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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
एकत्रिंशोऽध्यायः

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हिमालयगृहे पार्वतीजन्मविषये देवान् प्रति देवीकथनवर्णनम् -
तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना -


जनमेजय उवाच
धराधराधीशमौलावाविरासीत्परं महः ।
यदुक्तं भवता पूर्वं विस्तरात्तद्वदस्व मे ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-[हे मुने !] हिमालयके शिखरपर आविर्भूत जिस परम ज्योतिके विषयमें आप पहले बता चुके हैं, उसे मुझे विस्तारसे बताइये ॥ १ ॥

को विरज्येत मतिमान् पिबञ्छक्तिकथामृतम् ।
सुधां तु पिबतां मृत्युः स नैतच्छृण्वतो भवेत् ॥ २ ॥
ऐसा कौन बुद्धिमान् मनुष्य होगा, जो भगवतीके कथामृतका पान करता हुआ उससे विरत हो जाय; क्योंकि अमृत पीनेवालोंकी मृत्यु तो सम्भव है, किंतु इस कथामृतका पान करनेवालेकी मृत्यु नहीं हो सकती ॥ २ ॥

व्यास उवाच
धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि शिक्षितोऽसि महात्मभिः ।
भाग्यवानसि यद्देव्यां निर्व्याजा भक्तिरस्ति ते ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-आप धन्य हैं, कृतकृत्य हैं, भाग्यवान् हैं और महात्माओद्वारा शिक्षित किये गये हैं । इसीसे भगवतीके प्रति आपकी निश्छल भक्ति है ॥ ३ ॥

शृणु राजन्पुरा वृत्तं सतीदेहेऽग्निभर्जिते ।
भ्रान्तः शिवस्तु बभ्राम क्वचिद्देशे स्थिरोऽभवत् ॥ ४ ॥
प्रपञ्चभानरहितः समाधिगतमानसः ।
ध्यायन्देवीस्वरूपं तु कालं निन्ये स आत्मवान् ॥ ५ ॥
हे राजन् ! एक प्राचीन कथा सुनिये । अग्निमें सतीदेहके दग्ध हो जानेपर भगवान् शिव व्याकुल होकर इधर-उधर भ्रमण करने लगे और अन्तमें किसी स्थानपर ठहर गये । इसके बाद उन आत्मनिष्ठ शिवने प्रपंचज्ञानसे शून्य होकर मनको समाधिस्थ करके भगवतीके स्वरूपका ध्यान करते हुए कुछ समय वीपर व्यतीत किया ॥ ४-५ ॥

सौभाग्यरहितं जातं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
शक्तिहीनं जगत्सर्वं साब्धिद्वीपं सपर्वतम् ॥ ६ ॥
आनन्दः शुष्कतां यातः सर्वेषां हृदयान्तरे ।
उदासीनाः सर्वलोकाश्चिन्ताजर्जरचेतसः ॥ ७ ॥
सदा दुःखोदधौ मग्ना रोगग्रस्तास्तदाभवन् ।
ग्रहाणां देवतानां च वैपरीत्येन वर्तनम् ॥ ८ ॥
अधिभूताधिदैवानां सत्यभावान्नृपाभवन् ।
स्थावर-जंगममय तीनों लोक सौभाग्यसे रहित हो गये । समुद्रों, द्वीपों और पर्वतोंसहित सम्पूर्ण जगत् शक्तिहीन हो गया । सभी प्राणियोंके हृदयमें प्रवहमान आनन्द सूख गया और सभी लोग चिन्तासे पीड़ित मनवाले तथा खिन्नमनस्क हो गये । सभी दुःखरूपी समुद्र में डूब गये और रोगग्रस्त हो गये । हे राजन् ! सतीके अभावसे उस समय ग्रहों, देवताओं, अधिभूत तथा अधिदैवतइन सबका व्यवहार विपरीत हो गया और समस्त प्राणी अपनी मर्यादासे विचलित हो गये ॥ ६-८.५ ॥

