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लक्ष्मीगङ्गासरस्वतीनां भूलोकेऽवतरणवर्णनम् -
लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना -
श्रीनारायण उवाच सरस्वती तु वैकुण्ठे स्वयं नारायणान्तिके । गङ्गाशापेन कलहात्कलया भारते सरित् ॥ १ ॥ पुण्यदा पुण्यरूपा च पुण्यतीर्थस्वरूपिणी । पुण्यवद्भिर्निषेव्या च स्थितिः पुण्यवतां मुने ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-हे मुने ! साक्षात् भगवान् विष्णुके पास वैकुण्ठमें रहनेवाली सरस्वती कलहके कारण गंगाजीके द्वारा दिये गये शापसे भारतवर्ष में अपनी एक कलासे नदीरूपमें प्रतिष्ठित हैं । ये सरस्वती पूण्यदायिनी, पुण्यरूपिणी, पुण्यतीर्थस्वरूपिणी तथा पुण्यवान् मनुष्योंकी आश्रय हैं, अत: पुण्यात्मा लोगोंको इनका सेवन करना चाहिये ॥ १-२ ॥
तपस्विनां तपोरूपा तपसः फलरूपिणी । कृतपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निस्वरूपिणी ॥ ३ ॥
ये सरस्वती तपस्वियोंके लिये तपरूपिणी हैं और उनकी तपस्याका फल भी वे ही हैं । ये मनुष्यके द्वारा किये गये पापरूप ईधनको दग्ध करने के लिये प्रज्वलित अग्निस्वरूपा हैं ॥ ३ ॥
ज्ञानात्सरस्वतीतोये मृता ये मानवा भुवि । तेषां स्थितिश्च वैकुण्ठे सुचिरं हरिसंसदि ॥ ४ ॥
सरस्वतीकी महिमाको जानते हुए जो मनुष्य इनके जलमें अपना प्राण त्याग करते हैं, वे वैकुण्ठमें वास करते हुए दीर्घकालतक भगवान् श्रीहरिकी सन्निधि प्राप्त करते हैं ॥ ४ ॥
भारते कृतपापश्च स्नात्वा तत्र च लीलया । मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोके वसेच्चिरम् ॥ ५ ॥
भारतमें रहनेवाला कोई मनुष्य पाप कर लेनेके बाद खेल-खेलमें भी सरस्वतीमें स्नान कर लेनेमात्रसे सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और दीर्घकालतक विष्णुलोकमें निवास करता है ॥ ५ ॥
चातुर्मास्यां पौर्णमास्यामक्षयायां दिनक्षये । व्यतीपाते च ग्रहणेऽन्यस्मिन्पुण्यदिनेऽपि च ॥ ६ ॥ अनुषङ्गेण यः स्नातो हेतुना श्रद्धयापि वा । सारूप्यं लभते नूनं वैकुण्ठे स हरेरपि ॥ ७ ॥
जो मनुष्य चातुर्मास्यमें, पूर्णिमा तिथिपर, अक्षय नवमीके दिन, क्षयतिथिको तथा व्यतीपात या ग्रहणके अवसर अथवा अन्य किसी भी पुण्य दिन किसी हेतुसे अथवा श्रद्धापूर्वक सरस्वती में स्नान करता है, वह निश्चय ही वैकुण्ठलोकमें भगवान् विष्णुका सारूप्य प्राप्त कर लेता है ॥ ६-७ ॥
सरस्वतीमनुं तत्र मासमेकं च यो जपेत् । महामूर्खः कवीन्द्रश्च स भवेन्नात्र संशयः ॥ ८ ॥
जो मनुष्य एक महीनेतक प्रतिदिन सरस्वतीनदीके तटपर इनके मन्त्रका जप करता है, वह महान् मूर्ख होते हुए भी कवीश्वर हो जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ८ ॥
नित्यं सरस्वतीतोये यः स्नायान्मुण्डयन्नरः । न गर्भवासं कुरुते पुनरेव स मानवः ॥ ९ ॥
जो मनुष्य मुण्डन कराकर प्रतिदिन सरस्वतीके जलमें स्नान करता है, वह मनुष्य फिरसे माताके गर्भमें वास नहीं करता है ॥ ९ ॥
