नारदजी बोले-हे सनातन मुने ! विविध प्रकारकी यातनाओंकी प्राप्ति करानेवाले कर्मोंके भेद कितने प्रकारके होते हैं । मैं इनके विषयमें भलीभांति सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥
श्रीनारायण उवाच यो वै परस्य वित्तानि दारापत्यानि चैव हि । हरते स हि दुष्टात्मा यमानुचरगोचरः ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-जो पुरुष दुसरेके धन, स्त्री और सन्तानका हरण करता है, वह दुष्टात्मा यमराजके दूतोंद्वारा पकड़कर ले जाया जाता है ॥ २ ॥
कालपाशेन सम्बद्धो याम्यैरतिभयानकैः । तामिस्रनामनरके पात्यते यातनास्पदे ॥ ३ ॥
अत्यन्त भयानक रूपवाले यमदूत उसे कालपाशमें बाँधकर ले जाते हैं और यातना भोगनेके भयावह स्थानस्वरूप तामिस्र नामक नरकमें गिरा देते हैं ॥ ३ ॥
हाथमें रस्सी लिये हुए यमदूत उस प्राणीको पीटते हैं, तरह-तरहके दण्ड देते हैं और उसे डराते हैं । इस प्रकार वह जीव महान् क्लेश पाता है । हे नारद । वह नारकी विवश होकर एकाएक मूञ्छित हो जाता है ॥ ४.५ ॥
यः पतिं वञ्चयित्वा तु दारादीनुपभुज्यति ॥ ५ ॥ अन्धतामिस्रनरके पात्यते यमकिङ्करैः । पात्यमानो यत्र जन्तुर्वेदनापरवान्भवेत् ॥ ६ ॥ नष्टदृष्टिर्नष्टमतिर्भवत्येवाविलम्बतः । वनस्पतिर्भज्यमानमूलो यद्वद्भवेदिह ॥ ७ ॥ तस्मादप्यन्धतामिस्रनाम्ना प्रोक्तः पुरातनैः ।
इसी प्रकार जो व्यक्ति किसीके पतिको धोखा देकर उसकी स्त्रीके साथ भोग करता है, वह यमदूतोंके द्वारा अन्धतामिस्त्र नामक नरकमें गिराया जाता है । जहाँ गिराये जाते हुए जीवको असह्य वेदना होती है । वह दृष्टिहीन हो जाता है, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है और वह शीघ्र ही जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति नरकमें गिर पड़ता है । इसीलिये प्राचीन पुरुषोंने इसे अन्धतामिस्र नामकी संज्ञा दी है ॥ ५-७.५ ॥
एतन्ममाहमिति यो भूतद्रोहेण केवलम् ॥ ८ ॥ पुष्णाति प्रत्यहं स्वीयं कुटुम्बं कार्यलम्पटः । एतद्विहाय चात्रैव स्वाशुभेन पतेदिह ॥ ९ ॥ रौरवे नाम नरके सर्वसत्त्वभयावहे । इह लोकेऽमुना ये तु हिंसिता जन्तवः पुरा ॥ १० ॥ त एव रुरवो भूत्वा परत्र पीडयन्ति तम् । तस्माद्रौरवमित्याहुः पुराणज्ञा मनीषिणः ॥ ११ ॥
यह शरीर ही मैं हूँ और ये [धन, स्त्री, पुत्रादि] मेरे हैं-ऐसा सोचकर जो अन्य प्राणियोंसे द्रोह करता हुआ केवल अपने परिवारके भरण-पोषणमें प्रतिदिन लगा रहता है, वह स्वार्थलोलुप प्राणी शरीर छोड़कर अपने अशुभ कौके प्रभावसे जीवोंको अत्यधिक भय देनेवाले इस रौरव नामक नरकमें गिरता है; और इस व्यक्तिके द्वारा जिन जन्तुओंकी पहले इस जगत्में हिंसा हुई रहती है, वे प्राणी भयंकर रुरु नामक जन्तु बनकर उसे यहाँ कष्ट देते हैं । इसीलिये पुराणवेत्ता मनीषी इसे रौरव नरक कहते हैं । पुरातन पुरुषोंने इस रुरु नामक जन्तुको सर्पसे भी अधिक क्रूर बतलाया है । ८-११ ॥
