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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
त्रिंशोऽध्यायः

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देवीपीठवर्णनम् -
शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य -


व्यास उवाच -
ततस्ते तु वनोद्देशे हिमाचलतटाश्रयाः ।
मायाबीजजपासक्तास्तपश्चेरुः समाहिताः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! तत्पश्चात् वे वनप्रदेशमें हिमालयकी तलहटीमें स्थित रहकर समाहितचित्त हो मायाबीज (भुवनेश्वरीमन्त्र)-के जपमें तत्पर रहते हुए घोर तप करने लगे ॥ १ ॥

ध्यायतां परमां शक्तिं लक्षवर्षाण्यभून्नृप ।
ततः प्रसन्ना देवी सा प्रत्यक्ष्यं दर्शनं ददौ ॥ २ ॥
पाशाङ्कुशवराभीतिचतुर्बाहुस्त्रिलोचना ।
करुणारससम्पूर्णा सच्चिदानन्दरूपिणी ॥ ३ ॥
हे राजन् ! एक लाख वर्षपर्यन्त उन पराशक्तिका ध्यान करते रहनेके उपरान्त देवी उनके ऊपर प्रसन्न हो गयीं और उन्होंने प्रत्यक्ष दर्शन दिया । उस समय उन्होंने अपने चारों हाथोंमें पाश, अंकुश, वर और अभय मुद्रा धारण कर रखी थीं, वे तीन नेत्रोंसे युक्त थीं, वे करुणारससे परिपूर्ण थीं और उनका विग्रह सत्, चित् तथा आनन्दसे सम्पन्न था ॥ २-३ ॥

दृष्ट्वा तां सर्वजननीं तुष्टुवुर्मुनयोऽमलाः ।
नमस्ते विश्वरूपायै वैश्वानरसुमूर्तये ॥ ४ ॥
नमस्तेजसरूपायै सूत्रात्मवपुषे नमः ।
यस्मिन्सर्वे लिङ्गदेहा ओतप्रोता व्यवस्थिताः ॥ ५ ॥
नमः प्राज्ञस्वरूपायै नमोऽव्याकृतमूर्तये ।
नमः प्रत्यक्स्वरूपायै नमस्ते ब्रह्ममूर्तये ॥ ६ ॥
उन सर्वजननीको देखकर विशुद्ध चित्तवाले वे मुनिगण उनकी स्तुति करने लगे-विश्वरूप तथा वैश्वानररूपवाली आपको नमस्कार है । जिसमें समग्र लिंगदेह ओत-प्रोत होकर व्यवस्थित है, उस सूत्ररूप विग्रहवाली तथा तेजसम्पन्न रूपवाली आपको बारबार नमस्कार है । प्राज्ञस्वरूपवाली आपको नमस्कार है, अव्यक्तस्वरूपवाली आपको नमस्कार है, प्रत्यक्स्वरूप आपको नमस्कार है और परब्रह्मका स्वरूप धारण करनेवाली आपको नमस्कार है । समस्त रूपोंवाली आपको नमस्कार है तथा सभी प्राणियोंमें आत्ममूर्तिके रूपमें लक्षित होनेवाली आपको नमस्कार है ॥ ४-६ ॥

नमस्ते सर्वरूपायै सर्वलक्ष्यात्ममूर्तये ।
इति स्तुत्वा जगद्धात्रीं भक्तिगद्‌गदया गिरा ॥ ७ ॥
प्रणेमुश्चरणाम्भोजं दक्षाद्या मुनयोऽमलाः ।
ततः प्रसन्ना सा देवी प्रोवाच पिकभाषिणी ॥ ८ ॥
वरं ब्रूत महाभागा वरदाहं सदा मता ।
इस प्रकार भक्तियुक्त गद्‌गद वाणीसे उन जगद्धात्रीकी स्तुति करके निर्मल मनवाले दक्ष आदि मुनियोंने भगवतीके चरण-कमलमें प्रणाम किया । तब कोयलके समान मधुर वचन बोलनेवाली उन देवीने प्रसन्न होकर कहा-हे महान् भाग्यशाली मुनियो ! आपलोग वर माँगिये, मैं सदा वर प्रदान करनेवाली मानी जाती हूँ ॥ ७-८.५ ॥

तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा हरविष्ण्वोस्तनोः शमम् ॥ ९ ॥
तयोस्तच्छक्तिलाभं च वव्रिरे नृपसत्तम ।
हे नृपश्रेष्ठ ! उनकी वाणी सुनकर मुनियोंने यह वरदान माँगा कि शंकर तथा विष्णुका शरीर स्वस्थ हो जाय और उन्हें पुन: वही पूर्व शक्तियाँ प्राप्त हो जायँ ॥ ९.५ ॥

दक्षोऽथ पुनरप्याह जन्म देवि कुले मम ॥ १० ॥
भवेत्तवाम्ब येनाहं कृतकृत्यो भवे इति ।
जपं ध्यानं तथा पूजां स्थानानि विविधानि च ॥ ११ ॥
वद मे परमेशानि स्वमुखेनैव केवलम् ।
- इसके बाद दक्षने कहा-हे देवि ! हे अम्ब ! मेरे कुलमें आपका जन्म हो, जिससे मैं कृतकृत्य हो जाऊँ । हे परमेश्वरि ! आप अपने मुखसे अपने जप, ध्यान, पूजा तथा विविध स्थानोंके विषयमें बतानेकी कृपा कीजिये ॥ १०-११.५ ॥

