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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
त्रयोदशोऽध्यायः

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गङ्‌गोपाख्यानवर्णनम् -
श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना -


नारद उवाच
कलेः पञ्चसहस्राब्दे समतीते सुरेश्वर ।
क्व गता सा महाभाग तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे सुरेश्वर ! कलिके पाँच हजार वर्ष व्यतीत हो जानेपर वे गंगा कहाँ चली गयौं ? हे महाभाग ! मुझे वह प्रसंग बतानेकी कृपा कीजिये ॥ १ ॥

श्रीनारायण उवाच
भारतं भारतीशापात्समागत्येश्वरेच्छया ।
जगाम तत्र वैकुण्ठे शापान्ते पुनरेव सा ॥ २ ॥
भारती भारतं त्यक्त्वा तज्जगाम हरेः पदम् ।
पद्मावती च शापान्ते गङ्‌गा सा चैव नारद ॥ ३ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! सरस्वतीके शापके प्रभावसे वे गंगा भारतवर्ष में आयीं और पुनः शापकी अवधि बीत जानेपर श्रीहरिकी इच्छासे वैकुण्ठ चली गयीं । इसी प्रकार सरस्वती और पद्मावतीनदी-स्वरूपिणी वे लक्ष्मी भी शापके अन्तमें भारत छोड़कर उन विष्णुके लोकमें चली गयीं ॥ २-३ ॥

गङ्‌गा सरस्वती लक्ष्यीश्चैतास्तिस्रः प्रिया हरेः ।
तुलसीसहिता ब्रह्मंश्चतस्रः कीर्तिताः श्रुतौ ॥ ४ ॥
हे ब्रह्मन् ! गंगा, सरस्वती और लक्ष्मी-ये तीनों ही भगवान् श्रीहरिकी भार्याएँ हैं । साथ ही तुलसीसहित भगवान् श्रीहरिकी चार स्त्रियाँ वेदोंमें कही गयी हैं ॥ ४ ॥

नारद उवाच
केनोपायेन सा देवी विष्णुपादाब्जसम्भवा ।
ब्रह्मकमण्डलुस्था च श्रुता शिवप्रिया च सा ॥ ५ ॥
बभूव सा मुनिश्रेष्ठ गङ्‌गा नारायणप्रिया ।
अहो केन प्रकारेण तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ६ ॥
नारदजी बोले-हे भगवन् ! विष्णुके चरणकमलोंसे प्रकट होकर वे गंगाजी किस प्रकार ब्रह्माके कमण्डलुमें स्थित हुई और शिवकी प्रियाके रूपमें कैसे विख्यात हुई ? हे मुनिश्रेष्ठ ! वे गंगा भगवान् नारायणकी भी प्रेयसी किस प्रकार हुई, वह सब मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ ५-६ ॥

श्रीनारायण उवाच
पुरा बभूव गोलोके सा गङ्‌गा द्रवरूपिणी ।
राधाकृष्णाङ्‌गसम्भूता तदंशा तत्स्वरूपिणी ॥ ७ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] प्राचीन कालमें द्रवरूपिणी वे गंगा गोलोकमें विराजमान थीं । राधा और श्रीकृष्णके अंगसे आविर्भूत वे गंगा उन्हींके अंश तथा स्वरूपवाली हैं ॥ ७ ॥

द्रवाधिष्ठातृदेवी या रूपेणाप्रतिमा भुवि ।
नवयौवनसम्पन्ना सर्वाभरणभूषिता ॥ ८ ॥
जलमयी गंगाकी जो अधिष्ठात्री देवी हैं, वे अनुपम रूप धारणकर पृथ्वीलोकमें आयीं । उनका श्रीविग्रह नूतन यौवनसे सम्पन्न तथा सभी प्रकारके अलंकारोंसे विभूषित था ॥ ८ ॥

शरन्मध्याह्नपद्मास्या सस्मिता सुमनोहरा ।
तप्तकाञ्चनवर्णाभा शरच्चन्द्रसमप्रभा ॥ ९ ॥
शरद् ऋतुके मध्याह्नकालमें खिले हुए कमलके समान प्रतीत होनेवाला उनका मुखमण्डल मुसकानसे युक्त तथा अत्यन्त मनोहर था । उनके शरीरका वर्ण तप्त स्वर्णकी आभाके समान तथा कान्ति शरत्कालीन चन्द्रमाके समान थी ॥ ९ ॥

स्निग्धप्रभातिसुस्निग्धा शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी ।
सुपीनकठिनश्रोणिः सुनितम्बयुगंधरा ॥ १० ॥
वे स्निग्ध प्रभावाली देवी अत्यन्त दयालु मुद्रामें थीं । उनका स्वरूप शुद्ध तथा सात्त्विक था । उनके जघन स्थूल तथा कठोर थे । उनके नितम्बयुगल अत्यन्त सुन्दर थे ॥ १० ॥

पीनोन्नतं सुकठिनं स्तनयुग्मं सुवर्तुलम् ।
सुचारुनेत्रयुगलं सुकटाक्षं सुवंक्रिमम् ॥ ११ ॥
वंक्रिमं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुतम् ।
सिन्दूरबिन्दुललितं सार्धं चन्दनबिन्दुभिः ॥ १२ ॥
कस्तूरीपत्रिकायुक्तं गण्डयुग्मं मनोरमम् ।
बन्धूककुसुमाकारमधरोष्ठं च सुन्दरम् ॥ १३ ॥
पक्वदाडिमबीजाभदन्तपंक्तिसमुज्ज्वलम् ।
वाससी वह्निशुद्धे च नीवीयुक्ते च बिभ्रती ॥ १४ ॥
सा सकामा कृष्णपार्श्वे समुवास सुलज्जिता ।
वाससा मुखमाच्छाद्य लोचनाभ्यां विभोर्मुखम् ॥ १५ ॥
निमेषरहिताभ्यां च पिबन्ती सततं मुदा ।
प्रफुल्लवदना हर्षान्नवसङ्‌गमलालसा ॥ १६ ॥
उनका वक्षःस्थल उन्नत, स्थूल, कठोर तथा गोल था । कटाक्षयुक्त तथा वक्राकार उनकी दोनों आँखें बड़ी सुन्दर थीं । मालतीके पुष्प-हारसे सुसज्जित उनके केशपाश धुंघराले थे । उनका ललाट चन्दनके तिलकके साथ-साथ सिन्दूरकी बिन्दियोंसे सुशोभित हो रहा था । उनके दोनों गण्डस्थलोपर कस्तूरीसे मनोहर पत्र-रचनाएँ की हुई थीं । उनका अधरोष्ठ बन्धूकके पुष्पके समान अत्यन्त सुन्दर था । उनके दाँतोंकी अति उज्ज्वल पंक्ति पके हुए अनारके दानोंकी भौति चमक रही थी । वे अग्निके समान पवित्र तथा नीवीयुक्त दो वस्त्र धारण किये हुए थीं । कामभाववाली वे गंगाजी वस्त्रसे मुँह ढंककर लजित होती हुई श्रीकृष्णके पास विराजमान हो गयीं और प्रसन्न होकर अपलक नेत्रोंसे प्रभुके मुख-सौन्दर्यका निरन्तर पान करने लगी । हर्षके कारण नवीन संगमकी लालसासे युक्त उन गंगाका मुखमण्डल प्रसन्नतासे खिल उठा और उनके शरीरका रोम-रोम पुलकित हो गया । प्रभु श्रीकृष्णके रूपसे वे चेतनारहित-सी हो गयी थीं ॥ ११-१६ ॥

