श्रीदेवी बोलीं-हे राजन् ! हे पर्वतश्रेष्ठ ! मैं यथार्थरूपमें जगदम्बाको प्रसन्न करनेवाली पूजाविधि बता रही हूँ, महती श्रद्धाके साथ आप इसे सुनिये ॥ २ ॥
द्विविधा मम पूजा स्याद् बाह्या चाभ्यन्तरापि च । बाह्यापि द्विविधा प्रोक्ता वैदिकी तान्त्रिकी तथा ॥ ३ ॥
मेरी पूजा दो प्रकारकी है-बाहा और आभ्यन्तर । बाह्य पूजा भी वैदिकी और तान्त्रिकी-दो प्रकारको कही गयी है ॥ ३ ॥
वैदिक्यर्चापि द्विविधा मूर्तिभेदेन भूधर । वैदिकी वैदिकैः कार्या वेददीक्षासमन्वितैः ॥ ४ ॥ तन्त्रोक्तदीक्षावद्भिस्तु तान्त्रिकी संश्रिता भवेत् । इत्थं पूजारहस्यं च न ज्ञात्वा विपरीतकम् ॥ ५ ॥
हे भूधर ! वैदिकी पूजा भी मूर्तिभेदसे दो प्रकारकी होती है । वेददीक्षासे सम्पन्न वैदिकोंद्वारा वैदिकी पूजा की जानी चाहिये और तन्त्रोक्त दीक्षासे युक्त पुरुषोंके द्वारा तान्त्रिकी पूजा की जानी चाहिये । इस प्रकार पूजाके रहस्यको न समझकर जो अज्ञानी मनुष्य इसके विपरीत करता है. उसका सर्वथा अध:पतन हो जाता है ॥ ४-५ ॥
करोति यो नरो मूढः स पतत्येव सर्वथा । तत्र या वैदिकी प्रोक्ता प्रथमा तां वदाम्यहम् ॥ ६ ॥ यन्मे साक्षात्परं रूपं दृष्ट्वानसि भूधर । अनन्तशीर्षनयनमनन्तचरणं महत् ॥ ७ ॥ सर्वशक्तिसमायुक्तं प्रेरकं यत्परात्परम् । तदेव पूजयेन्नित्यं नमेद् ध्यायेत्स्मरेदपि ॥ ८ ॥ इत्येतत्प्रथमार्चायाः स्वरूपं कथितं नग । शान्तः समाहितमना दम्भाहङ्कारवर्जितः ॥ ९ ॥ तत्परो भव तद्याजी तदेव शरणं व्रज । तदेव चेतसा पश्य जप ध्यायस्व सर्वदा ॥ १० ॥
उसमें जो पहली वैदिकी पूजा कही गयी है, उसे मैं बता रही हूँ, हे भूधर ! तुम अनन्त मस्तक, नेत्र तथा चरणवाले मेरे जिस महान् रूपका साक्षात् दर्शन कर चुके हो और जो समस्त शक्तियोंसे सम्पन्न, प्रेरणा प्रदान करनेवाला तथा परात्पर है; उसी रूपका नित्य पूजन, नमन, ध्यान तथा स्मरण करना चाहिये । हे नग ! मेरी प्रथम पूजाका यही स्वरूप बताया गया है । आप शान्त होकर समाहित मनसे और दम्भ तथा अहंकारसे रहित होकर उसके परायण होइये, उसीका यजन कीजिये, उसीकी शरणमें जाइये और चित्तसे सदा उसीका दर्शन-जपध्यान कीजिये ॥ ६-१० ॥
अनन्यया प्रेमयुक्तभक्त्या मद्भावमाश्रितः । यज्ञैर्यज तपोदानैर्मामेव परितोषय ॥ ११ ॥
अनन्य एवं प्रेमपूर्ण भक्तिसे मेरे उपासक बनकर यज्ञोंके द्वारा मेरी पूजा कीजिये और तपस्या तथा दानके द्वारा मुझे पूर्णरूपसे सन्तुष्ट कीजिये । ऐसा करनेपर मेरी कृपासे आप भवबन्धनसे छूट जायेंगे ॥ ११ ॥
इत्थं ममानुग्रहतो मोक्ष्यसे भवबन्धनात् । मत्परा ये मदासक्तचित्ता भक्तवरा मताः ॥ १२ ॥ प्रतिजाने भवादस्मादुद्धराम्यचिरेण तु ।
जो मेरे ऊपर निर्भर रहते हैं और अपना चित्त मुझमें लगाये रखते हैं, वे मेरे उत्तम भक्त माने गये हैं । यह मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं शीघ्र ही इस भवसागरसे उनका उद्धार कर देती हूँ । १२.५ ॥
