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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
सप्तमोऽध्यायः

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गङ्‌गादीनां शापोद्धारवर्णनम् -
भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना -


श्रीनारायण उवाच
इत्युक्त्वा जगतां नाथो विरराम च नारद ।
अतीव रुरुदुर्देव्यः समालिङ्‌ग्य परस्परम् ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! ऐसा कहकर जगत्के स्वामी भगवान् विष्णु चुप हो गये । तब वे तीनों देवियाँ एक-दूसरेका आलिंगन करके बहुत रोने लगीं ॥ १ ॥

ताश्च सर्वाः समालोक्य क्रमेणोचुस्तदेश्वरम् ।
कम्पिताः साश्रुनेत्राश्च शोकेन च भयेन च ॥ २ ॥
भगवान्की ओर देखकर भय तथा शोकसे काँपती हुई वे सभी देवियाँ अश्रुपूरित नेत्रोंसे उनसे बारी-बारीसे कहने लगीं ॥ २ ॥

सरस्वत्युवाच
विशापं देहि हे नाथ दुष्टमाजन्मशोचनम् ।
सत्स्वामिना परित्यक्ताः कुतो जीवन्ति ताः स्त्रियः ॥ ३ ॥
देहत्यागं करिष्यामि योगेन भारते ध्रुवम् ।
अत्युन्नतो हि नियतं पातुमर्हति निश्चितम् ॥ ४ ॥
सरस्वती बोलीं-हे नाथ ! मुझे जीवनभर सन्ताप देनेवाला कोई भी कठोर शाप दे दें (किंतु मेरा त्याग न करें); क्योंकि श्रेष्ठ स्वामीके द्वारा परित्यक्त वे स्त्रियाँ कैसे जीवित रह सकती हैं । भारतवर्षमें जाकर मैं निश्चय ही योगके द्वारा देह त्याग कर दूँगी । जिसकी भी अत्यधिक उन्नति होती है, उसका अधोपतन भी अवश्यम्भावी है ॥ ३-४ ॥

गङ्‌गोवाच
अहं केनापराधेन त्वया त्यक्ता जगत्पते ।
देहत्यागं करिष्यामि निर्दोषाया वधं लभ ॥ ५ ॥
निर्दोषकामिनीत्यागं करोति यो नरो भुवि ।
स याति नरकं घोरं किन्तु सर्वेश्वरोऽपि वा ॥ ६ ॥
गंगा बोली-हे जगत्पते ! आपने मेरे किस अपराधके कारण मेरा त्याग कर दिया । मैं तो अपने देहको त्याग दूंगी और इस प्रकार आपको एक निरपराध स्त्रीके वधका पाप लगेगा । जो मनुष्य इस पृथ्वीपर निर्दोष पत्नीका परित्याग कर देता है, वह घोर नरककी यात्रा करता है, चाहे वह सर्वेश्वर ही क्यों न हो ॥ ५-६ ॥

पद्मोवाच
नाथ सत्त्वस्वरूपस्त्वं कोपः कथमहो तव ।
प्रसादं कुरु भार्ये द्वे सदीशस्य क्षमा वरा ॥ ७ ॥
पद्या बोलीं-हे नाथ ! आप तो सत्त्वस्वरूप हैं । अहो, आपको ऐसा कोप कैसे हो गया ! आप अपनी इन दोनों पत्नियोंको प्रसन्न कीजिये, क्योंकि एक उत्तम पतिके लिये क्षमा ही श्रेष्ठ है ॥ ७ ॥

भारते भारतीशापाद्यास्यामि कलया ह्यहम् ।
कियत्कालं स्थितिस्तत्र कदा द्रक्ष्यामि ते पदम् ॥ ८ ॥
मैं सरस्वतीका शाप स्वीकार करके अपनी एक कलासे भारतवर्षमें जाऊँगी, किंतु मैं वहाँ कितने समयतक रहूँगी और आपके चरणोंका दर्शन कब कर पाऊँगी ? ॥ ८ ॥

दास्यन्ति पापिनः पापं सद्यः स्नानावगाहनात् ।
केन तेन विमुक्ताहमागमिष्यामि ते पदम् ॥ ९ ॥
पापीजन स्नान तथा अवगाहन करके शीघ्र ही अपना पाप मुझे दे देंगे । तब किस उपायके द्वारा उस पापसे मुक्त होकर आपके चरणों में मैं पुन: स्थान पाऊँगी ? ॥ ९ ॥