अथाऽस्मिन्नेव काले तु तारकाख्यो महसुरः ॥ ९ ॥
ब्रह्मदत्तवरो दैत्योऽभवत्त्रैलोक्यनायकः ।
शिवौरसस्तु यः पुत्रः स ते हन्ता भविष्यति ॥ १० ॥
इति कल्पितमृत्युः स देवदेवैर्महासुरः ।
शिवौरससुताभावाज्जगर्ज च ननन्द च ॥ ११ ॥
उसी समय तारक नामक एक महान् असुर उत्पन्न हुआ । वह दैत्य ब्रह्माजीसे वरदान पाकर तीनों लोकोंका शासक हो गया । भगवान् शंकरका जो औरस पुत्र होगा, वही तुम्हारा संहारक होगादेवाधिदेव ब्रह्माद्वारा इस प्रकारकी कल्पित मृत्युका वर पाकर वह महासुर तारक शंकरजीके औरस पुत्रके अभावके कारण [निर्भीक होकर] गर्जन तथा निनाद करने लगा ॥ ९-११ ॥

तेन चोपद्रुताः सर्वे स्वस्थानात्प्रच्युताः सुराः ।
शिवौरससुताभावाच्चिन्तामापुर्दुरत्ययाम् ॥ १२ ॥
नाङ्गना शङ्करस्यास्ति कथं तत्सुतसम्भवः ।
अस्माकं भाग्यहीनानां कथं कार्यं भविष्यति ॥ १३ ॥
इससे सभी देवता अपना-अपना स्थान छोड़कर भाग गये । शिवका कोई औरस पुत्र न होनेके कारण देवताओंको महान् चिन्ता हुई । वे सोचने लगे कि शंकरजीकी भार्या तो है नहीं, तो पुत्रोत्पत्ति कैसे होगी ? ऐसी स्थितिमें हम भाग्यहीनोंका कार्य किस प्रकार सिद्ध होगा ? ॥ १२-१३ ॥

इति चिन्तातुराः सर्वे जग्मुर्वैकुण्ठमण्डले ।
शशंसुर्हरिमेकान्ते स चोपायं जगाद ह ॥ १४ ॥
कुतश्चिन्तातुराः सर्वे कामकल्पद्रुमा शिवा ।
जागर्ति भूवनेशानी मणिद्वीपाधिवासिनी ॥ १५ ॥
इस प्रकारको चिन्तासे व्याकुल सभी देवता वैकुण्ठलोक गये और उन्होंने एकान्तमें भगवान् विष्णुसे सब कुछ बताया । इसपर उन्होंने उपाय बताते हुए कहा-आप सब चिन्तासे व्यग्र क्यों हो रहे हैं ? वे भगवती शिवा कामनाएँ पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्षके समान हैं । मणिद्वीपमें विराजमान रहनेवाली भगवती भुवनेश्वरी सदा जागती रहती हैं ॥ १४-१५ ॥

अस्माकमनया देव तदुपेक्षास्ति नान्यथा ।
शिक्षैवेयं जगन्मात्रा कृतास्मच्छिक्षणाय च ॥ १६ ॥
हमलोगोंके दोषके कारण ही हमारे प्रति उनकी उपेक्षा है, कोई अन्य कारण नहीं है । हमें सीख प्रदान करनेके लिये ही जगदम्बाने हमें यह शिक्षा प्रदान की है ॥ १६ ॥

लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके ।
तद्वदेव जगन्मातुर्नियन्त्र्या गुणदोषयोः ॥ १७ ॥
जिस प्रकार प्यार करने अथवा डाँटने-फटकारनेकिसी भी स्थितिमें माता बालकके प्रति निर्दयताका व्यवहार नहीं करती, वैसे ही गुण-दोषपर नियन्त्रण करनेवाली जगदम्बाके विषयमें भी जानना चाहिये ॥ १७ ॥

अपराधो भवत्येव तनयस्य पदे पदे ।
कोऽपरः सहते लोके केवलं मातरं विना ॥ १८ ॥
तस्माद्यूयं पराम्बां तां शरणं यात मा चिरम् ।
निर्व्याजया चित्तवृत्त्या सा वः कार्यं विधास्यति ॥ १९ ॥
पुत्रसे तो पग-पगपर अपराध होता है, माताको छोड़कर जगत्में दूसरा कौन उसे सह सकता है । अतः आपलोग निष्कपट चित्तवृत्तिके साथ उन भगवती पराम्बाकी शरणमें अविलम्ब जाइये । वे आपलोगोंका कार्य अवश्य सिद्ध करेंगी ॥ १८-१९ ॥

