Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
अष्टाविंशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


शताक्षीचरित्रवर्णनम् -
दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति -


जनमेजय उवाच -
विचित्रमिदमाख्यानं हरिश्चन्द्रस्य कीर्तितम् ।
शताक्षीपादभक्तस्य राजर्षेर्धार्मिकस्य च ॥ १ ॥
शताक्षी सा कुतो जाता देवी भगवती शिवा ।
तत्कारणं वद मुने सार्थकं जन्म मे कुरु ॥ २ ॥
को हि देव्या गुणाञ्छृण्वंस्तृप्तिं यास्यति शुद्धधीः ।
पदे पदेऽश्वमेधस्य फलमक्षय्यमश्नुते ॥ ३ ॥
जनमेजय बोले-हे मुने ! भगवती शताक्षीके चरणोंके उपासक एवं धर्मपरायण राजर्षि हरिश्चन्द्रकी यह बड़ी अद्‌भुत कथा आपने कही । हे मुने ! वे कल्याणमयी देवी भगवती किस प्रकारसे शताक्षी (सौ नेत्रोंवाली) हुई ? उसका कारण बताइये । मेरे जन्मको सार्थक कीजिये । कौन ऐसा विमल बुद्धिवाला मनुष्य होगा, जो भगवतीके गुणोंका श्रवण करके पूर्णरूपसे तृप्त हो जाय ! इसे सुननेसे पद-पदपर अश्वमेधयज्ञका फल मनुष्यको प्राप्त होता है ॥ १-३ ॥

व्यास उवाच -
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि शताक्षीसम्भवं शुभम् ।
तवावाच्यं न मे किञ्चिद्देवीभक्तस्य विद्यते ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! मैं शताक्षीको मंगलकारिणी उत्पत्तिका वर्णन करता हूँ, आप सुनिये । आपसदृश देवीभक्तके प्रति कोई भी बात मेरे लिये अवाच्य नहीं है ॥ ४ ॥

दुर्गमाख्यो महादैत्यः पूर्वं परमदारुणः ।
हिरण्याक्षान्वये जातो रुरुपुत्रो महाखलः ॥ ५ ॥
प्राचीन कालकी बात है-दुर्गम नामक एक अत्यन्त भयंकर महादैत्य था । हिरण्याक्षके वंशमें उत्पन्न वह महान् दुष्ट दुर्गम रुरुका पुत्र था ॥ ५ ॥

देवानां तु बलं वेदो नाशे तस्य सुरा अपि
नंक्ष्यन्त्येव न संदेहो विधेयं तावदेव तत् ॥ ६ ॥
विमृश्यैतत्तपश्चर्यां गतः कर्तुं हिमालये ।
ब्रह्माणं मनसा ध्यात्वा वायुभक्षो व्यतिष्ठत ॥ ७ ॥
सहस्रवर्षपर्यन्तं चकार परमं तपः ।
तेजसा तस्य लोकास्तु सन्तप्ताः ससुरासुराः ॥ ८ ॥
'देवताओंका बल वेद है । उस वेदके नष्ट हो जानेपर देवताओंका भी नाश हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है । अतः पहले वही (वेदनाश) किया जाना चाहिये'-ऐसा सोचकर वह तप करनेके लिये हिमालयपर्वतपर चला गया । वहाँपर मनमें ब्रह्माजीका ध्यान करके उसने केवल वायु पीकर रहते हुए एक हजार वर्षतक कठोर तपस्या की । उसके तेजसे देवदानवसहित समस्त प्राणी सन्तप्त हो उठे ॥ ६-८ ॥

ततः प्रसन्नो भगवान् हंसारूढश्चतुर्मुखः ।
ययौ तस्मै वरं दातुं प्रसन्नमुखपङ्कजः ॥ ९ ॥
तब [उसके तपसे] प्रसन्न होकर विकसित कमलके समान सुन्दर मुखवाले चतुर्मुख भगवान् ब्रह्मा हंसपर आरूढ़ होकर उसे वर देनेके लिये वहाँ गये ॥ ९ ॥

समाधिस्थं मीलिताक्षं स्फुटमाह चतुर्मुखः ।
वरं वरय भद्रं ते यस्ते मनसि वर्तते ॥ १० ॥
नेत्र मूंदकर समाधिकी स्थितिमें बैठे हुए उस दैत्यसे चार मुखवाले ब्रह्माजीने स्पष्ट वाणीमें कहा'तुम्हारा कल्याण हो । तुम्हारे मन में जो भी इच्छा हो, उसे वरके रूपमें माँग लो । वरदाताओंका स्वामी मैं तुम्हारी तपस्यासे प्रसन्न होकर इस समय उपस्थित हुआ हूँ' ॥ १० ॥