मूर्च्छिता प्रभुरूपेण पुलकाङ्‌कितविग्रहा ।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र विद्यमाना च राधिका ॥ १७ ॥
गोपीत्रिंशत्कोटियुक्ता चन्द्रकोटिसमप्रभा ।
कोपेनारक्तपद्मास्या रक्तपङ्‌कजलोचना ॥ १८ ॥
पीतचम्पकवर्णाभा गजेन्द्रमन्दगामिनी ।
अमूल्यरत्‍ननिर्माणनानाभूषणभूषिता ॥ १९ ॥
अमूल्यरत्‍नखचितममूल्यं वह्निशौचकम् ।
पीतवस्त्रस्य युगलं नीवीयुक्तं च बिभ्रती ॥ २० ॥
स्थलपद्मप्रभामुष्टं कोमलं च सुरञ्जितम् ।
कृष्णदत्तार्घ्यसंयुक्तं विन्यसन्ती पदाम्बुजम् ॥ २१ ॥
रत्‍नेन्द्रसारनिर्माणविमानादवरुह्य सा ।
सेव्यमाना च ऋषिभिः श्वेतचामरवायुना ॥ २२ ॥
कस्तूरीबिन्दुभिर्युक्तं चन्दनेन समन्वितम् ।
दीप्तदीपप्रभाकारं सिन्दूरं बिन्दुशोभितम् ॥ २३ ॥
दधती भालमध्ये च सीमन्ताधःस्थलोज्ज्वले ।
पारिजातप्रसूनानां मालायुक्तं सुवंक्रिमम् ॥ २४ ॥
सुचारुकबरीभारं कम्पयन्ती सुकम्पिता ।
सुचारुरागसंयुक्तमोष्ठं कम्पयती रुषा ॥ २५ ॥
गत्वोवास कृष्णपार्श्वे रत्‍नसिंहासने शुभे ।
सखीनां च समूहैश्च परिपूर्णा विभोः प्रिया ॥ २६ ॥
इसी बीच राधिका वहाँ आकर विराजमान हो गयीं । उनके साथ तीस करोड़ गोपियाँ भी थीं । उनके शरीरकी कान्ति करोड़ों चन्द्रमाओंकी प्रभाके समान थी; कोपके कारण उनके मुख तथा नेत्र लाल कमलके समान प्रतीत हो रहे थे; उनके श्रीविग्रहका वर्ण पीले चम्पक-पुष्पके समान आभावाला था; वे मत्त गजराजकी भाँति मन्द गतिवाली थी; बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित अनेक प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत थीं; वे अपने शरीरपर अमूल्य रत्नोंसे जटित तथा अग्निके समान पवित्र दो नीवीयुक्त बहुमूल्य पीले वस्त्र धारण किये हुए थी, वे स्थल-कमलकी कान्तिको तिरस्कृत करनेवाले, कोमल, सुरंजित तथा भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा प्रदत्त अय॑से सुशोभित चरण-कमलोंको धीरे-धीरे रख रही थीं; वे देवी सर्वोत्तम रत्नोंसे बने हुए विमानसे उतरकर वहाँ उपस्थित हुई थीं; स्वच्छ चँवरकी वायुसे ऋषियोंके द्वारा उनकी सेवा की जा रही थी; कस्तूरीके बिन्दुओंसे युक्त, चन्दन-मिश्रित, प्रज्वलित दीपकके समान आकारवाला तथा बिन्दुरूपमें शोभायमान सिन्दूर उनके ललाटके मध्य भागमें सुशोभित हो रहा था, उनके सीमन्त (माँग)-का निचला भाग परम स्वच्छ था, पारिजातके पुष्पोंकी मालासे सुशोभित अपनी घुँघराली तथा सुन्दर अलकावलीको कँपाती हुई वे स्वयं भी कम्पित हो रही थीं, ऐसी वे राधा रोषके कारण अपने सुन्दर तथा रागयुक्त ओष्ठ कैंपाती हुई भगवान् श्रीकृष्णके पास जाकर रत्नमय सुन्दर सिंहासनपर विराजमान हो गयीं । प्रभु श्रीकृष्णकी प्रिया उन राधाके साथ सखियोंका महान् समुदाय विद्यमान था ॥ १७-२६ ॥

तां दृष्ट्वा च समुत्तस्थौ कृष्णः सादरपूर्वकम् ।
सम्भाष्य मधुरालापैः सस्मितश्च ससंभ्रमः ॥ २७ ॥
उन्हें देखते ही भगवान् श्रीकृष्ण आदरपूर्वक उठ खड़े हुए और आश्चर्यपूर्ण मुद्रामें मुसकराते हुए उनसे मधुर बातें करने लगे ॥ २७ ॥

प्रणेमुरतिसन्त्रस्ता गोपा नम्रात्मकन्धराः ।
तुष्टुवुस्ते च भक्त्या च तुष्टाव परमेश्वरः ॥ २८ ॥
उस समय अत्यन्त भयभीत गोपोंने सिर झुकाकर भगवती राधिकाको प्रणाम किया और फिर वे भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करने लगे । साथ ही परमेश्वर श्रीकृष्णने भी राधिकाकी स्तुति की ॥ २८ ॥

उत्थाय गङ्‌गा सहसा स्तुतिं बहु चकार सा ।
कुशलं परिपप्रच्छ भीतातिविनयेन च ॥ २९ ॥
तदनन्तर गंगाने भी तुरन्त उठकर राधिकाकी बहुत स्तुति की । भयभीत उन गंगाने अति विनम्रतापूर्वक राधासे कुशल पूछा ॥ २९ ॥

नम्रभागस्थिता त्रस्ता शुष्ककण्ठोष्ठतालुका ।
ध्यानेन शरणायत्ता श्रीकृष्णचरणाम्बुजे ॥ ३० ॥
वे डरके मारे झुककर खड़ी थीं । उनके कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गये थे । उन्होंने ध्यानपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलकी शरण ली ॥ ३० ॥

तां हृत्पद्मस्थितां कृष्णो भीतायै चाभयं ददौ ।
बभूव स्थिरचित्ता सा सर्वेश्वरवरेण च ॥ ३१ ॥
अपने हदयकमलपर स्थित उन गंगाको देखकर भगवान् श्रीकृष्णने उन भयभीत देवीको अभय प्रदान किया । सर्वेश्वर श्रीकृष्णसे वर पाकर देवी गंगाका चित्त शान्त हो गया ॥ ३१ ॥

ऊर्ध्वसिंहासनस्थां च राधां गङ्‌गा ददर्श सा ।
सुस्निग्धां सुखदृश्यां च ज्वलन्तीं ब्रह्मतेजसा ॥ ३२ ॥
तदनन्तर गंगाने राधाको ऊँचे आसनपर विराजमान देखा । उनका रूप परम मनोहर था, उन्हें देखने में सुख प्राप्त हो रहा था और वे ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान हो रही थीं ॥ ३२ ॥

असंख्यब्रह्मणः कर्त्रीमादिसृष्टेः सनातनीम् ।
सदा द्वादशवर्षीयां कन्याभिनवयौवनाम् ॥ ३३ ॥
वे सनातन देवी सृष्टिके आरम्भमें असंख्य ब्रह्माओंकी रचना करनेवाली हैं और नवीन यौवनसे युक्त कन्याके समान सदा बारह वर्षकी अवस्थामें रहती हैं ॥ ३३ ॥