इत्यादिश्य सुरान्सर्वान्महाविष्णुः स्वजायया ।
संयुतो निर्जगामाशु देवैः सह सुराधिपः ॥ २० ॥
आजगाम महाशैलं हिमवन्तं नगाधिपम् ।
अभवंश्च सुराः सर्वे पुरश्चरणकर्मिणः ॥ २१ ॥
अम्बायज्ञविधानज्ञा अम्बायज्ञं च चक्रिरे ।
तृतीयादिव्रतान्याशु चक्रुः सर्वे सुरा नृप ॥ २२ ॥
सभी देवताओंको यह उपदेश देकर देवेश्वर महाविष्णु अपनी भार्या लक्ष्मी तथा देवताओंके साथ शीघ्र चल पड़े और महाद्रि गिरिराज हिमालयपर आ गये । वहाँ सभी देवता पुरश्चरण कर्ममें संलग्न हो गये । हे राजन् ! अम्बायज्ञकी विधि जाननेवाले देवतागण अम्बायज्ञ करने लगे । सभी देवता शीघ्रतापूर्वक तृतीया आदि व्रत सम्पादित करने में लग गये ॥ २०-२२ ॥

केचित्समाधिनिष्णाताः केचिन्नामपरायणाः ।
केचित्सूक्तपराः केचिन्नामपारायणोत्सुकाः ॥ २३ ॥
मन्त्रपारायणपराः केचित्कृच्छ्रादिकारिणः ।
अन्तर्यागपराः केचित्केचिन्न्यासपरायणाः ॥ २४ ॥
हृल्लेखया पराशक्तेः पूजां चक्रुरतन्द्रिताः ।
इत्येवं बहुवर्षाणि कालोऽगाज्जनमेजय ॥ २५ ॥
कुछ लोग समाधि लगाकर बैठ गये, कुछ लोग भगवतीके नामजपमें लीन हो गये, कुछ लोग सूक्तपाठ करने लगे और कुछ लोग नामोंका पारायण करने में निष्णात हो गये । इसी प्रकार कुछ देवता मन्त्रपारायणमें तत्पर हो गये, कुछ कृच्छ्रव्रत करने लगे, कुछ अन्तर्याग करनेमें संलग्न हो गये और कुछ देवता न्यास आदिमें तत्पर हो गये । कुछ देवता सावधान होकर हृल्लेखाबीजमन्त्रसे पराशक्ति जगदम्बाकी पूजा करने लगे । हे जनमेजय ! इस प्रकार बहुत वर्षोंतक भगवतीकी आराधना करते हुए समय व्यतीत हुआ ॥ २३-२५ ॥

अकस्माच्चैत्रमासीयनवम्यां च भृगोर्दिने ।
प्रादुर्बभूव पुरतस्तन्महः श्रुतिबोधितम् ॥ २६ ॥
चतुर्दिक्षु चतुर्वेदैर्मूर्तिमद्‌भिरभिष्टुतम् ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटिसुशीतलम् ॥ २७ ॥
विद्युत्कोटिसमानाभमरुणं तत्परं महः ।
नैव चोर्ध्वं न तिर्यक्च न मध्ये परिजग्रभत् ॥ २८ ॥
आद्यन्तरहितं तत्तु न हस्ताद्यङ्गसंयुतम् ।
न च स्त्रीरूपमथवा न पुंरूपमथोभयम् ॥ २९ ॥
तदनन्तर चैत्रमासकी शुक्लपक्षकी नवमी तिथिमें शुक्रवारको श्रुतियोंद्वारा प्रतिपादित एक महान् ज्योति अकस्मात् सबके समक्ष प्रकट हुई । चारों वेद मूर्तिमान् होकर चारों दिशाओंमें उसकी स्तुति कर रहे थे, वह ज्योति करोड़ों सूर्योकी प्रभाके समान आलोकित थी, उसमें करोड़ों चन्द्रमाओंकी शीतलता विद्यमान थी, वह करोड़ों बिजलियोंके समान अरुण आभासे युक्त थी, वह परम ज्योति न ऊँची, न तिरछी, न मध्यमें अपितु सभी ओर व्याप्त थी । आदि और अन्तसे हीन वह तेज हाथ आदि अंगोंसे युक्त नहीं था । वह तेज न स्त्रीरूप, न पुरुषरूप अथवा न उभयरूपमें ही था ॥ २६-२९ ॥

