Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
चतुर्दशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


गङ्‌गायाः कृष्णपत्‍नीत्ववर्णनम् -
शगंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग -


नारद उवाच
लक्ष्मीः सरस्वती गङ्‌गा तुलसी विश्वपावनी ।
एता नारायणस्यैव चतस्रश्च प्रिया इति ॥ १ ॥
गङ्‌गा जगाम वैकुण्ठमिदमेव श्रुतं मया ।
कथं सा तस्य पत्‍नी च बभूवेति च न श्रुतम् ॥ २ ॥
नारदजी बोले-हे प्रभो !] यह तो मैंने आपसे सुन लिया कि लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और विश्वपावनी तुलसी-ये चारों ही भगवान् नारायणकी पत्नियाँ हैं और उनमेंसे गंगा वैकुण्ठ चली गयीं । किंतु वे गंगा विष्णुकी पत्नी कैसे हुईं-यह प्रसंग मैंने नहीं सुना ॥ १-२ ॥

श्रीनारायण उवाच
गङ्‌गा जगाम वैकुण्ठं तत्पश्चाज्जगतां विधिः ।
गत्वोवाच तया सार्धं प्रणम्य जगदीश्वरम् ॥ ३ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] जब गंगाजी वैकुण्ठ चली गयीं, उसके पश्चात् जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजी भी वहाँ पहुँचे । गंगाके साथ जगदीश्वर विष्णुके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके वे उनसे कहने लगे ॥ ३ ॥

ब्रह्मोवाच
राधाकृष्णाङ्‌गसम्भूता या देवी द्रवरूपिणी ।
नवयौवनसम्पन्ना सुशीला सुन्दरी वरा ॥ ४ ॥
शुद्धसत्त्वस्वरूपा च क्रोधाहङ्‌कारवर्जिता ।
तदङ्‌गसम्भवा नान्यं वृणोतीयं च तं विना ॥ ५ ॥
ब्रह्माजी बोले-राधा और श्रीकृष्णके अंगसे आविर्भूत जो द्रवरूपिणी देवी गंगा हैं, वे इस समय नवीन यौवनसे सम्पन्न तथा उत्तम स्वभाववाली श्रेष्ठ सुन्दरीके रूपमें विराजमान हैं । ये देवी शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी तथा क्रोध और अहंकारसे रहित हैं । उन श्रीकृष्णके अंगसे प्रादुर्भूत ये गंगा उन्हें छोड़कर किसी अन्यका पतिरूपमें वरण नहीं करना चाहतीं ॥ ४-५ ॥

तत्रातिमानिनी राधा सा च तेजस्विनी वरा ।
समुद्युक्ता पातुमिमां भीतेयं बुद्धिपूर्वकम् ॥ ६ ॥
किंतु अतिमानिनी राधा वहाँ विद्यमान हैं । वे श्रेष्ठ तथा तेजस्विनी राधा इन गंगाको पी जानेके लिये उद्यत थीं । इससे अत्यन्त भयभीत ये गंगा बड़ी बुद्धिमानीके साथ परमात्मा श्रीकृष्णके चरणकमलमें समाविष्ट हो गयीं ॥ ६ ॥