तवाद्य तपसा तुष्टो वरदेशोऽहमागतः ।
श्रुत्वा ब्रह्ममुखाद्वाणीं व्युत्थितः स समाधितः ॥ ११ ॥
पूजयित्वा वरं वव्रे वेदान्देहि सुरेश्वर ।
त्रिषु लोकेषु ये मन्त्रा ब्राह्मणेषु सुरेष्वपि ॥ १२ ॥
विद्यन्ते ते तु सान्निध्ये मम सन्तु महेश्वर ।
बलं च देहि येन स्याद्देवानां च पराजयः ॥ १३ ॥
ब्रह्माजीके मुखसे यह वाणी सुनकर वह दैत्य समाधिसे उठ खड़ा हुआ और उसने पूजा करके वर माँगते हुए कहा-हे सुरेश्वर ! मुझे सभी वेद देनेकी कृपा कीजिये । साथ ही हे महेश्वर ! तीनों लोकोंमें ब्राह्मणों और देवताओंके पास जो मन्त्र हों, वे सब मेरे पास आ जायँ और मुझे वह बल दीजिये, जिससे मेरे द्वारा देवताओंकी पराजय हो जाय ॥ ११-१३ ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा तथास्त्विति वचो वदन् ।
जगाम सत्यलोकं तु चतुर्वेदेश्वरः परः ॥ १४ ॥
उसकी यह बात सुनकर चारों वेदोंके परम अधिष्ठाता ब्रह्माजी 'ऐसा ही हो'-यह वचन कहते हुए सत्यलोक चले गये ॥ १४ ॥

ततः प्रभृति विप्रैस्तु विस्मृता वेदराशयः ।
स्नानसन्ध्यानित्यहोमश्राद्धयज्ञजपादयः ॥ १५ ॥
विलुप्ता धरणीपृष्ठे हाहाकारो महानभूत् ।
किमिदं किमिदं चेति विप्रा ऊचुः परस्परम् ॥ १६ ॥
वेदाभावात्तदस्माभिः कर्तव्यं किमतः परम् ।
उसी समयसे ब्राह्मणोंको समस्त वेद विस्मृत हो गये । स्नान, संध्या, नित्य होम, श्राद्ध, यज्ञ और जप आदिका लोप हो गया, जिससे भूमण्डलमें बड़ा हाहाकार मच गया । ब्राह्मण आपसमें कहने लगे'यह क्या हो गया, यह क्या हो गया; अब इसके बाद वेदके अभावकी स्थितिमें हमलोगोंको क्या करना चाहिये ?' ॥ १५-१६.५ ॥

इति भूमौ महानर्थे जाते परमदारुणे ॥ १७ ॥
निर्जराः सजरा जाता हविर्भागाद्यभावतः ।
रुरोध स तदा दैत्यो नगरीममरावतीम् ॥ १८ ॥
इस प्रकार जगत्में अत्यन्त भयंकर तथा घोर अनर्थ उत्पन्न होनेपर हविभाग न मिलनेके कारण सभी देवता जरारहित होते हुए भी जराग्रस्त हो गये । तब उसने देवताओंकी नगरी अमरावतीको घेर लिया ॥ १७-१८ ॥

अशक्तास्तेन ते योद्धुं वज्रदेहासुरेण च ।
पलायनं तदा कृत्वा निर्गता निर्जराः क्वचित् ॥ १९ ॥
निलयं गिरिदुर्गेषु रत्‍नसानुगुहासु च ।
संस्थिताः परमां शक्तिं ध्यायन्तस्ते पराम्बिकाम् ॥ २० ॥
देवतागण वज्रके समान शरीरवाले उस दैत्यके साथ युद्ध करनेमें असमर्थ हो गये । अतः भागकर वे देवता पर्वतकी कन्दराओं और सुमेरुपर्वतकी गुफाओंमें स्थान बनाकर परम शक्तिस्वरूपा पराम्बिकाका ध्यान करते हुए रहने लगे ॥ १९-२० ॥