दीप्त्या पिधानं नेत्राणां तेषामासीन्महीपते ।
पुनश्च धैर्यमालम्ब्य यावत्ते ददृशुः सुराः ॥ ३० ॥
तावत्तदेव स्त्रीरूपेणाभाद्दिव्यं मनोहरम् ।
अतीव रमणीयाङ्गीं कुमारीं नवयौवनाम् ॥ ३१ ॥
हे राजन् ! उस ज्योतिकी दीप्तिसे उन देवताओंकी आँखें बन्द हो गयीं । इसके बाद धैर्य धारणकर जब देवताओंने देखा तब वह दिव्य तथा मनोहर आभा उन्हें नव-यौवनसे सम्पन्न अति सुन्दर अंगोंवाली तथा कुमारी अवस्थावाली स्त्रीके रूपमें दृष्टिगोचर हुई ॥ ३०-३१ ॥

उद्यत्पीनकुचद्वन्द्वनिन्दिताम्भोजकुड्मलाम् ।
रणत्किङ्‌किणिकाजालसिञ्जन्मञ्जीरमेखलाम् ॥ ३२ ॥
कनकाङ्गदकेयूरग्रैवेयकविभूषिताम् ।
अनर्घ्यमणिसम्भिन्नगलबन्धविराजिताम् ॥ ३३ ॥
तनुकेतकसंराजन्नीलभ्रमरकुन्तलाम् ।
नितम्बबिम्बसुभगां रोमराजिविराजिताम् ॥ ३४ ॥
कर्पूरशकलोन्मिश्रताम्बूलपूरिताननाम् ।
कनत्कनकताटङ्कविटङ्कवदनाम्बुजाम् ॥ ३५ ॥
अष्टमीचन्द्रबिम्बाभललाटामायतभ्रुवम् ।
रक्तारविन्दनयनामुन्नसां मधुराधराम् ॥ ३६ ॥
उनके उन्नत तथा विशाल दोनों वक्षःस्थल पूर्ण विकसित कमलको भी तिरस्कृत कर रहे थे । वे बजती हुई किंकिणी तथा मधुर ध्वनि करती हुई नूपुर एवं करधनी धारण किये हुए थीं । वे सुवर्णके बाजूबन्द, मुकुट तथा कण्ठहारसे सुशोभित थीं । वे बहुमूल्य मणियोंसे जड़ा हुआ हार गलेमें धारण किये हुए थीं । केतकीके नूतन पत्तोंके समान उनके कपोलोंपर काले भ्रमरसदृश केश लटक रहे थे । उनका नितम्बस्थल अत्यन्त मनोहर था । वे सुन्दर रोमावलियोंसे अत्यन्त शोभा पा रही थीं । उनका मुख कर्पूरके छोटे-छोटे टुकड़ोंसे युक्त ताम्बूलसे परिपूर्ण था । उनके कमलसदृश मुखपर सुवर्णमय कुण्डलकी मधुर ध्वनि हो रही थी । उनका ललाट अष्टमीके चन्द्रमण्डलकी आभाके समान सुशोभित हो रहा था और उसपर उनकी फैली हुई विशाल भौंहें महान् शोभा पा रही थीं । उनके नेत्र लाल कमलके समान थे, नासिका उन्नत थी तथा ओष्ठ मधुर थे ॥ ३२-३६ ॥