[हे नारद !] इस प्रकार मैंने सुख देनेवाले, मनोरथ पूर्ण करनेवाले तथा सारस्वरूप भगवतीके गुणकीर्तनका वर्णन आपसे कर दिया । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १० ॥
सूत उवाच नारायणवचः श्रुत्वा नारदो मुनिसत्तमः । पुनः पप्रच्छ सन्देहमिमं शौनक सत्वरम् ॥ ११ ॥
सूतजी बोले-हे शौनक ! भगवान् नारायणकी बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारद अपनी इस शंकाके विषयमें पुनः शीघ्र उनसे पूछने लगे- ॥ ११ ॥
नारद उवाच कथं सरस्वती देवी गङ्गाशापेन भारते । कलया कलहेनैव बभूव पुण्यदा सरित् ॥ १२ ॥
नारदजी बोले-ये भगवती सरस्वती कलहके कारण गंगाजीके शापसे भारतवर्षमें अपनी कलासे पुण्यदायिनी नदीके रूपमें कैसे प्रकट हो गयीं ? ॥ १२ ॥
श्रवणे श्रुतिसाराणां वर्धते कौतुकं मम । कथामृतेन मे तृप्तिः केन श्रेयसि तृप्यते ॥ १३ ॥
वेदोंके सारस्वरूप कथानकोंको सुननेहेतु मेरा कौतूहल बढ़ गया है, इस कथामृतको सुनकर ही मुझे तृप्ति होगी । अपने कल्याणके विषयमें कौन सन्तुष्ट होता है ? ॥ १३ ॥
कथं शशाप सा गङ्गा पूजितां तां सरस्वतीम् । सा तु सत्त्वस्वरूपा या पुण्यदा शुभदा सदा ॥ १४ ॥ तेजस्विनोर्द्वयोर्वादकारणं श्रुतिसुन्दरम् । सुदुर्लभं पुराणेषु तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १५ ॥
जो सर्वदा पुण्य तथा कल्याण प्रदान करनेवाली हैं, उन सत्त्वस्वरूपा गंगाने पूज्य सरस्वतीको शाप क्यों दे दिया ? इन दोनों तेजस्विनी देवियोंके विवादका कारण निश्चय ही कानोंके लिये सुखकर होगा । पुराणोंमें अत्यन्त दुर्लभ उस वृत्तान्तको आप मुझे बतलाइये ॥ १४-१५ ॥
उस समय लाल नेत्रों तथा मुखमण्डलवाली और कुपित तथा कामवेगके कारण निरन्तर काँपते हुए ओठोंवाली सरस्वती अपने पति भगवान् विष्णुसे कहने लगीं ॥ २१ ॥
सरस्वत्युवाच सर्वत्र समताबुद्धिः सद्भर्तुः कामिनीं प्रति । धर्मिष्ठस्य वरिष्ठस्य विपरीता खलस्य च ॥ २२ ॥
सरस्वती बोलीं-एक धर्मनिष्ठ, श्रेष्ठ तथा उत्तम पतिकी बुद्धि अपनी सभी पत्नियोंके प्रति समान हुआ करती है, किंतु दुष्ट पतिकी बुद्धि इसके विपरीत होती है । ॥ २२ ॥
ज्ञातं सौभाग्यमधिकं गङ्गायां ते गदाधर । कमलायां च तत्तुल्यं न च किञ्चिन्मयि प्रभो ॥ २३ ॥
हे गदाधर ! मुझे ज्ञात हो गया कि गंगापर आपका अधिक प्रेम रहता है और लक्ष्मीपर भी उसीके समान प्रेम रहता है । किंतु हे प्रभो ! मुझपर आपका थोड़ा भी प्रेम नहीं है ॥ २३ ॥
कोपके कारण काँपते हुए ओठों तथा लाल नेत्रोंवाली और अत्यन्त असन्तुष्ट उस सरस्वतीको देखकर गंगा लक्ष्मीसे कहने लगीं ॥ ३५ ॥
गङ्गोवाच त्वमुत्सृज महोग्रां च पद्मे किं मे करिष्यति । दुःशीला मुखरा नष्टा नित्यं वाचालरूपिणी ॥ ३६ ॥
गंगा बोलीं-हे पो ! तुम अत्यन्त उग्र स्वभाववाली इस सरस्वतीको छोड़ दो । यह शीलरहित, मुखर, विनाशिनी तथा नित्य वाचाल रहनेवाली सरस्वती मेरा क्या कर लेगी ॥ ३६ ॥
वागधिष्ठात्री देवीयं सततं कलहप्रिया । यावती योग्यता चास्या यावती शक्तिरेव च ॥ ३७ ॥ तथा करोतु वादं च मया सार्धं च दुर्मुखी । स्वबलं यन्मम बलं विज्ञापयितुमिच्छति ॥ ३८ ॥ जानन्तु सर्वे ह्युभयोः प्रभावं विक्रमं सति ।