देव्युवाच -
मच्छक्त्योरवमानाच्च जातावस्था तयोर्द्वयोः ॥ १२ ॥
नैतादृशः प्रकर्तव्यो मेऽपराधः कदाचन ।
अधुना मत्कृपालेशाच्छरीरे स्वस्थता तयोः ॥ १३ ॥
भविष्यति च ते शक्ती त्वद्‌गृहे क्षीरसागरे ।
जनिष्यतस्तत्र ताभ्यां प्राप्स्यतः प्रेरिते मया ॥ १४ ॥
देवी बोलीं-मेरी शक्तियोंका अपमान करनेसे ही उन दोनों (विष्णु तथा शिव)-की यह दशा हुई है । उन्हें मेरे प्रति ऐसा अपराध कभी नहीं करना चाहिये । अब मेरी लेशमात्र कृपासे ही उन दोनोंके शरीरमें स्वस्थता आ जायगी । साथ ही गौरी और लक्ष्मी नामक वे दोनों शक्तियाँ आपके घरमें तथा क्षीरसागरमें जन्म लेंगी और मेरेद्वारा प्रेरित किये जानेपर वे शक्तियाँ उन दोनोंको प्राप्त हो जायगी ॥ १२-१४ ॥

मायाबीजं हि मन्त्रो मे मुख्यः प्रियकरः सदा ।
ध्यानं विराट्स्वरूपं मेऽथवा त्वत्पुरतः स्थितम् ॥ १५ ॥
सच्चिदानंदरूपं वा स्थानं सर्वं जगन्मम ।
युष्माभिः सर्वदा चाहं पूज्या ध्येया च सर्वदा ॥ १६ ॥
मुझे सदा प्रसन्न करनेवाला 'मायाबीज' ही मेरा प्रधान मन्त्र है । मेरे विराट रूपका अथवा आपके समक्ष उपस्थित इस रूपका अथवा सच्चिदानन्द रूपका ध्यान करना चाहिये । सम्पूर्ण जगत् ही मेरा निवास-स्थान है । आपलोगोंको सर्वदा मेरा पूजन तथा ध्यान करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥

व्यास उवाच -
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवी मणिद्वीपाधिवासिनी ।
दक्षाद्या मुनयः सर्वे ब्रह्माणं पुनराययुः ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर मणिद्वीपमें निवास करनेवाली भगवती जगदम्बा अन्तर्धान हो गयीं । तब दक्ष आदि सभी मुनिगण ब्रह्माजीके पास लौट आये और उन्होंने ब्रह्माजीसे आदरपूर्वक सारा वृत्तान्त कह दिया ॥ १७ ॥

ब्रह्मणे सर्ववृतान्तं कथयामासुरादरात् ।
हरो हरिश्च स्वस्थौ तौ स्वस्वकार्यक्षमौ नृप ॥ १८ ॥
हे राजन् ! तब पराम्बाकी कृपासे वे दोनों विष्णु तथा शिव स्वस्थ हो गये, उनमें अपने-अपने कार्यसम्पादनकी क्षमता आ गयी और वे अभिमानरहित भी हो गये ॥ १८ ॥

जातौ पराम्बाकृपया गर्वेण रहितौ तदा ।
कदाचितदथ काले तु महः शाक्तमवातरत् ॥ १९ ॥
दक्षदेहे महाराज त्रैलोक्येऽप्युत्सवोऽभवत् ।
देवाः प्रमुदिताः सर्वे पुष्पवृष्टिं च चक्रिरे ॥ २० ॥
नेदुर्दुन्दुभयः स्वर्गे करकोणाहता नृप ।
मनांस्यासन्प्रसन्नानि साधूनाममलात्मनाम् ॥ २१ ॥
सरितो मार्गवाहिन्यः सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः ।
मङ्गलायां तु जातायां जातं सर्वत्र मङ्गलम् ॥ २२ ॥
हे महाराज ! कुछ समय व्यतीत होनेपर दक्षके भवनमें शक्तिसम्पन्न एक महान् तेज प्रकट हुआ । उस समय तीनों लोकोंमें उत्सव मनाया गया । सभी देवतागण प्रसन्न होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे और वे स्वर्गमें हाथोंसे आघात करके दुन्दुभियाँ बजाने लगे । हे नृप ! निर्मल मनवाले साधुपुरुषोंके मन प्रसन्न हो गये, नदियाँ मागों में जलधारा बहाने लगी और भगवान् सूर्य मनोहर प्रभासे युक्त हो गये । इस प्रकार मंगलमयी भगवतीके प्रकट होनेपर सभी स्थानोंपर मंगल ही मंगल हो गया । १९-२२ ॥

तस्या नाम सतीं चक्रे सत्यत्वात्परसंविदः ।
ददौ पुनः शिवायाथ तस्य शक्तिस्तु याभवत् ॥ २३ ॥
सा पुनर्ज्वलने दग्धा दैवयोगान्मनोर्नृप ।
दक्षने सत्यस्वरूप होने तथा ब्रह्मस्वरूपिणी होनेके कारण उस देवीका नाम 'सती' रखा और उन्हें पुनः शिवको समर्पित कर दिया; क्योंकि वे पूर्व में भी उन्हीं शिवकी शक्ति थीं । हे राजन् ! वे ही सती पुनः दक्षके यज्ञमें दैवयोगसे अग्निमें जलकर भस्म हो गयीं ॥ २३.५ ॥