कुन्दकुड्मलदन्ताग्रां मुक्ताहारविराजिताम् ।
रत्‍नसम्भिन्नमुकुटां चन्द्ररेखावतंसिनीम् ॥ ३७ ॥
मल्लिकामालतीमालाकेशपाशविराजिताम् ।
काश्मीरबिन्दुनिटिलां नेत्रत्रयविलासिनीम् ॥ ३८ ॥
पाशाङ्कुशवराभीतिचतुर्बाहुं त्रिलोचनाम् ।
रक्तवस्त्रपरीधानां दाडिमीकुसुमप्रभाम् ॥ ३९ ॥
सर्वशृङ्गारवेषाढ्यां सर्वदेवनमस्कृताम् ।
सर्वाशापूरिकां सर्वमातरं सर्वमोहिनीम् ॥ ४० ॥
प्रसादसुमुखीमम्बां मन्दस्मितमुखाम्बुजाम् ।
अव्याजकरुणामूर्तिं ददृशुः पुरतः सुराः ॥ ४१ ॥
वे भगवती कुन्दकी पूर्ण विकसित कलियोंके समान सुन्दर दाँतोंसे सुशोभित थीं । वे मोतियोंकी माला धारण किये हुए थीं । वे रत्नजटित मुकुट पहने हुई थीं । वे चन्द्ररेखारूपी शिरोभूषणसे सुशोभित हो रही थीं; उनके केशकी वेणीमें मल्लिका और मालती पुष्पोंकी माला विद्यमान थी । केसरकी बिन्दीसे उनका ललाट सुशोभित था । वे तीन नेत्रोंसे शोभा पा रही थीं । तीन नेत्रोंवाली वे अपनी चारों भुजाओंमें पाश, अंकुश, वर और अभय मुद्राएँ धारण किये हुए थीं । वे लाल रंगका वस्त्र पहने हुए थीं । उनके शरीरकी प्रभा दाडिमके पुष्पके समान थी । वे श्रृंगारके सभी वेषोंसे अलंकृत थीं और समस्त देवताओंसे नमस्कृत हो रही थीं । इस प्रकार देवताओंने सभी प्राणियोंकी आशाओंको पूर्ण करनेवाली, सभीकी जननी, सबको मोहित करनेवाली, प्रसन्नतायुक्त सुन्दर मुखमण्डलवाली, मन्द-मन्द मुसकानयुक्त मुखकमलवाली और विशुद्ध करुणाकी साक्षात् मूर्तिस्वरूपा माता जगदम्बाको अपने सामने देखा ॥ ३७-४१ ॥

दृष्ट्वा तां करुणामुर्तिं प्रणेमुः सकलाः सुराः ।
वक्तुं नाशक्नुवन् किञ्चिद्वाष्पसंरुद्धनिःस्वनाः ॥ ४२ ॥
उन करुणामूर्ति भगवतीको देखकर देवताओंने आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया । आनन्दाश्रुसे रुंधे हुए कण्ठवाले सभी देवता कुछ भी नहीं बोल सके ॥ ४२ ॥

कथञ्चित्स्थैर्यमालम्ब्य भक्त्या चानतकन्धराः ।
प्रेमाश्रुपूर्णनयनास्तुष्टुवुर्जगदम्बिकाम् ॥ ४३ ॥
किसी प्रकार धैर्य धारणकर प्रेमके आँसुओंसे परिपूर्ण नेत्रोंवाले वे देवगण शीश झुकाकर भक्तिपूर्वक जगदम्बिकाकी स्तुति करने लगे ॥ ४३ ॥

देवा ऊचुः
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥ ४४ ॥
देवताओंने कहा-देवीको नमस्कार है, महादेवी शिवाको निरन्तर नमस्कार है, प्रकृति एवं भद्राको नमस्कार है; हमलोग नियमपूर्वक उन्हें प्रणाम करते हैं ॥ ४४ ॥

तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं
     वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीं शरणमहं प्रपद्ये
     सुतरसि तरसे नमः ॥ ४५ ॥
उन अग्निसदृश वर्णवाली, ज्ञानसे जगमगानेवाली, दीप्तिमयी, कर्मफलोंकी प्राप्तिहेतु सेवन की जानेवाली भगवती दुर्गाकी शरण हम ग्रहण करते हैं । पार करनेयोग्य संसार-सागरसे तरनेके लिये उन भगवतीको नमस्कार है ॥ ४५ ॥

देवीं वाचमजनयन्त देवा-
     स्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना
     धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुतैतु ॥ ४६ ॥
विश्वरूप देवताओंने जिस वैखरी वाणीको उत्पन्न किया, उसीको अनेक प्रकारके प्राणी बोलते हैं । वे कामधेनुतुल्य, आनन्ददायिनी और अन्न तथा बल देनेवाली वाररूपिणी भगवती उत्तम स्तुतिसे संतुष्ट होकर हमारे समीप पधारें ॥ ४६ ॥

कालरात्रिं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ॥ ४७ ॥
हम सब देवतागण कालरात्रिस्वरूपिणी, वेदोंद्वारा स्तुत, विष्णुकी शक्तिस्वरूपा, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति, दक्षपुत्री सती तथा पावन भगवती शिवाको नमस्कार करते हैं ॥ ४७ ॥

