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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
अष्टमः स्कन्धः
त्रयोविंशोऽध्यायः

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अवशिष्टनरकवर्णनम् -
नरक प्रदान करनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन -


श्रीनारायण उवाच
ये नराः सर्वदा साक्ष्ये अनृतं भाषयन्ति च ।
दाने विनिमयेऽर्थस्य देवर्षे पापबुद्धयः ॥ १ ॥
ते प्रेत्यामुत्र नरके अवीच्याख्येऽतिदारुणे ।
योजनानां शतोच्छ्रायाद्‌‍गिरिमूर्ध्नः पतन्ति हि ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-हे देवर्षे ! जो दान और धनके आदान-प्रदानमें साक्षी बनकर सदा झूठ बोलते हैं, वे पापबुद्धि मनुष्य मरनेपर सौ योजन ऊँचे पर्वत-शिखरसे अवीचि नामक परम भयंकर नरकमें गिरते हैं ॥ १-२ ॥

अनाकाशेऽधःशिरसस्तदवीचीतिनामके ।
यत्र स्थलं दृश्यते च जलवद्वीचिसंयुतम् ॥ ३ ॥
अवीचिमत्ततस्तत्र तिलशश्छिन्नविग्रहः ।
म्रियते नैव देवर्षे पुनरेवाऽवरोप्यते ॥ ४ ॥
इस अवीचि नामक आधारशून्य नरकमें प्राणियोंको नीचा सिर किये हुए गिरना पड़ता है, जहाँ स्थलभाग लहरयुक्त जलकी भाँति दिखायी पड़ता है । इसीलिये इसे अवीचि कहते हैं । हे देवर्षे ! वहाँ पत्थर-ही-पत्थर बिछे रहते हैं । उनपर गिरनेसे प्राणियोंका शरीर तिल-तिल करके कट जाता है । वे मरते भी नहीं और उसीमें उन्हें बार-बार गिराया जाता है ॥ ३-४ ॥

यो वा द्विजो वा राजन्यो वैश्यो वा ब्रह्मसम्भव ।
सोमपीथस्तत्कलत्रं सुरां वा पिबतीव हि ॥ ५ ॥
प्रमादतस्तु तेषां वै निरये परिपातनम् ।
कुर्वन्ति यमदूतास्ते पानं कार्ष्णायसो मुने ॥ ६ ॥
वह्निना द्रवमाणस्य नितरां ब्रह्मसम्भव ।
हे ब्रह्मपुत्र ! जो ब्राह्मण अथवा ब्राह्मणी अथवा व्रतमें स्थित अन्य कोई भी प्रमादवश मद्यपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान* करता है, उसका अय:पान नामक नरकमें पतन होता है । हे मुने ! हे ब्रह्मापुत्र ! यमराजके दूत वहाँपर उन्हें आगसे अत्यन्त सन्तप्त तथा पिघला हुआ लोहा पिलाते हैं । ५-६.५ ॥

सम्भावनेन स्वस्यैव योऽधमोऽपि नराधमः ॥ ७ ॥
विद्याजन्मतपोवर्णाश्रमाचारवतो नरान् ।
वरीयसोऽपि न बहु मन्यते पुरुषाधमः ॥ ८ ॥
स नीयते यमभटैः क्षारकर्दमनामके ।
निरयेऽर्वाक्‌शिरा घोरा दुरन्तयातनाश्नुते ॥ ९ ॥
हे मुने ! जो नराधम स्वयं निम्न श्रेणीमें उत्पन्न हुआ है, किंतु अभिमानवश विद्या, जन्म, तप, आचार, वर्ण या आश्रममें अपनेसे श्रेष्ठ पुरुषोंका यथोचित सम्मान नहीं करता; वह महान् अधम मनुष्य यमदूतोंके द्वारा क्षारकर्दम नामक नरकमें सिर नीचा किये हुए ले जाया जाता है; वहाँपर वह घोर कष्टप्रद यातनाएँ भोगता है ॥ ७-९ ॥