कलया तुलसीरूपं धर्मध्वजसुता सती ।
भुक्त्वा कदा लभिष्यामि त्वत्पादाम्बुजमच्युत ॥ १० ॥
हे अच्युत ! अपनी एक कलासे धर्मध्वजकी साध्वी पुत्री होकर तुलसीरूप प्राप्त करके मैं आपके चरणकमल पुनः कब प्राप्त कर सकूँगी ? ॥ १० ॥

वृक्षरूपा भविष्यामि त्वदधिष्ठातृदेवता ।
समुद्धरिष्यसि कदा तन्मे ब्रूहि कृपानिधे ॥ ११ ॥
आप जिसके अधिष्ठातृदेवता हैं, ऐसे वृक्षरूप तुलसीके रूपमें मैं प्रकट होऊँगी । किंतु हे कृपानिधान ! आप मुझे यह बता दीजिये कि मेरा उद्धार कब करेंगे ? ॥ ११ ॥

गङ्‌गा सरस्वतीशापाद्यदि यास्यति भारते ।
शापेन मुक्ता पापाच्च कदा त्वां च लभिष्यति ॥ १२ ॥
यदि गंगा सरस्वतीके शापसे भारतमें जायँगी, तब पुनः कब शाप तथा पापसे मुक्त होकर ये आपको प्राप्त करेंगी ? ॥ १२ ॥

गङ्‌गाशापेन वा वाणी यदि यास्यति भारतम् ।
कदा शापाद्विनिर्मुच्य लभिष्यति पदं तव ॥ १३ ॥
साथ ही, गंगाके शापसे ये सरस्वती भी यदि भारतमें जायेंगी, तब पुनः कब शापसे मुक्त होकर ये आपके चरणोंका सांनिध्य प्राप्त कर सकेंगी ? ॥ १३ ॥

तां वाणीं ब्रह्मसदनं गङ्‌गां वा शिवमन्दिरम् ।
गन्तुं वदसि हे नाथ तत्क्षमस्व च ते वचः ॥ १४ ॥
हे नाथ ! आप जो उन सरस्वतीको ब्रह्माके तथा गंगाको शिवके भवन जानेके लिये कह रहे हैं, तो मैं आपके इन वचनोंके लिये आपसे क्षमा चाहती हूँ ॥ १४ ॥

इत्युक्त्वा कमला कान्तपादं धृत्वा ननाम सा ।
स्वकेशैर्वेष्टनं कृत्वा रुरोद च पुनः पुनः ॥ १५ ॥
[हे नारद !] ऐसा कहकर लक्ष्मीने अपने पति श्रीविष्णुके चरण पकड़कर उन्हें प्रणाम किया और अपने केशोंसे उनके चरणोंको वेष्टित करके वे बारबार रोने लगीं ॥ १५ ॥

(उवाच पद्मनाभस्तां पद्मां कृत्वा स्ववक्षसि ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यो भक्तानुग्रहकातरः ॥) ॥
श्रीभगवानुवाच
त्वद्वाक्यमाचरिष्यामि स्ववाक्यं च सुरेश्वरि ।
समतां च करिष्यामि शृणु त्वं कमलेक्षणे ॥ १६ ॥
(भक्तोंपर कृपा करनेके लिये सदा व्याकुल रहनेवाले तथा मन्द मुसकानसे युक्त प्रसन्न मुखमण्डलवाले भगवान् विष्णु लक्ष्मीको अपने वक्षसे लगाकर उनसे कहने लगे । ) श्रीभगवान् बोले-हे सुरेश्वरि ! मैं तुम्हारे तथा अपने दोनोंके वचन सत्य सिद्ध करूँगा । हे कमलेक्षणे ! सुनो, मैं तुम तीनोंमें समता कर दूंगा ॥ १६ ॥

भारती यातु कलया सरिद्‌रूपा च भारते ।
अर्धा सा ब्रह्मसदनं स्वयं तिष्ठतु मद्‌गृहे ॥ १७ ॥
ये सरस्वती अपनी कलाके एक अंशसे नदीरूप होकर भारतवर्षमें जायँ, आधे अंशसे ब्रह्माके भवन जायँ और पूर्ण अंशसे स्वयं मेरे पास रहें ॥ १७ ॥

