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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
अष्टत्रिंशोऽध्यायः

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देवीगीतायां महोत्सवव्रतस्थानवर्णनम् -
भगवतीके द्वारा देवीतीर्थो, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन -


हिमालय उवाच
कति स्थानानि देवेशि द्रष्टव्यानि महीतले ।
मुख्यानि च पवित्राणि देवीप्रियतमानि च ॥ १ ॥
व्रतान्यपि तथा यानि तुष्टिदान्युत्सवा अपि ।
तत्सर्वं वद मे मातः कृतकृत्यो यतो नरः ॥ २ ॥
हिमालय बोले-हे देवेश्वरि ! इस पृथ्वीतलपर कौन-कौनसे पवित्र, मुख्य, दर्शनीय तथा आप भगवतीके लिये अत्यन्त प्रिय स्थान हैं ? हे माता ! आपको सन्तुष्ट करनेवाले जो-जो व्रत तथा उत्सव हों, उन सबको भी मुझे बताइये, जिससे मुझ जैसा प्राणी कृतकृत्य हो जाय ॥ १-२ ॥

श्रीदेव्युवाच
सर्वं दृश्यं मम स्थानं सर्वे काला व्रतात्मकाः ।
उत्सवाः सर्वकालेषु यतोऽहं सर्वरूपिणी ॥ ३ ॥
तथापि भक्तवात्सल्यात्किञ्चित्किञ्चिदथोच्यते ।
शृणुष्वावहितो भूत्वा नगराज वचो मम ॥ ४ ॥
देवी बोलीं-दृष्टिगोचर होनेवाले सभी स्थान मेरे अपने हैं, सभी काल व्रतयोग्य हैं तथा सभी समयोंमें मेरे उत्सव मनाये जा सकते हैं । क्योंकि मैं सर्वरूपिणी हूँ । फिर भी हे पर्वतराज ! भक्तवात्सल्यके कारण मैं कतिपय स्थानोंको बता रही हूँ, आप सावधान होकर मेरा वचन सुनिये ॥ ३-४ ॥

कोलापुरं महास्थानं यत्र लक्ष्मीः सदा स्थिता ।
मातुः पुरं द्वितीयं च रेणुकाधिष्ठितं परम् ॥ ५ ॥
कोलापुर एक अत्यन्त श्रेष्ठ स्थान है, जहाँ लक्ष्मी सदा निवास करती हैं । मातृपुर दूसरा परम स्थान है, जहाँ भगवती रेणुका विराजमान हैं ॥ ५ ॥

तुलजापुरं तृतीयं स्यात्सप्तशृङ्गं तथैव च ।
हिङ्गुलाया महास्थानं ज्वालामुख्यास्तथैव च ॥ ६ ॥
शाकम्भर्याः परं स्थानं भ्रामर्याः स्थानमुत्तमम् ।
श्रीरक्तदन्तिकास्थानं दुर्गास्थानं तथैव च ॥ ७ ॥
तीसरा स्थान तुलजापुर है । इसी प्रकार सप्तशृंग भी एक स्थान है । हिंगुला, ज्वालामुखी, शाकम्भरी, भ्रामरी, रक्तदन्तिका और दुर्गा-इन देवियोंके उत्तम स्थान इन्हींके नामोंसे विख्यात हैं ॥ ६-७ ॥

विन्ध्याचलनिवासिन्याः स्थानं सर्वोत्तमोत्तमम् ।
अन्नपूर्णामहास्थानं काञ्चीपुरमनुत्तमम् ॥ ८ ॥
भीमादेव्याः परं स्थानं विमलास्थानमेव च ।
श्रीचन्द्रलामहास्थानं कौशिकीस्थानमेव ॥ ९ ॥
भगवती विन्ध्यवासिनीका स्थान [विन्ध्यपर्वत] सर्वोत्कृष्ट है । देवी अन्नपूर्णाका परम स्थान श्रेष्ठ कांचीपुर है । भगवती भीमा, विमला, श्रीचन्द्रला और कौशिकीके महास्थान इन्हींके नामोंसे प्रसिद्ध हैं ॥ ८-९ ॥