रुरुः सर्पादतिक्रूरो जन्तुरुक्तः पुरातनैः । एवं महारौरवाख्यो नरको यत्र पूरुषः ॥ १२ ॥ यातनां प्राप्यमाणो हि यः परं देहसम्भवः । क्रव्यादा नाम रुरवस्तं क्रव्ये घातयन्ति च ॥ १३ ॥
इसी प्रकार महारौरव नामक नरक भी है, जहाँ यातना पानेके लिये प्राणी दूसरा सूक्ष्म शरीर धारण करके जाता है । वहाँ कच्चा मांस खानेवाले रुरु नामक जन्तु उस जीवके मांसपर चोट पहुँचाते रहते हैं ॥ १२-१३ ॥
य उग्रः पुरुषः क्रूरः पशुपक्षिगणानपि । उपरन्धयते मूढो याम्यास्तं रन्धयन्ति च ॥ १४ ॥ कुम्भीपाके तप्ततैले उपर्यपि च नारद । यावन्ति पशुरोमाणि तावद्वर्षसहस्रकम् ॥ १५ ॥
हे नारद ! जो अत्यन्त क्रोधी, निर्दयी तथा मूर्ख पुरुष पशु-पक्षियोंको मारकर उनका मांस पकाता है, यमराजके दूत उसे कुम्भीपाक नरकमें खौलते हुए तेलमें डालकर उस पशुके शरीरमें जितने रोम होते हैं, उतने हजार वर्षांतक पकाते हैं ॥ १४-१५ ॥
पितृविप्रब्राह्मणध्रुक्कालसूत्रे स नारके । अग्न्यर्काभ्यां तप्यमाने नारकी विनिवेशितः ॥ १६ ॥ क्षुत्पिपासादह्यमानोऽन्तःशरीरस्तथा बहिः । आस्ते शेते चेष्टते चावतिष्ठति च धावति ॥ १७ ॥
जो पिता, विप्र तथा ब्राह्मणसे द्रोह करता है, वह नारकी मनुष्य अग्नि तथा सूर्यसे सदा तप्त रहनेवाले कालसूत्र नामक नरकमें डाला जाता है । वहाँपर भूख और प्याससे पीड़ित हो जाता है और भीतर तथा बाहरसे जलते हुए शरीरवाला वह प्राणी व्याकुल होकर कभी बैठता है, कभी सोता है, कभी नानाविध चेष्टाएँ करता है, कभी उठकर खड़ा हो जाता है और कभी दौड़ने लगता है ॥ १६-१७ ॥
निजवेदपथाद्यो वै पाखण्डं चोपयाति च । अनापद्यपि देवर्षे तं पापं पुरुषं भटाः ॥ १८ ॥ असिपत्रवनं नाम नरकं वेशयन्ति च । कशया प्रहरन्त्येव नारकी तद्गतस्तदा ॥ १९ ॥ इतस्ततो धावमान उत्तालमतिवेगतः । असिपत्रैश्छिद्यमान उभयत्र च धारभिः ॥ २० ॥ संछिद्यमानसर्वाङ्गो हाहतोऽस्मीति मूर्च्छितः । वेदनां परमां प्राप्तः पतत्येव पदे पदे ॥ २१ ॥ स्वधर्मानुगतं भुङ्क्ते पाखण्डफलमल्पधीः ।