भगीरथेन सा नीता गङ्‌गा यास्यति भारते ।
पूतं कर्तुं त्रिभुवनं स्वयं तिष्ठतु मद्‌गृहे ॥ १८ ॥
तत्रैव चन्द्रमौलेश्च मौलिं प्राप्स्यति दुर्लभम् ।
ततः स्वभावतः पूताप्यतिपूता भविष्यति ॥ १९ ॥
इसी प्रकार भगीरथके द्वारा ले जायी गयी ये गंगा तीनों लोकोंको पवित्र करनेके लिये अपने कलांशसे भारतवर्षमें जायँगी और स्वयं पूर्ण अंशसे मेरे भवनमें रहें । वहाँपर ये चन्द्रशेखर शिवके दुर्लभ मस्तकको प्राप्त करेंगी । वहाँ जानेपर स्वभावतः पवित्र ये गंगा और भी पवित्र हो जायँगी ॥ १८-१९ ॥

कलांशांशेन गच्छ त्वं भारते वामलोचने ।
पद्मावती सरिद्‌रूपा तुलसीवृक्षरूपिणी ॥ २० ॥
हे वामलोचने ! तुम अपनी कलाके अंशांशसे पद्मावती नामक नदीके रूपमें तथा तुलसी नामक वृक्षके रूपमें भारतवर्षमें जाओ ॥ २० ॥

कलेः पञ्चसहस्रे च गते वर्षे तु मोक्षणम् ।
युष्माकं सरितां चैव मद्‌गेहे चागमिष्यथ ॥ २१ ॥
कलिके पाँच हजार वर्ष व्यतीत हो जानेपर नदीरूपिणी तुम सब देवियोंकी मुक्ति हो जायगी और इसके बाद तुमलोग पुनः मेरे भवन आ जाओगी ॥ २१ ॥

सम्पदा हेतुभूता च विपत्तिः सर्वदेहिनाम् ।
विना विपत्तेर्महिमा केषां पद्मभवे भवेत् ॥ २२ ॥
हे पद्मभवे ! विपत्ति सभी प्राणियोंकी सम्पदाओंका हेतुस्वरूप है । विना विपत्तिके भला किन लोगोंको गौरव प्राप्त हो सकता है ॥ २२ ॥

मन्मन्त्रोपासकानां च सतां स्नानावगाहनात् ।
युष्माकं मोक्षणं पापाद्दर्शनात्स्पर्शनात्तथा ॥ २३ ॥
मेरे मन्त्रोंकी उपासना करनेवाले सत्पुरुषोंके द्वारा तुम्हारे जलमें स्नान तथा अवगाहनसे और उनके दर्शन तथा स्पर्शसे तुमलोगोंकी पापसे मुक्ति हो जायगी ॥ २३ ॥

पृथिव्यां यानि तीर्थानि सन्त्यसंख्यानि सुन्दरि ।
भविष्यन्ति च पूतानि मद्‍भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ २४ ॥
हे सुन्दरि ! जितने भी असंख्य तीर्थ पृथ्वीपर हैं, वे सब मेरे भक्तोंके स्पर्श तथा दर्शनमात्रसे पवित्र हो जायँगे ॥ २४ ॥

मन्मन्त्रोपासका भक्ता विभ्रमन्ति च भारते ।
पूतं कर्तुं तारितुं च सुपवित्रां वसुन्धराम् ॥ २५ ॥
मेरे मन्त्रोंकी उपासना करनेवाले भक्त पृथ्वीको अत्यन्त पवित्र करने तथा वहाँ रहनेवाले प्राणियोंको पावन करने तथा तारनेके लिये ही भारतवर्षमें निवास करते हैं ॥ २५ ॥

मद्‍भक्ता यत्र तिष्ठन्ति पादं प्रक्षालयन्ति च ।
तत्स्थानं च महातीर्थं सुपवित्रं भवेद्‌ध्रुवम् ॥ २६ ॥
मेरे भक्त जहाँ रहते तथा अपना पैर धोते हैं, वह स्थान निश्चितरूपसे अत्यन्त पवित्र महातीर्थक रूपमें हो जाता है ॥ २६ ॥