नीलाम्बायाः परं स्थानं नीलपर्वतमस्तके ।
जाम्बूनदेश्वरीस्थानं तथा श्रीनगरं शुभम् ॥ १० ॥
गुह्यकाल्या महास्थानं नेपाले यत्प्रतिष्ठितम् ।
मीनाक्ष्याः परमं स्थानं यच्च प्रोक्तं चिदम्बरे ॥ ११ ॥
भगवती नीलाम्बाका परम स्थान नीलपर्वतके शिखरपर है और देवी जाम्बूनदेश्वरीका पवित्र स्थान श्रीनगरमें है । भगवती गुह्यकालीका महान् स्थान है, जो नेपालमें प्रतिष्ठित है और देवी मीनाक्षीका श्रेष्ठ स्थान है, जो चिदम्बरमें स्थित बताया गया है । १०-११ ॥

वेदारण्यं महास्थानं सुन्दर्याः समधिष्ठितम् ।
एकाम्बरं महास्थानं परशक्त्या प्रतिष्ठितम् ॥ १२ ॥
महालसा परं स्थानं योगेश्वर्यास्तथैव च ।
तथा नीलसरस्वत्याः स्थानं चीनेषु विश्रुतम् ॥ १३ ॥
भगवती सुन्दरीका महान् स्थान वेदारण्यमें अधिष्ठित है और भगवती पराशक्तिका महास्थान एकाम्बरमें स्थित है । भगवती महालसा और इसी प्रकार देवी योगेश्वरीके महान् स्थान इन्हींके नामोंसे विख्यात हैं । भगवती नीलसरस्वतीका स्थान चीन देशमें स्थित कहा गया है । १२-१३ ॥

वैद्यनाथे तु बगलास्थानं सर्वोत्तमं मतम् ।
श्रीमच्छ्रीभुवनेश्वर्या मणिद्वीपं मम स्मृतम् ॥ १४ ॥
श्रीमत्त्रिपुरभैरव्याः कामाख्यायोनिमण्डलम् ।
भूमण्डले क्षेत्ररत्‍नं महामायाधिवासितम् ॥ १५ ॥
भगवती बगलाका सर्वोत्तम स्थान वैद्यनाथधाममें स्थित माना गया है । मुझ श्रीमत-श्रीभुवनेश्वरीका स्थान मणिद्वीप बताया गया है । श्रीमत्रिपुरभैरवीका महान् स्थान कामाख्यायोनिमण्डल है, यह भूमण्डलपर क्षेत्ररत्नस्वरूप है तथा महामायाद्वारा अधिवासित क्षेत्र है ॥ १४-१५ ॥

नातः परतरं स्थानं क्वचिदस्ति धरातले ।
प्रतिमासं भवेद्देवी यत्र साक्षाद्रजस्वला ॥ १६ ॥
तत्रत्या देवताः सर्वाः पर्वतात्मकतां गताः ।
पर्वतेषु वसन्त्येव महत्यो देवता अपि ॥ १७ ॥
तत्रत्या पृथिवी सर्वा देवीरूपा स्मृता बुधैः ।
नातः परतरं स्थानं कामाख्यायोनिमण्डलात् ॥ १८ ॥
धरातलपर इससे बढ़कर श्रेष्ठ स्थान कहीं नहीं है, यहाँ भगवती प्रत्येक माहमें साक्षात् रजस्वला हुआ करती हैं । उस समय वहाँकै सभी देवता पर्वतस्वरूप हो जाते हैं और अन्य महान् देवता भी वहाँ पर्वतोपर निवास करते हैं । विद्वान् पुरुषोंने वहाँकी सम्पूर्ण भूमिको देवीरूप कहा है । इस कामाख्यायोनिमण्डलसे बढ़कर श्रेष्ठ स्थान कोई नहीं है । १६-१८ ॥

गायत्र्याश्च परं स्थानं श्रीमत्पुष्करमीरितम् ।
अमरेशे चण्डिका स्यात्प्रभासे पुष्करेक्षिणी ॥ १९ ॥
नैमिषे तु महास्थाने देवी सा लिङ्गधारिणी ।
पुरुहूता पुष्कराक्षे आषाढौ च रतिस्तथा ॥ २० ॥
ऐश्वर्यमय पुष्करक्षेत्र भगवती गायत्रीका उत्तम स्थान कहा गया है । अमरेशमें चण्डिका तथा प्रभासमें भगवती पुष्करेक्षिणी विराजमान हैं । महास्थान नैमिषारण्यमें लिंगधारिणी विराजमान हैं । पुष्कराक्षमें देवी पुरुहूता और आषाढीमें भगवती रति प्रतिष्ठित हैं ॥ १९-२० ॥

