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देवीपीठवर्णनम् -
शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य -
व्यास उवाच - ततस्ते तु वनोद्देशे हिमाचलतटाश्रयाः । मायाबीजजपासक्तास्तपश्चेरुः समाहिताः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! तत्पश्चात् वे वनप्रदेशमें हिमालयकी तलहटीमें स्थित रहकर समाहितचित्त हो मायाबीज (भुवनेश्वरीमन्त्र)-के जपमें तत्पर रहते हुए घोर तप करने लगे ॥ १ ॥
ध्यायतां परमां शक्तिं लक्षवर्षाण्यभून्नृप । ततः प्रसन्ना देवी सा प्रत्यक्ष्यं दर्शनं ददौ ॥ २ ॥ पाशाङ्कुशवराभीतिचतुर्बाहुस्त्रिलोचना । करुणारससम्पूर्णा सच्चिदानन्दरूपिणी ॥ ३ ॥
हे राजन् ! एक लाख वर्षपर्यन्त उन पराशक्तिका ध्यान करते रहनेके उपरान्त देवी उनके ऊपर प्रसन्न हो गयीं और उन्होंने प्रत्यक्ष दर्शन दिया । उस समय उन्होंने अपने चारों हाथोंमें पाश, अंकुश, वर और अभय मुद्रा धारण कर रखी थीं, वे तीन नेत्रोंसे युक्त थीं, वे करुणारससे परिपूर्ण थीं और उनका विग्रह सत्, चित् तथा आनन्दसे सम्पन्न था ॥ २-३ ॥
उन सर्वजननीको देखकर विशुद्ध चित्तवाले वे मुनिगण उनकी स्तुति करने लगे-विश्वरूप तथा वैश्वानररूपवाली आपको नमस्कार है । जिसमें समग्र लिंगदेह ओत-प्रोत होकर व्यवस्थित है, उस सूत्ररूप विग्रहवाली तथा तेजसम्पन्न रूपवाली आपको बारबार नमस्कार है । प्राज्ञस्वरूपवाली आपको नमस्कार है, अव्यक्तस्वरूपवाली आपको नमस्कार है, प्रत्यक्स्वरूप आपको नमस्कार है और परब्रह्मका स्वरूप धारण करनेवाली आपको नमस्कार है । समस्त रूपोंवाली आपको नमस्कार है तथा सभी प्राणियोंमें आत्ममूर्तिके रूपमें लक्षित होनेवाली आपको नमस्कार है ॥ ४-६ ॥
नमस्ते सर्वरूपायै सर्वलक्ष्यात्ममूर्तये । इति स्तुत्वा जगद्धात्रीं भक्तिगद्गदया गिरा ॥ ७ ॥ प्रणेमुश्चरणाम्भोजं दक्षाद्या मुनयोऽमलाः । ततः प्रसन्ना सा देवी प्रोवाच पिकभाषिणी ॥ ८ ॥ वरं ब्रूत महाभागा वरदाहं सदा मता ।
इस प्रकार भक्तियुक्त गद्गद वाणीसे उन जगद्धात्रीकी स्तुति करके निर्मल मनवाले दक्ष आदि मुनियोंने भगवतीके चरण-कमलमें प्रणाम किया । तब कोयलके समान मधुर वचन बोलनेवाली उन देवीने प्रसन्न होकर कहा-हे महान् भाग्यशाली मुनियो ! आपलोग वर माँगिये, मैं सदा वर प्रदान करनेवाली मानी जाती हूँ ॥ ७-८.५ ॥
तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा हरविष्ण्वोस्तनोः शमम् ॥ ९ ॥ तयोस्तच्छक्तिलाभं च वव्रिरे नृपसत्तम ।
हे नृपश्रेष्ठ ! उनकी वाणी सुनकर मुनियोंने यह वरदान माँगा कि शंकर तथा विष्णुका शरीर स्वस्थ हो जाय और उन्हें पुन: वही पूर्व शक्तियाँ प्राप्त हो जायँ ॥ ९.५ ॥