हे देवर्षे ! विपत्तिका समय न रहनेपर भी जो अपने वेदविहित मार्गसे हटकर पाखण्डका आश्रय लेता है, उस पापी पुरुषको यमदूत असिपत्रवन नामक नरकमें डाल देते हैं । जब वे उसके ऊपर कोड़ेसे प्रहार करते हैं, तब वहाँ डाला गया वह नारकी जीव उतावला होकर अत्यन्त वेगसे इधर-उधर भागने लगता है, जिससे दोनों ओर तीखी धारोंवाले असिपत्रोंसे उसका शरीर छिद जाता है । छिदे हुए सभी अंगोंवाला वह जीव 'हाय मैं मारा गया'-ऐसा कहते हुए मूर्छित हो जाता है । इस प्रकार वह अल्पबुद्धि प्राणी वहाँ असीम कष्ट भोगते हुए पद-पदपर गिरता है और अपने किये हुए कर्मके अनुसार उस पाखण्डका फल भोगता है ॥ १८-२१.५ ॥
यो राजा राजपुरुषो दण्डयेद्वै त्वधर्मतः ॥ २२ ॥ द्विजे शरीरदण्डं च पापीयान्नारकी च सः । नरके सूकरमुखे पात्यते यमकिङ्करैः ॥ २३ ॥ विनिष्यिष्टावयवको बलवद्भिस्तथेक्षुवत् । आर्तस्वरेण स्वनयन्मूर्च्छितः कश्मलङ्गतः ॥ २४ ॥
जो राजा अथवा राजपुरुष अधर्मका सहारा लेकर प्रजाको दण्डित करता है और ब्राह्मणको शारीरिक दण्ड देता है, वह नारकी तथा महापापी मनुष्य यमदूतोंके द्वारा सूकरमुख नामक नरकमें गिराया जाता है । वहाँपर बलवान् यमदूतोंके द्वारा ईखकी भाँति पेरा जाता हुआ वह जीव सभी अंगोंके पिस जानेसे वेदनाके कारण आर्तस्वर करता हुआ मूच्छित हो जाता है और महान् क्लेश प्राप्त करता है । इस प्रकार अनेक प्रकारसे पीड़ित होता हुआ जीव बहुत पीड़ा पाता है ॥ २२-२४ ॥
स पीड्यमानो बहुधा वेदनां यात्यतीव हि । विविक्तपरपीडो योऽप्यविविक्तपरव्यथाम् ॥ २५ ॥ ईश्वराङ्कितवृत्तीनां व्यथामाचरते स्वयम् । स चान्धकूपे पतति तदभिद्रोहयन्त्रिते ॥ २६ ॥ तत्रासौ जन्तुभिः क्रूरैः पशुभिर्मृगपक्षिभिः । सरीसृपैश्च मशकैर्यूकामत्कुणजातिभिः ॥ २७ ॥ मक्षिकाभिश्च तमसि दन्दशूकैश्च पीड्यते । परिक्रामति चैवात्र कुशरीरे च जन्तुवत् ॥ २८ ॥
जो पुरुष इस लोकमें खटमल आदि जीवोंकी हिंसा करता है, वह उनसे द्रोह करनेके कारण अन्धकूप नामक नरकमें गिरता है । क्योंकि स्वयं परमात्माने ही रक्तपानादि उनकी वृत्ति बना दी है और उसके कारण उन्हें दूसरोंको कष्ट पहुँचानेका ज्ञान भी नहीं है, किंतु ईश्वरके द्वारा विधि-निषेधपूर्वक बनायी गयी वृत्तियोंवाले मनुष्योंको दूसरोंके कष्टका ज्ञान है । इसीलिये वह प्राणी पशु, पक्षी, मृग, सर्प, मच्छर, जूं, खटमल, मक्खी, दन्दशूक आदि क्रूर जन्तुओंके द्वारा अन्धकूप नरकमें पीडित किया जाता है । वह प्राणी भयानक रोगसे ग्रस्त शरीरमें रहनेवाले जीवकी भांति व्यथित होकर इस नरकमें चक्कर काटता रहता है ॥ २५-२८ ॥
जो कुछ भी धन आदि प्राप्त हो उसे शास्त्रविहित पंचयज्ञोंमें विभक्त किये बिना ही जो भोजन करता है, उसे काकतुल्य समझना चाहिये । यमराजके अत्यन्त निर्मम दूत उस पापी पुरुषको उसके दुष्कर्मोके फलस्वरूप कृमिभोजन नामक अधम नरकमें गिराते हैं । इस प्रकार जो अतिथियोंको दिये बिना ही भोजन करता है । वह एक लाख योजन विस्तारवाले भयंकर कृमिकुण्डमें कीड़ा होकर नरकके कीड़ोंद्वारा खाया जाता हुआ वहीं पड़ा रहता है ॥ २९-३१.५ ॥