स्त्रीघ्नो गोघ्नः कृतघ्नश्च ब्रह्मघ्नो गुरुतल्पगः ।
जीवन्मुक्तो भवेत्पूतो मद्‍भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ २७ ॥
स्त्रीवध करनेवाला, गोहत्या करनेवाला, कृतघ्न, ब्राह्मणका वध करनेवाला तथा गुरुपत्नीके साथ व्यभिचार करनेवाला प्राणी भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र तथा जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ २७ ॥

एकादशीविहीनश्च सन्ध्याहीनोऽथ नास्तिकः ।
नरघाती भवेत्पूतो मद्‍भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ २८ ॥
एकादशीव्रत तथा सन्ध्यासे विहीन, नास्तिक तथा मनुष्यका वध करनेवाला भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्श-मात्रसे पवित्र हो जाता है ॥ २८ ॥

असिजीवी मसीजीवी धावको ग्रामयाचकः ।
वृषवाहो भवेत्पूतो मद्‍भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ २९ ॥
शस्त्रसे आजीविका चलानेवाला, लेखनवृत्तिसे जीवनयापन करनेवाला, धावक, भिक्षावृत्तिसे निर्वाह करनेवाला तथा बैल हाँकनेवाला भी मेरे भक्तके दर्शन और स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ २९ ॥

विश्वासघाती मित्रघ्नो मिथ्यासाक्ष्यस्य दायकः ।
स्थाप्याहारी भवेत्पूतो मद्‍भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ ३० ॥
विश्वासघात करनेवाला, मित्रका वध करनेवाला, झूठी गवाही देनेवाला तथा धरोहर सम्पत्तिका हरण कर लेनेवाला मनुष्य भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ ३० ॥

अत्युग्रवान्दूषकश्च जारकः पुंश्चलीपतिः ।
पूतश्च वृषलीपुत्रो मद्‍भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ ३१ ॥
अत्यन्त उग्र, दूषित करनेवाला, जार पुरुष, व्यभिचारिणी स्त्रीका पति और शूद्रा स्त्रीका पुत्रऐसा प्राणी भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ ३१ ॥

शूद्राणां सूपकारश्च देवलो ग्रामयाजकः ।
अदीक्षितो भवेत्पूतो मद्‍भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ ३२ ॥
शूद्रोंका रसोइया, देवधनका उपभोग करनेवाला, सभी वर्गोंका पौरोहित्य कर्म करानेवाला ब्राह्मण तथा दीक्षाविहीन मनुष्य भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ ३२ ॥

पितरं मातरं भार्यां भ्रातरं तनयं सुताम् ।
गुरोः कुलं च भगिनीं चक्षुर्हीनं च बान्धवम् ॥ ३३ ॥
श्वश्रूं च श्वशुरं चैव यो न पुष्णाति सुन्दरि ।
स महापातकी पूतो मद्‍भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ ३४ ॥
हे सुन्दरि ! जो पिता, माता, पत्नी, भाई, पुत्र, पुत्री, गुरुकुल, बहन, नेत्रहीन, बन्धु-बान्धव, सास तथा श्वसुरका भरण-पोषण नहीं करता, वह महापापी भी मेरे भक्तके दर्शन तथा स्पर्शसे पवित्र हो जाता है ॥ ३३-३४ ॥

अश्वत्थनाशकश्चैव मद्‍भक्तनिन्दकस्तथा ।
शूद्रान्नभोजी विप्रश्च पूतो मद्‍भक्तदर्शनात् ॥ ३५ ॥
पीपलका वृक्ष काटनेवाला, मेरे भक्तोंकी निन्दा करनेवाला तथा शूद्रोंका अन्न खानेवाला ब्राह्मण भी मेरे भक्तके दर्शनसे पवित्र हो जाता है ॥ ३५ ॥

देवद्रव्यापहारी च विप्रद्रव्यापहारकः ।
लाक्षालोहरसानां च विक्रेता दुहितुस्तथा ॥ ३६ ॥
महापातकिनश्चैव शूद्राणां शवदाहकः ।
भवेयुरेते पूताश्च मद्‍भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ ३७ ॥
देवधन तथा विप्रधनका हरण करनेवाला, लाहलोहा-रस तथा कन्याका विक्रय करनेवाला, महान् पातकी तथा शुद्रोंका शव जलानेवाला-ये सभी मेरे भक्तके स्पर्श तथा दर्शनसे पवित्र हो जाते हैं ॥ ३६-३७ ॥