विश्ववृन्दे निरुपमां रूपेण च गुणेन च ।
शान्तां कान्तामनन्तां तामाद्यन्तरहितां सतीम् ॥ ३४ ॥
शुभां सुभद्रां सुभगां स्वामिसौभाग्यसंयुताम् ।
सौन्दर्यसुन्दरीं श्रेष्ठां सर्वासु सुन्दरीषु च ॥ ३५ ॥
सम्पूर्ण विश्वमें रूप तथा गुणमें उनके समान कोई नहीं है । वे परम शान्त, कमनीय, अनन्त, आदिअन्तसे रहित, साध्वी, पवित्र, कल्याणमयी, सुन्दर भाग्यवाली तथा अपने स्वामीके सौभाग्यसे सम्पन्न रहती हैं । वे सम्पूर्ण सुन्दरियोंमें श्रेष्ठ तथा सौन्दर्यसे सुशोभित हैं ॥ ३४-३५ ॥

कृष्णार्धाङ्‌गां कृष्णसमां तेजसा वयसा त्विषा ।
पूजितां च महालक्ष्मीं लक्ष्म्या लक्ष्मीश्वरेण च ॥ ३६ ॥
वे श्रीकृष्णकी अर्धांगिनी हैं । तेज, आयु और कान्तिमें वे श्रीकृष्णके ही सदृश हैं । लक्ष्मीपति श्रीविष्णुके द्वारा लक्ष्मीसहित वे महालक्ष्मीस्वरूपा राधिका पूजित हैं ॥ ३६ ॥

प्रच्छाद्यमानां प्रभया सभामीशस्य सुप्रभाम् ।
सखीदत्तं च ताम्बूलं भुक्तवन्तीं च दुर्लभम् ॥ ३७ ॥
वे राधिका परमात्मा श्रीकृष्णकी प्रभामयी सभाको अपनी कान्तिसे सदा आच्छादित किये रहती हैं । वे सखियोंके द्वारा प्रदत्त दुर्लभ ताम्बूलका सदा सेवन करती रहती हैं ॥ ३७ ॥

अजन्यां सर्वजननीं धन्यां मान्यां च मानिनीम् ।
कृष्णप्राणाधिदेवीं च प्राणप्रियतमां रमाम् ॥ ३८ ॥
वे स्वयं अजन्मा होती हुई भी सम्पूर्ण जगत्की जननी हैं । वे भगवान् श्रीकृष्णको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय, उनके प्राणोंकी अधिष्ठातृदेवी, धन्य, मान्य तथा मानिनी और मनोरम हैं ॥ ३८ ॥

दृष्ट्वा रासेश्वरीं तृप्तिं न जगाम सुरेश्वरी ।
निमेषरहिताभ्यां च लोचनाभ्यां पपौ च ताम् ॥ ३९ ॥
[हे नारद !] उस समय उन रासेश्वरी राधिकाको देखकर सुरेश्वरी गंगा तृप्त नहीं हुई और वे अपलक नेत्रोंसे राधाकी सौन्दर्य-सुधाका पान करने लगीं ॥ ३९ ॥

एतस्मिन्नन्तरे राधा जगदीशमुवाच सा ।
वाचा मधुरया शान्ता विनीता सस्मिता मुने ॥ ४० ॥
हे मुने ! इसी बीच शान्त तथा विनम्र स्वभाववाली राधा मुसकराकर मधुर वाणीमें जगदीश्वर श्रीकृष्णसे कहने लगीं ॥ ४० ॥

राधोवाच
केयं प्राणेश कल्याणी सस्मिता त्वन्मुखाम्बुजम् ।
पश्यन्ती सस्मितं पार्श्वे सकामा वक्रलोचना ॥ ४१ ॥
मूर्च्छां प्राप्नोति रूपेण पुलकाङ्‌कितविग्रहा ।
वस्त्रेण मुखमाच्छाद्य निरीक्षन्ती पुनः पुनः ॥ ४२ ॥
राधा बोलीं-हे प्राणेश ! पासमें बैठकर आपके मुसकानयुक्त मुखकमलको मुसकराकर तिरछी दृष्टिसे देखती हुई यह कामनायुक्त सुन्दरी कौन है ? अपना मुख वस्त्रसे ढंककर आपके रूपको बार-बार देखती हुई पुलकित शरीरवाली यह सुन्दरी चेतनारहित हो जाया करती है । ४१-४२ ॥

त्वं चापि तां संनिरीक्ष्य सकामः सस्मितः सदा ।
मयि जीवति गोलोके भूता दुर्वृत्तिरीदृशी ॥ ४३ ॥
त्वमेव चैव दुर्वृत्तं वारं वारं करोषि च ।
क्षमां करोमि प्रेम्णा च स्त्रीजातिः स्निग्धमानसा ॥ ४४ ॥
आप भी कामनायुक्त होकर उसकी ओर देखकर हँस रहे हैं । मेरे जीवित रहते गोलोकमें ऐसी दुर्वृत्तिवाली स्त्री कैसे आयी ? और आप भी बार-बार दुश्चेष्टा करते जा रहे हैं । कोमल स्वभाववाली स्त्रीजाति होनेके कारण प्रेमवश मैं आपको क्षमा कर दे रही हूँ ॥ ४३-४४ ॥

संगृह्येमां प्रियामिष्टां गोलोकाद्‌ गच्छ लम्पट ।
अन्यथा न हि ते भद्रं भविष्यति व्रजेश्वर ॥ ४५ ॥
हे कामी व्रजेश्वर ! अपनी इस अभीष्ट प्रेयसीको लेकर आप अभी गोलोकसे चले जाइये, अन्यथा आपका कल्याण नहीं है । ॥ ४५ ॥

दृष्टस्त्वं विरजायुक्तो मया चन्दनकानने ।
क्षमा कृता मया पूर्वं सखीनां वचनादहो ॥ ४६ ॥
एक बार पूर्वमें मैंने आपको चन्दनवनमें विरजाके साथ देखा था । सखियोंका वचन मानकर मैंने उस समय क्षमा कर दिया था ॥ ४६ ॥

त्वया मच्छब्दमात्रेण तिरोधानं कृतं पुरा ।
देहं तत्याज विरजा नदीरूपा बभूव सा ॥ ४७ ॥
मेरी ध्वनि सुनते ही आप उस समय छिप गये थे । विरजाने वह शरीर त्याग दिया और उसने नदीका रूप धारण कर लिया था । ४७ ॥

कोटियोजनविस्तीर्णा ततो दैर्घ्ये चतुर्गुणा ।
अद्यापि विद्यमाना सा तव सत्कीर्तिरूपिणी ॥ ४८ ॥
वे देवी आज भी एक करोड़ योजन चौड़ाई तथा उससे भी चार गुनी लम्बाईवाली आपकी सत्कीर्तिस्वरूपिणी नदीके रूपमें विद्यमान हैं ॥ ४८ ॥

गृहं मयि गतायां च पुनर्गत्वा तदन्तिके ।
उच्चै रुरोद विरजे विरजे चेति संस्मरन् ॥ ४९ ॥
मेरे घर चले जानेपर आप पुनः उसके पास जाकर विरजे ! विरजे ! ऐसा कहते हुए जोर-जोरसे रोने लगे थे ॥ ४९ ॥

तदा तोयात्समुत्थाय सा योगात्सिद्धयोगिनी ।
सालङ्‌कारा मूर्तिमती ददौ तुभ्यं च दर्शनम् ॥ ५० ॥
तब उस सिद्धयोगिनीने योगबलके प्रभावसे जलसे बाहर निकलकर अलंकारयुक्त मूर्तिमती सुन्दरीके रूपमें आपको दर्शन दिया था ॥ ५० ॥

