[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
भगवतीं समाराधयिषूणां देवानां तपःकरणवर्णनम् -
व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना -
व्यास उवाच - इत्येवं सूर्यवंश्यानां राज्ञां चरितमुत्तमम् । सोमवंशोद्भवानां च वर्णनीयं मया कियत् ॥ १ ॥ पराशक्तिप्रसादेन महत्त्वं प्रतिपेदिरे । राजन् सुनिश्चितं विद्धि पराशक्तिप्रसादतः ॥ २ ॥ यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ त्वं पराशक्त्यंशसम्भवम् ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! इस प्रकार मैंने यत्किंचित् सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओंके उत्तम चरित्रका वर्णन किया । हे राजन् ! पराशक्ति भगवतीकी कृपासे उन राजाओंने महती प्रतिष्ठा प्राप्त की थी । आप यह निश्चितरूपसे जान लीजिये कि उन पराशक्तिकी कृपासे सब कुछ सिद्ध हो जाता है । जो-जो विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त तथा शक्तियुक्त पदार्थ हैं; उन सबको आप उन्हीं परम शक्तिमयी भगवतीके अंशसे ही उत्पन्न समझिये ॥ १-३ ॥
एते चान्ये च राजानः पराशक्तेरुपासकाः । संसारतरुमूलस्य कुठारा अभवन्नृप ॥ ४ ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन संसेव्या भुवनेश्वरी । पलालमिव धान्यार्थी त्यजेदन्यमशेषतः ॥ ५ ॥
हे नृप ! ये तथा अन्य बहुतसे पराशक्तिके उपासक राजागण संसाररूपी वृक्षकी जड़ काटनेके लिये कुठारके समान हो चुके हैं । अतएव जिस प्रकार धान्य चाहनेवाला व्यक्ति पुआल छोड़ देता है, उसी प्रकार अन्य व्यवसायोंका पूर्णरूपसे त्याग कर देना चाहिये और सम्पूर्ण प्रयत्नके साथ भुवनेश्वरीकी उपासना करनी चाहिये ॥ ४-५ ॥
हे नृप ! वेदरूपी क्षीरसागरका मन्थन करके मैंने भगवती पराशक्तिके चरण-कमलरूपी रत्नको प्राप्त किया है, उससे मैं कृतार्थ हो गया हूँ ॥ ६ ॥
पञ्चब्रह्मासनारूढा नास्त्यन्या कापि देवता । तत एव महादेव्या पञ्चब्रह्मासनं कृतम् ॥ ७ ॥ पञ्चभ्यस्त्वधिकं वस्तु वेदेऽव्यक्तमितीर्यते । यस्मिन्नोतं च प्रोतं च सैव श्रीभुवनेश्वरी ॥ ८ ॥ तामविज्ञाय राजेन्द्र नैव मुक्तो भवेन्नरः ।
पंचब्रह्मके आसनपर कोई अन्य देवता स्थित नहीं है अर्थात् इन पंचदेवोंके अतिरिक्त उनका अतिक्रमण करके उनके अधिष्ठाताके रूपमें अपना प्रभाव स्थापित करनेमें कोई अन्य देवता समर्थ नहीं है, अतः ब्रह्मके रूपमें मान्यताप्राप्त उन पंचब्रह्मको भगवतीने अपना आसन बना लिया अर्थात् उन पंचदेवोंकी अधिष्ठात्री शक्तिके रूपमें वे अधिष्ठित हुई । इन पाँचोंसे परेकी वस्तुको वेदमें 'अव्यक्त' कहा गया है । जिस अव्यक्तमें यह सम्पूर्ण जगत् ओत-प्रोत है, वह श्रीभुवनेश्वरी ही हैं । हे राजेन्द्र ! उन भगवतीके स्वरूपको जाने बिना मनुष्य मुक्त नहीं हो सकता ॥ ७-८.५ ॥
यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ॥ ९ ॥ तदा शिवामविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति । अत एव श्रुतौ प्राहुः श्वेताश्वतरशाखिनः ॥ १० ॥ ते ध्यानयोगानुगता अपश्य- न्देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ॥ ११ ॥
जब मनुष्य आकाशको चर्मसे आच्छादित कर लेंगे तब शिवाको न जानकर भी दुःखका अन्त होगा अर्थात् जैसे चर्मसे आकाशका ढकना सम्भव नहीं है, वैसे ही शिवातत्त्वके ज्ञानके बिना दुःखका अन्त होना सम्भव नहीं है । अतः श्वेताश्वतरशाखाध्यायी मनीषियोंने श्रुतिमें ऐसा कहा है कि उन महापुरुषोंने अपने गुणोंसे व्यक्त न होनेवाली दिव्यशक्तिसम्पन्न भगवती जगदम्बाका दर्शन ध्यानयोगद्वारा प्राप्त किया था ॥ ९-११ ॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन जन्मसाफल्यहेतवे । लज्जया वा भयेनापि भक्त्या वा प्रेमयुक्तया । सर्वसङ्गं परित्यज्य मनो हृदि निरुध्य च ॥ १२ ॥ तन्निष्ठस्तत्परो भूयादिति वेदान्तडिण्डिमः । येन केन मिषेणापि स्वपंस्तिष्ठन्व्रजन्नपि ॥ १३ ॥ कीर्तयेत्सततं देवीं स वै मुच्येत बन्धनात् ।
अतः जन्म सफल करनेके निमित्त सभी आसक्तियोंका परित्याग करके तथा अपने मनको हृदयमें रोककर लज्जा, भय अथवा प्रेममय भक्तिके साथ किसी भी तरहसे सम्यक् प्रयत्न करके उन भगवतीमें पूर्ण निष्ठा तथा तत्परता रखनी चाहियेऐसा वेदान्तका स्पष्ट उद्घोष है । जो मनुष्य जिस किसी भी बहाने सोते, बैठते अथवा चलते समय भगवतीका निरन्तर कीर्तन करता है, वह [सांसारिक] बन्धनसे निश्चितरूपसे छूट जाता है । १२-१३.५ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भज राजन् महेश्वरीम् ॥ १४ ॥ विराड्रूपां सूत्ररूपां तथान्तर्यामिरूपिणीम् । सोपानक्रमतः पूर्वं ततः शुद्धे तु चेतसि ॥ १५ ॥ सच्चिदानन्दलक्ष्यार्थरूपां तां ब्रह्मरूपिणीम् । आराधय परां शक्तिं प्रपञ्चोल्लासवर्जिताम् ॥ १६ ॥ तस्यां चित्तलयो यः स तस्या आराधनं स्मृतम् ।
अत: हे राजन् ! आप विराट् रूपवाली, सूक्ष्म रूपवाली तथा अन्तर्यामिस्वरूपिणी महेश्वरीकी उपासना कीजिये । इस प्रकार आप पहले सोपान-क्रमसे उपासना करके पुनः अन्तःकरण शुद्ध हो जानेपर सांसारिक प्रपंच तथा उल्लासरहित सच्चिदानन्द, लक्ष्यार्थरूपिणी तथा ब्रह्मरूपिणी उन पराशक्ति भगवतीकी आराधना कीजिये । उन भगवतीमें चित्तको जो लीन कर देना है, वही उनका आराधन कहा गया है ॥ १४-१६.५ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने सूर्य और चन्द्र-वंशमें उत्पन्न, पराशक्तिके उपासक, धर्मपरायण तथा मनस्वी राजाओंके कीर्ति, धर्म, बुद्धि, उत्तम गति तथा पुण्य प्रदान करनेवाले पावन चरित्रका वर्णन कर दिया, अब आप दूसरा कौन-सा प्रसंग सुनना चाहते हैं ? ॥ १७-१८.५ ॥