अग्नौ होमाद्यभावात्तु वृष्ट्यभावोऽप्यभून्नृप ।
वृष्टेरभावे संशुष्कं निर्जलं चापि भूतलम् ॥ २१ ॥
कूपवापीतडागाश्च सरितः शुष्कतां गताः ।
अनावृष्टिरियं राजन्नभूच्च शतवार्षिकी ॥ २२ ॥
मृताः प्रजाश्च बहुधा गोमहिष्यादयस्तथा ।
गृहे गृहे मनुष्याणामभवच्छवसंग्रहः ॥ २३ ॥
हे राजन् ! अग्निमें हवन आदि न होनेके कारण वर्षाका भी अभाव हो गया । वर्षाक अभावमें भूतल शुष्क तथा जलविहीन हो गया । कुएँ, बावलियाँ, तालाब और नदियाँ-ये सभी सूख गये । हे राजन् ! यह अनावृष्टि सौ वर्षोंतक बनी रही, जिससे बहुत-सी प्रजाएँ और गाय-भैंस आदि पशु मर गये । इस प्रकार घर-घरमें मनुष्योंके शवके ढेर लग गये ॥ २१-२३ ॥

अनर्थे त्वेवमुद्‌भूते ब्राह्मणाः शान्तचेतसः ।
गत्वा हिमवतः पार्श्वे रिराधयिषवः शिवम् ॥ २४ ॥
समाधिध्यानपूजाभिर्देवीं तुष्टुवुरन्वहम् ।
निराहारास्तदासक्तास्तामेव शरणं ययुः ॥ २५ ॥
इस प्रकार अनर्थके उपस्थित होनेपर शान्त चित्तवाले वे ब्राह्मण कल्याणस्वरूपिणी जगदम्बाकी आराधना करनेके विचारसे हिमालयपर्वतपर जाकर समाधि, ध्यान और पूजाके द्वारा भगवतीको निरन्तर प्रसन्न करने लगे । वे निराहार रहते हुए एकमात्र उन्हीं भगवतीमें चित्त लगाकर उनके शरणापन्न हो गये [और उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे-] ॥ २४-२५ ॥

दयां कुरु महेशानि पामरेषु जनेषु हि ।
सर्वापराधयुक्तेषु नैतच्छ्लाघ्यं तवाम्बिके ॥ २६ ॥
कोपं संहर देवेशि सर्वान्तर्यामिरूपिणि ।
त्वया यथा प्रेर्यतेऽयं करोति स तथा जनः ॥ २७ ॥
नान्या गतिर्जनस्यास्य किं पश्यसि पुनः पुनः ।
यथेच्छसि तथा कर्तुं समर्थासि महेश्वरि ॥ २८ ॥
समुद्धर महेशानि संकटात्परमोत्थितात् ।
जीवनेन विनास्माकं कथं स्यात्स्थितिरम्बिके ॥ २९ ॥
प्रसीद त्वं महेशानि प्रसीद जगदम्बिके ।
अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायिके ते नमो नमः ॥ ३० ॥
नमः कूटस्थरूपायै चिद्‌रूपायै नमो नमः ।
नमो वेदान्तवेद्यायै भुवनेश्यै नमो नमः ॥ ३१ ॥
नेति नेतीति वाक्यैर्या बोध्यते सकलागमैः ।
तां सर्वकारणां देवीं सर्वभावेन सन्नताः ॥ ३२ ॥
हे महेश्वरि ! हम असहाय जनोंपर दया कीजिये । हे अम्बिके ! समस्त अपराधोंसे युक्त हमलोगोंपर कृपा न करना आपके लिये शोभनीय नहीं है । सभीके भीतर निवास करनेवाली हे देवेश्वरि ! आप अपना कोप दूर कीजिये । आप प्राणीको जैसी प्रेरणा देती हैं, वैसा ही वह करता है । इस मानवकी अन्य गति है ही नहीं । हे महेश्वरि ! आप बार-बार क्या देख रही हैं ? आप जैसा चाहें, वैसा करने में पूर्ण समर्थ हैं । हे महशानि ! इस उत्पन्न हुए घोर संकटसे हमारा उद्धार कीजिये । हे अम्बिके ! जीवनी शक्तिके अभावमें हमारी स्थिति कैसे रह सकती है ? हे महेश्वरि ! आप प्रसन्न हो जाइये । हे जगदम्बिके ! आप प्रसन्न हो जाइये । अनन्तकोटि ब्रह्माण्डकी अधीश्वरि ! आपको बार-बार नमस्कार है । कूटस्थरूपिणी देवीको नमस्कार है, चिद्रूपा देवीको बार-बार नमस्कार है, वेदान्तोंके द्वारा ज्ञात होनेवालीको नमस्कार है और अखिल भुवनकी स्वामिनीको बार-बार नमस्कार है । सम्पूर्ण आगमशास्त्र 'नेति-नेति' इन वचनोंसे जिनका ज्ञान कराते हैं, हम सब प्रकारसे उन सर्वकारण-स्वरूपिणी भगवतीके शरणागत हैं ॥ २६-३२ ॥