दक्षोऽथ पुनरप्याह जन्म देवि कुले मम ॥ १० ॥ भवेत्तवाम्ब येनाहं कृतकृत्यो भवे इति । जपं ध्यानं तथा पूजां स्थानानि विविधानि च ॥ ११ ॥ वद मे परमेशानि स्वमुखेनैव केवलम् ।
- इसके बाद दक्षने कहा-हे देवि ! हे अम्ब ! मेरे कुलमें आपका जन्म हो, जिससे मैं कृतकृत्य हो जाऊँ । हे परमेश्वरि ! आप अपने मुखसे अपने जप, ध्यान, पूजा तथा विविध स्थानोंके विषयमें बतानेकी कृपा कीजिये ॥ १०-११.५ ॥
देव्युवाच - मच्छक्त्योरवमानाच्च जातावस्था तयोर्द्वयोः ॥ १२ ॥ नैतादृशः प्रकर्तव्यो मेऽपराधः कदाचन । अधुना मत्कृपालेशाच्छरीरे स्वस्थता तयोः ॥ १३ ॥ भविष्यति च ते शक्ती त्वद्गृहे क्षीरसागरे । जनिष्यतस्तत्र ताभ्यां प्राप्स्यतः प्रेरिते मया ॥ १४ ॥
देवी बोलीं-मेरी शक्तियोंका अपमान करनेसे ही उन दोनों (विष्णु तथा शिव)-की यह दशा हुई है । उन्हें मेरे प्रति ऐसा अपराध कभी नहीं करना चाहिये । अब मेरी लेशमात्र कृपासे ही उन दोनोंके शरीरमें स्वस्थता आ जायगी । साथ ही गौरी और लक्ष्मी नामक वे दोनों शक्तियाँ आपके घरमें तथा क्षीरसागरमें जन्म लेंगी और मेरेद्वारा प्रेरित किये जानेपर वे शक्तियाँ उन दोनोंको प्राप्त हो जायगी ॥ १२-१४ ॥
मायाबीजं हि मन्त्रो मे मुख्यः प्रियकरः सदा । ध्यानं विराट्स्वरूपं मेऽथवा त्वत्पुरतः स्थितम् ॥ १५ ॥ सच्चिदानंदरूपं वा स्थानं सर्वं जगन्मम । युष्माभिः सर्वदा चाहं पूज्या ध्येया च सर्वदा ॥ १६ ॥
मुझे सदा प्रसन्न करनेवाला 'मायाबीज' ही मेरा प्रधान मन्त्र है । मेरे विराट रूपका अथवा आपके समक्ष उपस्थित इस रूपका अथवा सच्चिदानन्द रूपका ध्यान करना चाहिये । सम्पूर्ण जगत् ही मेरा निवास-स्थान है । आपलोगोंको सर्वदा मेरा पूजन तथा ध्यान करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥
व्यास उवाच - इत्युक्त्वान्तर्दधे देवी मणिद्वीपाधिवासिनी । दक्षाद्या मुनयः सर्वे ब्रह्माणं पुनराययुः ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर मणिद्वीपमें निवास करनेवाली भगवती जगदम्बा अन्तर्धान हो गयीं । तब दक्ष आदि सभी मुनिगण ब्रह्माजीके पास लौट आये और उन्होंने ब्रह्माजीसे आदरपूर्वक सारा वृत्तान्त कह दिया ॥ १७ ॥
हे राजन् ! तब पराम्बाकी कृपासे वे दोनों विष्णु तथा शिव स्वस्थ हो गये, उनमें अपने-अपने कार्यसम्पादनकी क्षमता आ गयी और वे अभिमानरहित भी हो गये ॥ १८ ॥