ततस्तां च समाक्षिप्य वीर्याधानं कृतं त्वया ।
ततो बभूवुस्तस्यां च समुद्राः सप्त एव च ॥ ५१ ॥
उस समय आपने उसमें अपने तेजका आधान किया था और समयानुसार उससे सात समुद्र उत्पन्न हुए ॥ ५१ ॥

दृष्टस्त्वं शोभया गोप्या युक्तश्चम्पककानने ।
सद्यो मच्छब्दमात्रेण तिरोधानं कृतं त्वया ॥ ५२ ॥
शोभा देहं परित्यज्य जगाम चन्द्रमण्डले ।
ततस्तस्याः शरीरं च स्निग्धं तेजो बभूव ह ॥ ५३ ॥
इसी प्रकार मैंने आपको शोभा नामक गोपीके साथ चम्पक वनमें देखा था । उस समय भी मेरी ध्वनि सुनते ही आप छिप गये थे और बह शोभा शरीर छोड़कर चन्द्रमण्डलमें चली गयी थी । तब उसका शरीर परम सुन्दर तथा तेजोमय हो गया था ॥ ५२-५३ ॥

संविभज्य त्वया दत्तं हृदयेन विदूयता ।
रत्‍नाय किञ्चित्स्वर्णाय किञ्चिन्मणिवराय च ॥ ५४ ॥
किञ्चित्स्त्रीणां मुखाब्जेभ्यः किञ्चिद्राज्ञे च किञ्चन ।
किञ्चित्किसलयेभ्यश्च पुष्पेभ्यश्चापि किञ्चन ॥ ५५ ॥
किञ्चित्कलेभ्यः पक्वेभ्यः सस्येभ्यश्चापि किञ्चन ।
नृपदेवगृहेभ्यश्च संस्कृतेभ्यश्च किञ्चन ॥ ५६ ॥
किञ्चिन्नूतनपत्रेभ्यो दुग्धेभ्यश्चापि किञ्चन ।
तत्पश्चात् आपने दुःखित हृदयसे उस तेजको विभक्त करके कुछ तेज रत्नको, कुछ स्वर्णको, कुछ श्रेष्ठ मणियोंको, कुछ स्त्रियोंके मुखकमलको, कुछ राजाको, कुछ नव पल्लवोंको, कुछ पुष्पोंको, कुछ पके फलोंको, कुछ फसलोंको, कुछ राजाओंके सुसज्जित महलोंको, कुछ नये पत्तोंको और कुछ तेज दुग्धको प्रदान कर दिया ॥ ५४-५६.५ ॥

दृष्टस्त्वं प्रभया गोप्या युक्तो वृन्दावने वने ॥ ५७ ॥
सद्यो मच्छब्दमात्रेण तिरोधानं कृतं त्वया ।
प्रभा देहं परित्यज्य जगाम सूर्यमण्डले ॥ ५८ ॥
इसी प्रकार मैंने वृन्दावनमें आपको प्रभा नामक गोपीके साथ देखा था । उस समय आप मेरा शब्द सुनते ही शीघ्रतापूर्वक छिप गये थे और प्रभा अपनी देह त्यागकर सूर्यमण्डलमें चली गयी थी ॥ ५७-५८ ॥

ततस्तस्याः शरीरं च तीव्रं तेजो बभूव ह ।
संविभज्य त्वया दत्तं प्रेम्णा प्ररुदता पुरा ॥ ५९ ॥
विसृष्टं चक्षुषोः कृष्ण लज्जया मद्‍भयेन च ।
हुताशनाय किञ्चिच्च यक्षेभ्यश्चापि किञ्चन ॥ ६० ॥
किञ्चित्पुरुषसिंहेभ्यो देवेभ्यश्चापि किञ्चन ।
किञ्चिद्विष्णुजनेभ्यश्च नागेभ्योऽपि च किञ्चन ॥ ६१ ॥
ब्राह्मणेभ्यो मुनिभ्यश्च तपस्विभ्यश्च किञ्चन ।
स्त्रीभ्यः सौभाग्ययुक्ताभ्यो यशस्विभ्यश्च किञ्चन ॥ ६२ ॥
तत्तु दत्त्वा च सर्वेभ्यः पूर्वं प्ररुदितं त्वया ।
उस समय उसका शरीर अत्यन्त तेजोमय हो गया था और आपने रोते-रोते उस तेजको प्रेमपूर्वक विभाजित करके जगह-जगह स्थान प्रदान कर दिया था । हे कृष्ण ! लज्जा तथा मेरे भयके कारण आपकी आँखोंसे निकले हुए उस तेजको आपने कुछ अग्निको कुछ यक्षोंको, कुछ राजाओंको, कुछ देवताओंको, कुछ विष्णुभक्तोंको, कुछ नागोंको, कुछ ब्राह्मण-मुनि तथा तपस्वियोंको और कुछ तेज सौभाग्यवती स्त्रियों तथा यशस्वी पुरुषोंको प्रदान कर दिया । इस प्रकार इन सबको वह तेज प्रदान करके पूर्व कालमें आपने बहुत रुदन किया था ॥ ५९-६२.५ ॥

शान्तिगोप्या युतस्त्वं च दृष्टोऽसि रासमण्डले ॥ ६३ ॥
वसन्ते पुष्पशय्यायां माल्यवांश्चन्दनोक्षितः ।
रत्‍नप्रदीपैर्युक्ते च रत्‍ननिर्माणमन्दिरे ॥ ६४ ॥
रत्‍नभूषणभूषाढ्यो रत्‍नभूषितया सह ।
तया दत्तं च ताम्बूलं भुक्तवांश्च पुरा विभो ॥ ६५ ॥
इसी तरह एक बार मैंने आपको शान्ति नामक गोपीके साथ रासमण्डलमें देखा था । वसन्त ऋतुमें रत्नमय दीपकोंसे युक्त रत्ननिर्मित महलमें आप माला धारण किये तथा शरीरमें चन्दन लगाकर और विभिन्न प्रकारके आभूषण पहनकर अनेकविध रत्नाभूषणोंसे अलंकृत उसके साथ पुष्पकी शय्यापर विराजमान थे । हे विभो ! पूर्वकालमें उसने आपको ताम्बूल दिया और आपने उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण कर लिया था ॥ ६३-६५ ॥

सद्यो मच्छब्दमात्रेण तिरोधानं कृतं त्वया ।
शान्तिर्देहं परित्यज्य भिया लीना त्वयि प्रभो ॥ ६६ ॥
हे प्रभो ! उस समय मेरा शब्द सुनकर आप तुरन्त छिप गये थे और वह शान्ति भयसे अपना देह त्यागकर आपमें समाविष्ट हो गयी थी ॥ ६६ ॥

ततस्तस्याः शरीरं च गुणश्रेष्ठं बभूव ह ।
संविभज्य त्वया दत्तं प्रेम्णा प्ररुदता पुरा ॥ ६७ ॥
विश्वे तु विपिने किञ्चिद्ब्रह्मणे च मयि प्रभो ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपायै किञ्चिल्लक्ष्म्यै पुरा विभो ॥ ६८ ॥
त्वन्मन्त्रोपासकेभ्यश्च शाक्तेभ्यश्चापि किञ्चन ।
तपस्विभ्यश्च धर्माय धर्मिष्ठेभ्यश्च किञ्चन ॥ ६९ ॥
तब उसका शरीर उत्तम गुणोंके रूपमें परिणत हो गया । तदनन्तर रोते हुए आपने उसे विभाजित करके प्रेमपूर्वक विश्वमें बाँट दिया था । हे प्रभो ! उसका कुछ अंश निकुंजमें, कुछ भाग ब्राह्मणोंमें और कुछ भाग मुझ राधामें समाहित हो गया । हे विभो ! फिर आपने उसका कुछ भाग शुद्धस्वरूपा लक्ष्मीको, कुछ भाग अपने मन्त्रके उपासकोंको, कुछ भाग शक्तिकी आराधना करनेवालोंको, कुछ भाग तपस्वियोंको, कुछ भाग धर्मको और कुछ भाग धर्मात्मा पुरुषोंको दे दिया ॥ ६७-६९ ॥