जनमेजय उवाच - गौरीलक्ष्मीसरस्वत्यो दत्ताः पूर्वं पराम्बया ॥ १९ ॥ हराय हरये तद्वन्नाभिपद्मोद्भवाय च । तुषाराद्रेश्च दक्षस्य गौरी कन्येति विश्रुतम् ॥ २० ॥ क्षीरोदधेश्च कन्येति महालक्ष्मीरिति स्मृतम् । मूलदेव्युद्भवानां च कथं कन्यात्वमन्ययोः ॥ २१ ॥ असम्भाव्यमिदं भाति संशयोऽत्र महामुने । छिन्धि ज्ञानासिना तं त्वं संशयच्छेदतत्परः ॥ २२ ॥
जनमेजय बोले-हे मुने ! पूर्वमें मणिद्वीपनिवासिनी पराम्बा भगवतीने गौरी, लक्ष्मी और सरस्वतीको उत्पन्न कर उन्हें क्रमशः शिव, विष्णु तथा पद्मयोनि ब्रह्माको सौंप दिया था । साथ ही यह भी सुना गया है कि गौरी हिमालय तथा दक्षप्रजापतिकी कन्या हैं और महालक्ष्मी क्षीरसमुद्रकी कन्या हैं ऐसा कहा गया है । मूलप्रकृति भगवतीसे उत्पन्न ये देवियाँ दूसरोंकी कन्याएँ कैसे हुई ? महामुने ! यह असम्भव-सी बात प्रतीत होती है, इसमें मुझे सन्देह है । अतः सन्देहोंका छेदन करनेमें पूर्ण तत्पर आप मेरे उस संशयको अपने ज्ञानरूपी खड्गसे काट दीजिये ॥ १९-२२ ॥
व्यास उवाच - शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि रहस्यं परमाद्भुतम् । देवीभक्तस्य ते किञ्चिदवाच्यं न हि विद्यते ॥ २३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, मैं आपको परम अद्भुत रहस्य बतलाता हूँ । आपसदृश देवीभक्तके लिये भगवतीका कोई भी रहस्य छिपानेयोग्य नहीं है ॥ २३ ॥
देवीत्रयं यदा देवत्रयायादात्पराम्बिका । तदाप्रभृति ते देवाः सृष्टिकार्याणि चक्रिरे ॥ २४ ॥
जब पराम्बिकाने तीनों देवियाँ उन तीनों देवताओंको सौंप दीं, उसी समयसे उन देवताओंने सृष्टिके कार्य आरम्भ कर दिये ॥ २४ ॥
हे राजन् ! एक समयकी बात है कि हालाहल नामवाले अनेक महापराक्रमी दैत्य उत्पन्न हुए और उन्होंने क्षणभरमें तीनों लोकोंको जीत लिया ॥ २५ ॥
ब्रह्मणो वरदानेन दर्पिता रजताचलम् । रुरुधुर्निजसेनाभिस्तथा वैकुण्ठमेव च ॥ २६ ॥
ब्रह्माजीके वरदानसे अभिमानमें चूर उन दैत्योंने अपनी सेनाओंके साथ कैलास और वैकुण्ठको घेर लिया ॥ २६ ॥
कामारिः कैटभारिश्च युद्धोद्योगं च चक्रतुः । षष्टिवर्षसहस्राणामभूद्युद्धं महोत्कटम् ॥ २७ ॥ हाहाकारो महानासीद्देवदानवसेनयोः । महताथ प्रयत्नेन ताभ्यां ते दानवा हताः ॥ २८ ॥
तब भगवान् शंकर और विष्णु उनके साथ युद्धके लिये तत्पर हो गये और साठ हजार वर्षांतक उनके बीच अत्यन्त भीषण युद्ध होता रहा । देवता और दानव-दोनों सेनाओंमें महान् हाहाकार मच गया । तब अन्तमें उन दोनोंने बड़े प्रयत्नके साथ उन दैत्योंको मार डाला ॥ २७-२८ ॥
स्वस्वस्थानेषु गत्वा तावभिमानं च चक्रतुः । स्वशक्त्योर्निकटे राजन् यद्वशादेव ते हताः ॥ २९ ॥
हे राजन् ! तत्पश्चात् वे शंकर तथा विष्णु अपने-अपने लोकको जाकर अपनी शक्तियों (गौरी तथा लक्ष्मी)-के समक्ष, जिनके बल-प्रभावसे वे उन दैत्योंको मार सके थे, अपने बलका अभिमान करने लगे ॥ २९ ॥
अभिमानं तयोर्ज्ञात्वा छलहास्यं च चक्रतुः । महालक्ष्मीश्च गौरी च हास्यं दृष्ट्वा तयोस्तु तौ ॥ ३० ॥ देवावतीव संकृद्धौ मोहितावादिमायया । दुरुत्तरं च ददतुरवमानपुरःसरम् ॥ ३१ ॥