जातौ पराम्बाकृपया गर्वेण रहितौ तदा । कदाचितदथ काले तु महः शाक्तमवातरत् ॥ १९ ॥ दक्षदेहे महाराज त्रैलोक्येऽप्युत्सवोऽभवत् । देवाः प्रमुदिताः सर्वे पुष्पवृष्टिं च चक्रिरे ॥ २० ॥ नेदुर्दुन्दुभयः स्वर्गे करकोणाहता नृप । मनांस्यासन्प्रसन्नानि साधूनाममलात्मनाम् ॥ २१ ॥ सरितो मार्गवाहिन्यः सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः । मङ्गलायां तु जातायां जातं सर्वत्र मङ्गलम् ॥ २२ ॥
हे महाराज ! कुछ समय व्यतीत होनेपर दक्षके भवनमें शक्तिसम्पन्न एक महान् तेज प्रकट हुआ । उस समय तीनों लोकोंमें उत्सव मनाया गया । सभी देवतागण प्रसन्न होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे और वे स्वर्गमें हाथोंसे आघात करके दुन्दुभियाँ बजाने लगे । हे नृप ! निर्मल मनवाले साधुपुरुषोंके मन प्रसन्न हो गये, नदियाँ मागों में जलधारा बहाने लगी और भगवान् सूर्य मनोहर प्रभासे युक्त हो गये । इस प्रकार मंगलमयी भगवतीके प्रकट होनेपर सभी स्थानोंपर मंगल ही मंगल हो गया । १९-२२ ॥
तस्या नाम सतीं चक्रे सत्यत्वात्परसंविदः । ददौ पुनः शिवायाथ तस्य शक्तिस्तु याभवत् ॥ २३ ॥ सा पुनर्ज्वलने दग्धा दैवयोगान्मनोर्नृप ।
दक्षने सत्यस्वरूप होने तथा ब्रह्मस्वरूपिणी होनेके कारण उस देवीका नाम 'सती' रखा और उन्हें पुनः शिवको समर्पित कर दिया; क्योंकि वे पूर्व में भी उन्हीं शिवकी शक्ति थीं । हे राजन् ! वे ही सती पुनः दक्षके यज्ञमें दैवयोगसे अग्निमें जलकर भस्म हो गयीं ॥ २३.५ ॥
जनमेजय उवाच - अनर्थकरमेतत्ते श्रावितं वचनं मुने ॥ २४ ॥ एतादृशं महद्वस्तु कथं दग्धं हुताशने । यन्नामस्मरणान्नृणां संसाराग्निभयं न हि ॥ २५ ॥ केन कर्मविपाकेन मनोर्दग्धं तदेव हि ।
जनमेजय बोले-हे मुने ! आपने यह तो बड़ा ही अनर्थकारी प्रसंग सुनाया । इस प्रकारकी महान् विभूति वे सती, जिनके नामके स्मरणमात्रसे मनुष्योंको संसाररूप अग्निका भय नहीं रहता, अग्निमें जलकर भस्म क्यों हो गयीं ? दक्षके किस प्रतिकूल कर्मक कारण वे सती भस्म हो गयीं ? ॥ २४-२५.५ ॥
व्यास उवाच - शृणु राजन् पुरा वृत्तं सतीदायस्य कारणम् ॥ २६ ॥ कदाचिदथ दुर्वासा गतो जाम्बूनदेश्वरीम् । ददर्श देवीं तत्रासौ मायाबीजं जजाप सः ॥ २७ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सतीके भस्म होनेका कारणसम्बन्धी प्राचीन वृत्तान्त सुनिये । किसी समय ऋषि दुर्वासा [जम्बूनदके तटपर स्थित] भगवती जाम्बूनदेश्वरीके समीप गये । उन्होंने वहाँ देवीका दर्शन किया और वहींपर वे मायाबीज मन्त्रका जप करने लगे ॥ २६-२७ ॥
उससे प्रसन्न होकर देवेश्वरीने दिव्य पुष्पोंके परागसे परिपूर्ण होनेके कारण उसपर मँडराते हुए भ्रमरोंसे सुशोभित अपने गलेमें पड़ी हुई माला मुनिको दे दी और उन्होंने सिर झुकाकर प्रसादरूपमें प्राप्त उस मालाको स्वीकार कर लिया ॥ २८.५ ॥
