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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
अष्टमः स्कन्धः
पञ्चमोऽध्यायः

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भुवनकोशविषये प्रियव्रतवंशवर्णनम् -
भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय -


श्रीनारायण उवाच
देवर्षे शृणु विस्तारं द्वीपवर्षविभेदतः ।
भूमण्डलस्य सर्वस्य यथा देवप्रकल्पितम् ॥ १ ॥
समासात्सम्प्रवक्ष्यामि नालं विस्तरतः क्वचित् ।
जम्बुद्वीपः प्रथमतः प्रमाणे लक्षयोजनः ॥ २ ॥
विशालो वर्तुलाकारो यथाब्जस्य च कर्णिका ।
नव वर्षाणि यस्मिंश्च नवसाहस्रयोजनैः ॥ ३ ॥
आयामैः परिसंख्यानि गिरिभिः परितः श्रितैः ।
अष्टाभिर्दीर्घरूपैश्च सुविभक्तानि सर्वतः ॥ ४ ॥
श्रीनारायण बोले-हे देवर्षे ! अब आप द्वीप तथा वर्षके भेदसे देवताओंके द्वारा किये गये सम्पूर्ण भूमण्डलके विस्तारके विषयमें सुनिये । इस प्रसंगमें कहीं भी विस्तार न करके मैं संक्षेपमें ही वर्णन करूँगा । सर्वप्रथम एक लाख योजन परिमाणवाले जम्बूद्वीपका निर्माण हुआ । यह अति विशाल द्वीप आकृतिमें जैसी कमलकी कर्णिका होती है, वैसा ही गोल है । इस द्वीपमें कुल नौ हजार योजनतक विस्तारवाले नौ वर्ष कहे गये हैं, जो चारों ओरसे घिरे हुए अतिविशाल रूपवाले आठ पर्वतोंसे अच्छी तरहसे विभाजित हैं ॥ १-४ ॥

धनुर्वत्संस्थिते ज्ञेये द्वे वर्षे दक्षिणोत्तरे ।
दीर्घाणि तत्र चत्वारि चतुरस्रमिलावृतम् ॥ ५ ॥
इलावृतं मध्यवर्षं यन्नाभ्यां सुप्रतिष्ठितः ।
सौवर्णो गिरिराजोऽयं लक्षयोजनमुच्छ्रितः ॥ ६ ॥
कर्णिकारूप एवायं भूगोलकमलस्य च ।
मूर्ध्नि द्वात्रिंशत्सहस्रयोजनैर्विततस्त्वयम् ॥ ७ ॥
मूले षोडशसाहस्रस्तावतान्तर्गतः क्षितौ ।
धनुषके आकारकी भाँति दो वर्षोंको दक्षिणउत्तरतक फैला हुआ जानना चाहिये । वहीं चार और विशाल वर्ष हैं । इलावृत नामका वर्ष चौकोर है । यह इलावृत मध्यवर्ष भी कहा जाता है । जिसकी नाभि (मध्यभाग) में एक लाख योजन ऊँचाईवाला सुवर्णमय सुमेरु नामक पर्वतराज विद्यमान है । यह पर्वत ही गोलाकार पृथ्वीरूप कमलकी कर्णिकाके रूपमें स्थित है । इस पर्वतका शिखरभाग बत्तीस हजार योजनके विस्तारमें है, इसका मूलभाग (तलहटी) सोलह हजार योजनतक पृथ्वीपर फैला है और इतने ही योजनतक पृथ्वीके भीतर प्रविष्ट है ॥ ५-.७.५ ॥

इलावृतस्योत्तरतो नीलः श्वेतश्च शृङ्गवान् ॥ ८ ॥
त्रयो वै गिरयः प्रोक्ता मर्यादावधयस्त्रिषु ।
इलावृतके उत्तरमें उसकी सीमाके रूपमें नील, श्वेत और श्रृंगवान्-ये तीन पर्वत कहे गये हैं । ८.५ ॥

रम्यकाख्ये तथा वर्षे द्वितीये च हिरण्मये ॥ ९ ॥
कुरुवर्षे तृतीये तु मर्यादां व्यञ्जयन्ति ते ।
वे पर्वत रम्यक नामक वर्ष, दूसरे हिरण्मयवर्ष तथा तीसरे कुरुवर्षकी सीमा व्यक्त करते हैं ॥ ९.५ ॥