ये वै नरा यजन्त्यन्यं नरमेधेन मोहिताः ।
स्त्रियोऽपि वा नरपशुं खादन्त्यत्र महामुने ॥ १० ॥
पशवो निहितास्ते तु यमसद्यनि सङ्गताः ।
सौनिका इव ते सर्वे विदार्य शितधारया ॥ ११ ॥
असृक्पिबन्ति नृत्यन्ति गायन्ति बहुधा मुने ।
यथेह मांसभोक्तारः पुरुषादा दुरासदाः ॥ १२ ॥
हे महामुने ! जो मनुष्य मोहग्रस्त होकर नरमेधके द्वारा अन्य [यक्ष, राक्षस आदि]-का पूजन करते हैं अथवा जो स्त्रियाँ भी नरपशुका मांस खाती हैं । वे रक्षोगणसम्भोज नामक नरकमें गिरते हैं । उनके द्वारा इस लोकमें मारे गये वे पशु यमपूरीमें पहलेसे ही कसाईके रूपमें विद्यमान रहते हैं । हे मुने ! जिस प्रकार इस लोकमें पशुओंका मांस खानेवाले पुरुष आनन्दित होते हैं, उसी प्रकार वे पशु भी निर्मम कसाईका रूप धारणकर तेज धारवाले अस्त्रसे उनके शरीरको काटकर उससे निकले रक्तको पीते हैं और अनेक प्रकारसे नाचते तथा गाते हैं ॥ १०-१२ ॥

अनागसोऽपि येऽरण्ये ग्रामे वा ब्रह्मपुत्रक ।
वैश्रम्भकैरुपसृतान्विश्रम्भय्यजिजीविषून् ॥ १३ ॥
शूलसूत्रादिषु प्रोतान्क्रीडनोत्कारकानिव ।
पातयन्ति च ते प्रेत्य शूलपाते पतन्ति ह ॥ १४ ॥
शूलादिषु प्रोतदेहाः क्षुत्तृड्भ्यां चातिपीडिताः ।
तिग्मतुण्डैः कङ्कबकैरितश्चेतश्च ताडिताः ॥ १५ ॥
हे ब्रह्मपुत्र ! जो लोग ग्राममें अथवा जंगलमें रहनेवाले निरपराध प्राणियोंको-जो जीनेकी इच्छा रखते हैं-उन्हें विविध उपायोंसे विश्वासमें लेकर तथा फुसलाकर अपने पास बुला लेते हैं और अपने मनोरंजनके लिये उनके शरीरमें काँटे चुभाकर अथवा रस्सी आदिमें बाँधकर पीडा पहुँचाते हैं, वे मरनेपर शूलपात (शूलप्रोत) नामक नरकमें गिरते हैं । उनके शरीरमें शूल आदि चुभाये जाते हैं, वे भूख तथा प्याससे अत्यन्त पीड़ित होते हैं और तीखी चोंचवाले कंक, बक आदि पक्षी उन्हें जहाँ-तहाँ नोचते हैं । उस समय कष्ट भोग रहे वे प्राणी अपने पूर्वकृत पापोंका बार-बार स्मरण करते हैं ॥ १३-१५ ॥

पीडिता आत्मशमलं बहुधा संस्मरन्ति हि ।
ये भूतानुद्वेजयन्ति नरा उल्बणवृत्तयः ॥ १६ ॥
यथा सर्पादिकास्तेऽपि नरके निपतन्ति हि ।
दन्दशूकाभिधाने च यत्रोत्तिष्ठन्ति सर्वतः ॥ १७ ॥
पञ्चाननः सप्तमुखा ग्रसन्ति नरकागतान् ।
यथा बिलेशया विप्र क्रूरबुद्धिसमन्विताः ॥ १८ ॥
हे विप्र ! उग्र स्वभाववाले जो मनुष्य सर्पोकी भाँति प्राणियोंको उद्विग्न करते हैं, वे मरणोपरान्त दन्दशूक नामक नरकमें पड़ते हैं, जहाँपर पाँच तथा सात मुखोंवाले क्रूरस्वभाव सर्प मरनेके बाद इस नरकमें पहुंचे हुए प्राणियोंको चूहेकी भाँति निगल जाते हैं ॥ १६-१८ ॥

येऽवटेषु कुसूलादिगुहादिषु निरुन्धते ।
तानमुत्रोद्यतकराः कीनाशपरिसेवकाः ॥ १९
तेष्वेवोपविशित्वा च सगरेण च वह्निना ।
धूमेन च निरुन्धन्ति पापकर्मरतान्नरान् ॥ २० ॥
जो अन्धकूपोंमें, प्रकाशरहित घर आदिमें अथवा अन्धकारयुक्त गुफाओंमें प्राणियोंको बन्द कर देते हैं, उन पापकर्मपरायण लोगोंको यमराजके दूत मरनेके उपरान्त [अवटारोध नामक नरकमें गिराते हैं और] उनका हाथ पकड़कर विषैली अग्निके धुएँसे भरे हुए उसी प्रकारके अँधेरे स्थानोंमें प्रवेश कराकर उन्हें बन्द कर देते हैं ॥ १९-२० ॥

योऽतिथीन्समयप्राप्तान्दिधक्षुरिव चक्षुषा ।
पापेनेहालोकयेच्च स्वयं गृहपतिर्द्विजः ॥ २१ ॥
तस्यापि पापदृष्टेर्हि निरये यमकिङ्कराः ।
अक्षिणी वज्रतुण्डा ये कङ्काः काकवटादयः ॥ २२ ॥
गृध्राः क्रूरतराश्चापि प्रसह्योत्पाटयन्ति हि ।
जो द्विज स्वयं गृहका स्वामी होकर अपने यहाँ समयपर आये हुए अतिथियोंको पापपूर्ण नेत्रसे इस प्रकार देखता है, मानो उसे भस्म ही कर डालेगा, मरनेपर उस पापदृष्टिवाले पुरुषको यमराजके सेवक पर्यावर्तन नामक नरकमें गिराते हैं । वहाँपर वज्रतुल्य चोंचोंवाले कंक, काक, वट, गीध आदि महान् क्रूर पक्षी बलपूर्वक उसकी आँखें निकाल लेते हैं । २१-२२.५ ॥

य आढ्याभिमतिर्याति अहङ्कृत्यातिगर्वितः ॥ २३ ॥
तिर्यक्प्रेक्षण एवात्राभिविशङ्‌की नराधमः ।
चिन्तयार्थस्य सर्वत्रायतिव्ययस्वरूपया ॥ २४ ॥
शुष्यद्धृदयवक्त्रश्च निर्वृतिं नैव गच्छति ।
ग्रहवद्‍रक्षते चार्थं स प्रेतो यमकिङ्करैः ॥ २५ ॥
सूचीमुखे च नरके पात्यते निजकर्मणा ।
वित्तग्रहं च पुरुषं वायका इव याम्यकाः ॥ २६ ॥
किङ्कराः सर्वतोऽङ्गेषु सूत्रैः परिवयन्ति हि ।
जो अधम मनुष्य अपनेको वैभवसम्पन्न मानकर अभिमानसे अत्यन्त गर्वित होकर दूसरोंको बक्रदृष्टिसे देखता है, जो सबके प्रति शंकाभाव रखता है, जो अपने चित्तमें सदा धन कमाने किंतु व्यय न करनेकी ही भावना रखता है तथा ग्रहकी भाँति सदा धनकी रक्षा करता है, वह सूखते हुए हृदय तथा मुखवाला प्राणी कभी शान्तिको प्राप्त नहीं होता है । मरनेपर यमराजके सेवकोंद्वारा वह अपने पापकर्मके कारण सूचीमुख नामक नरकमें गिराया जाता है । यमराजके दूत उस अर्थपिशाचके सम्पूर्ण अंगोंको उसी प्रकार सिल देते हैं, जैसे दर्जी सूई-धागेसे वस्त्र सिलते हैं ॥ २३-२६.५ ॥

एते बहुविधा विप्र नरकाः पापकर्मणाम् ॥ २७ ॥
नराणां शतशः सन्ति यातनास्थानभूमयः ।
सहस्रशोऽपि देवर्षे उक्तानुक्तांस्तथापि हि ॥ २८ ॥
विशन्ति नरकानेतान्यातनाबहुलान्मुने ।
तथा धर्मपराश्चापि लोकान्यान्ति सुखोद्‍गतान् ॥ २९ ॥
हे विप्र ! पापकर्म करनेवाले मनुष्योंको यातना देनेके लिये ये अनेक प्रकारके नरक है । इसी तरह और भी सैकड़ों तथा हजारों नरक हैं । हे देवर्षे ! उनमेंसे कुछ ही बताये गये हैं, मैंने बहुत-से नरकोंका वर्णन ही नहीं किया । हे मुने ! पापी मनुष्य अनेक यातनाओंसे भरे इन नरकोंमें जाते हैं और धर्मपरायणलोग सुखप्रद लोकोंमें जाते हैं ॥ २७-२९ ॥

स्वधर्मो बहुधा गीतो यथा तव महामुने ।
देवीपूजनरूपो हि देव्याराधनलक्षणः ॥ ३० ॥
येनानुष्ठितमात्रेण नरो न नरकं व्रजेत् ।
सा देवी भवपाथोधेरुद्धर्त्री पूजिता नृणाम् ॥ ३१ ॥
हे महामुने ! मैंने जिस प्रकार आपसे भगवतीके पूजनके स्वरूप और देवीकी आराधनाके लक्षणोंका वर्णन विस्तारसे किया है, वही अपना धर्म है; जिसके अनुष्ठानमात्रसे मनुष्य नरकमें नहीं जाता । सम्यक् प्रकारसे पूजित होनेपर वे भगवती संसाररूपी समुद्रसे प्राणियोंका उद्धार कर देती हैं ॥ ३०-३१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायामष्टमस्कन्धे-
ऽवशिष्टनरकवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयाँ संहितायामष्टमस्कन्धे विशिष्टनरकवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥


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