ततो निर्गत्य तरसा व्योममार्गेण तापसः ॥ २९ ॥ आजगाम स यत्रास्ते दक्षः साक्षात्सतीपिता । सन्दर्शनार्थमम्बाया ननाम च सतीपदे ॥ ३० ॥
तदनन्तर वहाँसे तत्काल निकलकर वे तपस्वी मुनि दुर्वासा जगदम्बाके दर्शनार्थ आकाशमार्गसे वहाँ आ गये, जहाँ साक्षात् सतीके पिता दक्ष विराजमान थे । मुनिने सतीके चरणोंमें नमन किया ॥ २९-३० ॥
पृष्टो दक्षेण स मुनिर्माला कस्यास्त्यलौकिकी । कथं लब्धा त्वया नाथ दुर्लभा भुवि मानवैः ॥ ३१ ॥
दक्षने उन मुनिसे पूछा-हे नाथ ! यह अलौकिक माला किसकी है ? पृथ्वीपर मनुष्योंके लिये परम दुर्लभ यह माला आपने कैसे प्राप्त कर ली ? ॥ ३१ ॥
तब सतीके पिता दक्षने उन मुनिसे उस मालाके लिये याचना की । तीनों लोकोंमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो देवीभक्तको न दी जा सके'-ऐसा विचार करके मुनिने वह माला दक्षको दे दी । दक्षने सिर झुकाकर उस मालाको ग्रहण कर लिया और उसे अपने घरमें, जहाँपर पति-पत्नीकी अत्यन्त सुन्दर शय्या थी, वहीं पर रख दिया । उस मालाको सुगन्धिसे मत्त होकर राजा दक्ष रातमें पशुकर्म (स्त्रीसमागम) में प्रवृत्त हुए । हे राजन् ! उसी पाप-कर्मके प्रभावसे वे कल्याणकारी शंकर तथा देवी सतीके प्रति द्वेषबुद्धिवाले हो गये ॥ ३३-३६ ॥
हे राजन् ! उसी अपराधके परिणामस्वरूप सतीने सतीधर्म प्रदर्शित करनेके लिये उन दक्षसे उत्पन्न अपने शरीर को योगाग्निसे भस्म कर दिया । फिर वहीं ज्योति हिमालयके घर प्रादुर्भूत हुई ॥ ३७ ॥
जनमेजय बोले-[हे मुने !] जिन शिवके लिये सती प्राणोंसे भी अधिक प्रिय थीं, उन भगवान् शिवने सतीका शरीर भस्म हो जानेके उपरान्त उनके वियोगसे व्याकुल होकर क्या किया ? ॥ ३८ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! उसके बाद जो कुछ हुआ, उसे कह सकनेमें मैं असमर्थ हूँ । शिवकी कोपाग्निसे तीनों लोकोंमें प्रलयकी स्थिति उत्पन्न हो गयी । उस समय वीरभद्र प्रकट हुए और जब वे वीरभद्र, भद्रकाली आदि गणोंको साथ लेकर तीनों लोकोंको नष्ट करनेके लिये तत्पर हुए, तब ब्रह्मा आदि देवता भगवान् शंकरकी शरणमें गये ॥ ३९-४१ ॥
सर्वस्व-नाश हो जानेपर भी करुणानिधि परमेश्वर शिवने उन देवताओंको अभय प्रदान कर दिया और बकरेका सिर जोड़कर उन दक्षप्रजापतिको जीवित कर दिया । तदनन्तर वे महात्मा शिव उदास होकर यज्ञस्थलपर गये और अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगे । ४२-४३ ॥