जनमेजय उवाच -
अनर्थकरमेतत्ते श्रावितं वचनं मुने ॥ २४ ॥
एतादृशं महद्वस्तु कथं दग्धं हुताशने ।
यन्नामस्मरणान्नृणां संसाराग्निभयं न हि ॥ २५ ॥
केन कर्मविपाकेन मनोर्दग्धं तदेव हि ।
जनमेजय बोले-हे मुने ! आपने यह तो बड़ा ही अनर्थकारी प्रसंग सुनाया । इस प्रकारकी महान् विभूति वे सती, जिनके नामके स्मरणमात्रसे मनुष्योंको संसाररूप अग्निका भय नहीं रहता, अग्निमें जलकर भस्म क्यों हो गयीं ? दक्षके किस प्रतिकूल कर्मक कारण वे सती भस्म हो गयीं ? ॥ २४-२५.५ ॥

व्यास उवाच -
शृणु राजन् पुरा वृत्तं सतीदायस्य कारणम् ॥ २६ ॥
कदाचिदथ दुर्वासा गतो जाम्बूनदेश्वरीम् ।
ददर्श देवीं तत्रासौ मायाबीजं जजाप सः ॥ २७ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सतीके भस्म होनेका कारणसम्बन्धी प्राचीन वृत्तान्त सुनिये । किसी समय ऋषि दुर्वासा [जम्बूनदके तटपर स्थित] भगवती जाम्बूनदेश्वरीके समीप गये । उन्होंने वहाँ देवीका दर्शन किया और वहींपर वे मायाबीज मन्त्रका जप करने लगे ॥ २६-२७ ॥

ततः प्रसन्ना देवेशी निजकण्ठगतां स्रजम् ।
भ्रमद्‌भ्रमरसंसक्तां मकरन्दमदाकुलाम् ॥ २८ ॥
ददौ प्रसादभूतां तां जग्राह शिरसा मुनिः ।
उससे प्रसन्न होकर देवेश्वरीने दिव्य पुष्पोंके परागसे परिपूर्ण होनेके कारण उसपर मँडराते हुए भ्रमरोंसे सुशोभित अपने गलेमें पड़ी हुई माला मुनिको दे दी और उन्होंने सिर झुकाकर प्रसादरूपमें प्राप्त उस मालाको स्वीकार कर लिया ॥ २८.५ ॥

ततो निर्गत्य तरसा व्योममार्गेण तापसः ॥ २९ ॥
आजगाम स यत्रास्ते दक्षः साक्षात्सतीपिता ।
सन्दर्शनार्थमम्बाया ननाम च सतीपदे ॥ ३० ॥
तदनन्तर वहाँसे तत्काल निकलकर वे तपस्वी मुनि दुर्वासा जगदम्बाके दर्शनार्थ आकाशमार्गसे वहाँ आ गये, जहाँ साक्षात् सतीके पिता दक्ष विराजमान थे । मुनिने सतीके चरणोंमें नमन किया ॥ २९-३० ॥

पृष्टो दक्षेण स मुनिर्माला कस्यास्त्यलौकिकी ।
कथं लब्धा त्वया नाथ दुर्लभा भुवि मानवैः ॥ ३१ ॥
दक्षने उन मुनिसे पूछा-हे नाथ ! यह अलौकिक माला किसकी है ? पृथ्वीपर मनुष्योंके लिये परम दुर्लभ यह माला आपने कैसे प्राप्त कर ली ? ॥ ३१ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य प्रोवाचाश्रुयुतेक्षणः ।
देव्याः प्रसादमतुलं प्रेमगद्‌गदितान्तरः ॥ ३२ ॥
उनका यह वचन सुनकर प्रेमसे विह्वलहदय तथा अश्रुपूरित नेत्रोंवाले मुनि दुर्वासाने कहा-यह भगवतीका अनुपम प्रसाद है ॥ ३२ ॥

प्रार्थयामास तां मालां तं मुनिं स सतीपिता ।
अदेयं शक्तिभक्ताय नास्ति त्रैलोक्यमण्डले ॥ ३३ ॥
इति बुद्ध्या तु तां मालां मनवे स समर्पयत् ।
गृहीता शिरसा माला मनुना निजमन्दिरे ॥ ३४ ॥
स्थापिता शयनं यत्र दम्पत्योरतिसुन्दरम् ।
पशुकर्मरतो रात्रौ मालागन्धेन मोदितः ॥ ३५ ॥
अभवत्स महीपालस्तेन पापेन शङ्करे ।
शिवे द्वेषमतिर्जातो देव्यां सत्यां तथा नृप ॥ ३६ ॥
तब सतीके पिता दक्षने उन मुनिसे उस मालाके लिये याचना की । तीनों लोकोंमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो देवीभक्तको न दी जा सके'-ऐसा विचार करके मुनिने वह माला दक्षको दे दी । दक्षने सिर झुकाकर उस मालाको ग्रहण कर लिया और उसे अपने घरमें, जहाँपर पति-पत्नीकी अत्यन्त सुन्दर शय्या थी, वहीं पर रख दिया । उस मालाको सुगन्धिसे मत्त होकर राजा दक्ष रातमें पशुकर्म (स्त्रीसमागम) में प्रवृत्त हुए । हे राजन् ! उसी पाप-कर्मके प्रभावसे वे कल्याणकारी शंकर तथा देवी सतीके प्रति द्वेषबुद्धिवाले हो गये ॥ ३३-३६ ॥