ध्यानेन कर्मयुक्तेन भक्तिज्ञानेन वा पुनः ॥ १३ ॥ प्राप्याहं सर्वथा राजन्न तु केवलकर्मभिः ।
हे राजन् ! मैं सर्वथा कर्मयुक्त ध्यानसे अथवा भक्तिपूर्ण ज्ञानसे ही प्राप्त हो सकती हूँ । केवल कर्मोसे ही मेरी प्राप्ति सम्भव नहीं है ॥ १३.५ ॥
धर्मात्सञ्जायते भक्तिर्भक्त्या सञ्जायते परम् ॥ १४ ॥ श्रुतिस्मृतिभ्यामुदितं यत्स धर्मः प्रकीर्तितः । अन्यशास्त्रेण यः प्रोक्तो धर्माभासः स उच्यते ॥ १५ ॥
धर्मसे भक्ति उत्पन्न होती है और भक्तिसे परब्रह्मका ज्ञान प्राप्त होता है । श्रुति और स्मृतिके द्वारा जो कुछ भी प्रतिपादित है, वही धर्म कहा गया है । अन्य शास्त्रोंके द्वारा जो निरूपित किया गया है, उसे धर्माभास कहा जाता है ॥ १४-१५ ॥
सर्वज्ञात्सर्वशक्तेश्च मत्तो वेदः समुत्थितः । अज्ञानस्य ममाभावादप्रमाणा न च श्रुतिः ॥ १६ ॥ स्मृतयश्च श्रुतेरर्थं गृहीत्वैव च निर्गताः । मन्वादीनां श्रुतीनां च ततः प्रामाण्यमिष्यते ॥ १७ ॥
मुझ सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिसम्पन्न भगवतीसे वेद उत्पन्न हुआ है और इस प्रकार मझमें अज्ञानका अभाव रहनेके कारण श्रुति भी अप्रामाणिक नहीं है । श्रुतिके अर्थको लेकर ही स्मृतियाँ निकली हुई हैं । अतः श्रुतियों और मनु आदि स्मृतियोंकी प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध है ॥ १६-१७ ॥
स्मृति आदिमें कहीं-कहीं कटाक्षपूर्वक वामाचारसम्बन्धी वेदविरुद्ध कही गयी बातको भी लोग धर्मके रूपमें स्वीकार करते हैं, किंतु वैदिक विद्वानोंके द्वारा वह अंश कभी भी ग्राह्य नहीं है ॥ १८ ॥
अन्य शास्त्रकर्ताओंके वाक्य अज्ञानमूलक भी हो सकते हैं । अतः अज्ञानदोषसे दूषित होनेके कारण उनकी उक्तिकी कोई प्रामाणिकता नहीं है । इसलिये मोक्षकी अभिलाषा रखनेवालेको धर्मकी प्राप्तिके लिये सदा वेदका आश्रय ग्रहण करना चाहिये ॥ १९.५ ॥
राजाज्ञा च यथा लोके हन्यते न कदाचन ॥ २० ॥ सर्वेशान्या ममाज्ञा सा श्रुतिस्त्याज्या कथं नृभिः । मदाज्ञारक्षणार्थं तु ब्रह्मक्षत्रियजातयः ॥ २१ ॥ मया सृष्टास्ततो ज्ञेयं रहस्यं मे श्रुतेर्वचः ।
जिस प्रकार लोक राजाकी आज्ञाकी अवहेलना कभी नहीं की जाती, वैसे ही मनुष्य मुझ सर्वेश्वरी भगवतीकी आज्ञास्वरूपिणी उस श्रुतिका त्याग कैसे कर सकते हैं ? मेरी आज्ञाके पालनके लिये ही तो ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि जातियाँ मेरे द्वारा सृजित की गयी हैं । अब मेरी श्रुतिकी वाणीका रहस्य समझ लीजिये ॥ २०-२१.५ ॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भूधर ॥ २२ ॥ अभ्युत्थानमधर्मस्य तदा वेषान्बिभर्म्यहम् । देवदैत्यविभागश्चाप्यत एवाभवन्नृप ॥ २३ ॥