चण्डमुण्डीमहास्थाने दण्डिनी परमेश्वरी ।
भारभूतौ भवेद्‌भूतिर्नाकुले नकुलेश्वरी ॥ २१ ॥
चन्द्रिका तु हरिश्चन्द्रे श्रीगिरौ शाङ्करी स्मृता ।
जप्येश्वरे त्रिशूला स्यात्सूक्ष्मा चाम्रातकेश्वरे ॥ २२ ॥
चण्डमुण्डी नामक महान् स्थानमें परमेश्वरी दण्डिनी और भारभूतिमें देवी भूति तथा नाकुलमें देवी नकुलेश्वरी विराजमान हैं । हरिश्चन्द्र नामक स्थानमें भगवती चन्द्रिका और श्रीगिरिपर शांकरी प्रतिष्ठित कही गयी हैं । जप्येश्वर स्थानमें त्रिशूला और आम्रातकेश्वरमें देवी सूक्ष्मा हैं ॥ २१-२२ ॥

शाङ्करी तु महाकाले शर्वाणी मध्यमाभिधे ।
केदाराख्ये महाक्षेत्रे देवी सा मार्गदायिनी ॥ २३ ॥
भैरवाख्ये भैरवी सा गयायां मङ्गला स्मृता ।
स्थाणुप्रिया कुरुक्षेत्रे स्वायम्भुव्यपि नाकुले ॥ २४ ॥
महाकालक्षेत्रमें शांकरी, मध्यम नामक स्थानमें शर्वाणी और केदार नामक महान् क्षेत्रमें वे भगवती मार्गदायिनी अधिष्ठित हैं । भैरव नामक स्थानमें भगवती भैरवी और गयामें भगवती मंगला प्रतिष्ठित कही गयी हैं । कुरुक्षेत्रमें देवी स्थाणुप्रिया और नाकुलमें भगवती स्वायम्भुवीका स्थान है ॥ २३-२४ ॥

कनखले भवेदुग्रा विश्वेशा विमलेश्वरे ।
अट्टहासे महानन्दा महेन्द्रे तु महान्तका ॥ २५ ॥
भीमे भीमेश्वरी प्रोक्ता स्थाने वस्त्रापथे पुनः ।
भवानी शाङ्करी प्रोक्ता रुद्राणी त्वर्धकोटिके ॥ २६ ॥
कनखलमें भगवती उग्रा, विमलेश्वरमें विश्वेशा, अट्टहासमें महानन्दा और महेन्द्रपर्वतपर देवी महान्तका विराजमान हैं । भीमपर्वतपर भगवती भीमेश्वरी, वस्त्रापथ नामक स्थानमें भवानी शांकरी और अर्धकोटिपर्वतपर भगवती रुद्राणी प्रतिष्ठित कही गयी हैं । २५-२६ ॥

अविमुक्ते विशालाक्षी महाभागा महालये ।
गोकर्णे भद्रकर्णी स्याद्‌भद्रा स्याद्‌भद्रकर्णके ॥ २७ ॥
उत्पलाक्षी सुवर्णाक्षे स्थाण्वीशा स्थाणुसञ्ज्ञके ।
कमलालये तु कमला प्रचण्डा छगलण्डके ॥ २८ ॥
कुरण्डले त्रिसन्ध्या स्यान्माकोटे मुकुटेश्वरी ।
मण्डलेशे शाण्डकी स्यात्काली कालञ्जरे पुनः ॥ २९ ॥
शङ्कुकर्णे ध्वनिः प्रोक्ता स्थूला स्यात्स्थूलकेश्वरे ।
ज्ञानिनां हृदयाम्भोजे हृल्लेखा परमेश्वरी ॥ ३० ॥
अविमुक्तक्षेत्र (काशी)-में भगवती विशालाक्षी, महालय क्षेत्रमें महाभागा, गोकर्णमें भद्रकी और भद्रकर्णकमें देवी भद्रा विराजमान हैं । सुवर्णाक्ष नामक स्थानमें भगवती उत्पलाक्षी, स्थाणुसंज्ञक स्थानमें देवी स्थाण्वीशा, कमलालयमें कमला, छगलण्डकमें प्रचण्डा, कुरण्डलमें त्रिसन्ध्या, माकोटमें मुकुटेश्वरी, मण्डलेशमें शाण्डकी और कालंजरपर्वतपर काली प्रतिष्ठित हैं । शंकुकर्णपर्वतपर भगवती ध्वनि विराजमान बतायी गयी हैं । स्थूलकेश्वरपर भगवती स्थूला हैं । परमेश्वरी हल्लेखा ज्ञानियोंके हदयकमलमें विराजमान रहती हैं ॥ २७-३० ॥

