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याज्ञवल्क्यकृतं सरस्वतीस्तोत्रवर्णनम् -
याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति -
श्रीनारायण उवाच वाग्देवतायाः स्तवनं श्रूयतां सर्वकामदम् । महामुनिर्याज्ञवल्क्यो येन तुष्टाव तां पुरा ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-हे मुने ! अब आप वाग्देवी सरस्वतीका वह स्तोत्र सुनिये, जो सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है और जिसके द्वारा महामुनि याज्ञवल्क्यने प्राचीन कालमें उन सरस्वती-देवीकी स्तुति की थी ॥ १ ॥
गुरुशापाज्ज स मुनिर्हतविद्यो बभूव ह । तदा जगाम दुःखार्तो रविस्थानं सुपुण्यदम् ॥ २ ॥ सम्प्राप्य तपसा सूर्यं लोलार्के दृष्टिगोचरे । तुष्टाव सूर्यं शोकेन रुरोद च मुहुर्मुहुः ॥ ३ ॥
गुरुदेवके शापसे वे मुनि अपनी विद्यासे च्युत हो गये थे । तब दुःखार्त होकर वे पुण्यप्रद सूर्यतीर्थ लोलार्कक्षेत्रमें चले गये । वहाँ पहुँचकर अपनी तपस्यासे भगवान् सूर्यके दर्शन प्राप्त करके उन्होंने सूर्यकी स्तुति की तथा शोकसे सन्तप्त होकर बार-बार रुदन किया ॥ २-३ ॥
सूर्यस्तं पाठयामास वेदं वेदाङ्गमीश्वरः । उवाच स्तौहि वाग्देवीं भक्त्या च स्मृतिहेतवे ॥ ४ ॥
उस समय भगवान् सूर्यने उन याज्ञवल्क्यको वेद तथा वेदांग पढ़ाया और उनसे कहा कि आप स्मरणशक्ति प्राप्त करनेके लिये भक्तिपूर्वक सरस्वतीदेवीकी स्तुति कीजिये ॥ ४ ॥
तमित्युक्त्वा दीननाथोऽप्यन्तर्धानं चकार सः । मुनिः स्नात्वा च तुष्टाव भक्तिनम्रात्मकन्धरः ॥ ५ ॥
उनसे ऐसा कहकर दीनोंके नाथ भगवान् सूर्य अन्तर्धान हो गये और याज्ञवल्क्यमुनि स्नान करके सिर झुकाकर भक्तिपूर्वक देवी सरस्वतीकी स्तुति करने लगे ॥ ५ ॥
याज्ञवल्क्य उवाच कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवं हततेजसम् । गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनं च दुःखितम् ॥ ६ ॥
याज्ञवल्क्य बोले-हे जगजननि ! गुरुके शापसे इस प्रकार मुझ विनष्ट स्मृतिवाले, निस्तेज, विद्याविहीन तथा दुःखितपर कृपा कीजिये ॥ ६ ॥
ज्ञानं देहि स्मृतिं विद्यां शक्तिं शिष्यप्रबोधिनीम् । ग्रन्थकर्तृत्वशक्तिं च सुशिष्यं सुप्रतिष्ठितम् ॥ ७ ॥ प्रतिभां सत्सभायां च विचारक्षमतां शुभाम् । लुप्तं सर्वं दैवयोगान्नवीभूतं पुनः कुरु ॥ ८ ॥
आप मुझे ज्ञान, स्मरणशक्ति, विद्या, शिष्योंको प्रबोध करानेवाली शक्ति, ग्रन्थनिर्माणका सामर्थ्य, सुप्रतिष्ठित शिष्य तथा सजनोंकी सभा अभिव्यक्तिहेतु प्रतिभा एवं उत्तम विचारक्षमता प्रदान कीजिये । दैवयोगसे मेरी लुप्त हुई इन समस्त शक्तियोंको आप पुनः उसी प्रकार नवीनरूपमें कर दीजिये, जैसे देवता भस्ममें छिपे बीजको पुनः अंकुरित कर देते हैं ॥ ७-८ ॥
यथाङ्कुरं भस्मनि च करोति देवता पुनः । ब्रह्मस्वरूपा परमा ज्योतीरूपा सनातनी ॥ ९ ॥
जो ब्रह्मस्वरूपिणी, परमा, ज्योतिरूपा, शाश्वत तथा सभी विद्याओंकी अधिष्ठात्री देवी हैं; उन सरस्वतीको बार-बार नमस्कार है ॥ ९ ॥
सर्वविद्याधिदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः । विसर्गबिन्दुमात्रासु यदधिष्ठानमेव च ॥ १० ॥ तदधिष्ठात्री या देवी तस्यै नित्यै नमो नमः । व्याख्यास्वरूपा सा देवी व्याख्याधिष्ठातृरूपिणी ॥ ११ ॥