यस्तु स्तेयेन च बलाद्धिरण्यं रत्नमेव च ॥ ३२ ॥ ब्राह्मणस्यापहरति अन्यस्यापि च कस्यचित् । अनापदि च देवर्षे तममुत्र यमानुगाः ॥ ३३ ॥ अयस्मयैरग्निपिण्डैः सदृशैर्नित्कुषन्ति च ।
हे देवर्षे ! विपत्तिकाल न होनेपर भी जो प्राणी ब्राह्मण अथवा अन्य किसी भी वर्णके लोगोंसे चोरीसे या बलात् स्वर्ण या रत्न छीन लेता है, उसे मरनेपर यमराजके दूत संदंश नामक नरकमें गिराते हैं और अग्निके समान सन्तप्त लोहपिण्डोंसे उसे दागते हैं तथा संडसीसे उसकी खाल नोचते हैं ॥ ३२-३३.५ ॥
योऽगम्यां योषितं गच्छेदगम्यं पुरुषं च या ॥ ३४ ॥ तावमुत्रापि कशया ताडयन्तो यमानुगाः । तिग्मया लोहमय्या च सूर्म्याप्यालिङ्गयन्ति तम् ॥ ३५ ॥ तां चापि योषितं सूर्म्यालिङ्गयन्ति यमानुगाः ।
जो पुरुष अगम्या स्त्रीके साथ अथवा जो स्त्री अगम्य पुरुषके साथ समागम करती है, उन्हें यमदूत तप्तसूर्मि (मूर्ति) नामक नरकमें गिराकर कोड़ेसे पीटते हैं । पुनः वे यमदूत लोहेकी बनी प्रज्वलित स्त्रीमूर्तिसे पुरुषको तथा लौहनिर्मित जलती हुई पुरुषमूर्तिसे स्त्रीको आलिंगित कराते हैं ॥ ३४-३५.५ ॥
जो घोर पापी मनुष्य जिस किसीके साथ व्यभिचार करता है, उसके मरनेपर यमराजके दूत उसे शाल्मली नामक नरकमें वज़के समान कठोर काँटोंवाले उस लोहमय शाल्मली (सेमर)-के वृक्षपर चढ़ाते हैं । ३६-३७ ॥
राजन्या राजपुरुषा ये वा पाखण्डवर्तिनः । धर्मसेतुं विभिन्दन्ति ते परेत्य गता नराः ॥ ३८ ॥ वैतरण्यां पतन्त्येव भिन्नमर्यादपातकाः । नद्यां निरयदुर्गस्य परिखायां च नारद ॥ ३९ ॥ यादोगणैः समन्तात्तु भक्ष्यमाणा इतस्ततः । नात्मना वियुजन्त्येव नासुभिश्चापि नारद ॥ ४० ॥ स्वीयेन कर्मपाकेनोपतपन्ति च सर्वतः । विण्मूत्रपूयरक्तैश्च केशास्थिनखमांसकैः ॥ ४१ ॥ मेदोवसासंयुतायां नद्यामुपपतन्ति ते ।
जो राजा या राजपुरुष पाखण्डी बनकर धर्मकी मर्यादाको तोड़ते हैं, वे इस मर्यादाभंगरूपी पापके कारण मरनेपर वैतरणी नामक नरकमें गिरते हैं । हे नारद ! नरकरूपी दुर्गकी खाईके समान प्रतीत होनेवाली उस वैतरणी नदीमें रहनेवाले जीव-जन्तु उन्हें चारों ओरसे काटते हैं और वे व्याकुल होकर इधर-उधर भागते रहते हैं । हे नारद ! उनका शरीर नहीं छूटता तथा उनके प्राण भी नहीं निकलते और वे अपने पापकर्मके कारण सदा सन्तप्त रहते हैं । मल, मूत्र, पीब, रक्त, केश, अस्थि, नख, चर्बी, मांस और मज्जा आदिसे भरी पड़ी उस नदीमें गिरे हुए वे छटपटाते रहते हैं ॥ ३८-४१.५ ॥