प्रोक्तानीमानि स्थानानि देव्याः प्रियतमानि च ।
तत्तत्क्षेत्रस्य माहात्म्यं श्रुत्वा पूर्वं नगोत्तम ॥ ३१ ॥
तदुक्तेन विधानेन पश्चाद्देवीं प्रपूजयेत् ।
अथवा सर्वक्षेत्राणि काश्यां सन्ति नगोत्तम ॥ ३२ ॥
अतस्तत्र वसेन्नित्यं देवीभक्तिपरायणः ।
तानि स्थानानि सम्पश्यञ्जपन्देवीं निरन्तरम् ॥ ३३ ॥
बताये गये ये स्थान देवीके लिये अत्यन्त प्रिय हैं । हे पर्वतराज ! पहले उन क्षेत्रोंका माहात्म्य सुनकर तत्पश्चात् शास्त्रोक्त विधिसे भगवतीकी पूजा करनी चाहिये अथवा हे नगश्रेष्ठ ! ये सभी क्षेत्र काशीमें भी स्थित हैं, इसलिये देवीकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले मनुष्यको निरन्तर वहाँ रहना चाहिये । वहाँ रहकर उन स्थानोंका दर्शन, भगवतीके मन्त्रोंका निरन्तर जप और उनके चरणकमलका नित्य ध्यान करनेवाला मनुष्य भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है । ३१-३३ ॥

ध्यायंस्तच्चरणाम्भोजं मुक्तो भवति बन्धनात् ।
इमानि देवीनामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ॥ ३४ ॥
भस्मीभवन्ति पापानि तत्क्षणान्नग सत्वरम् ।
श्राद्धकाले पठेदेतान्यमलानि द्विजाग्रतः ॥ ३५ ॥
मुक्तास्तत्पितरः सर्वे प्रयान्ति परमां गतिम् ।
हे नग ! जो मनुष्य प्रात:काल उठकर भगवतीके इन नामोंका पाठ करता है, उसके समस्त पाप उसी क्षण शीघ्र ही भस्म हो जाते हैं । जो व्यक्ति श्राद्धके समय ब्राह्मणोंके समक्ष इन पवित्र नामोंका पाठ करता है, उसके सभी पितर मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ३४-३५.५ ॥

अधुना कथयिष्यामि व्रतानि तव सुव्रत ॥ ३६ ॥
नारीभिश्च नरैश्चैव कर्तव्यानि प्रयत्‍नतः ।
हे सुव्रत ! अब मैं देवीके व्रतोंके विषयमें आपको बताऊँगा । सभी स्त्रियों और पुरुषोंको ये व्रत प्रयत्नपूर्वक करने चाहिये ॥ ३६.५ ॥

व्रतमनन्ततृतीयाख्यं रसकल्याणिनीव्रतम् ॥ ३७ ॥
आर्द्रानन्दकरं नाम्ना तृतीयाया व्रतं च यत् ।
शुक्रवारव्रतं चैव तथा कृष्णचतुर्दशी ॥ ३८ ॥
भौमवारव्रतं चैव प्रदोषव्रतमेव च ।
यत्र देवो महादेवो देवीं संस्थाप्य विष्टरे ॥ ३९ ॥
नृत्यं करोति पुरतः सार्धं देवैर्निशामुखे ।
तत्रोपोष्य रजन्यादौ प्रदोषे पूजयेच्छिवाम् ॥ ४० ॥
प्रतिपक्षं विशेषेण तद्देवीप्रीतिकारकम् ।
व्रतोंमें जो तृतीयाके व्रत हैं; वे अनन्ततृतीया, रसकल्याणिनी और आर्द्रानन्दकर नामसे प्रसिद्ध हैं । शुक्रवार, कृष्णचतुर्दशी तथा भौमवारको देवीका व्रत किया जाता है । प्रदोष भी देवीव्रत है; उस दिन देवाधिदेव भगवान् शिव सायंकालके समय देवी पार्वतीको कुशासनपर विराजमान करके उनके समक्ष देवताओंके साथ नृत्य करते हैं । उस दिन उपवास करके सायंकालके प्रदोषमें भगवती शिवाकी पूजा करनी चाहिये । देवीको विशेषरूपसे सन्तुष्ट करनेवाला यह प्रदोष प्रत्येक पक्षमें करना चाहिये ॥ ३७-४०.५ ॥