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥ ४८ ॥
हम महालक्ष्मीको जानते हैं और उन सर्वशक्तिस्वरूपिणीका ध्यान करते हैं । वे भगवती हमें इस ज्ञान-ध्यानमें प्रवृत्त करें ॥ ४८ ॥

नमो विराट्स्वरूपिण्यै नमः सूत्रात्ममूर्तये ।
नमोऽव्याकृतरूपिण्यै नमः श्रीब्रह्ममूर्तये ॥ ४९ ॥
विराटप धारण करनेवालीको नमस्कार है, सूक्ष्मरूप धारण करनेवालीको नमस्कार है, अव्यक्तरूप धारण करनेवालीको नमस्कार है और श्रीब्रह्ममूर्तिस्वरूपिणी देवीको नमस्कार है ॥ ४९ ॥

यदज्ञानाज्जगद्‌भाति रज्जुसर्पस्रगादिवत् ।
यज्ज्ञानाल्लयमाप्नोति नुमस्तां भुवनेश्वरीम् ॥ ५० ॥
जिन भगवतीको न जाननेके कारण यह जगत् मनुष्यको रस्सीमें सर्प, माला आदिकी भाँति प्रतीत होता है और जिसे जान लेनेपर यह भ्रान्ति नष्ट हो जाती है, उन जगदीश्वरीको हम नमस्कार करते हैं ॥ ५० ॥

नुमस्तत्पदलक्ष्यार्थां चिदेकरसरूपिणीम् ।
अखण्डानन्दरूपां तां वेदतात्पर्यभूमिकाम् ॥ ५१ ॥
'तत्' पदकी लक्ष्यार्थ, एकमात्र चिन्मय स्वरूपवाली, अखण्डानन्दस्वरूपिणी तथा वेदोंके तात्पर्यकी भूमिकास्वरूपिणी उन भगवतीको हम नमन करते हैं ॥ ५१ ॥

पञ्चकोशातिरिक्तां तामवस्थात्रयसाक्षिणीम् ।
नुमस्त्वंपदलक्ष्यार्थां प्रत्यगात्मस्वरूपिणीम् ॥ ५२ ॥
पंचकोशसे अतिरिक्त, तीनों अवस्थाओंकी साक्षिणी, 'त्वम्' पदकी लक्ष्यार्थ तथा प्रत्यगात्मस्वरूपिणी उन जगदम्बाको हम नमस्कार करते हैं ॥ ५२ ॥

नमः प्रणवरूपायै नमो ह्रीङ्कारमूर्तये ।
नानामन्त्रात्मिकायै ते करुणायै नमो नमः ॥ ५३ ॥
प्रणवरूपवाली भगवतीको नमस्कार है । हींकारविग्रहवाली भगवतीको नमस्कार है । अनेक मन्त्रों के स्वरूपवाली आप करुणामयी देवीको बारबार नमस्कार है ॥ ५३ ॥

इति स्तुता तदा देवैर्मणिद्वीपाधिवासिनी ।
प्राह वाचा मधुरया मत्तकोकिलनिःस्वना ॥ ५४ ॥
देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर मणिद्वीपमें निवास करनेवाली तथा मत्त कोयलके समान ध्वनि करनेवाली भगवती मधुर वाणीमें कहने लगीं ॥ ५४ ॥

श्रीदेव्युवाच
वदन्तु विबुधाः कार्यं यदर्थमिह सङ्गताः ।
वरदाहं सदा भक्तकामकल्पद्रुमास्मि च ॥ ५५ ॥
देवी बोलीं-आप सभी देवतागण अपना वह कार्य बताइये, जिसके लिये आप सब यहाँ एकत्रित हुए हैं । सर्वदा वर प्रदान करनेवाली मैं भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेहेतु कल्पवृक्ष हूँ ॥ ५५ ॥

तिष्ठन्त्यां मयि का चिन्ता युष्माकं भक्तिशालिनाम् ।
समुद्धरामि मद्‌भक्तान्दुःखसंसारसागरात् ॥ ५६ ॥
मेरे रहते भक्तिपरायण आप सब देवताओंको कौन-सी चिन्ता है ? मैं इस दुःखमय संसारसागरसे अपने भक्तोंका उद्धार कर देती हूँ । हे श्रेष्ठ देवतागण ! आपलोग मेरी इस प्रतिज्ञाको सत्य समझिये ॥ ५६ ॥