उन्होंने वहाँ चिन्मय शरीरवाली सतीको अग्निमें दग्ध होते हुए देखा । तब 'हा सती'-ऐसा बार-बार बोलते हुए शिवने उस शरीरको अपने कन्धेपर रख लिया और भ्रमितचित्त होकर वे देश-देशमें भ्रमण करने लगे ॥ ४४ ॥
इससे ब्रह्मा आदि देवता अत्यन्त चिन्तित हो उठे । विष्णुने शीघ्रतापूर्वक धनुष उठाकर बाणोंसे सतीके अंगोंको काट डाला । वे अंग जिन-जिन स्थानोंपर गिरे, उन-उन स्थानोंपर भगवान् शंकर अनेक विग्रह धारण करके प्रकट हो गये । ४५-४६.५ ॥
उवाच च ततो देवान्स्थानेष्वेतेषु ये शिवाम् ॥ ४७ ॥ भजन्ति परया भक्त्या तेषां किञ्चिन्न दुर्लभम् । नित्यं सन्निहिता यत्र निजाङ्गेषु पराम्बिका ॥ ४८ ॥ स्थानेष्वेतेषु ये मर्त्याः पुरश्चरणकर्मिणः । तेषां मन्त्राः प्रसिद्ध्यन्ति मायाबीजं विशेषतः ॥ ४९ ॥
तत्पश्चात् शिवने देवताओंसे कहा कि जो लोग इन स्थानोंपर महान् श्रद्धाके साथ भगवती शिवाकी आराधना करेंगे, उनके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रहेगा; क्योंकि उन स्थानोंपर साक्षात् भगवती पराम्बा अपने अंगोंमें सदा निहित हैं । जो मनुष्य इन स्थानोंपर पुरश्चरण करेंगे । उनके मन्त्र, विशेषरूपसे मायाबीज मन्त्र अवश्य सिद्ध हो जायेंगे ॥ ४७-४९ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर सतीके विरहसे अधीर भगवान् शिव उन स्थानोंमें जप, ध्यान और समाधिमें संलग्न होकर समय व्यतीत करने लगे ॥ ५० ॥
जनमेजय उवाच - कानि स्थानानि तानि स्युः सिद्धपीठानि चानघ । कति संख्यानि नामानि कानि तेषां च मे वद ॥ ५१ ॥ तत्र स्थितानां देवीनां नामानि च कृपाकर । कृतार्थोऽहं भवे येन तद्वदाशु महामुने ॥ ५२ ॥
जनमेजय बोले-हे अनघ ! वे कौनसे स्थान हैं, जो सिद्धपीठ हुए; वे संख्यामें कितने हैं, उनके क्या नाम हैं ? मुझे बताइये । हे कृपाकर ! हे महामुने ! उन स्थानोंपर विराजमान देवियोंके नाम भी शीघ्र बतला दीजिये, जिससे मैं कृतार्थ हो जाऊँ ॥ ५१-५२ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, अब मैं देवीपीठोंका वर्णन कर रहा हूँ, जिनके श्रवणमात्रसे मनुष्य पापरहित हो जाता है । सिद्धिकी अभिलाषा रखनेवाले तथा ऐश्वर्यकी कामना करनेवाले पुरुषोंके द्वारा जिन-जिन स्थानोंपर इन देवीकी उपासना तथा इनका ध्यान किया जाना चाहिये, उन स्थानोंको मैं तत्त्वपूर्वक बता रहा हूँ ॥ ५३-५४ ॥
उन्हें प्रयागमें 'ललिता' तथा गन्धमादनपर्वतपर 'कामुकी' नामसे कहा गया है । वे दक्षिण मानसरोवरमें 'कुमुदा' तथा उत्तर मानसरोवरमें सभी कामनाएँ पूर्ण करनेवाली भगवती 'विश्वकामा' कही गयी हैं । उन्हें गोमन्तपर देवी 'गोमती', मन्दराचलपर 'कामचारिणी', चैत्ररथमें 'मदोत्कटा', हस्तिनापुरमें 'जयन्ती', कान्यकुब्जमें 'गौरी' तथा मलयाचलपर 'राभा' कहा गया है ॥ ५६-५८ ॥