सोमवारव्रतं चैव ममातिप्रियकृन्नग ॥ ४१ ॥
तत्रापि देवीं सम्पूज्य रात्रौ भोजनमाचरेत् ।
नवरात्रद्वयं चैव व्रतं प्रीतिकरं मम ॥ ४२ ॥
हे पर्वत ! सोमवारका व्रत मुझे अत्यधिक सन्तुष्ट करनेवाला है । इस व्रतमें भी [उपवास करके] भगवतीकी पूजाकर रातमें भोजन करना चाहिये । इसी प्रकार चैत्र और आश्विन महीनोंके दोनों नवरात्रव्रत मेरे लिये अत्यन्त प्रियकर हैं ॥ ४१-४२ ॥

एवमन्यान्यपि विभो नित्यनैमित्तिकानि च ।
व्रतानि कुरुते यो वै मत्प्रीत्यर्थं विमत्सरः ॥ ४३ ॥
प्राप्नोति मम सायुज्यं स मे भक्तः स मे प्रियः ।
उत्सवानपि कुर्वीत दोलोत्सवसुखान्विभो ॥ ४४ ॥
शयनोत्सवं यथा कुर्यात्तथा जागरणोत्सवम् ।
रथोत्सवं च मे कुर्याद्दमनोत्सवमेव च ॥ ४५ ॥
हे विभो ! इसी प्रकार और भी नित्य तथा नैमित्तिक व्रत हैं । जो मनुष्य राग-द्वेषसे रहित होकर मेरी प्रसन्नताके लिये इन व्रतोंको करता है, वह मेरा सायुज्यपद प्राप्त कर लेता है । वह मेरा भक्त है और मुझे अतिप्रिय है । हे विभो ! व्रतोंके अवसरपर झूला सजाकर उत्सव मनाना चाहिये । मेरा शयनोत्सव, जागरणोत्सव, रथोत्सव और दमनोत्सव आयोजित करना चाहिये । ४३-४५ ॥

पवित्रोत्सवमेवापि श्रावणे प्रीतिकारकम् ।
मम भक्तः सदा कुर्यादेवमन्यान्महोत्सवान् ॥ ४६ ॥
मद्‌भक्तान्भोजयेत्प्रीत्या तथा चैव सुवासिनीः ।
कुमारीर्बटुकांश्चापि मद्बुद्ध्या तद्‌गतान्तरः ॥ ४७ ॥
वित्तशाठ्येन रहितो यजेदेतान्सुमादिभिः ।
श्रावण महीने में होनेवाला पवित्रोत्सव भी मेरे लिये प्रीतिकारक है । मेरे भक्तको चाहिये कि वह इसी तरहसे अन्य महोत्सवोंको भी सदा मनाये । उन अवसरोंपर मेरे भक्तों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारी कन्याओं और बटुकोंको मेरा ही स्वरूप समझकर उनमें मन स्थित करके उन्हें प्रेमपूर्वक भोजन कराना चाहिये, साथ ही धनकी कृपणतासे रहित होकर पुष्प आदिसे इनकी पूजा करनी चाहिये ॥ ४६-४७.५ ॥

य एवं कुरुते भक्त्या प्रतिवर्षमतन्द्रितः ॥ ४८ ॥
स धन्यः कृतकृत्योऽसौ मत्प्रीतेः पात्रमञ्जसा ।
सर्वमुक्तं समासेन मम प्रीतिप्रदायकम् ।
नाशिष्याय प्रदातव्यं नाभक्ताय कदाचन ॥ ४९ ॥
जो मनुष्य सावधान होकर भक्तिपूर्वक प्रत्येक वर्ष ऐसा करता है, वह धन्य तथा कृतकृत्य है और वह शीघ्र ही मेरा प्रियपात्र बन जाता है । मुझे प्रसन्नता प्रदान करनेवाला यह सब प्रसंग मैंने संक्षेपमें आपसे कह दिया । उपदेश न माननेवाले तथा मुझमें भक्ति न रखनेवाले मनुष्यके समक्ष इसे कभी भी प्रकाशित नहीं करना चाहिये ॥ ४८-४९ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे देवीगीतायां
महोत्सवव्रतस्थानवर्णनं नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
अध्याय अडतीसवाँ समाप्त ॥ ३८ ॥


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