उन दोनोंका यह अभिमान देखकर महालक्ष्मी तथा गौरी छवपूर्ण हास करने लगीं । तब उन दोनों देवियोंकी हँसी देखकर आदिमायाके प्रभावसे विमोहित वे दोनों देवता अत्यन्त कुपित हो उठे और अवहेलनापूर्वक अनुचित उत्तर देने लगे ॥ ३०-३१ ॥
तदनन्तर वे दोनों देवियाँ उसी क्षण उन दोनों (शंकर तथा विष्णु)-से पृथक् होकर अन्तर्धान हो गयीं, इससे हाहाकार मच गया ॥ ३२ ॥
निस्तेजस्कौ च निःशक्ती विक्षिप्तौ च विचेतनौ । अवमानात्तयोः शक्त्योर्जातौ हरिहरौ तदा ॥ ३३ ॥
उन दोनों शक्तियोंके अपमानके कारण उस समय विष्णु तथा शंकर निस्तेज, शक्तिहीन, विक्षिप्त तथा चेतनारहित हो गये ॥ ३३ ॥
ब्रह्मा चिन्तातुरो जातः किमेतत्समुपस्थितम् । प्रधानौ देवतामध्ये कथं कार्याक्षमावमू ॥ ३४ ॥ अकाण्डे किं निमित्तेन संकटं समुपस्थितम् । प्रलयो भविता किं वा जगतोऽस्य निरागसः ॥ ३५ ॥ निमित्तं नैव जानेऽहं कथं कार्या प्रतिक्रिया ।
इसपर ब्रह्माजी चिन्तासे अधीर हो गये और सोचने लगे कि यह क्या हो गया ? देवताओंमें प्रधान वे विष्णु तथा शिव अपना-अपना कार्य करने में असमर्थ क्यों हो गये ? यह संकट अचानक किस कारणसे उपस्थित हो गया ? क्या इस निरपराध जगत्का प्रलय हो जायगा ? मैं इसका कारण नहीं जान पा रहा हूँ, तो फिर इस स्थितिमें इसका प्रतीकार कैसे किया जाय ॥ ३४-३५.५ ॥
इसी महान् चिन्तामें निमग्न ब्रह्माजीने नेत्र बन्द करके ध्यान लगाया और तब उन्होंने जाना कि पराशक्तिके प्रकोपसे ही यह सब घटित हुआ है । हे नृपश्रेष्ठ ! यह जानते ही ब्रह्माजी सावधान हो गये । इसके अनन्तर विष्णु तथा शंकरका जो कार्य था, उसे तपोनिधि ब्रह्माजी अपनी शक्तिके प्रभावसे कुछ समयतक स्वयं करते रहे ॥ ३६-३८ ॥
तदनन्तर धर्मात्मा ब्रह्माजीने उन विष्णु तथा शंकरके कल्याणार्थ अपने मनु आदि तथा सनक आदि पुत्रोंका शीघ्र आह्वान किया । तपोनिधि ब्रह्माजीने अपने समक्ष सिर झुकाये हुए उन कुमारोंसे कहामैं संसारके भारसे युक्त हूँ । अतः कार्यमें अत्यधिक आसक्त रहनेके कारण मैं इस समय पराशक्ति जगदम्बाको प्रसन्न करनेके लिये तपस्या करनेमें समर्थ नहीं हूँ । उन पराशक्तिके प्रकोपके कारण विष्णु तथा शिव विक्षिप्त हो गये हैं, अतः आपलोग परम भक्तिसे युक्त होकर अद्भुत तप करके उन पराशक्ति जगदम्बाको प्रसन्न कीजिये ॥ ३९-४२ ॥
यथा तौ पूर्ववृत्तौ च स्यात शक्तियुतावपि ां। तथा कुरुत मत्पुत्रा यशोवृद्धिर्भवेद्धि वः ॥ ४३ ॥ कुले यस्य भवेज्जन्म तयोः शक्त्योस्तु तत्कुलम् । पावयेज्जगतीं सर्वां कृतकृत्यं स्वयं भवेत् ॥ ४४ ॥
हे मेरे पुत्रो ! जिस भी प्रकारसे शिव तथा विष्णु पूर्वकी भाँति हो जायें और अपनी शक्तियोंसे सम्पन्न हो सकें, आपलोग वैसा प्रयत्न कीजिये; इससे आपलोगोंका यश ही बढ़ेगा । जिस कुलमें उन दोनों शक्तियोंका जन्म होगा, वह कुल सम्पूर्ण जगत्को पवित्र कर देगा और स्वयं कृतार्थ हो जायगा ॥ ४३-४४ ॥