महालक्ष्मीरुवाच
भक्तानां लक्षणं ब्रूहि भक्तानुग्रहकातर ।
येषां तु दर्शनस्पर्शात्सद्यः पूता नराधमाः ॥ ३८ ॥
हरिभक्तिविहीनाश्च महाहङ्‌कारसंयुतः ।
स्वप्रशंसारता धूर्ताः शठाश्च साधुनिन्दकाः ॥ ३९ ॥
पुनन्ति सर्वतीर्थानि येषां स्नानावगाहनात् ।
येषां च पादरजसा पूता पादोदकान्मही ॥ ४० ॥
येषां संदर्शनं स्पर्शं ये वा वाञ्छन्ति भारते ।
सर्वेषां परमो लाभो वैष्णवानां समागमः ॥ ४१ ॥
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्त्यपि कालेन विष्णुभक्ताः क्षणादहो ॥ ४२ ॥
महालक्ष्मी बोलीं-भक्तोंपर कृपा करनेहेतु आतुर रहनेवाले हे प्रभो ! अब आप अपने भक्तोंका लक्षण बतलाइये जिनके दर्शन तथा स्पर्शसे हरिभक्तिसे रहित, महान् अहंकारी, सदा अपनी प्रशंसामें लगे रहनेवाले, धूर्त, शठ, साधुनिन्दक तथा अत्यन्त अधम मनुष्य भी तत्काल पवित्र हो जाते हैं जिनके स्नान तथा अवगाहनसे सभी तीर्थ पवित्र हो जाते हैं जिनके चरणरज तथा चरणोदकसे पृथ्वी पवित्र हो जाती है एवं जिनके दर्शन तथा स्पर्शको इच्छा भारतवर्षमें सभी लोग करते रहते हैं । विष्णुभक्तोंका समागम सभीके लिये परम लाभकारी होता है । जलमय तीर्थ तीर्थ नहीं है और मृण्मय तथा प्रस्तरमय देवता भी देवता नहीं हैं; क्योंकि वे बहुत समय बाद पवित्र करते हैं, किंतु यह आश्चर्य है कि विष्णुभक्त क्षणभरमें ही पवित्र कर देते हैं ॥ ३८-४२ ॥

सूत उवाव
महालक्ष्मीवचः श्रुत्वा लक्ष्मीकान्तश्च सस्मितः ।
निगूढतत्त्वं कथितुमपि श्रेष्ठोपचक्रमे ॥ ४३ ॥
सूतजी बोले-महालक्ष्मीकी बात सुनकर कमलाकान्त श्रीहरि मुसकरा दिये और इसके बाद श्रेष्ठ तथा गूढ रहस्य कहनेके लिये उद्यत हुए ॥ ४३ ॥

श्रीभगवानुवाच
भक्तानां लक्षणं लक्ष्मि गूढं श्रुतिपुराणयोः ।
पुण्यस्वरूपं पापघ्नं सुखदं भुक्तिमुक्तिदम् ॥ ४४ ॥
सारभूतं गोपनीयं न वक्तव्यं खलेषु च ।
त्वां पवित्रां प्राणतुल्यां कथयामि निशामय ॥ ४५ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे लक्ष्मि ! भक्तोंके लक्षण वेदों तथा पुराणोंमें रहस्यरूपमें प्रतिपादित हैं । वे पुण्यस्वरूप, पापोंका नाश करनेवाले, सुखप्रद तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं । ऐसे सारभूत तथा गोपनीय लक्षणोंको दुष्टोंके समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिये । तुम शुद्धस्वरूपा एवं प्राणप्रियासे इसे कह रहा हूँ, सुनो ॥ ४४-४५ ॥