विसर्ग, बिन्दु तथा मात्रा-इन तीनोंमें जो अधिष्ठान-रूपसे विद्यमान हैं तथा जो उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं; उन नित्या देवीको बार-बार नमस्कार है । वे भगवती सरस्वती व्याख्यास्वरूपिणी तथा व्याख्याकी अधिष्ठातृ भी हैं ॥ १०-११ ॥
यया विना प्रसंख्यावान् संख्यां कर्तुं न शक्यते । कालसंख्यास्वरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १२ ॥
जिनके बिना सुप्रसिद्ध गणक भी गणनाकार्य नहीं कर सकते तथा जो साक्षात् कालसंख्यास्वरूपिणी हैं; उन देवीको बार-बार नमस्कार है ॥ १२ ॥
भ्रमसिद्धान्तरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः । स्मृतिशक्तिज्ञानशक्तिबुद्धिशक्तिस्वरूपिणी ॥ १३ ॥
जो भ्रमसिद्धान्तस्वरूपा हैं, उन देवीको बार-बार नमस्कार है । जो स्मरणशक्ति, ज्ञानशक्ति, बुद्धिशक्ति, प्रतिभाशक्ति तथा कल्पनाशक्तिस्वरूपिणी हैं; उन देवीको बार-बार नमस्कार है ॥ १३ ॥
प्रतिभाकल्पनाशक्तिर्या च तस्यै नमो नमः । सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै ॥ १४ ॥ बभूव मूकवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः । तदाऽऽजगाम भगवानात्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः ॥ १५ ॥
एक बार जब सनत्कुमारने ब्रह्माजीसे ब्रह्मज्ञानके विषयमें पूछा था, उस समय ब्रह्मसिद्धान्तकी व्याख्या करने में वे ब्रह्मा मूककी भाँति अक्षम हो गये थे । उसी समय स्वयं परमात्मा श्रीकृष्ण वहाँ आ गये और उन्होंने कहा-हे प्रजापते ! आप भगवती सरस्वतीको अपनी इष्ट देवी बनाकर उनकी स्तुति कीजिये ॥ १४-१५ ॥
उवाच स तां स्तौहि वाणीमिष्टां प्रजापते । स च तुष्टाव तां ब्रह्मा चाज्ञया परमात्मनः ॥ १६ ॥
परमात्मा श्रीकृष्णकी आज्ञा पाकर ब्रह्माजीने उन सरस्वतीकी स्तुति की । उसके बाद वे सरस्वतीको कृपासे उत्तम सिद्धान्तका विवेचन करनेमें सफल हो गये ॥ १६ ॥
चकार तत्प्रसादेन तदा सिद्धान्तमुत्तमम् । यदाप्यनन्तं पप्रच्छ ज्ञानमेकं वसुन्धरा ॥ १७ ॥ बभूव मूकवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः । तदा तां स च तुष्टाव संत्रस्तः कश्यपाज्ञया ॥ १८ ॥
इसी तरह जब पृथ्वीने शेषनागसे ज्ञानका एक रहस्य पूछा था, तब वे शेष भी मूक-जैसे बन गये और सिद्धान्तका विवेचन करनेमें असमर्थ रहे । तब अत्यन्त व्यथितहदय शेषने कश्यपकी आज्ञाके अनुसार उन सरस्वतीकी स्तुति की । तदनन्तर वे भ्रमका नाश करनेवाले उस पवित्र सिद्धान्तका विवेचन कर सके ॥ १७-१८ ॥
ऐसे ही जब व्यासने वाल्मीकिसे पुराणसूत्र पूछा, तब वे मौन हो गये और तब उन्होंने उन्हीं जगदम्बा सरस्वतीका स्मरण किया । तत्पश्चात् उनके वरसे भ्रमरूपी अन्धकारको मिटानेवाला ज्योतिसदृश निर्मल ज्ञान प्राप्त करके मुनीश्वर वाल्मीकि पुराण-सिद्धान्तका प्रतिपादन करने में समर्थ हो सके ॥ १९-२०.५ ॥
पुराणसूत्रं श्रुत्वा च व्यासः कृष्णकलोद्भवः ॥ २१ ॥ तां शिवां वेद दध्यौ च शतवर्षं च पुष्करे । तदा त्वत्तो वरं प्राप्य सत्कवीन्द्रो बभूव ह ॥ २२ ॥ तदा वेदविभागं च पुराणं च चकार सः ।
भगवान् कृष्णके अंशसे उत्पन्न व्यासजीने उस पुराणसूत्रको सुनकर उन कल्याणमयी सरस्वतीको जाना और पुष्करक्षेत्रमें सौ वर्षांतक उनकी उपासना की । [हे माता !] तत्पश्चात् आपसे वर प्राप्त करके वे श्रेष्ठ कवीन्द्र हुए और उसके बाद उन्होंने वेदोंका विभाजन तथा पुराणोंकी रचना की ॥ २१-२२.५ ॥