वाणीकी अधिष्ठात्री देवी यह सरस्वती सर्वदा कलहप्रिय है । इसमें जितनी योग्यता तथा शक्ति हो, वह सब लगाकर यह आज मेरे साथ विवाद कर ले । यह दुर्मुखी अपने तथा मेरे बलका प्रदर्शन करना चाहती है तो सभी लोग आज दोनोंके प्रभाव तथा पराक्रमको जान लें ॥ ३७-३८.५ ॥
इत्येवमुक्त्वा सा देवी वाण्यै शापं ददाविति ॥ ३९ ॥ सरिक्त्यरूपा भवतु सा या त्वां च शशाप ह । अधोमर्त्यं सा प्रयातु सन्ति यत्रैव पापिनः ॥ ४० ॥ कलौ तेषां च पापानि ग्रहीष्यति न संशयः ।
ऐसा कहकर गंगाने सरस्वतीको शाप दे दिया । [और उन्होंने लक्ष्मीसे कहा-] जिस सरस्वतीने तुम्हें शाप दिया है, वह भी नदीरूप हो जाय । यह नीचे मृत्युलोकमें चली जाय, जहाँ पापीलोग निवास करते हैं । [वहाँ] यह कलियुगमें उन पापियोंके पाप ग्रहण करेगी । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३९-४०.५ ॥
सर्वज्ञ श्रीहरिने सरस्वतीका हाथ पकड़कर प्रेमपूर्वक उन्हें अपने वक्षसे लगा लिया और उन्हें शाश्वत तथा सर्वोत्कृष्ट ज्ञान प्रदान किया । उनके कलह तथा शापकी बात सुनकर प्रभु श्रीहरि उन दुःखित स्त्रियोंसे समयानुकूल बात कहने लगे ॥ ४३-४४.५ ॥
श्रीभगवान बोले-हे लक्ष्मि ! हे शुभे ! तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर राजा धर्मध्वजके घर जाओ । तुम अयोनिजके रूपमें उनकी कन्या होकर प्रकट होओगी । वहींपर तुम दुर्भाग्यसे वृक्ष बन जाओगी । मेरे ही अंशसे उत्पन्न शंखचूड नामक असुरकी भार्या होनेके बाद ही पुन: तुम मेरी पत्नी बनोगी; इसमें सन्देह नहीं है । उस समय तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाली तुलसीके नामसे भारतवर्षमें तुम प्रसिद्ध होओगी । हे वरानने ! अब तुम सरस्वतीके शापसे अपने अंशसे नदीरूपमें प्रकट होकर भारतवर्षमें शीघ्र जाओ और वहाँ 'पद्मावती' नामसे प्रतिष्ठित होओ ॥ ४५-४८.५ ॥
[तत्पश्चात् उन्होंने गंगासे कहा-] हे गंगे ! लक्ष्मीके पश्चात् तुम भी सरस्वतीके शापवश पापियोंका पाप भस्म करनेके लिये अपने ही अंशसे विश्वपावनी नदी बनकर भारतवर्षमें जाओ । हे सुकल्पिते ! राजा भगीरथकी तपस्यासे उनके द्वारा धरातलपर ले जायी गयी तुम पवित्र 'भागीरथी' नामसे प्रसिद्ध होओगी । हे सुरेश्वरि ! मेरी आज्ञाके अनुसार तुम मेरे ही अंशसे उत्पन्न समुद्रकी पत्नी और मेरी कलाके अंशसे उत्पन्न राजा शन्तनुको भी पत्नी होना स्वीकार कर लेना ॥ ४९-५१ ॥
[तदनन्तर उन्होंने सरस्वतीसे कहा- हे भारति ! गंगाके शापको स्वीकार करके तुम अपनी कलासे भारतवर्ष में जाओ और दोनों सपत्नियों (गंगा तथा लक्ष्मी)-के साथ कलह करनेका फल भोगो । साथ ही हे अच्युते ! अपने पूर्ण अंशसे ब्रह्मसदनमें ब्रह्माकी भार्या बन जाओ ॥ ५२-५३ ॥
[भगवान् बोले] विभिन्न स्वभाववाली तीन स्त्रियाँ, तीन नौकर तथा तीन बान्धवोंका एकत्र रहना वेदविरुद्ध है । अत: ये मंगलदायक नहीं हो सकते ॥ ५६.५ ॥
स्त्रीपुंवच्च गृहे येषां गृहिणां स्त्रीवशः पुमान् ॥ ५७ ॥ निष्फलं च जन्म तेषामशुभं च पदे पदे ।
जिन गृहस्थोंके घरमें स्त्री पुरुषकी भाँति व्यवहार करे और पुरुष स्त्रीके अधीन रहे, उनका जन्म निष्फल हो जाता है और पग-पगपर उनका अमंगल होता है ॥ ५७.५ ॥