जो लोग सदाचारके नियमोंसे विमुख तथा शौचाचारसे रहित होकर शूद्राओंके पति बन जाते हैं और निर्लज्जतापूर्वक पशुवत् आचरण करते हैं, उन्हें अत्यन्त कष्टप्रद गतियाँ प्राप्त होती हैं । यमराजके दुराग्रही दूत उन्हें विष्ठा, मूत्र, कफ, रक्त और मलसे युक्त पूयोद नामक नरकमें गिराते हैं; जहाँ ये पापी इन्हीं वस्तुओंको खाते हैं । ४२-४४ ॥
जो द्विजातिगण कुत्ते और गधे आदिको पालते हैं, आखेट करनेमें सदा रुचि रखते हैं तथा शास्वके विपरीत मृगोंका वध करते हैं; उन दुनौतिपूर्ण आचरणवाले अधम प्राणियोंको मरणोपरान्त यमदूत [प्राणरोध नामक नरकमें गिराकर] लक्ष्य बनाकर बाणोंसे बेधते हैं ॥ ४५-४६ ॥
जो दम्भी और मनुष्योंमें अधम लोग अभिमानपूर्वक यज्ञोंका आयोजन करके उसमें पशुओंकी हिंसा करते हैं, उन्हें इस लोकसे जानेपर यमदूत विशसन नामक नरकमें गिराकर कोड़ोंके असहनीय प्रहारसे उनको अत्यधिक पीडा पहुँचाते हैं । ४७.५ ॥
यो भार्यां च सवर्णां वै द्विजो मदनमोहितः ॥ ४८ ॥ रेतः पाययति मूढोऽमुत्र तं यमकिङ्कराः । रेतःकुण्डे पातयन्ति रेतः सम्पाययन्ति च ॥ ४९ ॥
जो मूर्ख द्विज कामसे मोहित होकर सवर्णा भार्याको वीर्यपान कराता है, यमके दूत उसे वीर्यके कुण्डमें [लालाभक्ष नामक नरकमें] गिराते हैं और वीर्य ही पिलाते हैं । ४८-४९ ॥
ये दस्यवोऽग्निदाश्चैव गरदा सार्थघातकाः । ग्रामान्सार्थान्विलुम्पन्ति राजानो राजपूरुषाः ॥ ५० ॥ तान्परेतान्यमभटा नयन्ति श्वानकादनम् । विंशत्यथिकसंख्याताः सारमेया महाद्भुताः ॥ ५१ ॥ सप्तशत्या समाख्याता रभसं खादयन्ति ते । सारमेयादनं नाम नरकं दारुणं मुने । अतः परं प्रवक्ष्यामि अवीचिप्रभुखान्मुने ॥ ५२ ॥
जो चोर, राजा अथवा राजपुरुष आग लगाते हैं, विष देते हैं, दूसरोंकी सम्पत्ति नष्ट करते हैं, गाँवों तथा धनिकोंको लूटते हैं, उनके मरनेपर यमराजके दूत उन्हें सारमेयादन नामक नरकमें ले जाते हैं । वहाँ सात सौ बीस अत्यन्त विचित्र सारमेय (कुत्ते) बताये गये हैं । वे बड़े वेगसे उन्हें नोच-नोचकर खाते हैं । हे मुने ! वह सारमेयादन नामक नरक बड़ा ही भयानक है । हे मुने ! अब इसके पश्चात् मैं अवीचि आदि प्रमुख नरकोंका वर्णन करूँगा ॥ ५०-५२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामष्टमस्कन्धे नरकप्रदपातकवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
इति श्रीमदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्खयां संहितायामष्टमस्कन्धे नरकप्रदपातकवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