मया पूर्वं च त्वं दृष्टो गोप्या च क्षमया सह ।
सुवेषयुक्तो मालावान् गन्धचन्दनचर्चितः ॥ ७० ॥
रत्‍नभूषितया गन्धचन्दनोक्षितया सह ।
सुखेन मूर्च्छितस्तल्पे पुष्पचन्दनचर्चिते ॥ ७१ ॥
श्लिष्टो निद्रितया सद्यः सुखेन नवसङ्‌गमात् ।
मया प्रबोधिता सा च भवांश्च स्मरणं कुरु ॥ ७२ ॥
इसी तरह पूर्वकालमें मैंने आपको क्षमा नामक गोपीके साथ देखा था । आप सुन्दर वेष धारण करके, माला पहनकर तथा शरीरमें गन्ध और चन्दनका लेप करके रत्नोंके आभूषणोंसे अलंकृत और गन्धचन्दनचर्चित उस क्षमाके साथ पुष्प तथा चन्दनसे सुरभित शय्यापर सुखपूर्वक अचेतावस्थामें विराजमान थे । उस निद्राग्रस्त सुन्दरीके साथ आप सुखपूर्वक क्रीडामें संसक्त थे । उसी समय पहुंचकर मैंने उस क्षमाको तथा आपको जगाया था, इस बातको आप स्मरण कीजिये ॥ ७०-७२ ॥

गृहीतं पीतवस्त्रं च मुरली च मनोहरा ।
वनमालाकौस्तुभश्चाप्यमूल्यं रत्‍नकुण्डलम् ॥ ७३ ॥
पश्चात्प्रदत्तं प्रेम्णा च सखीनां वचनादहो ।
लज्जया कृष्णवर्णोऽभूद्‍भवान् पापेन यः प्रभो ॥ ७४ ॥
उस समय मैंने आपका पीताम्बर, मनोहर मुरली, वनमाला, कौस्तुभ और बहुमूल्य रत्नमय कुण्डल ले लिया था । किंतु बादमें सखियोंके प्रेमपूर्वक कहनेपर उसे आपको लौटा दिया था । हे प्रभो ! उस समय आप लज्जा तथा पापसे कृष्णवर्णके हो गये थे ॥ ७३-७४ ॥

क्षमा देहं परित्यज्य लज्जया पृथिवीं गता ।
ततस्तस्याः शरीरं च गुणश्रेष्ठं बभूव ह ॥ ७५ ॥
संविभज्य त्वया दत्तं प्रेम्णा प्ररुदता पुनः ।
किञ्चिद्दत्तं विष्णवे च वैष्णवेभ्यश्च किञ्चन ॥ ७६ ॥
धार्मिकेभ्यश्च धर्माय दुर्बलेभ्यश्च किञ्चन ।
तपस्विभ्योऽपि देवेभ्यः पण्डितेभ्यश्च किञ्चन ॥ ७७ ॥
तत्पश्चात् लज्जाके कारण क्षमा अपना शरीर त्यागकर पृथ्वीमें समा गयी और उसका शरीर उत्तम गुणोंके रूपमें परिणत हो गया । तब रोते हुए आपने उस क्षमाका विभाजन करके उसे प्रेमपूर्वक अनेक लोगोंको दे दिया । उसका कुछ अंश विष्णुको, कुछ विष्णुभक्तोंको, कुछ धार्मिक पुरुषोंको, कुछ धर्मको, कुछ दुर्बलोंको, कुछ तपस्वियोंको, कुछ देवताओंको और कुछ भाग पण्डितोंको आपने दे दिया था ॥ ७५-७७ ॥

एतत्ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
त्वद्‌गुणं चैव बहुशो न जानामि परं प्रभो ॥ ७८ ॥
हे प्रभो ! यह सब मैंने आपको बता दिया । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? आपके और भी बहुतसे बड़े-बड़े गुण हैं, किंतु मैं सब नहीं जानती ॥ ७८ ॥

इत्येवमुक्त्वा सा राधा रक्तपङ्‌कजलोचना ।
गङ्‌गां वक्तुं समारेभे नम्रास्यां लज्जितां सतीम् ॥ ७९ ॥
गङ्‌गा रहस्यं विज्ञाय योगेन सिद्धयोगिनी ।
तिरोभूय सभामध्ये स्वजलं प्रविवेश सा ॥ ८० ॥
श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर लालकमलके समान नेत्रोंवाली उन राधाने नीचेकी ओर मुख की हुई लज्जित साध्वी गंगासे कहना आरम्भ किया, तभी सिद्धयोगिनी वे गंगा योगके द्वारा सभी रहस्य समझकर सभाके मध्यमें अन्तर्धान होकर अपने जलमें प्रविष्ट हो गयीं ॥ ७९-८० ॥

राधा योगेन विज्ञाय सर्वत्रावस्थितां च ताम् ।
पानं कर्तुं समारेभे गण्डूषात्सिद्धयोगिनी ॥ ८१ ॥
तब सिद्धयोगिनी राधा योगबलके प्रभावसे इस रहस्यको जानकर सर्वत्र विद्यमान उन जलस्वरूपिणी गंगाको अंजलिसे उठाकर मुँहसे पान करने लगीं ॥ ८१ ॥

गङ्‌गा रहस्यं विज्ञाय योगेन सिद्धयोगिनी ।
श्रीकृष्णचरणाम्भोजे विवेश शरणं ययौ ॥ ८२ ॥
तत्पश्चात् सिद्धयोगिनी गंगा योगबलसे इस रहस्यको जान लेनेके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलमें प्रवेश कर गयीं और उनके शरणागत हो गयीं ॥ ८२ ॥

गोलोके सा च वैकुण्ठे ब्रह्मलोकादिके तथा ।
ददर्श राधा सर्वत्र नैव गङ्‌गां ददर्श सा ॥ ८३ ॥
तब राधाने गोलोक, वैकुण्ठ तथा ब्रह्मलोक आदि सभी स्थानोंमें गंगाको खोजा, किंतु उन्हें कहीं भी गंगा दिखायी नहीं दीं ॥ ८३ ॥

सर्वत्र जलशून्यं च शुष्कपङ्‌कं च गोलकम् ।
जलजन्तुसमूहैश्च मृतदेहैः समन्वितम् ॥ ८४ ॥
उस समय सर्वत्र जलका अभाव हो गया तथा सूखा कीचड़ और गोला दिखायी दे रहा था, जो जलचर जन्तुओंके मृत शरीरोंसे युक्त था ॥ ८४ ॥