प्रागायता उभयतः क्षारोदावधयस्तथा ॥ १० ॥
द्विसहस्रपृथुतरास्तथा एकैकशः क्रमात् ।
पूर्वात्पूर्वाच्चोत्तरस्यां दशांशादधिकांशतः ॥ ११ ॥
दैर्घ्य एव ह्रसन्तीमे नानानदनदीयुताः ।
वे वर्ष आगेकी ओर फैले हुए हैं । दोनों ओरकी सीमा क्षार समुद्र है । वे दो हजार योजन विस्तारवाले हैं । वे क्रमशः एकसे एक पूर्वकी ओर दशांशमें बढ़ते गये हैं और उत्तरमें एक-एक दशांशका अन्तर चौड़ाईमें कम होता गया है । ये वर्ष अनेक नदियों तथा सरोवरोंसे युक्त हैं ॥ १०-११.५ ॥

इलावृताद्दक्षिणतो निषधो हेमकूटकः ॥ १२ ॥
हिमालयश्चेति त्रयः प्राग्विस्तीर्णाः सुशोभनाः ।
अयुतोत्सेधभाजस्ते योजनैः परिकीर्तिताः ॥ १३ ॥
हरिवर्षं किम्पुरुषं भारतं च यथातथम् ।
विभागात्कथयन्त्येते मर्यादागिरयस्त्रयः ॥ १४ ॥
इलावृतके दक्षिणमें निषध, हेमकूट और हिमालय नामक अत्यन्त सुन्दर तीन पर्वत पूर्वकी ओर फैले हुए हैं । वे दस हजार योजन ऊँचाईवाले कहे जाते हैं । हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारतवर्ष-इन तीनोंका विभागानुसार यथार्थ वर्णन किया गया है । ये तीनों पर्वत (निषध, हेमकूट और हिमालय) उक्त तीनों वर्षोंकी सीमा हैं । १२-१४ ॥

इलावृतात्पश्चिमतो माल्यवान्नामपर्वतः ।
पूर्वेण च ततः श्रीमान् गन्धमादनपर्वतः ॥ १५ ॥
आनीलनिषधं त्वेतौ चायतौ द्विसहस्रतः ।
योजनैः पृथुतां यातौ मर्यादाकारकौ गिरी ॥ १६ ॥
इलावृतके पश्चिममें माल्यवान् नामक पर्वत और पूर्वकी ओर श्रीयुक्त गन्धमादनपर्वत स्थित हैं । ये दोनों पर्वत नीलपर्वतसे लेकर निषधपर्वततक लम्बाईमें फैले हैं और चौड़ाईमें इनका विस्तार दो हजार योजन है । वे दोनों पर्वत केतुमाल और भद्राश्व-इन दोनों वर्षोंकी सीमा निश्चित करते हैं ॥ १५-१६ ॥

केतुमालाख्यभद्राश्ववर्षयोः प्रथितौ च तौ ।
मन्दरश्च तथा मेरुमन्दरश्च सुपार्श्वकः ॥ १७ ॥
कुमुदश्चेति विख्याता गिरयो मेरुपादकाः ।
योजनायुतविस्तारोन्नाहा मेरोश्चतुर्दिशम् ॥ १८ ॥
अवष्टम्भकरास्ते तु सर्वतोऽभिविराजिताः ।
मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व और कुमुद-ये चारों पर्वत सुमेरुगिरिके पादके रूपमें कहे गये हैं । दस-दस हजार योजन ऊँचाईवाले ये पर्वत सभी ओरसे सुमेरुको सहारा दिये हुए चारों दिशाओंमें विराजमान हैं ॥ १७-१८.५ ॥

एतेषु गिरिषु प्राप्ताः पादपाश्चूतजम्बुनी ॥ १९ ॥
कदम्बन्यग्रोध इति चत्वारः पर्वताः स्थिताः ।
केतवो गिरिराजेषु एकादशशतोच्छ्रयाः ॥ २० ॥
इन पर्वतोपर आम, जामुन, कदम्ब तथा बरगदके वृक्ष स्थित हैं, जो इन पर्वतराजोंकी ध्वजाओंके रूपमें विराजमान हैं । इनमेंसे सभी वृक्ष ग्यारह सौ योजन ऊँचाईवाले हैं, इतना ही इनकी शाखाओंका विस्तार है और ये सौ योजन मोटाईवाले हैं ॥ १९-२० ॥