एकाम्रपीठे सम्प्रोक्ता देवी सा कीर्तिमत्यपि । विश्वे विश्वेश्वरीं प्राहुः पुरुहूतां च पुष्करे ॥ ५९ ॥
वे भगवती एकाम्रपीठपर 'कीर्तिमती' नामवाली कही गयी हैं । लोग उन्हें विश्वपीठपर 'विश्वेश्वरी' और पुष्करमें 'पुरुहूता' नामवाली कहते हैं ॥ ५९ ॥
केदारपीठे सम्प्रोक्ता देवी सन्मार्गदायिनी । मन्दा हिमवतः पृष्ठे गोकर्णे भद्रकर्णिका ॥ ६० ॥ स्थानेश्वरे भवानी तु बिल्वले बिल्वपत्रिका । श्रीशैले माधवी प्रोक्ता भद्रा भद्रेश्वरे तथा ॥ ६१ ॥
वे देवी केदारपीठमें सन्मार्गदायिनी', हिमवत्पृष्ठपर 'मन्दा', गोकर्णमें 'भद्रकर्णिका', स्थानेश्वरमें 'भवानी', बिल्वकमें 'बिल्वपत्रिका', श्रीशैलमें 'माधवी' तथा भद्रेश्वरमें 'भद्रा' कही गयी हैं ॥ ६०-६१ ॥
उन्हें वराहपर्वतपर 'जया', कमलालयमें 'कमला', रुद्रकोटिमें 'रुद्राणी', कालंजरमें 'काली', शालग्राममें 'महादेवी', शिवलिंगमें 'जलप्रिया', महालिङ्गमें 'कपिला' और माकोटमें 'मुकुटेश्वरी' कहा गया है ॥ ६२-६३ ॥
वे देवी छगलण्डमें 'प्रचण्डा', अमरकण्टकमें 'चण्डिका', सोमेश्वरमें 'वरारोहा', प्रभासक्षेत्रमें 'पुष्करावती', सरस्वतीतीर्थमें 'देवमाता', समुद्रतटपर 'पारावारा', महालयमें 'महाभागा' और पयोष्णीमें 'पिंगलेश्वरी' नामसे प्रसिद्ध हुई । ७३-७४ ॥
सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिके त्वतिशाङ्करी । उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा शोणसङ्गमे ॥ ७५ ॥ माता सिद्धवने लक्ष्मीरनङ्गा भरताश्रमे । जालन्धरे विश्वमुखी तारा किष्किन्धपर्वते ॥ ७६ ॥ देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले । भीमा देवी हिमाद्रौ तु तुष्टिर्विश्वेश्वरे तथा ॥ ७७ ॥ कपालमोचने शुद्धिर्माता कामावरोहणे । शङ्खोद्धारे धारा नाम धृतिः पिण्डारके तथा ॥ ७८ ॥
वे कृतशौचक्षेत्रमें 'सिंहिका', कार्तिकक्षेत्र में 'अतिशांकरी', उत्पलावर्तकमें 'लोला', सोनभद्रनदके संगमपर 'सुभद्रा', सिद्धवनमें माता 'लक्ष्मी', भरताश्रमतीर्थमें अनंगा', जालन्धरपर्वतपर 'विश्वमुखी', किष्किन्धापर्वतपर 'तारा', देवदास्वनमें 'पुष्टि', काश्मीरमण्डलमें 'मेधा', हिमाद्रिपर देवी 'भीमा', विश्वेश्वरक्षेत्रमें 'तुष्टि', कपालमोचनतीर्थमें 'शुद्धि', कामावरोहणतीर्थमें 'माता', शंखोद्धारतीर्थमें 'धारा' और पिण्डारकतीर्थमें 'धृति' नामसे विख्यात हैं । ७५-७८ ॥
हे जनमेजय ! ये एक सौ आठ सिद्धपीठ हैं और उन स्थानोंपर उतनी ही परमेश्वरी देवियाँ कही गयी हैं । भगवती सतीके अंगोंसे सम्बन्धित पीठोंको मैंने बतला दिया । साथ ही इस पृथ्वीतलपर और भी अन्य जो प्रमुख स्थान हैं, प्रसंगवश उनका भी वर्णन कर दिया ॥ ८४-८५ ॥