राजंस्तेनापराधेन तज्जन्यो देह एव च ।
सत्या योगाग्निना दग्धः सतीधर्मदिदृक्षया ॥ ३७ ॥
हे राजन् ! उसी अपराधके परिणामस्वरूप सतीने सतीधर्म प्रदर्शित करनेके लिये उन दक्षसे उत्पन्न अपने शरीर को योगाग्निसे भस्म कर दिया । फिर वहीं ज्योति हिमालयके घर प्रादुर्भूत हुई ॥ ३७ ॥

पुनश्च हिमवत्पृष्ठे प्रादुरासीत्तु तन्महः ।
जनमेजय उवाच -
दह्यमाने सतीदेहे जाते किमकरोच्छिवः ॥ ३८ ॥
जनमेजय बोले-[हे मुने !] जिन शिवके लिये सती प्राणोंसे भी अधिक प्रिय थीं, उन भगवान् शिवने सतीका शरीर भस्म हो जानेके उपरान्त उनके वियोगसे व्याकुल होकर क्या किया ? ॥ ३८ ॥

प्राणाधिका सती तस्य तद्वियोगेन कातरः ।
व्यास उवाच -
ततः परं तु यज्जातां मया वक्तुं न शक्यते ॥ ३९ ॥
त्रैलोक्यप्रलयो जातः शिवकोपाग्निना नृप ।
वीरभद्रः समुत्पन्नो भद्रकालीगणान्वितः ॥ ४० ॥
त्रैलोक्यनाशनोद्युक्तो वीरभद्रो यदाभवत् ।
ब्रह्मादयस्तदा देवाः शङ्करं शरणं ययुः ॥ ४१ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! उसके बाद जो कुछ हुआ, उसे कह सकनेमें मैं असमर्थ हूँ । शिवकी कोपाग्निसे तीनों लोकोंमें प्रलयकी स्थिति उत्पन्न हो गयी । उस समय वीरभद्र प्रकट हुए और जब वे वीरभद्र, भद्रकाली आदि गणोंको साथ लेकर तीनों लोकोंको नष्ट करनेके लिये तत्पर हुए, तब ब्रह्मा आदि देवता भगवान् शंकरकी शरणमें गये ॥ ३९-४१ ॥

जाते सर्वस्वनाशेऽपि करुणानिधिरीश्वरः ।
अभयं दत्तवांस्तेभ्यो बस्तवक्त्रेण तं मनुम् ॥ ४२ ॥
अजीवयन्महात्मासौ ततः खिन्नो महेश्वरः ।
यज्ञवाटमुपागम्य रुरोद भृशदुःखितः ॥ ४३ ॥
सर्वस्व-नाश हो जानेपर भी करुणानिधि परमेश्वर शिवने उन देवताओंको अभय प्रदान कर दिया और बकरेका सिर जोड़कर उन दक्षप्रजापतिको जीवित कर दिया । तदनन्तर वे महात्मा शिव उदास होकर यज्ञस्थलपर गये और अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगे । ४२-४३ ॥

अपश्यत्तां सतीं वह्नौ दह्यमानां तु चित्कलाम् ।
स्कन्धेऽप्यारोपयामास हा सतीति वदन्मुहुः ॥ ४४ ॥
उन्होंने वहाँ चिन्मय शरीरवाली सतीको अग्निमें दग्ध होते हुए देखा । तब 'हा सती'-ऐसा बार-बार बोलते हुए शिवने उस शरीरको अपने कन्धेपर रख लिया और भ्रमितचित्त होकर वे देश-देशमें भ्रमण करने लगे ॥ ४४ ॥

बभ्राम भ्रान्तचित्तः सन्नानादेशेषु शङ्करः ।
तदा ब्रह्मादयो देवाश्चिन्तामापुरनुत्तमाम् ॥ ४५ ॥
विष्णुस्तु त्वरया तत्र धनुरुद्यम्य मार्गणैः ।
चिच्छेदावयवान्सत्यास्तत्तत्स्थानेषु तेऽपतन् ॥ ४६ ॥
तत्तत्स्थानेषु तत्रासीन्नानामूर्तिधरो हरः ।
इससे ब्रह्मा आदि देवता अत्यन्त चिन्तित हो उठे । विष्णुने शीघ्रतापूर्वक धनुष उठाकर बाणोंसे सतीके अंगोंको काट डाला । वे अंग जिन-जिन स्थानोंपर गिरे, उन-उन स्थानोंपर भगवान् शंकर अनेक विग्रह धारण करके प्रकट हो गये । ४५-४६.५ ॥

उवाच च ततो देवान्स्थानेष्वेतेषु ये शिवाम् ॥ ४७ ॥
भजन्ति परया भक्त्या तेषां किञ्चिन्न दुर्लभम् ।
नित्यं सन्निहिता यत्र निजाङ्गेषु पराम्बिका ॥ ४८ ॥
स्थानेष्वेतेषु ये मर्त्याः पुरश्चरणकर्मिणः ।
तेषां मन्त्राः प्रसिद्ध्यन्ति मायाबीजं विशेषतः ॥ ४९ ॥
तत्पश्चात् शिवने देवताओंसे कहा कि जो लोग इन स्थानोंपर महान् श्रद्धाके साथ भगवती शिवाकी आराधना करेंगे, उनके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रहेगा; क्योंकि उन स्थानोंपर साक्षात् भगवती पराम्बा अपने अंगोंमें सदा निहित हैं । जो मनुष्य इन स्थानोंपर पुरश्चरण करेंगे । उनके मन्त्र, विशेषरूपसे मायाबीज मन्त्र अवश्य सिद्ध हो जायेंगे ॥ ४७-४९ ॥