ब्रह्मविष्णुशिवानन्तधर्मेन्द्रेन्दुदिवाकराः ।
मनवो मुनयः सर्वे देवसिद्धतपस्विनः ॥ ८५ ॥
गोलोकं च समाजग्मुः शुष्ककण्ठोष्ठतालुकाः ।
सर्वे प्रणेमुर्गोविन्दं सर्वेशं प्रकृतेः परम् ॥ ८६ ॥
वरं वरेण्यं वरदं वरिष्ठं वरकारणम् ।
गोपिकागोपवृन्दानां सर्वेषां प्रवरं प्रभुम् ॥ ८७ ॥
निरीहं च निराकारं निर्लिप्तं च निराश्रयम् ।
निर्गुणं च निरुत्साहं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥ ८८ ॥
स्वेच्छामयं च साकारं भक्तानुग्रहकारकम् ।
सत्त्वस्वरूपं सत्येशं साक्षिरूपं सनातनम् ॥ ८९ ॥
परं परेशं परमं परमात्मानमीश्वरम् ।
प्रणम्य तुष्टुवुः सर्वे भक्तिनम्रात्मकन्धराः ॥ ९० ॥
सगद्‌गदाः साश्रुनेत्राः पुलकाङ्‌कितविग्रहाः ।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अनन्त, धर्म, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, मनुगण, मुनिवृन्द, देवता, सिद्ध और तपस्वीये सभी गोलोक चले गये । उस समय उनके कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गये थे । वहाँ पहुँचकर उन सबने प्रकृतिसे भी परे, सर्वेश्वर, श्रेष्ठ, पूज्य, वरदायक, वरिष्ठ, वरके कारणस्वरूप, सभी गोपों तथा गोपिकाओंके समुदायमें सर्वश्रेष्ठ, कामनारहित, निराकार, आसक्तिहीन, निराश्रय, निर्गुण, निरुत्साह, निर्विकार, निर्दोष, अपनी इच्छासे साकार रूपमें प्रकट होनेवाले, भक्तोंपर कृपा करनेवाले, सत्त्वस्वरूप, सत्येश, सबके साक्षीस्वरूप तथा सनातन प्रभु श्रीकृष्णको प्रणाम किया । उन परम परमेश्वर परमात्मा सर्वेश्वर श्रीकृष्णको प्रणाम करके वे सब भक्तिके कारण अपने मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करने लगे । उस समय उनकी वाणी गद्‌गद हो गयी थी, उनकी आँखोंमें आँसू भर आये थे और उनके शरीरके रोम-रोम पुलकित हो गये थे । ८५-९०.५ ॥

सर्वे संस्तूय सर्वेशं भगवन्तं परात्परम् ॥ ९१ ॥
ज्योतिर्मयं परं ब्रह्म सर्वकारणकारणम् ।
अमूल्यरत्‍ननिर्माणचित्रसिंहासनस्थितम् ॥ ९२ ॥
सेव्यमानं च गोपालैः श्वेतचामरवायुना ।
गोपालिकानृत्यगीतं पश्यन्तं सस्मितं मुदा ॥ ९३ ॥
प्राणाधिकप्रियतमं राधावक्षःस्थलस्थितम् ।
तया प्रदत्तं ताम्बूलं भुक्तवन्तं सुवासितम् ॥ ९४ ॥
परिपूर्णतमं रासे ददृशुश्च सुरेश्वरम् ।
मुनयो मनवः सिद्धास्तापसाश्च तपस्विनः ॥ ९५ ॥
प्रहृष्टमनसः सर्वे जग्मुः परमविस्मयम् ।
परस्परं समालोक्य प्रोचुस्ते च चतुर्मुखम् ॥ ९६ ॥
निवेदितं जगन्नाथं स्वाभिप्रायमभीप्सितम् ।
इस प्रकार उन सबने सर्वेश्वर, परात्पर, ज्योतिर्मय विग्रहवाले, परब्रह्म तथा सभी कारणोंके भी कारण, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित, विचित्र सिंहासनपर विराजमान, गोपालोंके द्वारा श्वेत चैवर इलाकर सेवा किये जाते हुए, प्रसन्नतापूर्वक मुसकराते हुए, गोपिकाओंका नृत्यसंगीत देखनेमें संलग्न, राधाके लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रिय, राधाके वक्षःस्थलमें स्थित तथा उन राधाके द्वारा दिये गये सुवासित ताम्बूलका सेवन करते हुए उन परिपूर्णतम सुरेश्वर भगवान्की स्तुति करके उन्हें रासमण्डलमें विराजमान देखा । सभी मुनि, स्वायम्भुव आदि मनु, सिद्ध और तपस्वी महात्मा प्रसन्नचित्त हो गये, उन्हें महान् आश्चर्य हुआ । एक-दूसरेको देखकर वे सभी लोग जगत्प्रभु चतुर्मुख ब्रह्मासे अपना वांछित अभिप्राय कहने लगे ॥ ९१-९६.५ ॥

ब्रह्मा तद्वचनं श्रुत्वा विष्णुं कृत्वा स्वदक्षिणे ॥ ९७ ॥
वामतो वामदेवं च जगाम कृष्णसन्निधिम् ।
परमानन्दयुक्तं च परमानन्दरूपिणीम् ॥ ९८ ॥
उनका वचन सुनकर ब्रह्माजी भगवान् विष्णुको दाहिने और महादेवको बायें करके परम आनन्दसे परिपूर्ण श्रीकृष्ण तथा परमानन्दस्वरूपिणी राधाके पास पहुँचे ॥ ९७-९८ ॥

सर्वं कृष्णमयं धाता ददर्श रासमण्डले ।
सर्वं समानवेषं च समानासनसंस्थितम् ॥ ९९ ॥
द्विभुजं मुरलीहस्तं वनमालाविभूषितम् ।
मयूरपिच्छचूडं च कौस्तुभेन विराजितम् ॥ १०० ॥
अतीव कमनीयं च सुन्दरं शान्तविग्रहम् ।
गुणभूषणरूपेण तेजसा वयसा त्विषा ॥ १०१ ॥
परिपूर्णतमं सर्वं सर्वैश्वर्यसमन्वितम् ।
किं सेव्यं सेवकं किं वा दृष्ट्वा निर्वक्तुमक्षमः ॥ १०२ ॥
क्षणं तेजः स्वरूपं च रूपं तत्र स्थितं क्षणम् ।
निराकारं च साकारं ददर्श द्विविधं क्षणम् ॥ १०३ ॥
उस समय ब्रह्माजीने रासमण्डलमें सब कुछ श्रीकृष्णमय देखा । सबकी वेष-भूषा एक समान थी, सभी लोग समान आसनपर विराजमान थे, सभी लोगों ने दो भुजाओंवाले श्रीकृष्णके रूपमें हाथमें मुरली ले रखी थी, सभी लोग वनमालासे सुशोभित थे, सबके मुकुटमें मोरके पंख लगे थे, सभी लोग कौस्तुभमणिसे शोभायमान हो रहे थे, गुण-भूषण-रूप-तेज-आयु और कान्तिसे सम्पन्न उन सबका विग्रह अत्यन्त कोमल, सुन्दर तथा शान्त था, सब-के-सब परिपूर्णतम और सम्पूर्ण ऐश्वर्योंसे सम्पन्न थे, उन्हें देखकर कौन सेव्य है तथा कौन सेवक है, यह बता सकनेमें वे ब्रह्मा असमर्थ थे, भगवान् श्रीकृष्ण क्षणभरमें तेजःस्वरूप हो जाते थे और क्षणभरमें ही विग्रहवान् होकर आसनपर विराजित हो जाते थे, इस प्रकार ब्रह्माजीने एक ही क्षणमें उनके साकार तथा निराकार दोनों प्रकारके रूपों को देखा ॥ ९९-१०३ ॥