जब इन्द्रने भगवान् शंकरसे तत्त्वज्ञानके सम्बन्धमें पूछा, तब क्षणभर उन सरस्वतीका ध्यान करके ही शिवजीने उन इन्द्रको ज्ञानोपदेश दिया ॥ २३.५ ॥
पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रश्च बृहस्पतिम् ॥ २४ ॥ दिव्यं वर्षसहस्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे । तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यवर्षसहस्रकम् ॥ २५ ॥ उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम् । अध्यापिताश्च ये शिष्या यैरधीतं मुनीश्वरैः ॥ २६ ॥ ते च तां परिसञ्चिन्त्य प्रवर्तन्ते सुरेश्वरीम् ।
[हे माता !] जब इन्द्रने शब्दशास्त्रके विषयमें बृहस्पतिसे पूछा था, तब उन्होंने पुष्करक्षेत्रमें दिव्य एक हजार वर्षांतक आपकी आराधना की । तदुपरान्त आपसे वर प्राप्त करके वे एक हजार दिव्य वर्षांतक देवपति इन्द्रको शब्दशास्त्रका उपदेश करते रहे । इसी तरह बृहस्पतिने जिन शिष्योंको पढ़ाया तथा अन्य जिन मुनीश्वरोंने उनसे अध्ययन किया, वे सब-केसब उन भगवती सुरेश्वरीकी सम्यक् आराधना करके ही सफल हुए हैं ॥ २४-२६.५ ॥
त्वं संस्तुता पूजिता च मुनीन्द्रैर्मनुमानवैः ॥ २७ ॥ दैत्येन्द्रैश्च सुरैश्चापि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः । जडीभूतः सहस्रास्यः पञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः ॥ २८ ॥
मुनीश्वरों, मनुगणों, मनुष्यों, दैत्येश्वरों तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवताओंके द्वारा भी सम्यक् रूपसे आपकी स्तुति तथा पूजा की गयी है । हजार मुखबाले शेषनाग, पाँच मुखवाले शिव तथा चार मुखवाले ब्रह्मा भी जिनकी स्तुति करनेमें जड़वत् हो जाते हैं, तब मैं साधारण-सा मनुष्य एक मुखसे उन आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ ? ॥ २७-२८ ॥
[हे नारद !] इस प्रकार स्तुति करके याज्ञवल्क्य मुनि भगवती सरस्वतीको प्रणाम करने लगे । उस समय भक्तिभावसे उनका कन्धा झुक गया था, वे आहाररहित थे तथा बार-बार रो रहे थे ॥ २९ ॥
प्रणनाम निराहारो रुरोद च मुहुर्मुहुः । ज्योतीरूपा महामाया तेन दृष्टाप्युवाच तम् ॥ ३० ॥
इसी बीच ज्योतिस्वरूपिणी महामाया सरस्वतीने उन्हें दर्शन दिया और वे मुनिसे बोलीं-'तुम महान् कवीन्द्र हो जाओ'-ऐसा कहकर वे वैकुण्ठ चली गयीं ॥ ३० ॥
सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा वैकुण्ठं च जगाम ह । याज्ञवल्क्यकृतं वाणीस्तोत्रमेतत्तु यः पठेत् ॥ ३१ ॥ स कवीन्द्रो महावाग्मी बृहस्पतिसमो भवेत् । महामूर्खश्च दुर्बुद्धिर्वर्षमेकं यदा पठेत् ॥ ३२ ॥ स पण्डितश्च मेधावी सुकवीन्द्रो भवे ध्रुवम् ॥ ३३ ॥
[हे नारद !] जो मनुष्य याज्ञवल्क्यके द्वारा रचित इस सरस्वतीस्तोत्रका पाठ करता है, वह कवीन्द्र तथा बृहस्पतिके समान महान् वक्ता हो जाता है । यदि कोई महान् मूर्ख तथा दुर्बुद्धि भी इस स्तोत्रका एक वर्षतक नियमपूर्वक पाठ करे, तो वह निश्चय ही पण्डित, मेधावी तथा श्रेष्ठ कवि हो जाता है । ३१-३३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे याज्ञवल्क्यकृतं सरस्वतीस्तोत्रवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्मयां संहितायां नवमस्कन्धे याज्ञवल्क्यकृतं सरस्वतीस्तोत्रवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