हे भूधर ! जब-जब धर्मकी हानि होती है और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब मैं विभिन्न अवतार धारण करती हूँ । हे राजन् ! इसीलिये देवताओं और दैत्योंका विभाग हुआ है ॥ २२-२३ ॥
ये न कुर्वन्ति तद्धर्मं तच्छिक्षार्थं मया सदा । सम्पादितास्तु नरकास्त्रासो यच्छ्रवणाद्भवेत् ॥ २४ ॥
जो लोग उन धर्मोंका सदा आचरण नहीं करते, उन्हें शिक्षा देनेके लिये मैंने अनेक नरकोंकी व्यवस्था कर रखी है, जिनके सुननेमात्रसे भय उत्पन्न हो जाता है ॥ २४ ॥
यो वेदधर्ममुज्झित्य धर्ममन्यं समाश्रयेत् । राजा प्रवासयेद्देशान्निजादेतानधर्मिणः ॥ २५ ॥
जो लोग वेदप्रतिपादित धर्मका परित्याग करके अन्य धर्मका आश्रय लेते हैं, राजाको चाहिये कि वह ऐसे अधर्मियोंको अपने राज्यसे निष्कासित कर दे । ब्राह्मण उन अधार्मिकोंसे सम्भाषण न करें और द्विजगण उन्हें अपनी पंक्तिमें न बैठायें ॥ २५ ॥
ब्राह्मणैर्न च सम्भाष्याः पङ्क्तिग्राह्या न च द्विजैः । अन्यानि यानि शास्त्राणि लोकेऽस्मिन्विविधानि च ॥ २६ ॥ श्रुतिस्मृतिविरुद्धानि तामसान्येव सर्वशः । वामं कापालकं चैव कौलकं भैरवागमः ॥ २७ ॥ शिवेन मोहनार्थाय प्रणीतो नान्यहेतुकः ।
इस लोकमें श्रुति-स्मृतिविरुद्ध नानाविध अन्य जो भी शास्त्र हैं, वे हर प्रकारसे तामस हैं । वाम, कापालक, कौलक और भैरवागम-ऐसे ही शास्त्र हैं, जो मोहमें डाल देनेके लिये शिवजीके द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं-इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी कारण नहीं है । २६-२७.५ ॥
दक्षशापाद् भृगोः शापाद्दधीचस्य च शापतः ॥ २८ ॥ दग्धा ये ब्राह्मणवरा वेदमार्गबहिष्कृताः । तेषामुद्धरणार्थाय सोपानक्रमतः सदा ॥ २९ ॥ शैवाश्च वैष्णवाश्श्चैव सौराः शाक्तास्तथैव च । गाणपत्या आगमाश्च प्रणीताः शङ्करेण तु ॥ ३० ॥ तत्र वेदाविरुद्धांशोऽप्युक्त एव क्वचित्क्वचित् । वैदिकैस्तद्ग्रहे देषो न भवत्येव कर्हिचित् ॥ ३१ ॥
वेदमार्गसे च्युत होनेके कारण जो उच्च कोटिके ब्राह्मण दक्षप्रजापतिके शापसे, महर्षि भृगुके शापसे और महर्षि दधीचिके शापसे दग्ध कर दिये गये थे; उनके उद्धारके लिये भगवान् शंकरने सोपान क्रमसे शैव, वैष्णव, सौर, शाक्त तथा गाणपत्य आगमोंकी रचना की । उनमें कहीं-कहीं वेदविरुद्ध अंश भी कहा गया है । वैदिकोंको उस अंशके ग्रहण कर लेनेमें कोई दोष नहीं होता है ॥ २८-३१ ॥
वेदसे सर्वथा भिन्न अर्थको स्वीकार करनेके लिये द्विज अधिकारी नहीं है । वेदाधिकारसे रहित व्यक्ति ही उसे ग्रहण करनेका अधिकारी है । अत: वैदिक पुरुषको पूरे प्रयत्नके साथ वेदका ही आश्रय ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि वेद-प्रतिपादित धर्मसे युक्त ज्ञान ही परब्रह्मको प्रकाशित कर सकता है ॥ ३२-३३ ॥