इति सम्प्रार्थिता देवी भुवनेशी महेश्वरी ।
अनन्ताक्षिमयं रूपं दर्शयामास पार्वती ॥ ३३ ॥
नीलाञ्जनसमप्रख्यं नीलपद्मायतेक्षणम् ।
सुकर्कशसमोत्तुङ्गवृत्तपीनघनस्तनम् ॥ ३४ ॥
बाणमुष्टिं च कमलं पुष्पपल्लवमूलकान् ।
शाकादीन्फलसंयुक्ताननन्तरससंयुतान् ॥ ३५ ॥
क्षुत्तृड्जरापहान् हस्तैर्बिभ्रती च महाधनुः ।
इस प्रकार ब्राह्मणोंके प्रार्थना करनेपर समस्त भुवनपर शासन करनेवाली भगवती भुवनेशी महेश्वरी पार्वतीने उन्हें अनन्त नेत्रोंसे युक्त अपना रूप दिखाया । उनका विग्रह काले कज्जलके सदृश था, नीलकमलके समान विशाल नेत्रोंसे सम्पन्न था और अत्यन्त कठोर, समान आकार-प्रकारवाले, उन्नत, गोल, स्थूल एवं सुडौल स्तनोंसे सुशोभित था । वे अपने हाथोंमें मुट्ठीभर बाण, विशाल धनुष, कमल, पुष्प-पल्लव, जड़ तथा फलोंसे सम्पन्न, अनन्त रससे युक्त तथा भूख-प्यास और बुढ़ापेको दूर करनेवाले शाक आदि धारण किये हुए थीं ॥ ३३-३५.५ ॥

सर्वसौन्दर्यसारं तद्‌रूपं लावण्यशोभितम् ॥ ३६ ॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशं करुणारससागरम् ।
दर्शयित्वा जगद्धात्री सानन्तनयनोद्‌भवा ॥ ३७ ॥
मोचयामास लोकेषु वारिधारां सहस्रशः ।
नवरात्रं महावृष्टिरभून्नेत्रोद्‌भवैर्जलैः ॥ ३८ ॥
सम्पूर्ण सुन्दरताके सारस्वरूप, कमनीयता-सम्पन्न, करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान और करुणारसके सागरस्वरूप उस विग्रहका दर्शन कराकर अनन्त नेत्रोंके साथ प्रकट वे जगद्धात्री भगवती समस्त लोकोंमें अपनी आँखोंसे सहस्रों जलधाराएँ गिराने लगीं । इस तरह उनके नेत्रोंसे निकले हुए जलसे नौ राततक महान् वृष्टि होती रही ॥ ३६-३८ ॥

दुःखितान्वीक्ष्य सकलान्नेत्राश्रूणि विमुञ्चती ।
तर्पितास्तेन ते लोका ओषध्यः सकला अपि ॥ ३९ ॥
नदीनदप्रवाहास्तैर्जलैः समभवन्नृप ।
निलीय संस्थिताः पूर्वं सुरास्ते निर्गता बहिः ॥ ४० ॥
मिलित्वा ससुरा विप्रा देवीं समभितुष्टुवुः ।
समस्त प्राणियोंको दु:खी देखकर भगवती अपने नेत्रोंसे आँसू गिराती रहीं, उससे वे सभी प्राणी और सभी औषधियाँ भी तृप्त हो गयीं । हे राजन् ! उस वृष्टिके द्वारा सभी नदियाँ और समुद्र जलसे परिपूर्ण हो गये । पहले जो देवता छिपकर रह रहे थे, वे अब बाहर निकल आये । इसके बाद सभी देवता और ब्राह्मण एक साथ मिलकर देवीकी स्तुति करने लगे- ॥ ३९-४०.५ ॥