इत्युक्त्वा शङ्करस्तेषु स्थानेषु विरहातुरः ।
कालं निन्ये नृपश्रेष्ठ जपध्यानसमाधिभिः ॥ ५० ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर सतीके विरहसे अधीर भगवान् शिव उन स्थानोंमें जप, ध्यान और समाधिमें संलग्न होकर समय व्यतीत करने लगे ॥ ५० ॥

जनमेजय उवाच -
कानि स्थानानि तानि स्युः सिद्धपीठानि चानघ ।
कति संख्यानि नामानि कानि तेषां च मे वद ॥ ५१ ॥
तत्र स्थितानां देवीनां नामानि च कृपाकर ।
कृतार्थोऽहं भवे येन तद्वदाशु महामुने ॥ ५२ ॥
जनमेजय बोले-हे अनघ ! वे कौनसे स्थान हैं, जो सिद्धपीठ हुए; वे संख्यामें कितने हैं, उनके क्या नाम हैं ? मुझे बताइये । हे कृपाकर ! हे महामुने ! उन स्थानोंपर विराजमान देवियोंके नाम भी शीघ्र बतला दीजिये, जिससे मैं कृतार्थ हो जाऊँ ॥ ५१-५२ ॥

व्यास उवाच -
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि देवेपीठानि साम्प्ततम् ।
येषां श्रवणमात्रेण पापहीनो भवेन्नरः ॥ ५३ ॥
येषु येषु च पीठेषूपास्येयं सिद्धिकाङ्क्षिभिः ।
भूतिकामैरभिध्येया तानि वक्ष्यामि तत्त्वतः ॥ ५४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, अब मैं देवीपीठोंका वर्णन कर रहा हूँ, जिनके श्रवणमात्रसे मनुष्य पापरहित हो जाता है । सिद्धिकी अभिलाषा रखनेवाले तथा ऐश्वर्यकी कामना करनेवाले पुरुषोंके द्वारा जिन-जिन स्थानोंपर इन देवीकी उपासना तथा इनका ध्यान किया जाना चाहिये, उन स्थानोंको मैं तत्त्वपूर्वक बता रहा हूँ ॥ ५३-५४ ॥

वाराणस्यां विशालाक्षी गौरीमुखनिवासिनी ।
क्षेत्रे वै नैमिषारण्ये प्रोक्ता सा लिङ्गधारिणी ॥ ५५ ॥
वाराणसीमें गौरीके मुखमें निवास करनेवाली देवी विशालाक्षी प्रतिष्ठित हैं और नैमिषारण्यक्षेत्रमें वे लिंगधारिणी नामसे कही गयी हैं ॥ ५५ ॥

प्रयागे ललिता प्रोक्ता कामुकी गन्धमादने ।
मानसे कुमुदा प्रोक्ता दक्षिणे चोत्तरे तथा ॥ ५६ ॥
विश्वकामा भगवती विश्वकामप्रपूरणी ।
गोमन्ते गोमती देवी मन्दरे कामचारिणी ॥ ५७ ॥
मदोत्कटा चैत्ररथे जयन्ती हस्तिनापुरे ।
गौरी प्रोक्ता कान्यकुब्जे रम्भा तु मलयाचले ॥ ५८ ॥
उन्हें प्रयागमें 'ललिता' तथा गन्धमादनपर्वतपर 'कामुकी' नामसे कहा गया है । वे दक्षिण मानसरोवरमें 'कुमुदा' तथा उत्तर मानसरोवरमें सभी कामनाएँ पूर्ण करनेवाली भगवती 'विश्वकामा' कही गयी हैं । उन्हें गोमन्तपर देवी 'गोमती', मन्दराचलपर 'कामचारिणी', चैत्ररथमें 'मदोत्कटा', हस्तिनापुरमें 'जयन्ती', कान्यकुब्जमें 'गौरी' तथा मलयाचलपर 'राभा' कहा गया है ॥ ५६-५८ ॥

एकाम्रपीठे सम्प्रोक्ता देवी सा कीर्तिमत्यपि ।
विश्वे विश्वेश्वरीं प्राहुः पुरुहूतां च पुष्करे ॥ ५९ ॥
वे भगवती एकाम्रपीठपर 'कीर्तिमती' नामवाली कही गयी हैं । लोग उन्हें विश्वपीठपर 'विश्वेश्वरी' और पुष्करमें 'पुरुहूता' नामवाली कहते हैं ॥ ५९ ॥

केदारपीठे सम्प्रोक्ता देवी सन्मार्गदायिनी ।
मन्दा हिमवतः पृष्ठे गोकर्णे भद्रकर्णिका ॥ ६० ॥
स्थानेश्वरे भवानी तु बिल्वले बिल्वपत्रिका ।
श्रीशैले माधवी प्रोक्ता भद्रा भद्रेश्वरे तथा ॥ ६१ ॥
वे देवी केदारपीठमें सन्मार्गदायिनी', हिमवत्पृष्ठपर 'मन्दा', गोकर्णमें 'भद्रकर्णिका', स्थानेश्वरमें 'भवानी', बिल्वकमें 'बिल्वपत्रिका', श्रीशैलमें 'माधवी' तथा भद्रेश्वरमें 'भद्रा' कही गयी हैं ॥ ६०-६१ ॥

