमें चीखपुकारकी ध्वनि होने लगी । सभी ब्राह्मण तथा देवता 'रक्षा करो, रक्षा करो'- इस प्रकारके शब्द बोलने लगे ॥ ४८-५०.५ ॥
तदनन्तर भगवती और दैत्य दुर्गम-इन दोनोंके मध्य युद्ध होने लगा । बाणोंकी वर्षासे अद्भुत सूर्यमण्डल आच्छादित हो गया । बाणोंके परस्पर घर्षणसे तीव्र प्रभावाली अग्नि निकलने लगती थीं । धनुषकी कठोर प्रत्यंचाके टंकारसे अपने प्रान्तभागतक दिशाएँ बहरीसी हो जाती थीं ॥ ५२-५३ ॥
तत्पश्चात् देवीके शरीरसे अनेक उग्र शक्तियाँ प्रकट हुई । उनमें कालिका, तारिणी, बाला, त्रिपुरा, भैरवी, रमा, बगला, मातंगी, त्रिपुरसुन्दरी, कामाक्षी, तुलजादेवी, जम्भिनी, मोहिनी, छिन्नमस्ता, गुह्यकाली तथा दस हजार हाथोंवाली देवी [ये सोलह], पुनः बत्तीस, इसके बाद चौंसठ और फिर अनन्त देवियाँ हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए प्रकट हुईं ॥ ५४-५७ ॥
वह युद्धस्थल मृदंग, शंख, वीणा आदि वाद्योंसे गूंज उठा । उन शक्तियोंके द्वारा दैत्योंकी एक सौ अक्षौहिणी सेनाका संहार कर दिये जानेपर देवशत्रु वह दैत्यसेनाध्यक्ष दुर्गम तुरन्त सामने आ खड़ा हुआ और शक्तियोंके साथ अद्भुत युद्ध करने लगा ॥ ५८-५९ ॥
तदनन्तर अत्यन्त भयंकर ग्यारहवाँ दिन आनेपर वह दैत्य लाल रंगकी माला एवं वस्त्र धारण किये तथा शरीरमें लाल चन्दन लगाये महान् उत्सव मनाकर युद्धके लिये रथपर आरूढ़ हुआ । बड़े उत्साहके साथ सभी शक्तियोंको जीतकर वह दैत्य महादेवीके रथके सामने अपना रथ ले गया ॥ ६१-६२.५ ॥
अब देवी और दुर्गम दैत्य-इन दोनोंमें भीषण युद्ध होने लगा । हृदयको त्रास पहुँचानेवाला वह युद्ध दो प्रहरतक होता रहा । इसके बाद भगवतीने पाँच भीषण बाण छोड़े, जिनमें चार बाणोंसे उसके चार घोड़ों और एक बाणसे सारथिको मार डाला । पुनः जगदम्बाने दो बाणोंसे उसके दोनों नेत्रोंको वेध दिया, दो बाणोंसे उसकी दोनों भुजाएँ एवं एक बाणसे उसकी ध्वजा काट डाली और पाँच बाणोंसे उसके वक्षःस्थलका भेदन कर दिया । ६३-६५ ॥
तदनन्तर वह दैत्य रुधिरका वमन करता हुआ भगवती परमेश्वरीके सामने मृत्युको प्राप्त हो गया और उसके शरीरसे तेज निकलकर देवीके विग्रहमें प्रविष्ट हो गया । इस प्रकार उस महापराक्रमी दैत्यका संहार हो जानेपर तीनों लोकोंमें शान्ति व्याप्त हो गयी । ६६-६७ ॥
देवता बोले-भ्रान्ति तथा अविद्याजन्य मोहसे युक्त इस जगत्की एकमात्र कारण हे परमेश्वरि ! आपको नमस्कार है । हे शिवे ! हे शाकम्भरि ! हे शतलोचने ! आपको नमस्कार है । समस्त उपनिषदोंका उद्घोष करनेवाली तथा दुर्गम नामक दैत्यका संहार करनेवाली हे मायेश्वरि ! पंचकोशके भीतर सदा विराजमान रहनेवाली हे शिवे ! आपको नमस्कार है । मुनीश्वर विशुद्ध मनसे जिनका ध्यान करते हैं, उन प्रणवके अर्थरूप विग्रहवाली भगवती भुवनेश्वरीका हम आश्रय ग्रहण करते हैं । अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंका प्रादुर्भाव करनेवाली, ब्रह्मा-विष्णु आदिको उत्पन्न करनेवाली तथा दिव्य विग्रहवाली भगवतीके समक्ष हमलोग सम्पूर्ण भावसे नतमस्तक हैं । दयामयी परमेश्वरी माता शताक्षीके अतिरिक्त ऐसा कौन सर्वेश्वर है, जो दीन-दुःखी प्राणियोंको देखकर रुदन कर सकता है ? ॥ ६९-७३ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] ब्रह्मा, विष्णु आदि श्रेष्ठ देवताओंके इस प्रकार स्तवन तथा विविध द्रव्योंसे पूजन करनेपर भगवती उसी क्षण सन्तुष्ट हो गयीं ॥ ७४ ॥
कोयलके समान मधुर स्वरवाली उन भगवतीने दुर्गम दैत्यसे वेदोंको वापस लाकर सौंप दिया और विशेषरूपसे ब्राहाणोंसे कहा-जिस वेदराशिके अभावमें यह अनर्थ उत्पन्न हुआ था और उस अनर्थको आपलोगोंने अभी-अभी प्रत्यक्ष देखा भी है, वह वेदराशि मेरा उत्कृष्ट विग्रह है; आपलोगोंको विशेषरूपसे इसकी रक्षा करनी चाहिये । आपलोगोंको सर्वदा मेरी पूजा तथा सेवा करनी चाहिये । आपलोगोंके कल्याणके लिये इससे बढ़कर कोई अन्य उपदेश नहीं है । आपलोगोंको चाहिये कि मेरे इस उत्तम माहात्म्यका सर्वदा पाठ करें, उससे प्रसन्न होकर मैं आपलोगोंके समस्त कष्ट दूर कर दूंगी । दुर्गम असुरका संहार करनेके कारण दुर्गा तथा शताक्षी-मेरे इन नामोंका जो प्राणी उच्चारण करता है, वह मायाका भेदन करके मेरे लोकको प्राप्त होता है । अब अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता । हे देवगण ! मैं वस्तुत: साररूपमें यही कहती हूँ कि सभी देवताओं तथा दैत्योंको सर्वदा मेरी उपासना करनी चाहिये । ७५-८० ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] सच्चिदानन्दस्वरूपिणी जगदम्बा ऐसा कहकर देवताओंको आनन्दित करती हुई उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गयीं । यह सब मैंने आपको बता दिया । सबका कल्याण करनेवाले इस अति महान् रहस्यको प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिये, जो मनुष्य भक्तिपरायण होकर इस अध्यायका नित्य श्रवण करता है, वह सभी मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है और देवीलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । ८१-८३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे शताक्षीचरित्रवर्णनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