इति प्रतिज्ञां मे सत्यां जानीथ विबुधोत्तमाः ।
इति प्रेमाकुलां वाणीं श्रुत्वा सन्तुष्टमानसाः ॥ ५७ ॥
निर्भया निर्जरा राजन्नूचुर्दुःखं स्वकीयकम् ।
हे राजन् ! भगवतीकी यह स्नेहमयी वाणी सनकर देवताओंके मनमें अत्यन्त प्रसन्नता हुई और वे निर्भय होकर उनसे अपना दु:ख कहने लगे ॥ ५७.५ ॥

देवा ऊचुः
नाज्ञातं किञ्चिदप्यत्र भवत्यास्ति जगत्त्रये ॥ ५८ ॥
सर्वज्ञया सर्वसाक्षिरूपिण्या परमेश्वरि ।
देवता बोले-हे परमेश्वरि ! इस त्रिलोकीमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जो सब कुछ जाननेवाली तथा सबकी साक्षिस्वरूपा आप भगवतीके लिये अज्ञात हो ॥ ५८.५ ॥

तारकेणासुरेन्द्रेण पीडिताः स्मो दिवानिशम् ॥ ५९ ॥
शिवाङ्गजाद्वधस्तस्य निर्मितो ब्रह्मणा शिवे ।
शिवाङ्गना तु नैवास्ति जानासि त्वं महेश्वरि ॥ ६० ॥
सर्वज्ञपुरतः किं वा वक्तव्यं पामरैर्जनैः ।
एतदुद्देशतः प्रोक्तमपरं तर्कयाम्बिके ॥ ६१ ॥
सर्वदा चरणाम्भोजे भक्तिः स्यात्तव निश्चला ।
प्रार्थनीयमिदं मुख्यमपरं देहहेतवे ॥ ६२ ॥
हे शिवे ! असुरराज तारक हमलोगोंको दिन-रात पीड़ित कर रहा है । ब्रह्माजीने शिवजीके औरसपुत्रके द्वारा उसका वध सुनिश्चित किया है । हे महेश्वरि ! आप तो जानती ही हैं कि शिवकी कोई भार्या नहीं है । हम अल्पबुद्धि प्राणी सब कुछ जाननेवाली आपसे क्या कहें, [आप देह धारणकर अवतरित हों] इसी प्रयोजनसे हमलोगोंने आपसे निवेदन किया है । हे अम्बिके ! दूसरी बात भी ध्यानमें रखें । आपके चरणकमलमें हमलोगोंकी अविचल भक्ति सर्वदा बनी रहे । देहकी रक्षाके निमित्त यह हमारा दूसरा मुख्य निवेदन है ॥ ५९-६२ ॥

इति तेषां वचः श्रुत्वा प्रोवाच परमेश्वरी ।
मम शक्तिस्तु या गौरी भविष्यति हिमालये ॥ ६३ ॥
शिवाय सा प्रदेया स्यात्सा वः कार्यं विधास्यति ।
भक्तिर्यच्चरणाम्भोजे भूयाद्युष्माकमादरात् ॥ ६४ ॥
हिमालयो हि मनसा मामुपास्तेऽतिभक्तितः ।
ततस्तस्य गृहे जन्म मम प्रियकरं मतम् ॥ ६५ ॥
उनकी यह बात सुनकर भगवती परमेश्वरीने कहा'गौरी' नामक मेरी जो शक्ति है, वह हिमालयके घर आविर्भूत होगी । आपलोग ऐसा प्रयत्न कीजिये कि वह शिवको प्रदान कर दी जाय, वही गौरी आपलोगोंका कार्य सिद्ध करेगी । मेरे चरणकमलमें आपलोगोंकी भक्ति सदा आदरपूर्वक बनी रहे । हिमालय भी अत्यन्त भक्तिके साथ मनोयोगसे मेरी उपासना कर रहे हैं । अत: उनके घर जन्म लेना मैंने प्रियकर माना है ॥ ६३-६५ ॥