वराहशैले तु जया कमला कमलालये ।
रुद्राणी रुद्रकोट्यां तु काली कालञ्जरे तथा ॥ ६२ ॥
शालग्रामे महादेवी शिवलिङ्गे जलप्रिया ।
महालिङ्गे तु कपिला माकोटे मुकुटेश्वरी ॥ ६३ ॥
उन्हें वराहपर्वतपर 'जया', कमलालयमें 'कमला', रुद्रकोटिमें 'रुद्राणी', कालंजरमें 'काली', शालग्राममें 'महादेवी', शिवलिंगमें 'जलप्रिया', महालिङ्‌गमें 'कपिला' और माकोटमें 'मुकुटेश्वरी' कहा गया है ॥ ६२-६३ ॥

मायापुर्यां कुमारी स्यात्सन्ताने ललिताम्बिका ।
गयायां मङ्गला प्रोक्ता विमला पुरुषोत्तमे ॥ ६४ ॥
उत्पलाक्षी सहस्राक्षे हिरण्याक्षे महोत्पला ।
विपाशायाममोघाक्षी पाडला पुण्ड्रवर्धने ॥ ६५ ॥
नारायणी सुपार्श्वे तु त्रिकुटे रुद्रसुन्दरी ।
विपुले विपुला देवी कल्याणी मलयाचले ॥ ६६ ॥
सह्याद्रावेकवीरा तु हरिश्चन्द्रे तु चन्द्रिका ।
रमणा रामतीर्थे तु यमुनायां मृगावती ॥ ६७ ॥
कोटवी कोटतीर्थे तु सुगन्धा माधवे वने ।
गोदावर्यां त्रिसन्ध्या तु गङ्गाद्वारे रतिप्रिया ॥ ६८ ॥
शिवकुण्डे शुभानन्दा नन्दिनी देविकातटे ।
रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृन्दावने वने ॥ ६९ ॥
देवकी मथुरायां तु पाताले परमेश्वरी ।
चित्रकूटे तथा सीता विन्ध्ये विन्ध्याधिवासिनी ॥ ७० ॥
करवीरे महालक्षीरुमा देवी विनायके ।
आरोग्या वैद्यनाथे तु महाकाले महेश्वरी ॥ ७१ ॥
अभयेत्युष्णतीर्थेषु नितम्बा विन्ध्यपर्वते ।
माण्डव्ये माण्डवी नाम स्वाहा माहेश्वरीपुरे ॥ ७२ ॥
वे भगवती मायापुरीमें 'कुमारी', सन्तानपीठमें 'ललिताम्बिका', गया 'मंगला' और पुरुषोत्तमक्षेत्रमें 'विमला' कही गयी हैं । वे सहस्राक्षमें 'उत्पलाक्षी', हिरण्याक्षमें 'महोत्पला', विपाशामें 'अमोघाक्षी', पुण्ड्रवर्धनमें 'पाडला', सुपार्श्वमें 'नारायणी', त्रिकूटमें 'रुद्रसुन्दरी', विपुलक्षेत्रमें 'विपुला', मलयाचलपर देवी 'कल्याणी', सह्याद्रिपर्वतपर 'एकवीरा', हरिश्चन्द्रमें 'चन्द्रिका', रामतीर्थमें 'रमणा', यमुनामें 'मृगावती', कौटतीर्थमें कोटवी', माधववनमें 'सुगन्धा', गोदावरीमें 'त्रिसन्ध्या', गंगाद्वारमें 'रतिप्रिया', शिवकुण्डमें 'शुभानन्दा', देविकातटपर 'नन्दिनी', द्वारकामें रुक्मिणी', वृन्दावनमें 'राधा', मथुरामें देवकी', पातालमें परमेश्वरी', चित्रकूटमें 'सीता', विन्ध्याचलपर 'विन्ध्यवासिनी', करवीरक्षेत्रमें 'महालक्ष्मी', विनायकक्षेत्रमें देवी 'उमा', वैद्यनाथधाममें 'आरोग्या', महाकालमें 'महेश्वरी', उष्णतीर्थोमें 'अभया', विन्ध्यपर्वतपर 'नितम्बा', माण्डव्यक्षेत्रमें माण्डवी' तथा माहेश्वरीपुरमें 'स्वाहा' नामसे प्रतिष्ठित हैं । ६४-७२ ॥

छगलण्डे प्रचण्डा तु चण्डीकामरकण्टके ।
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती ॥ ७३ ॥
देवमाता सरस्वत्यां पारावारा तटे स्मृता ।
महालये महाभागा पयोष्ण्यां पिङ्गलेश्वरी ॥ ७४ ॥
वे देवी छगलण्डमें 'प्रचण्डा', अमरकण्टकमें 'चण्डिका', सोमेश्वरमें 'वरारोहा', प्रभासक्षेत्रमें 'पुष्करावती', सरस्वतीतीर्थमें 'देवमाता', समुद्रतटपर 'पारावारा', महालयमें 'महाभागा' और पयोष्णीमें 'पिंगलेश्वरी' नामसे प्रसिद्ध हुई । ७३-७४ ॥

सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिके त्वतिशाङ्करी ।
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा शोणसङ्गमे ॥ ७५ ॥
माता सिद्धवने लक्ष्मीरनङ्गा भरताश्रमे ।
जालन्धरे विश्वमुखी तारा किष्किन्धपर्वते ॥ ७६ ॥
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले ।
भीमा देवी हिमाद्रौ तु तुष्टिर्विश्वेश्वरे तथा ॥ ७७ ॥
कपालमोचने शुद्धिर्माता कामावरोहणे ।
शङ्खोद्धारे धारा नाम धृतिः पिण्डारके तथा ॥ ७८ ॥
वे कृतशौचक्षेत्रमें 'सिंहिका', कार्तिकक्षेत्र में 'अतिशांकरी', उत्पलावर्तकमें 'लोला', सोनभद्रनदके संगमपर 'सुभद्रा', सिद्धवनमें माता 'लक्ष्मी', भरताश्रमतीर्थमें अनंगा', जालन्धरपर्वतपर 'विश्वमुखी', किष्किन्धापर्वतपर 'तारा', देवदास्वनमें 'पुष्टि', काश्मीरमण्डलमें 'मेधा', हिमाद्रिपर देवी 'भीमा', विश्वेश्वरक्षेत्रमें 'तुष्टि', कपालमोचनतीर्थमें 'शुद्धि', कामावरोहणतीर्थमें 'माता', शंखोद्धारतीर्थमें 'धारा' और पिण्डारकतीर्थमें 'धृति' नामसे विख्यात हैं । ७५-७८ ॥

कला तु चन्द्रभागायामच्छोदे शिवधारिणी ।
वेणायाममृता नाम बदर्यामुर्वशी तथा ॥ ७९ ॥
औषधिश्चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका ।
मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी ॥ ८० ॥
अश्वत्थे वन्दनीया तु निधिर्वैश्रवणालये ।
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ ॥ ८१ ॥
देवलोके तथेन्द्राणी ब्रह्मास्येषु सरस्वती ।
सूर्यबिम्बे प्रभा नाम मातॄणां वैष्णवी मता ॥ ८२ ॥
अरुन्धती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा ।
चित्ते ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणाम् ॥ ८३ ॥
चन्द्रभागानदीके तटपर 'कला', अच्छोदक्षेत्रमें 'शिवधारिणी', वेणानदीके किनारे 'अमृता', बदरीवनमें 'उर्वशी', उत्तरकुरुप्रदेशमें 'औषधि', कुशद्वीपमें 'कुशोदका', हेमकूटपर्वतपर 'मन्मथा', कुमुदवनमें 'सत्यवादिनी', अश्वत्थतीर्थमें 'वन्दनीया', वैश्रवणालयक्षेत्रमें 'निधि', वेदवदनतीर्थमें 'गायत्री', भगवान् शिवके सांनिध्यमें 'पार्वती', देवलोकमें 'इन्द्राणी', ब्रह्माके मुखोंमें 'सरस्वती', सूर्यके बिम्बमें 'प्रभा' तथा मातृकाओंमें 'वैष्णवी' नामसे कही गयी हैं । सतियोंमें 'अरुन्धती', अप्सराओंमें 'तिलोत्तमा' और सभी शरीरधारियोंके चित्तमें 'ब्रह्मकला' नामसे वे शक्ति प्रसिद्ध हैं । ७९-८३ ॥

इमान्यष्ट शतानि स्युः पीठानि जनमेजय ।
तत्संख्याकास्तदीशान्यो देव्यश्च परिकीर्तिताः ॥ ८४ ॥
सतीदेव्यङ्गभूतानि पीठानि कथितानि च ।
अन्यान्यपि प्रसङ्गेन यानि मुख्यानि भूतले ॥ ८५ ॥
हे जनमेजय ! ये एक सौ आठ सिद्धपीठ हैं और उन स्थानोंपर उतनी ही परमेश्वरी देवियाँ कही गयी हैं । भगवती सतीके अंगोंसे सम्बन्धित पीठोंको मैंने बतला दिया । साथ ही इस पृथ्वीतलपर और भी अन्य जो प्रमुख स्थान हैं, प्रसंगवश उनका भी वर्णन कर दिया ॥ ८४-८५ ॥

यः स्मरेच्छृणुयाद्वापि नामाष्टशतमुत्तमम् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो देवीलोकं परं व्रजेत् ॥ ८६ ॥
जो मनुष्य इन एक सौ आठ उत्तम नामोंका स्मरण अथवा श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर भगवतीके परम धाममें पहुँच जाता है ॥ ८६ ॥

एतेषु सर्वपीठेषु गच्छेद्यात्राविधानतः ।
सन्तर्पयेच्च पित्रादीञ्छ्राद्धादीनि विधाय च ॥ ८७ ॥
कुर्याच्च महतीं पूजां भगवत्या विधानतः ।
क्षमापयेज्जगधात्रीं जगदम्बां मुहुर्मुहुः ॥ ८८ ॥
कृतकृत्यं स्वमात्मानं जानीयाज्जनमेजय ।
भक्ष्यभोज्यादिभिः सर्वान्ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ॥ ८९ ॥
सुवासिनीः कुमारीश्च बटुकादींस्तथा नृप ।
विधानके अनुसार इन सभी तीर्थोकी यात्रा करनी चाहिये और वहाँ श्राद्ध आदि सम्पन्न करके पितरोंको सन्तृप्त करना चाहिये । तदनन्तर विधिपूर्वक भगवतीकी विशिष्ट पूजा करनी चाहिये और फिर जगद्धात्री जगदम्बासे [अपने अपराधके लिये] बारबार क्षमा याचना करनी चाहिये । हे जनमेजय ! ऐसा करके अपने आपको कृतकृत्य समझना चाहिये । हे राजन् ! तदनन्तर भक्ष्य और भोज्य आदि पदार्थ सभी ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारिकाओं तथा बटुओं आदिको खिलाने चाहिये । ८७-८९.५ ॥