नमो वेदान्तवेद्ये ते नमो ब्रह्मस्वरूपिणि ॥ ४१ ॥
स्वमायया सर्वजगद्विधात्र्यै ते नमो नमः ।
भक्तकल्पद्रुमे देवि भक्तार्थं देहधारिणि ॥ ४२ ॥
नित्यतृप्ते निरुपमे भुवनेश्वरि ते नमः ।
अस्मच्छान्त्यर्थमतुलं लोचनानां सहस्रकम् ॥ ४३ ॥
त्वया यतो धृतं देवि शताक्षी त्वं ततो भव ।
क्षुधया पीडिता मातः स्तोतुं शक्तिर्न चास्ति नः ॥ ४४ ॥
कृपां कुरु महेशानि वेदानप्याहराम्बिके ।
हे वेदान्तवेद्ये ! आपको नमस्कार है । हे ब्रह्मस्वरूपिणि ! आपको नमस्कार है । अपनी मायासे सम्पूर्ण जगत्की रचना करनेवाली, भक्तोंके लिये देह धारण करनेवाली तथा कल्पवृक्षके समान उनके मनोरथ पूर्ण करनेवाली हे देवि ! आपको बार-बार नमस्कार है । सदा सन्तुष्ट रहनेवाली और सभी उपमाओंसे रहित हे भुवनेश्वरि ! आपको नमस्कार है । हे देवि ! हमारी शान्तिके लिये आपने सहस्र नेत्रोंसे सम्पन्न अनुपम रूप धारण किया है, अतः आप 'शताक्षी' नामसे विख्यात हों । हे जननि ! भूखसे अत्यन्त पीडित होनेके कारण आपकी स्तुति करनेके लिये हमलोगोंमें सामर्थ्य नहीं है । हे महेशानि ! हे अम्बिके ! अब आप कृपा कीजिये और हमें वेदोंको प्राप्त कराइये । ४१-४४.५ ॥

व्यास उवाच -
इति तेषां वचः श्रुत्वा शाकान्स्वकरसंस्थितान् ॥ ४५ ॥
स्वादूनि फलमूलानि भक्षणार्थं ददौ शिवा ।
नानाविधानि चान्नानि पशुभोज्यानि यानि च ॥ ४६ ॥
काम्यानन्तरसैर्युक्तान्यानवीनोद्‌भवं ददौ ।
शाकम्भरीति नामापि तद्दिनात्समभून्नृप ॥ ४७ ॥
व्यासजी बोले-उनका यह वचन सुनकर कल्याण-कारिणी भगवतीने उन्हें खानेके लिये अपने हाथमें स्थित शाक तथा स्वादिष्ट फल-मूल प्रदान किये । साथ ही नानाविध अन्न तथा पशुओंके खानेयोग्य पदार्थ और अनन्त काम्य रसोंसे सम्पन्न भोज्य पदार्थ उन्हें नवीन अन्नोत्पत्तितकके लिये प्रदान किये । हे नृप ! उसी दिनसे शाकम्भरी-यह उनका एक और भी नाम पड़ गया ॥ ४५-४७ ॥

ततः कोलाहले जाते दूतवाक्येन बोधितः ।
ससैन्यः सायुधो योद्धुं दुर्गमाख्योऽसुरो ययौ ॥ ४८ ॥
सहस्राक्षौहिणीयुक्तः शरान्मुञ्चंस्त्वरान्वितः ।
रुरोध देवसैन्यं तद्‌यद्देव्यग्रे स्थितं पुरा ॥ ४९ ॥
तथा विप्रगणं चैव रोधयामास सर्वतः ।
ततः किलकिला शब्दः समभूद्देवमण्डले ॥ ५० ॥
त्राहि त्राहीति वाक्यानि प्रोचुः सर्वे द्विजामराः ।
इसके बाद जगत्में कोलाहल मच जाने तथा दूतके सब कुछ बता देनेपर वह दुर्गम नामक दैत्य युद्ध करनेके लिये अस्त्र-शस्त्र लेकर सेनाके साथ चल पड़ा । एक हजार अक्षौहिणी सेनासे युक्त उस दैत्यने शीघ्रतापूर्वक बाण छोड़ते हुए पहले देवीके आगे स्थित देवसेनाको अवरुद्ध कर दिया और उसी प्रकार उसने सभी ब्राह्मणोंको भी चारों ओरसे रोक दिया । इससे देवताओंकी मण्डलीमें चीखपुकारकी ध्वनि होने लगी । सभी ब्राह्मण तथा देवता 'रक्षा करो, रक्षा करो'- इस प्रकारके शब्द बोलने लगे ॥ ४८-५०.५ ॥

ततस्तेजोमयं चक्रं देवानां परितः शिवा ॥ ५१ ॥
चकार रक्षणार्थाय स्वयं तस्माद्‌ बहिः स्थिता ।
तत्पश्चात् भगवती शिवाने देवताओंकी रक्षाके लिये उनके चारों ओर तेजयुक्त चक्र (मण्डल) बना दिया और स्वयं उससे बाहर आकर खड़ी हो गयीं ॥ ५१.५ ॥