विधानके अनुसार इन सभी तीर्थोकी यात्रा करनी चाहिये और वहाँ श्राद्ध आदि सम्पन्न करके पितरोंको सन्तृप्त करना चाहिये । तदनन्तर विधिपूर्वक भगवतीकी विशिष्ट पूजा करनी चाहिये और फिर जगद्धात्री जगदम्बासे [अपने अपराधके लिये] बारबार क्षमा याचना करनी चाहिये । हे जनमेजय ! ऐसा करके अपने आपको कृतकृत्य समझना चाहिये । हे राजन् ! तदनन्तर भक्ष्य और भोज्य आदि पदार्थ सभी ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारिकाओं तथा बटुओं आदिको खिलाने चाहिये । ८७-८९.५ ॥
हे प्रभो ! उस क्षेत्रमें रहनेवाले जो चाण्डाल आदि हैं, वे भी देवीरूप कहे गये हैं । अतः उन सबकी भी पूजा करनी चाहिये । उन सिद्धपीठक्षेत्रोंमें सभी प्रकारके दानग्रहण आदिका निषेध करना चाहिये । श्रेष्ठ साधकको चाहिये कि वह उन क्षेत्रोंमें यथाशक्ति मन्त्रका पुरश्चरण करे और मायाबीज मन्त्रसे उन-उन क्षेत्रोंकी अधिष्ठात्री देवेश्वरीकी निरन्तर उपासना करे । हे राजन् ! इस प्रकार साधकको पुरश्चरणकर्ममें तत्पर रहना चाहिये । देवीकी भक्तिमें परायण पुरुषको चाहिये कि वह अनुष्ठान करते समय द्रव्यके व्ययमें कृपणता न करे ॥ ९०-९३ ॥
जो मनुष्य इस प्रकार श्रीदेवीके सिद्धपीठोंकी प्रसन्न मनसे यात्रा करता है, उसके पितर हजार कल्पोंतक महत्तर ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं और अन्तमें वह भी परम ज्ञान प्राप्त करके संसार-सागरसे मुक्त हो जाता है तथा देवीलोकमें निवास करता है ॥ ९४-९५ ॥
इन एक सौ आठ नामोंके जपसे अनेक लोग सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं । जहाँपर यह अष्टोत्तरशतनाम स्वयं लिखा हुआ अथवा पुस्तकमें अंकित रूपमें स्थित रहता है, उस स्थानपर ग्रहों तथा महामारी आदिके उपद्रवका भय नहीं रहता और पर्वपर जैसे समुद्र बढ़ता है, वैसे ही वहाँ सौभाग्यकी नित्य वृद्धि होती है । ९६-९७ ॥
न तस्य दुर्लभं किञ्चिन्नामाष्टशतजापिनः । कृतकृत्यो भवेन्नूनं देवीभक्तिपरायणः ॥ ९८ ॥ नमन्ति देवतास्तं वै देवीरूपो हि स स्मृतः । सर्वथा पूज्यते देवैः किं पुनर्मनुजोत्तमैः ॥ ९९ ॥
इन एक सौ आठ नामोंका जप करनेवालेके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता; ऐसा वह देवीभक्तिपरायण निश्चय ही कृतकृत्य हो जाता है । देवता भी उसे नमस्कार करते हैं; क्योंकि उसे देवीका ही रूप कहा गया है । देवतागण सब तरहसे उसकी पूजा करते हैं, तो फिर श्रेष्ठ मनुष्योंकी बात ही क्या ! ॥ ९८-९९ ॥