तस्मिन्क्षेत्रे स्थिता ये तु चाण्डालाद्या अपि प्रभो ॥ ९० ॥
देवीरूपाः स्मृताः सर्वे पूजनीयास्ततो हि ते ।
प्रतिग्रहादिकं सर्वं तेषु क्षेत्रेषु वर्जयेत् ॥ ९१ ॥
यथाशक्ति पुरश्चर्यां कुर्यान्मन्त्रस्य सत्तमः ।
मायाबीजेन देवेशीं तत्तत्पीठाधिवासिनीम् ॥ ९२ ॥
पूजयेदनिशं राजन् पुरश्चरणकृद्‌भवेत् ।
वित्तशाठ्यं न कुर्वीत देवीभक्तिपरो नरः ॥ ९३ ॥
हे प्रभो ! उस क्षेत्रमें रहनेवाले जो चाण्डाल आदि हैं, वे भी देवीरूप कहे गये हैं । अतः उन सबकी भी पूजा करनी चाहिये । उन सिद्धपीठक्षेत्रोंमें सभी प्रकारके दानग्रहण आदिका निषेध करना चाहिये । श्रेष्ठ साधकको चाहिये कि वह उन क्षेत्रोंमें यथाशक्ति मन्त्रका पुरश्चरण करे और मायाबीज मन्त्रसे उन-उन क्षेत्रोंकी अधिष्ठात्री देवेश्वरीकी निरन्तर उपासना करे । हे राजन् ! इस प्रकार साधकको पुरश्चरणकर्ममें तत्पर रहना चाहिये । देवीकी भक्तिमें परायण पुरुषको चाहिये कि वह अनुष्ठान करते समय द्रव्यके व्ययमें कृपणता न करे ॥ ९०-९३ ॥

य एवं कुरुते यात्रां श्रीदेव्याः प्रीतमानसः ।
सहस्रकल्पपर्यन्तं ब्रह्मलोके महत्तरे ॥ ९४ ॥
वसन्ति पितरस्तस्य सोऽपि देवीपुरे तथा ।
अन्ते लब्ध्वा परं ज्ञानं भवेन्मुक्तो भवाम्बुधेः ॥ ९५ ॥
जो मनुष्य इस प्रकार श्रीदेवीके सिद्धपीठोंकी प्रसन्न मनसे यात्रा करता है, उसके पितर हजार कल्पोंतक महत्तर ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं और अन्तमें वह भी परम ज्ञान प्राप्त करके संसार-सागरसे मुक्त हो जाता है तथा देवीलोकमें निवास करता है ॥ ९४-९५ ॥

नामाष्टशतजापेन बहवः सिद्धतां गताः ।
यत्रैतल्लिखितं साक्षात्पुस्तके वापि तिष्ठति ॥ ९६ ॥
ग्रहमारीभयादीनि तत्र नैव भवन्ति हि ।
सौभाग्यं वर्धते नित्यं यथा पर्वणि वारिधिः ॥ ९७ ॥
इन एक सौ आठ नामोंके जपसे अनेक लोग सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं । जहाँपर यह अष्टोत्तरशतनाम स्वयं लिखा हुआ अथवा पुस्तकमें अंकित रूपमें स्थित रहता है, उस स्थानपर ग्रहों तथा महामारी आदिके उपद्रवका भय नहीं रहता और पर्वपर जैसे समुद्र बढ़ता है, वैसे ही वहाँ सौभाग्यकी नित्य वृद्धि होती है । ९६-९७ ॥

न तस्य दुर्लभं किञ्चिन्नामाष्टशतजापिनः ।
कृतकृत्यो भवेन्नूनं देवीभक्तिपरायणः ॥ ९८ ॥
नमन्ति देवतास्तं वै देवीरूपो हि स स्मृतः ।
सर्वथा पूज्यते देवैः किं पुनर्मनुजोत्तमैः ॥ ९९ ॥
इन एक सौ आठ नामोंका जप करनेवालेके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता; ऐसा वह देवीभक्तिपरायण निश्चय ही कृतकृत्य हो जाता है । देवता भी उसे नमस्कार करते हैं; क्योंकि उसे देवीका ही रूप कहा गया है । देवतागण सब तरहसे उसकी पूजा करते हैं, तो फिर श्रेष्ठ मनुष्योंकी बात ही क्या ! ॥ ९८-९९ ॥

श्राद्धकाले पठेदेतन्नामाष्टशतमुत्तमम् ।
तृप्तास्तत्पितरः सर्वे प्रयान्ति परमां गतिम् ॥ १०० ॥
जो व्यक्ति अपने पितरोंके श्राद्धके समय इस उत्तम अष्टोत्तरशतनामका पाठ करता है, उसके सभी पितर तृप्त होकर परम गति प्राप्त करते हैं ॥ १०० ॥

इमानि मुक्तिक्षेत्राणि साक्षात्संविन्मयानि च ।
सिद्धपीठानि राजेन्द्र संश्रयेन्मतिमान्नरः ॥ १०१ ॥
हे राजेन्द्र ! ये सिद्धपीठ प्रत्यक्षज्ञानस्वरूप तथा मुक्तिक्षेत्र हैं, अतः बुद्धिमान् मनुष्यको इनका आश्रय ग्रहण करना चाहिये ॥ १०१ ॥

पृष्टं यत्तत्त्वया राजन्नुक्तं सर्वं महेशितुः ।
रहस्यातिरहस्यं च किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १०२ ॥
हे राजन् ! आपने भगवती महेश्वरीके अत्यन्त निगूढ रहस्यके विषयमें जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने बता दिया; अब आप पुन: क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १०२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे देवीपीठवर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
अध्याय तीसवाँ समाप्त ॥ ३० ॥


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