ततः समभवद्युद्धं देव्या दैत्यस्य चोभयोः ॥ ५२ ॥
शरवर्षसमाच्छन्नं सूर्यमण्डलमद्‌भुतम् ।
परस्परशरोद्‌घर्षसमुद्‌भूताग्निसुप्रभम् ॥ ५३ ॥
कठोरज्याटणत्कारबधिरीकृतदिक्तटम् ।
तदनन्तर भगवती और दैत्य दुर्गम-इन दोनोंके मध्य युद्ध होने लगा । बाणोंकी वर्षासे अद्‌भुत सूर्यमण्डल आच्छादित हो गया । बाणोंके परस्पर घर्षणसे तीव्र प्रभावाली अग्नि निकलने लगती थीं । धनुषकी कठोर प्रत्यंचाके टंकारसे अपने प्रान्तभागतक दिशाएँ बहरीसी हो जाती थीं ॥ ५२-५३ ॥

ततो देवीशरीरात्तु निर्गतास्तीव्रशक्तयः ॥ ५४ ॥
कालिका तारिणी बाला त्रिपुरा भैरवी रमा ।
बगला चैव मातङ्गी तथा त्रिपुरसुन्दरी ॥ ५५ ॥
कामाक्षी तुलजा देवी जम्भिनी मोहिनी तथा ।
छिन्नमस्ता गुह्यकाली दशसाहस्रबाहुका ॥ ५६ ॥
द्वात्रिंशच्छक्तयश्चान्याश्चतुष्षष्टिमिताः पराः ।
असंख्यातास्ततो देव्यः समुद्‌भूतास्तु सायुधाः ॥ ५७ ॥
तत्पश्चात् देवीके शरीरसे अनेक उग्र शक्तियाँ प्रकट हुई । उनमें कालिका, तारिणी, बाला, त्रिपुरा, भैरवी, रमा, बगला, मातंगी, त्रिपुरसुन्दरी, कामाक्षी, तुलजादेवी, जम्भिनी, मोहिनी, छिन्नमस्ता, गुह्यकाली तथा दस हजार हाथोंवाली देवी [ये सोलह], पुनः बत्तीस, इसके बाद चौंसठ और फिर अनन्त देवियाँ हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए प्रकट हुईं ॥ ५४-५७ ॥

मृदङ्गशङ्खवीणादिनादितं सङ्गरस्थलम् ।
शक्तिभिर्दैत्यसैन्ये तु नाशितेऽक्षौहिणीशते ॥ ५८ ॥
अग्रेसरः समभवद्दुर्गमो वाहिनीपतिः ।
शक्तिभिः सह युद्धं च चकार प्रथमं रिपुः ॥ ५९ ॥
वह युद्धस्थल मृदंग, शंख, वीणा आदि वाद्योंसे गूंज उठा । उन शक्तियोंके द्वारा दैत्योंकी एक सौ अक्षौहिणी सेनाका संहार कर दिये जानेपर देवशत्रु वह दैत्यसेनाध्यक्ष दुर्गम तुरन्त सामने आ खड़ा हुआ और शक्तियोंके साथ अद्‌भुत युद्ध करने लगा ॥ ५८-५९ ॥

महद्युद्धं समभवद्यत्राभूद्‌रक्तवाहिनी ।
अक्षौहिण्यस्तु ताः सर्वा विनष्टा दशभिर्दिनैः ॥ ६० ॥
जहाँ वह घोर युद्ध हो रहा था, वहाँ रक्तकी धारा बहने लगी । दस दिनोंमें उस दैत्यकी वे सभी अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हो गयीं ॥ ६० ॥

तत एकादशे प्राप्ते दिने परमदारुणे ।
रक्तमाल्याम्बरधरो रक्तगन्धानुलेपनः ॥ ६१ ॥
कृत्वोत्सवं महान्तं तु युद्धाय रथसंस्थितः ।
संरम्भेणैव महता शक्तीः सर्वा विजित्य च ॥ ६२ ॥
महादेवीरथाग्रे तु स्वरथं संन्यवेशयत् ।
तदनन्तर अत्यन्त भयंकर ग्यारहवाँ दिन आनेपर वह दैत्य लाल रंगकी माला एवं वस्त्र धारण किये तथा शरीरमें लाल चन्दन लगाये महान् उत्सव मनाकर युद्धके लिये रथपर आरूढ़ हुआ । बड़े उत्साहके साथ सभी शक्तियोंको जीतकर वह दैत्य महादेवीके रथके सामने अपना रथ ले गया ॥ ६१-६२.५ ॥