व्यास उवाच
हिमालयोऽपि तच्छ्रुत्वात्यनुग्रहकरं वचः ।
बाष्पैः संरुद्धकण्ठाक्षो महाराज्ञीं वचोऽब्रवीत् ॥ ६६ ॥
महत्तरं तं कुरुषे यस्यानुग्रहमिच्छसि ।
नोचेत्क्वाहं जडः स्थाणुः क्व त्वं सच्चित्स्वरूपिणी ॥ ६७ ॥
व्यासजी बोले-[वहाँ देवताओंके साथ विद्यमान] हिमालयने भी देवीकी वह अति कृपापूर्ण वाणी सुनकर आँसुओंसे रुंधे कंठ तथा अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे महाराज्ञी भगवतीसे यह वचन कहा-आप जिसपर कृपा करना चाहती हैं, उसे अति महान् बना देती हैं अन्यथा कहाँ जड़ तथा स्थाणु मैं और कहाँ सच्चित्स्वरूपिणी आप ॥ ६६-६७ ॥

असम्भाव्यं जन्मशतैस्त्वत्पितृत्वं ममानघे ।
अश्वमेधादिपुण्यैर्वा पुण्यैर्वा तत्समाधिजैः ॥ ६८ ॥
अद्य प्रपञ्चे कीर्तिः स्याज्जगन्माता सुताभवत् ।
अहो हिमालयस्यास्य धन्योऽसौ भाग्यवानिति ॥ ६९ ॥
हे अनघे ! सैकड़ों जन्मोंमें अश्वमेध आदि यज्ञों तथा समाधिसे प्राप्त होनेवाले पुण्योंसे भी आपका पिता बन पाना असम्भव है । अब जगत्में मेरी कीर्ति फैल जायगी । लोग कहेंगे-अहो ! इस हिमालयकी पुत्रीके रूपमें स्वयं जगज्जननी उत्पन्न हुई हैं, ये बड़े धन्य तथा भाग्यशाली हैं ॥ ६८-६९ ॥

यस्यास्तु जठरे सन्ति ब्रह्माण्डानां च कोटयः ।
सैव यस्य सुता जाता को वा स्यात्तत्समो भुवि ॥ ७० ॥
जिनके उदरमें करोड़ों ब्रह्माण्ड स्थित हैं, वे ही जगदम्बा जिसकी कन्या होकर जन्म लें, उसके समान इस पृथ्वीपर कौन हो सकता है ? ॥ ७० ॥

न जानेऽस्मत्पितॄणां किं स्थानं स्यान्निर्मितं परम् ।
एतादृशानां वासाय येषां वंशेऽस्ति मादृशः ॥ ७१ ॥
जिनके वंशमें मेरे-जैसा [भाग्यशाली] उत्पन्न हुआ है, मेरे ऐसे उन पूर्वजोंके निवासके लिये कैसा श्रेष्ठ स्थान निर्मित हुआ होगा-यह मैं नहीं जानता ॥ ७१ ॥

इदं यथा च दत्तं मे कृपया प्रेमपूर्णया ।
सर्ववेदान्तसिद्धं च त्वद्‌रूपं ब्रूहि मे तथा ॥ ७२ ॥
जिस प्रकार आपने स्नेहपूर्ण कृपा करके मुझे गौरीका पिता होनेका अवसर प्रदान किया, उसी प्रकार अब आप सम्पूर्ण वेदान्तके सिद्धान्तभूत अपने स्वरूपको मुझे बताइये ॥ ७२ ॥

योगं च भक्तिसहितं ज्ञानं च श्रुतिसम्मतम् ।
वदस्व परमेशानि त्वमेवाहं यतो भवेः ॥ ७३ ॥
हे परमेश्वरि ! वेदसम्मत ज्ञान, भक्ति तथा योगका मुझे उपदेश करें, जिससे मैं आपके स्वरूपको प्राप्त हो जाऊँ ॥ ७३ ॥

व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा प्रसन्नमुखपङ्कजा ।
वक्तुमारभताम्बा सा रहस्यं श्रुतिगूहितम् ॥ ७४ ॥
व्यासजी बोले-उनकी यह बात सुनकर प्रसन्नतासे प्रफुल्लित मुखकमलवाली उन भगवतीने श्रुतियोंमें निहित रहस्यका वर्णन करना आरम्भ किया ॥ ७४ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
सप्तमस्कन्धे हिमालयगृहे पार्वतीजन्मविषये देवान् प्रति
देवीकथनवर्णनं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
अध्याय इकत्तीसवाँ समाप्त ॥ ३१ ॥


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