गुरुवक्त्राद्विष्णुमन्त्रो यस्य कर्णे पतिष्यति ।
वदन्ति वेदास्तं चापि पवित्रं च नरोत्तमम् ॥ ४६ ॥
पुरुषाणां शतं पूर्वं तथा तज्जन्ममात्रतः ।
स्वर्गस्थं नरकस्थं वा मुक्तिमाप्नोति तत्क्षणात् ॥ ४७ ॥
यैः कैश्चिद्यत्र वा जन्म लब्धं येषु च जन्तुषु ।
जीवन्मुक्तास्तु ते पूता यान्ति काले हरेः पदम् ॥ ४८ ॥
गुरुके मुखसे निकले विष्णुमन्त्र जिस मनुष्यके कानमें पड़ते हैं, वेद उसीको पवित्र तथा नरोंमें श्रेष्ठ कहते हैं । उस मनुष्यके जन्ममात्रसे पूर्वक सौ पुरुष चाहे वे स्वर्गमें हों या नरकमें हो, उसी क्षण मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, उनमें जो कोई भी जिन योनियोंमें जहाँ कहीं भी जन्म प्राप्त किये रहते हैं, वे वहींपर पवित्र तथा जीवन्मुक्त हो जाते हैं और समयानुसार भगवान् विष्णुके परमधाम पहुँच जाते हैं ॥ ४६-४८ ॥

मद्‍भक्तियुक्तो मर्त्यश्च स मुक्तो मद्‌गुणान्वितः ।
मद्‌गुणाधीनवृत्तिर्यः कथाविष्टश्च सन्ततम् ॥ ४९ ॥
मद्‌गुणश्रुतिमात्रेण सानन्दः पुलकान्वितः ।
सगद्‌गदः साश्रुनेत्रः स्वात्मविस्मृत एव च ॥ ५० ॥
न वाञ्छति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् ।
ब्रह्मत्वममरत्वं वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥ ५१ ॥
इन्द्रत्वं च मनुत्वं च ब्रह्मत्वं च सुदुर्लभम् ।
स्वर्गराज्यादिभोगं च स्वप्नेऽपि च न वाञ्छति ॥ ५२ ॥
जो मेरे गुणोंके अनुसार आचरण करता है तथा निरन्तर मेरी कथाओंमें ही आसक्त रहता है, मेरी भक्तिसे युक्त वह मनुष्य मेरे गुणोंसे युक्त होकर मुक्त हो जाता है । मेरे गुणोंके श्रवणमात्रसे वह आनन्दविभोर हो जाता है, उसका शरीर पुलकित हो उठता है, हर्षातिरेकके कारण उसका गला भर आता है, उसकी आँखोंमें आँसू आ जाते हैं और वह अपनेको भूल जाता है । वह सुख, सालोक्य आदि चार प्रकारकी मुक्ति, ब्रह्माका पद अथवा अमरत्व आदि कुछ भी नहीं चाहता है । वह सदा मेरी ही सेवामें लगा रहना चाहता है । वह स्वप्नमें भी इन्द्र, मनु, ब्रह्मा आदिके अत्यन्त दुर्लभ पदों तथा स्वर्गके राज्य आदिके भोगोंकी कामना नहीं करता है ॥ ४९-५२ ॥

भ्रमन्ति भारते भक्तास्तादृग्जन्म सुदुर्लभम् ।
मद्‌गुणश्रवणाः श्राव्यगानैर्नित्यं मुदान्विताः ॥ ५३ ॥
ते यान्ति च महीं पूत्वा नरं तीर्थं ममालयम् ।
इत्येवं कथितं सर्वं पद्मे कुरु यथोचितम् ।
तदाज्ञया तास्तच्चक्रुर्हरिस्तस्थौ सुखासने ॥ ५४ ॥
मेरे भक्त भारतवर्षमें भ्रमण करते रहते हैं, भक्तोंका वैसा जन्म अत्यन्त दुर्लभ है । वे सदा मेरे गुणोंका श्रवण करते हुए तथा सुनानेयोग्य गीतोंको गाते हुए नित्य आनन्दित रहते हैं । अन्तमें वे मनुष्यों, तीर्थों तथा पृथ्वीको पवित्र करके मेरे धाम चले जाते हैं । हे पी ! इस प्रकार मैंने तुमसे यह सब कह दिया । अब तुम्हें जो उचित प्रतीत हो, वह करो । तत्पश्चात् उन श्रीहरिकी आज्ञाके अनुसार वे कार्य करने में संलग्न हो गयीं और स्वयं भगवान् अपने सुखदायक आसनपर विराजमान हो गये ॥ ५३-५४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापूराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
सहितायां नवमस्कन्धे गङ्‌गादीनां
शापोद्धारवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायां नवमस्कन्धे गङ्‌गादीनां शापोद्धारवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥


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