तावद्विटपविस्ताराः शताख्यपरिणाहिनः ।
चत्वारश्च ह्रदास्तेषु पयोमध्विक्षुसज्जलाः ॥ २१ ॥
यदुपस्पर्शिनो देवा योगैश्वर्याणि विन्दते ।
इन पर्वतोंपर दूध, मधु, ईखके रस और सुस्वादु जलसे परिपूर्ण चार सरोवर हैं; जिनमें स्नान, आचमन आदि करनेवाले देवता योग-सम्बन्धी महाशक्तियाँ प्राप्त कर लेते हैं ॥ २१.५ ॥

देवोद्यानानि चत्वारि भवन्ति ललनासुखाः ॥ २२ ॥
नन्दनं चैत्ररथकं वैभ्राजं सर्वभद्रकम् ।
येषु स्थित्वामरगणा ललनायूथसंयुताः ॥ २३ ॥
उपदेवगणैर्गीतमहिमानो महाशयाः ।
विहरन्ति स्वतन्त्रास्ते यथाकामं यथासुखम् ॥ २४ ॥
वहाँ स्त्रियोंको सुख प्रदान करनेवाले नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राज और सर्वभद्र नामक चार देवोद्यान हैं । गन्धर्व आदि उपदेवताओंके द्वारा गायी जानेवाली महिमासे युक्त महाभाग देवतागण सुन्दर अंगनाओंके साथ वहाँ निवास करते हैं और स्वतन्त्र होकर सुखपूर्वक यथेच्छ विहार करते हैं ॥ २२-२४ ॥

मन्दरोत्सङ्गसंस्थस्य देवचूतस्य मस्तकात् ।
एकादशशतोच्छ्रायात्फलान्यमृतभाञ्जि च ॥ २५ ॥
गिरिकूटप्रमाणानि सुस्वादूनि मृदूनि च ।
तेषां विशीर्यमाणानां फलानां सुरसेन च ॥ २६ ॥
अरुणोदसवर्णेन अरुणोदा प्रवर्तते ।
नदी रम्यजला देवदैत्यराजप्रपूजिता ॥ २७ ॥
मन्दराचलके शिखरपर विराजमान ग्यारह सौ योजन ऊँचे दिव्य आम्र-वृक्षके फल अमृतमय पर्वत-शिखरके समान विशाल, अत्यन्त स्वादिष्ट तथा कोमल होते हैं । उस वृक्षके ऊँचे शिरोभागसे गिरकर विदीर्ण हुए उन फलोंके सुस्वादु एवं लाल वर्णवाले रससे 'अरुणोदा' नामक नदी बन गयी । रम्य जलवाली यह नदी बड़े-बड़े देवताओं तथा दैत्योंद्वारा पूजी जाती है ॥ २५-२७ ॥

अरुणाख्या महाराज वर्तते पापहारिणी ।
पूजयन्ति च तां देवीं सर्वकामफलप्रदाम् ॥ २८ ॥
नानोपहारबलिभिः कल्मषघ्न्यभयप्रदाम् ।
तस्याः कृपावलोकेन क्षेमारोग्यं व्रजन्ति ते ॥ २९ ॥
हे महाराज ! उसी पर्वतपर पापनाशिनी भगवती 'अरुणा' प्रतिष्ठित हैं । लोग अनेकविध उपहारों तथा बलिसे समस्त मनोरथ पूर्ण करनेवाली, पापोंका शमन करनेवाली तथा अभय प्रदान करनेवाली उन भगवतीका पूजन करते हैं । उनकी कृपादृष्टिमात्रसे वे कल्याण तथा आरोग्य प्राप्त कर लेते हैं ॥ २८-२९ ॥

आद्या मायातुलानन्ता पुष्टिरीश्वरमालिनी ।
दुष्टनाशकरी कान्तिदायिनीति स्मृता भुवि ॥ ३० ॥
अस्याः पूजाप्रभावेण जाम्बूनदमुदावहत् ॥ ३१ ॥
ये आद्या, माया, अतुला, अनन्ता, पुष्टि, ईश्वरमालिनी, दुष्टनाशकरी और कान्तिदायिनीइन नामोंसे भूमण्डलपर विख्यात हैं । इन्हींके पूजा-प्रभावसे जाम्बूनद नामक सुवर्ण उत्पन्न हुआ है ॥ ३०-३१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनलोकवर्णने
द्वीपवर्षविभेदवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनानोकवर्णने द्वीपवर्षीविभेदवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥


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