सम्पूर्ण इच्छाओंको त्यागकर मेरी ही शरणको प्राप्त, सभी प्राणियोंपर दया करनेवाले, मान-अहंकारसे रहित, मनसे मेरा ही चिन्तन करनेवाले, मुझमें ही अपना प्राण समर्पित करनेवाले तथा मेरे स्थानोंका वर्णन करनेमें संलग्न रहनेवाले जो संन्यासी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और ब्रह्मचारी मेरे ऐश्वरसंज्ञक योगकी सदा भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं-मुझमें निरन्तर अनुरक्त रहनेवाले उन साधकोंके अज्ञानजनित अन्धकारको मैं ज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाशसे नष्ट कर देती हूँ; इसमें सन्देह नहीं है । ३४-३६.५ ॥
हे पर्वतराज ! इस प्रकार मैंने पहली वैदिक पूजाके स्वरूपका संक्षेपमें वर्णन कर दिया । अब दूसरी पूजाके विषयमें बता रही हूँ ॥ ३७.५ ॥
मूर्तौ वा स्थण्डिले वापि तथा सूर्येन्दुमण्डले ॥ ३८ ॥ जलेऽथवा बाणलिङ्गे यन्त्रे वापि महापटे । तथा श्रीहृदयाम्भोजे ध्यात्वा देवीं परात्पराम् ॥ ३९ ॥ सगुणां करुणापूर्णां तरुणीमरुणारुणाम् । सौन्दर्यसारसीमां तां सर्वावयवसुन्दरीम् ॥ ४० ॥ शृङ्गाररससम्पूर्णां सदा भक्तार्तिकातराम् । प्रसादसुमुखीमम्बां चन्द्रखण्डशिखण्डिनीम् ॥ ४१ ॥ पाशाङ्कुशवराभीतिधरामानन्दरूपिणीम् । पूजयेदुपचारैश्च यथावित्तानुसारतः ॥ ४२ ॥
मूर्ति, वेदी, सूर्य-चन्द्रमण्डल, जल, बाणलिंग, यन्त्र, महापट अथवा हृदयकमलमें सगुण रूपवाली परात्पर भगवतीका इस प्रकार ध्यान करे कि वे करुणासे परिपूर्ण हैं, तरुण अवस्था विद्यमान हैं, अरुणके समान अरुण आभासे युक्त हैं और सौन्दर्यके सारतत्त्वकी सीमा हैं । इनके सम्पूर्ण अंग परम मनोहर हैं, वे श्रृंगाररससे परिपूर्ण हैं तथा सदा भक्तोंके दुःखसे दुःखी रहा करती हैं । इन जगदम्बाका मुखमण्डल प्रसन्नतासे युक्त रहता है; वे मस्तकपर बालचन्द्रमा तथा मयूरपंख धारण की हुई हैं । उन्होंने पाश, अंकुश, वर तथा अभयमुद्रा धारण कर रखा है । वे आनन्दमयरूपसे सम्पन्न हैं-इस प्रकार ध्यान करके अपने वित्तसामर्थ्यके अनुसार विभिन्न उपचारोंसे भगवतीकी पूजा करनी चाहिये ॥ ३८-४२ ॥
जबतक अन्तःपूजामें अधिकार नहीं हो जाता, तबतक यह बाहापूजा करनी चाहिये । पुनः अन्त:पूजामें अधिकार हो जानेपर उस बाह्यपूजाको छोड़ देना चाहिये । जो आभ्यन्तरपूजा है, उसे ज्ञानरूप मुझ ब्रह्ममें चित्तका लय होना कहा गया है । उपाधिरहित ज्ञान ही मेरा परम रूप है, अतः मेरे ज्ञानमयरूपमें अपना आश्रयहीन चित्त लगा देना चाहिये ॥ ४३-४४.५ ॥
इस ज्ञानमयरूपके अतिरिक्त यह मायामय जगत् पूर्णतः मिथ्या है । अतः भव-बन्धनके नाशके लिये एकनिष्ठ तथा योगयुक्त चित्तसे मुझ सर्वसाक्षिणी तथा आत्मस्वरूपिणी भगवतीका चिन्तन करना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