मुखे दुष्टा योनिदुष्टा यस्य स्त्री कलहप्रिया ॥ ५८ ॥ अरण्यं तेन गन्तव्यं महारण्यं गृहाद्वरम् । जलानां च स्थलानां च फलानां प्राप्तिरेव च ॥ ५९ ॥
जिसकी स्त्री मुखदुष्टा (कुवचन बोलनेवाली), योनिदृष्य (व्यभिचारमें लिप्त रहनेवाली) तथा कलहप्रिया है, उस व्यक्तिको जंगलमें चले जाना चाहिये; क्योंकि उसके लिये बड़े-से-बड़ा जंगल भी घरसे बढ़कर श्रेयस्कर होता है; क्योंकि वहाँ उसे जल, स्थल और फल आदिकी निरन्तर प्राप्ति होती रहती है, किंतु घरपर ये सब नहीं मिल पाते ॥ ५८-५९ ॥
सततं सुलभा तत्र न तेषां गृह एव च । वरमग्नौ स्थितिर्हिंस्रजन्तूनां सन्निधौ सुखम् ॥ ६० ॥ ततोऽपि दुःखं पुंसां च दुष्टस्त्रीसन्निधौ ध्रुवम् ।
अग्निके पास रहना ठीक है अथवा हिंसक जन्तुओंके निकट रहनेपर भी सुख मिल सकता है, किंतु दुष्ट स्त्रीके सान्निध्यमें रहनेवाले पुरुषोंको अवश्य ही उससे भी अधिक दुःख भोगना पड़ता है ॥ ६०.५ ॥
हे वरानने ! व्याधिज्वाला तथा विषज्वाला तो पुरुषोंके लिये ठीक हैं, किंतु दुष्ट स्त्रियोंके मुखकी ज्वाला मृत्युसे भी बढ़कर कष्टकारक होती है ॥ ६१.५ ॥
पुंसां च स्त्रीजितां चैव भस्मान्तं शौचमध्रुवम् ॥ ६२ ॥ यदह्नि कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् । निन्दितोऽत्र परत्रैव सर्वत्र नरकं व्रजेत् ॥ ६३ ॥ यशःकीर्तिविहीनो यो जीवन्नपि मृतो हि सः ।
स्त्रीके वशमें रहनेवाले पुरुषोंकी शुद्धि शरीरके भस्म हो जानेपर भी निश्चित ही नहीं होती । ऐसा व्यक्ति दिनमें जो पुण्यकर्म करता है, उसके फलका भागी नहीं होता है । वह इस लोक तथा परलोकमें सर्वत्र निन्दित होता है और नरक प्राप्त करता है । जो यश और कीर्तिसे रहित है, वह जीते हुए भी मृतकके समान है । ६२-६३.५ ॥
किसी पुरुषकी बहुत-सी पत्नियोंका एक साथ रहना कल्याणप्रद नहीं है । एक भार्यावाला तो सुखी है ही नहीं, फिर अनेक भार्याओंवाला कैसे सुखी रह सकता है ? ॥ ६४.५ ॥
हे गंगे ! तुम शिवके स्थानपर जाओ और हे सरस्वति ! तुम ब्रह्माके स्थानपर जाओ । यहाँ मेरे भवनमें उत्तम स्वभाववाली लक्ष्मी ही रहें ॥ ६५.५ ॥
सुसाध्या यस्य पत्नी च सुशीला च पतिव्रता ॥ ६६ ॥ इह स्वर्गे सुखं तस्य धर्मो मोक्षः परत्र च । पतिव्रता यस्य पत्नी स च मुक्तः शुचिः सुखी । जीवन्मृतोऽशुचिर्दुःखी दुःशीलापतिरेव च ॥ ६७ ॥
जिस पुरुषकी पत्नी सहजरूपसे अनुकूल हो जानेवाली, उत्तम स्वभाववाली तथा पतिव्रता होती है, उसे इस लोकमें तथा स्वर्गमें सुख तथा धर्म प्राप्त होते हैं और परलोकमें मोक्ष पद प्राप्त होता है । जिसकी पत्नी पतिव्रता होती है, वह मुक्त, पवित्र तथा सुखी है । इसके विपरीत दुराचारिणी स्त्रीका पति जीते-जी मृतकके समान, अपवित्र तथा दुःखी है ॥ ६६-६७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे लक्ष्मीगङ्गासरस्वतीनां भूलोकेऽवतरणवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्धे लक्ष्मीगङ्गासरस्वतीनां भूलोकेऽवतरणवर्णन नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