विवेश चरणाम्भोजे कृष्णस्य परमात्मनः ।
सर्वत्र गोलकं शुष्कं दृष्ट्वाहमगमं तदा ॥ ७ ॥
गोलोके यत्र कृष्णश्च सर्ववृत्तान्तप्राप्तये ।
सर्वान्तरात्मा सर्वेषां ज्ञात्वाभिप्रायमेव च ॥ ८ ॥
बहिश्चकार गङ्‌गा च पादाङ्‌गुष्ठनखाग्रतः ।
दत्त्वास्यै राधिकामन्त्रं पूरयित्वा च गोलकम् ॥ ९ ॥
प्रणम्य तां च राधेशं गृहीत्वात्रागमं प्रभो ।
गान्धर्वेण विवाहेन गृहाणेमां सुरेश्वरीम् ॥ १० ॥
सुरेश्वरेषु रसिको रसिकेयं समागता ।
त्वं रत्‍नं पुंसु देवेश स्त्रीरत्‍नं स्त्रीष्वियं सती ॥ ११ ॥
उस समय सर्वत्र ब्रह्माण्ड-गोलकको शुष्क हुआ देखकर मैं गोलोक गया, जहाँपर सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्ण सम्पूर्ण वृत्तान्त जाननेके लिये विराजमान थे । उन्होंने सबका अभिप्राय समझकर अपने चरणके अंगुष्ठ-नखके अग्रभागसे गंगाको बाहर निकाल दिया । तब मैंने इन गंगाको राधिका-मन्त्र प्रदानकर इनके जलसे ब्रह्माण्ड-गोलकको पूर्ण करके उन राधा तथा राधापति श्रीकृष्णको प्रणाम करके मैं इन्हें साथ लेकर यहाँ आया । हे प्रभो ! अब आप गान्धर्व विवाहके द्वारा इन सुरेश्वरी गंगाको स्वीकार कर लीजिये । श्रेष्ठ देवताओंमें आप परम रसिक हैं और यहाँ विराजमान ये गंगा भी रसिका हैं । हे देवेश ! आप पुरुषोंमें रत्न हैं और ये साध्वी गंगा भी स्त्रियों में रत्न हैं । विदग्ध नारीका विदग्ध पुरुषके साथ सम्मिलन कल्याणकारी होता है ॥ ७-११ ॥

विदग्धया विदग्धेन सङ्‌गमो गुणवान् भवेत् ।
उपस्थितां स्वयं कन्यां न गृह्णातीह यः पुमान् ॥ १२ ॥
तं विहाय महालक्ष्मी रुष्टा याति न संशयः ।
यो भवेत्पण्डितः सो ऽपि प्रकृतिं नावमन्यते ॥ १३ ॥
जो पुरुष स्वत:प्राप्त कन्याको नहीं ग्रहण करता, उससे महालक्ष्मी रुष्ट हो जाती हैं और उसे छोड़कर चली जाती हैं । इसमें सन्देह नहीं है । जो विद्वान् होता है, वह कभी प्रकृतिका अपमान नहीं करता ॥ १२-१३ ॥

सर्वे प्राकृतिकाः पुंसः कामिन्यः प्रकृतेः कलाः ।
त्वमेव भगवान्नाथो निर्गुणः प्रकृतेः परः ॥ १४ ॥
सभी पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न हुए हैं और स्त्रियाँ भी उसी प्रकृतिकी कलाएँ हैं । केवल आप भगवान् जगन्नाथ ही निर्गुण और प्रकृतिसे परे हैं ॥ १४ ॥

अर्धाङ्‌गं द्विभुजः कृष्णो योऽर्धाङ्‌गेन चतुर्भुजः ।
कृष्णवामाङ्‌गसम्भूता बभूव राधिका पुरा ॥ १५ ॥
दक्षिणांशः स्वयं सा च वामांशः कमला तथा ।
तेनेयं त्वां वृणोत्येव यतस्त्वद्देहसम्भवा ॥ १६ ॥
वे श्रीकृष्ण ही आधे अंगसे दो भुजावाले श्रीकृष्ण बने रहे और आधे भागसे चतुर्भुज हो गये । इसी प्रकार पूर्वकालमें श्रीकृष्णके वाम अंगसे प्रादुर्भूत राधा भी दो भागोंमें विभक्त हो गयी थीं । दाहिने अंशसे तो वे स्वयं राधा बनी रहीं और बायें अंशसे कमला हो गयीं । इसलिये ये गंगा आपको ही पतिरूपमें वरण करना चाहती हैं । क्योंकि ये आपके ही देहसे उत्पन्न हुई हैं । हे प्रभो ! प्रकृति और पुरुषकी भाँति स्त्री-पुरुष दोनोंका शरीर एक ही होता है ॥ १५-१६ ॥

एकाङ्‌गं चैव स्वीपुंसोर्यथा प्रकृतिपूरुषौ ।
इत्येवमुक्त्वा धाता तां तं समर्प्य जगाम सः ॥ १७ ