जिनका दर्शन पाकर इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृतिक गुणों में अपने कार्य करनेकी क्षमता आ जाती है, जिनका रूप अनन्त तथा अनादि है, जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपंचको धारण किये हुए हैंउन भगवान् संकर्षणके तत्त्वको कोई कैसे जान सकता है ? ॥ २ ॥
जिनमें यह सत्-असतूप सारा प्रपंच भास रहा है तथा स्वजनोंका चित्त आकर्षित करनेके लिये की हुई जिनकी वीरतापूर्ण लीलाको परम पराक्रमी मृगराज सिंहने आदर्श मानकर अपनाया है, उन उदारवीर्य भगवान् संकर्षणने हमपर बड़ी कृपा करके यह विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण किया है ॥ ३ ॥
यन्नाम श्रुतमनुकीर्तयेदकस्मा- दार्तो वा यदि पतितः प्रलम्भनाद्वा । हन्त्यंहः सपदि नृणामशेषमन्यं कं शेषाद्भगवत आश्रयेत्युमुक्षुः ॥ ४ ॥
यदि कोई दुःखी अथवा पतित मनुष्य अकस्मात् अथवा हँसी-हँसीमें उनके सुने हुए नामका एक बार भी उच्चारण कर लेता है तो वह दूसरे मनुष्योंके भी सभी पापोंको शीघ्र ही नष्ट कर देता है-ऐसे भगवान् शेषको छोड़कर मोक्षकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य अन्य किसका आश्रय ग्रहण करे ? ॥ ४ ॥
मूर्धन्यर्पितमणुवत्सहस्रमूर्ध्नो भूगोलं सगिरिसरित्समुद्रसत्त्वम् । आनन्त्यादनमितविक्रमस्य भूम्नः को वीर्याण्यधिगणयेत्सहस्रजिह्वः ॥ ५ ॥
पर्वत, नदी और समुद्र आदिसे पूर्ण यह सम्पूर्ण भूमण्डल उन हजार सिरोंवाले भगवान् शेषके एक मस्तकपर धूलके एक कणके समान स्थित है । वे अनन्त हैं, इसलिये उनके पराक्रमका कोई परिमाण नहीं है । किसीके हजार जीभे हों, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान्के पराक्रमकी गणना वह कैसे कर सकता है ? ॥ ५ ॥
एवंप्रभावो भगवाननन्तो दुरन्तवीर्योरुगुणानुभावः । मूले रसायाः स्थित आत्मतन्त्रो यो लीलया क्ष्मां स्थितये बिभर्ति ॥ ६ ॥
वास्तवमें उनका वीर्य, अतिशय गुण और प्रभाव असीम है । ऐसे प्रभावशाली भगवान् अनन्त रसातलके मूलमें अपनी ही महिमामें स्थित होकर स्वतन्त्र हैं और सम्पूर्ण लोकोंकी स्थितिके लिये पृथ्वीको अपनी लीलासे धारण किये हुए हैं ॥ ६ ॥
एता ह्येवेह तु नृभिर्गतयो मुनिसत्तम । गन्तव्या बहुशो यद्वद्यथाकर्मविनिर्मिताः ॥ ७ ॥ यथोपदेशं च कामान्सदा कामयमानकैः । एतावतीर्हि राजेन्द्र मनुष्यमृगपक्षिषु ॥ ८ ॥ विपाकगतयः प्रोक्ता धर्मस्य वशगास्तथा । उच्चावचा विसदृशा यथाप्रश्नं निबोधत ॥ ९ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! निरन्तर भोगोंकी कामना करनेवाले पुरुषोंकी अपने कर्मोंके अनुसार प्राप्त होनेवाली भगवान्की रची हुई ये ही गतियाँ कही गयी हैं । जैसा मुझे उपदेश प्राप्त हुआ, वैसा कह दिया । हे राजेन्द्र ! मनुष्यों, पशुओं और पक्षियोंके प्रवृत्तिधर्मक परिणामस्वरूप प्राप्त होनेवाली परस्पर विलक्षण ऊँच-नीच गतियाँ इतनी ही हैं । जो आपने पूछा था, उसे मैंने बता दिया और आगे भी सुनिये ॥ ७-९ ॥
नारद उवाच वैचित्र्यमेतल्लोकस्य कथं भगवता कृतम् । समानत्वे कर्मणां च तन्नो ब्रूहि यथातथम् ॥ १० ॥
नारदजी बोले-सभी प्राणियोंके कर्म समान होनेपर भी भगवान्ने उन लोगोंमें यह विभिन्नता क्यों की है ? इसे आप यथार्थरूपमें बताइये ॥ १० ॥
श्रीनारायण उवाच कर्तुः श्रद्धावशादेव गतयोऽपि पृथग्विधाः । त्रिगुणत्वात्सदा तासां फलं विसदृशं त्विह ॥ ११ ॥ सात्त्विक्या श्रद्धया कर्तुः सुखित्वं जायते सदा । दुःखित्वं च तथा कर्तू राजस्या श्रद्धया भवेत् ॥ १२ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] कर्ताकी श्रद्धाके सात्विक, राजस और तामस-इन तीन भिन्न-भिन्न गुणों के कारण गतियाँ भी अलग-अलग होती हैं और इसीलिये उनका फल भी भिन्न-भिन्न होता है ॥ ११ ॥