ततोऽभवन्महद्युद्धं देव्या दैत्यस्य चोभयोः ॥ ६३ ॥
प्रहरद्वयपर्यन्तं हृदयत्रासकारकम् ।
ततः पञ्चदशात्युग्रबाणान्देवी मुमोच ह ॥ ६४ ॥
चतुर्भिश्चतुरो वाहान्बाणेनैकेन सारथिम् ।
द्वाभ्यां नेत्रे भुजौ द्वाभ्यां ध्वजमेकेन पत्रिणा ॥ ६५ ॥
अब देवी और दुर्गम दैत्य-इन दोनोंमें भीषण युद्ध होने लगा । हृदयको त्रास पहुँचानेवाला वह युद्ध दो प्रहरतक होता रहा । इसके बाद भगवतीने पाँच भीषण बाण छोड़े, जिनमें चार बाणोंसे उसके चार घोड़ों और एक बाणसे सारथिको मार डाला । पुनः जगदम्बाने दो बाणोंसे उसके दोनों नेत्रोंको वेध दिया, दो बाणोंसे उसकी दोनों भुजाएँ एवं एक बाणसे उसकी ध्वजा काट डाली और पाँच बाणोंसे उसके वक्षःस्थलका भेदन कर दिया । ६३-६५ ॥

पञ्चभिर्हृदयं तस्य विव्याध जगदम्बिका ।
ततो वमन् स रुधिरं ममार पुर ईशितुः ॥ ६६ ॥
तस्य तेजस्तु निर्गत्य देवीरूपे विवेश ह ।
हते तस्मिन्महावीर्ये शान्तमासीज्जगत्त्रयम् ॥ ६७ ॥
तदनन्तर वह दैत्य रुधिरका वमन करता हुआ भगवती परमेश्वरीके सामने मृत्युको प्राप्त हो गया और उसके शरीरसे तेज निकलकर देवीके विग्रहमें प्रविष्ट हो गया । इस प्रकार उस महापराक्रमी दैत्यका संहार हो जानेपर तीनों लोकोंमें शान्ति व्याप्त हो गयी । ६६-६७ ॥

ततो ब्रह्मादयः सर्वे तुष्टुवुर्जगदम्बिकाम् ।
पुरस्कृत्य हरीशानौ भक्त्या गद्‌गदया गिरा ॥ ६८ ॥
इसके बाद ब्रह्मा आदि सभी देवता भगवान् विष्णु और शिवको आगे करके भक्तिपूर्वक गद्‌गद वाणीमें जगदम्बाकी स्तुति करने लगे ॥ ६८ ॥

देवा ऊचुः
जगद्‌भ्रमविवर्तैककारणे परमेश्वरि ।
नमः शाकम्भरि शिवे नमस्ते शतलोचने ॥ ६९ ॥
सर्वोपनिषदुद्‌घुष्टे दुर्गमासुरनाशिनि ।
नमो मायेश्वरि शिवे पञ्चकोशान्तरस्थिते ॥ ७० ॥
चेतसा निर्विकल्पेन यां ध्यायन्ति मुनीश्वराः ।
प्रणवार्थस्वरूपां तां भजामो भुवनेश्वरीम् ॥ ७१ ॥
अनन्तकोटिब्रह्माण्डजननीं दिव्यविग्रहाम् ।
ब्रह्मविष्ण्वादिजननीं सर्वभावैर्नता वयम् ॥ ७२ ॥
कः कुर्यात्पामरान्दृष्ट्वा रोदनं सकलेश्वरः ।
सदयां परमेशानीं शताक्षीं मातरं विना ॥ ७३ ॥
देवता बोले-भ्रान्ति तथा अविद्याजन्य मोहसे युक्त इस जगत्की एकमात्र कारण हे परमेश्वरि ! आपको नमस्कार है । हे शिवे ! हे शाकम्भरि ! हे शतलोचने ! आपको नमस्कार है । समस्त उपनिषदोंका उद्घोष करनेवाली तथा दुर्गम नामक दैत्यका संहार करनेवाली हे मायेश्वरि ! पंचकोशके भीतर सदा विराजमान रहनेवाली हे शिवे ! आपको नमस्कार है । मुनीश्वर विशुद्ध मनसे जिनका ध्यान करते हैं, उन प्रणवके अर्थरूप विग्रहवाली भगवती भुवनेश्वरीका हम आश्रय ग्रहण करते हैं । अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंका प्रादुर्भाव करनेवाली, ब्रह्मा-विष्णु आदिको उत्पन्न करनेवाली तथा दिव्य विग्रहवाली भगवतीके समक्ष हमलोग सम्पूर्ण भावसे नतमस्तक हैं । दयामयी परमेश्वरी माता शताक्षीके अतिरिक्त ऐसा कौन सर्वेश्वर है, जो दीन-दुःखी प्राणियोंको देखकर रुदन कर सकता है ? ॥ ६९-७३ ॥