एकमेव क्षणं कृष्णं राधया रहितं परम् ।
प्रत्येकासनसंस्थं च तया सार्धं च तत्क्षणम् ॥ १०४ ॥
तदनन्तर एक ही क्षणमें ब्रह्माजीने देखा कि वे परमेश्वर श्रीकृष्ण राधासे रहित हैं और फिर उसी क्षण वे राधिकाके साथ प्रत्येक आसनपर विराजमान दिखायी देने लगे । ब्रह्माजीने श्रीकृष्णको राधाका रूप धारण किये हुए तथा राधाको श्रीकृष्णका रूप धारण किये हुए देखा । इस प्रकार वहाँ कौन स्त्रीरूपमें तथा कौन पुरुषरूपमें है-इस रहस्यको जाननेमें वे ब्रह्मा भी अक्षम हो गये ॥ १०४-१०५ ॥

राधारूपधरं कृष्णं कृष्णरूपं कलत्रकम् ।
किं स्त्रीरूपं च पुरुषं विधाता ध्यातुमक्षमः ॥ १०५ ॥
हृत्पद्मस्थं च श्रीकृष्णं ध्यात्वा ध्यानेन चक्षुषा ।
चकार स्तवनं भक्त्या परिहारमनेकधा ॥ १०६ ॥
तत्पश्चात् ब्रह्माजीने अपने हृदयकमलपर विराजमान श्रीकृष्णका ध्यान करके ध्याननेत्रसे उनका दर्शन किया और स्त्री-पुंभावविषयक संशयका अनेक प्रकारसे निराकरण करते हुए भक्तिपूर्वक उनका स्तवन किया ॥ १०६ ॥

ततः स्वचक्षुरुन्मील्य पुनश्च तदनुज्ञया ।
ददर्श कृष्णमेकं च राधावक्षःस्थलस्थितम् ॥ १०७ ॥
स्वपार्षदैः परिवृतं गोपीमण्डलमण्डितम् ।
पुनः प्रणेमुस्तं दृष्ट्वा तुष्टुवुः परमेश्वरम् ॥ १०८ ॥
इसके बाद भगवान्की आज्ञासे उन्होंने अपने नेत्र खोलकर देखा कि वे अद्वितीय श्रीकृष्ण राधिकाके वक्षःस्थलपर स्थित हैं, वे अपने पार्षदोंसे घिरे हुए हैं और गोपिकाओंके समुदायसे सुशोभित हो रहे हैं । तदनन्तर उन ब्रह्मा आदि देवताओंने परमेश्वर श्रीकृष्णका दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया और फिर उनकी स्तुति की ॥ १०७-१०८ ॥

तदभिप्रायमाज्ञाय तानुवाच रमेश्वरः ।
सर्वात्मा स च सर्वज्ञः सर्वेशः सर्वभावनः ॥ १०९ ॥
तदनन्तर सभी प्राणियोंके आत्मस्वरूप, सब कुछ जाननेवाले, सर्वेश्वर तथा सबका सृजन करनेवाले लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण उन देवताओंका अभिप्राय समझकर उनसे कहने लगे ॥ १०९ ॥

श्रीभगवानुवाच
आगच्छ कुशलं ब्रह्मन्नागच्छ कमलापते ।
इहागच्छ महादेव शश्वत्कुशलमस्तु वः ॥ ११० ॥
आगता हि महाभागा गङ्‌गानयनकारणात् ।
गङ्‌गा च चरणाम्भोजे भयेन शरणं गता ॥ १११ ॥
राधेमां पातुमिच्छन्ती दृष्ट्वा मत्सन्निधानतः ।
दास्यामीमां च भवतां यूयं कुरुत निर्भयाम् ॥ ११२ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे ब्रह्मन् ! आपका कुशल हो, आइये । हे कमलापते ! आइये । हे महादेव ! यहाँ आइये । आप लोगोंका सदा कुशल हो । आप सभी महाभाग गंगाको ले जानेके लिये यहाँ आये हुए हैं, किंतु गंगाजी तो इस समय भयभीत होकर मेरे चरणकमलमें शरणागत हो गयी हैं । जब वे गंगा मेरे सांनिध्यमें थी, तब उन्हें देखकर पी जानेके लिये राधिका उद्यत हो गयी थी, इसलिये वे मेरे सानिध्य में आ गयीं । मैं आपलोगोंको उन्हें अवश्य दे दूंगा, किंतु आपलोग पहले उन्हें भयमुक्त कीजिये ॥ ११०-११२ ॥

श्रीकृष्णस्य वचः श्रुत्वा सस्मितः कमलोद्‍भवः ।
तुष्टाव राधामाराध्यां श्रीकृष्णपरिपूजिताम् ॥ ११३ ॥
वक्त्रैश्चतुर्भिः संस्तूय भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।
धाता चतुर्णां वेदानामुवाच चतुराननः ॥ ११४ ॥
[हे नारद !] श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर कमलयोनि ब्रह्मा मुसकराने लगे और वे भक्तिके कारण अपना मस्तक झुकाकर चारों मुखोंसे सबकी आराध्या तथा श्रीकृष्णके द्वारा सपजित राधिकाकी स्तुति करने लगे । उनकी स्तुति करके चारों वेदोंको धारण करनेवाले चतुर्मुख ब्रह्मा राधासे इस प्रकार कहने लगे ॥ ११३-११४ ॥

चतुरानन उवाच
गङ्‌गा त्वदङ्‌गसम्भूता प्रभोश्च रासमण्डले ।
युवयोर्द्रवरूपा सा मुग्धयोः शङ्‌करस्वनात् ॥ ११५ ॥
चतुरानन बोले-भगवान् शंकरकी संगीतध्वनिसे मुग्ध आपके तथा प्रभु श्रीकृष्णके द्रवरूपमें परिणत हुए अंगसे वह गंगा रासमण्डलमें प्रकट हुई थीं ॥ ११५ ॥

कृष्णांशा च त्वदंशा च त्वत्कन्यासदृशी प्रिया ।
त्वन्मन्त्रग्रहणं कृत्वा करोतु तव पूजनम् ॥ ११६ ॥
भविष्यति पतिस्तस्या वैकुण्ठेशश्चतुर्भुजः ।
भूस्थायाः कलया तस्याः पतिर्लवणवारिधिः ॥ ११७ ॥
अतः आप तथा श्रीकृष्णके अंशस्वरूप होनेके कारण आपकी प्रिय पुत्रीके तुल्य ये गंगा आपका मन्त्र ग्रहण करके आपकी पूजा करें । [इसके फलस्वरूप] वैकुण्ठके अधिपति चतुर्भुज भगवान् श्रीहरि इनको पतिके रूपमें प्राप्त होंगे और साथ ही अपनी एक कलासे जब ये भूमण्डलपर जायँगी, उस समय लवणसमुद्र भी इनके पति बनेंगे ॥ ११६-११७ ॥

गोलोकस्था च या गङ्‌गा सर्वत्रस्था तथाम्बिके ।
तदम्बिका त्वं देवेशी सर्वदा सा त्वदात्मजा ॥ ११८ ॥
हे अम्बिके ! ये गंगा जैसे गोलोकमें हैं, वैसे ही इन्हें सर्वत्र रहना चाहिये । आप देवेश्वरी इनकी माता हैं और वे सदा आपकी पुत्री हैं ॥ ११८ ॥

ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा स्वीचकार च सस्मिता ।
वहिर्बभूव सा कृष्णपादाङ्‌गुष्ठनखाग्रतः ॥ ११९ ॥
तत्रैव सत्कृता शान्ता तस्थौ तेषां च मध्यतः ।
उवास तोयादुत्थाय तदधिष्ठातृदेवता ॥ १२० ॥
[हे नारद !] ब्रह्माका यह वचन सुनकर राधाने हँसते हुए सभी बातें स्वीकार कर ली । तब वे गंगा श्रीकृष्णके चरणके अंगूठेके नखके अग्रभागसे बाहर निकलीं । वहाँ सब लोगोंने उनका सत्कार किया और वे सबके मध्य शान्त होकर स्थित रहीं । तब जलस्वरूपा गंगाकी अधिष्ठात्री देवी जलसे निकलकर वहींपर विराजमान हो गयीं ॥ ११९-१२० ॥