सात्त्विक श्रद्धाके द्वारा कर्ताको सदा सुखकी प्राप्ति होती है, राजसी श्रद्धासे कर्ताको दुःख मिलता है और तामसी श्रद्धाके प्रभावसे कर्ता दुःख और मूढ़ता दोनोंका उदय होता है । इस प्रकार श्रद्धाओंके तारतम्यसे फलोंमें भी विचित्रता बतायी गयी है । १२-१३ ॥
अनाद्यविद्याविहितकर्मणां परिणामजाः । सहस्रशः प्रवृत्तास्तु गतयो द्विजपुङ्गव ॥ १४ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! अनादि मायाके बनाये हुए कौके परिणामस्वरूप हजारों प्रकारकी गतियाँ प्रवृत्त होती हैं । हे द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं उन गतियोंके भेदोंका विस्तारसे वर्णन करूँगा ॥ १४ ॥
तद्भेदान्वर्णयिष्यामि प्राचुर्येण द्विजोत्तम । त्रिजगत्या अन्तराले दक्षिणस्यां दिशीह वै ॥ १५ ॥ भूमेरधस्तादुपरि त्वतलस्य च नारद । अग्निष्वात्ताः पितृगणा वर्तन्ते पितरश्च ह ॥ १६ ॥ वसन्ति यस्यां स्वीयानां गोत्राणां परमाशिषः । सत्याः समाधिना शीघ्रं त्वाशासानाः परेण वै ॥ १७ ॥
हे नारद ! त्रिलोकीके भीतर दक्षिण दिशामें अग्निष्वात्ता नामक पितृगण तथा अन्य पितर निवास करते हैं । यह स्थान पृथ्वीसे नीचे तथा अतल लोकसे ऊपर है । सत्यस्वरूप ये पितृगण सदा परम समाधिसे युक्त होकर अपने वंशजोंके परम कल्याणकी आशा करते हुए यहाँ रहते हैं ॥ १५-१७ ॥
पितृराजोऽपि भगवान् सम्परेतेषु जन्तुषु । विषयं प्रापितेष्वेषु स्वकीयैः पुरुषैरिह ॥ १८ ॥ सगणो भगवत्प्रोक्ताज्ञापरो दमधारकः । यथाकर्म यथादोषं विदधाति विचारदृक् ॥ १९ ॥
वहाँ पितृराज भगवान् यम अपने गणोंके साथ विराजमान रहते हैं । सम्यक् विचार दृष्टिवाले तथा दण्डधारी वे यमराज भगवान्की कही गयी आज्ञाका पालन करते हुए अपने दूतोंद्वारा वहाँ लाये गये मृत प्राणियोंके लिये उनके कर्मों तथा दोषोंके अनुसार वैसे ही फलका विधान करते हैं ॥ १८-१९ ॥
स्वान्गणान्धर्मतत्त्वज्ञान्सर्वानाज्ञाप्रवर्तकान् । सदा प्रेरयति प्राज्ञो यथादेशनियोजितान् ॥ २० ॥
वे परम ज्ञानी यमराज धर्मतत्त्वको जाननेवाले, यथास्थान नियुक्त किये गये तथा आज्ञाकारी अपने सभी गणोंको सदा प्रेरित करते रहते हैं ॥ २० ॥
नरकानेकविंशत्या संख्यया वर्णयन्ति हि । अष्टाविंशमितान्केचित्ताननुक्रमतो ब्रुवे ॥ २१ ॥
संख्यामें कुल इक्कीस नरक बताये गये हैं । कुछ लोग नरकोंकी संख्या अट्ठाईस बताते हैं । मैं क्रमशः उनका वर्णन कर रहा हूँ ॥ २१ ॥
तामिस्र अन्धतामिस्रो रौरवोऽपि तृतीयकः । महारौरवनामा च कुम्भीपाकोऽपरो मतः ॥ २२ ॥ कालसूत्रं तथा चासिपत्रारण्यमुदाहृतम् । सूकरस्य मुखं चान्धकूपोऽथ कृमिभोजनः ॥ २३ ॥ संदंशस्तप्तमूर्तिश्च वज्रकण्टक एव च । शाल्मली चाथ देवर्षे नाम्ना वैरतणी तथा ॥ २४ ॥ पूयोदः प्राणरोधश्च तथा विशसनं मतम् । लालाभक्षः सारमेयादनमुक्तमतः परम्॥ २५ ॥ अवीचिरप्ययः पानं क्षारकर्दम एव च । रक्षोगणाख्यसम्भोजः शूलप्रोतोऽप्यतः परम् ॥ २६ ॥ दन्दशूकोऽवटारोधः पर्यावर्तनकः परम् । सूचीमुखमिति प्रोक्ता अष्टाविंशतिनारकाः ॥ २७ ॥ इत्येते नारका नाम यातनाभूमयः पराः । कर्मभिश्चापि भूतानां गम्याः पद्मजसम्भव ॥ २८ ॥
हे देवर्षे ! तामित्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तमूर्ति, वज्रकण्टकशाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि, अय:पान, क्षारकर्दम, रक्षोगणसंभोज, शूलप्रोत, दंदशूक, अवटारोध, पर्यावर्तनक और सूचीमुख-ये अट्ठाईस नरक बताये गये हैं । हे ब्रह्मापुत्र ! इन नामोंवाले ये नरक यातना भोगनेके परम स्थान हैं; जहाँ प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार जाते हैं ॥ २२-२८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवतेमहापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामष्टमस्कन्धे नरकस्वरूपवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायामष्टमस्कन्धे नरकस्वरूपवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