व्यास उवाच -
इति स्तुता सुरैर्देवी ब्रह्मविष्ण्वादिभिर्वरैः ।
पूजिता विविधैर्द्रव्यैः सन्तुष्टाभूच्च तत्क्षणे ॥ ७४ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] ब्रह्मा, विष्णु आदि श्रेष्ठ देवताओंके इस प्रकार स्तवन तथा विविध द्रव्योंसे पूजन करनेपर भगवती उसी क्षण सन्तुष्ट हो गयीं ॥ ७४ ॥

प्रसन्ना सा तदा देवी वेदानाहृत्य सा ददौ ।
ब्राह्मणेभ्यो विशेषेण प्रोवाच पिकभाषिणी ॥ ७५ ॥
ममेयं तनुरुत्कृष्टा पालनीया विशेषतः ।
यया विनानर्थ एष जातो दृष्टोऽधुनैव हि ॥ ७६ ॥
पूज्याहं सर्वदा सेव्या युष्माभिः सर्वदैव हि ।
नातः परतरं किञ्चित्कल्याणायोपदिश्यते ॥ ७७ ॥
पठनीयं ममैतद्धि माहात्म्यं सर्वदोत्तमम् ।
तेन तुष्टा भविष्यामि हरिष्यामि तथापदः ॥ ७८ ॥
दुर्गमासुरहन्त्रीत्वाद्‌दुर्गेति मम नाम यः ।
गृह्णाति च शताक्षीति मायां भित्त्वा व्रजत्यसौ ॥ ७९ ॥
किमुक्तेनात्र बहुना सारं वक्ष्यामि तत्त्वतः ।
संसेव्याहं सदा देवाः सर्वैरपि सुरासुरैः ॥ ८० ॥
कोयलके समान मधुर स्वरवाली उन भगवतीने दुर्गम दैत्यसे वेदोंको वापस लाकर सौंप दिया और विशेषरूपसे ब्राहाणोंसे कहा-जिस वेदराशिके अभावमें यह अनर्थ उत्पन्न हुआ था और उस अनर्थको आपलोगोंने अभी-अभी प्रत्यक्ष देखा भी है, वह वेदराशि मेरा उत्कृष्ट विग्रह है; आपलोगोंको विशेषरूपसे इसकी रक्षा करनी चाहिये । आपलोगोंको सर्वदा मेरी पूजा तथा सेवा करनी चाहिये । आपलोगोंके कल्याणके लिये इससे बढ़कर कोई अन्य उपदेश नहीं है । आपलोगोंको चाहिये कि मेरे इस उत्तम माहात्म्यका सर्वदा पाठ करें, उससे प्रसन्न होकर मैं आपलोगोंके समस्त कष्ट दूर कर दूंगी । दुर्गम असुरका संहार करनेके कारण दुर्गा तथा शताक्षी-मेरे इन नामोंका जो प्राणी उच्चारण करता है, वह मायाका भेदन करके मेरे लोकको प्राप्त होता है । अब अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता । हे देवगण ! मैं वस्तुत: साररूपमें यही कहती हूँ कि सभी देवताओं तथा दैत्योंको सर्वदा मेरी उपासना करनी चाहिये । ७५-८० ॥

इत्युक्त्वान्तर्हिता देवी देवानां चैव पश्यताम् ।
सन्तोषं जनयन्त्येवं सच्चिदनन्दरूपिणी ॥ ८१ ॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं रहस्यं परमं महत् ।
गोपनीयं प्रयत्‍नेन सर्वकल्याणकारकम् ॥ ८२ ॥
य इमं शृणुयान्नित्यमध्यायं भक्तितत्परः ।
सर्वान्कामानवाप्नोति देवीलोके महीयते ॥ ८३ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] सच्चिदानन्दस्वरूपिणी जगदम्बा ऐसा कहकर देवताओंको आनन्दित करती हुई उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गयीं । यह सब मैंने आपको बता दिया । सबका कल्याण करनेवाले इस अति महान् रहस्यको प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिये, जो मनुष्य भक्तिपरायण होकर इस अध्यायका नित्य श्रवण करता है, वह सभी मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है और देवीलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । ८१-८३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे शताक्षीचरित्रवर्णनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
अध्याय अठ्ठाइसवाँ समाप्त ॥ २८ ॥


GO TOP