तत्तोयं ब्रह्मणा किञ्चित्स्थापितं च कमण्डलौ ।
किञ्चिद्दधार शिरसि चन्द्रार्धकृतशेखरः ॥ १२१ ॥
उस समय ब्रह्माजीने गंगाका कुछ जल अपने कमण्डलुमें रख लिया और कुछ जल चन्द्रशेखर भगवान् शिवने अपने मस्तकपर धारण कर लिया ॥ १२१ ॥

गङ्‌गायै राधिकामन्त्रं प्रददौ कमलोद्‍भवः ।
तत्स्तोत्रं कवचं पूजां विधानं ध्यानमेव च ॥ १२२ ॥
सर्वं तत्सामवेदोक्तं पुरश्चर्याक्रमं तथा ।
गङ्‌गा तामेव सम्पूज्य वैकुण्ठं प्रययौ सह ॥ १२३ ॥
तदनन्तर कमलयोनि ब्रह्माने गंगाको राधा-मन्त्र प्रदान किया और उन्हें राधाके स्तोत्र, कवच, ध्यान और पूजाकी विधि तथा पुरश्चर्याक्रम-इन सभी सामवेद-प्रतिपादित अनुष्ठानोंके विषयमें बतलाया । गंगाने इन नियमोंके द्वारा उन राधाकी विधिवत् पूजा करके नारायणके साथ बैकुण्ठके लिये प्रस्थान किया ॥ १२२-१२३ ॥

लक्ष्मीः सरस्वती गङ्‌गा तुलसी विश्वपावनी ।
एता नारायणस्यैव चतस्रो योषितो मुने ॥ १२४ ॥
हे मुने ! लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और विश्वपावनी तुलसी-ये चारों देवियाँ भगवान् नारायणकी ही पलियाँ हैं ॥ १२४ ॥

अथ तं सस्मितः कृष्णो ब्रह्माणं समुवाच सः ।
सर्वकालस्य वृत्तान्तं दुर्बोधमविपश्चितम् ॥ १२५ ॥
इसके बाद वे श्रीकृष्ण हँसकर उन ब्रह्माको दुर्योध, सूक्ष्म तथा सामयिक वृत्तान्त बताने लगे ॥ १२५ ॥

श्रीकृष्ण उवाच
गृहाण गङ्‌गां हे ब्रह्मन् हे विष्णो हे महेश्वर ।
शृणु कालस्य वृत्तान्तं मत्तो ब्रह्मन्निशामय ॥ १२६ ॥
श्रीकृष्ण बोले-हे ब्रह्मन् ! आप गंगाको ग्रहण कीजिये । हे विष्णो ! हे महेश्वर ! हे ब्रह्मन् ! आपलोग ध्यानपूर्वक कालका वृत्तान्त मुझसे सुनिये ॥ १२६ ॥

यूयं च येऽन्ये देवाश्च मुनयो मनवस्तथा ।
सिद्धा यशस्विनश्चैव ये येऽत्रैव समागताः ॥ १२७ ॥
एते जीवन्ति गोलोके कालचक्रविवर्जिते ।
जलाप्लुते सर्वविश्वं जातं कल्पक्षयोऽधुना ॥ १२८ ॥
ब्रह्माद्या येऽन्यविश्वस्थास्ते विलीनाधुना मयि ।
वैकुण्ठं च विना सर्वं जलमग्नं च पद्मज ॥ १२९ ॥
गत्वा सृष्टिं कुरु पुनर्ब्रह्मलोकादिकं भवम् ।
स्वं ब्रह्माण्डं विरचय पश्चाद्‌ गङ्‌गा प्रयास्यति ॥ १३० ॥
आपलोग तथा अन्य देवता, मुनि, मनुगण, सिद्ध तथा यशस्वीजन-जो-जो यहाँ आये हुए हैं-केवल ये लोग ही कालचक्रके प्रभावसे रहित इस गोलोकमें जीवित हैं । इस समय कल्पक्षयके कारण सम्पूर्ण विश्व जलमें आप्लावित हो गया है । अन्य ब्रह्माण्डोंमें रहनेवाले जो ब्रह्मा आदि देवता हैं, वे मुझमें विलीन हो गये हैं । हे पद्मज ! इस समय केवल वैकुण्ठको छोड़कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जलमें डूबा हुआ है । आप जाकर ब्रह्मलोक आदि लोकोंकी पुनः सृष्टि कीजिये । आप अपने ब्रह्माण्डकी रचना कीजिये, इसके बाद गंगा वहाँ जायँगी ॥ १२७–१३० ॥

एवमन्येषु विश्वेषु सृष्टौ ब्रह्मादिकं पुनः ।
करोम्यहं पुनः सृष्टिं गच्छ शीघ्रं सुरैः सह ॥ १३१ ॥
गतो बहुतरः कालो युष्माकं च चतुर्मुखाः ।
गताः कतिविधास्ते च भविष्यन्ति च वेधसः ॥ १३२ ॥
इसी प्रकार इस सृष्टिके अवसरपर मैं अन्य ब्रह्माण्डोंमें भी ब्रह्मा आदिकी रचनाका प्रयत्न कर रहा हूँ । अब आप देवताओंके साथ यहाँसे शीघ्र जाइये । आपका बहुत समय बीत चुका है, न जाने कितने ब्रह्मा समाप्त हो गये और न जाने कितने ब्रह्मा अभी होंगे ॥ १३१-१३२ ॥

इत्युक्त्वा राधिकानाथो जगामान्तःपुरे मुने ।
देवा गत्वा पुनः सृष्टिं चक्रुरेव प्रयत्‍नतः ॥ १३३ ॥
हे मुने ! ऐसा कहकर राधिकानाथ भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुरमें चले गये और ब्रह्मा आदि देवता वहाँसे चलकर प्रयत्नपूर्वक सृष्टिकार्यमें संलग्न हो गये ॥ १३३ ॥

गोलोके च स्थिता गङ्‌गा वैकुण्ठे शिवलोकके ।
ब्रह्मलोके स्थितान्यत्र यत्र यत्र पुरः स्थिता ॥ १३४ ॥
तत्रैव सा गता गङ्‌गा चाज्ञया परमात्मनः ।
निर्गता विष्णुपादाब्जात्तेन विष्णुपदी स्मृता ॥ १३५ ॥
तब गोलोक, वैकुण्ठ, शिवलोक और ब्रह्मलोक तथा अन्यत्र भी जिस-जिस स्थानपर गंगाको रहनेके लिये परमात्मा श्रीकृष्णने आज्ञा दी थी, उस-उसपर वे गंगा चली गयीं । वे गंगा भगवान् विष्णुके चरणकमलसे निकली हैं, इसलिये वे विष्णुपदी कही गयी हैं । १३४-१३५ ॥

इत्येवं कथितं ब्रह्मन् गङ्‌गोपाख्यानमुत्तमम् ।
सुखदं मोक्षदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १३६ ॥
हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने आपसे गंगाके इस सर्वोत्तम, सुखदायक, मोक्षप्रद तथा सारगर्भित उपाख्यानका वर्णन कर दिया । अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १३६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे
गङ्‌गोपाख्यानवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्धे गोपाख्यानवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥


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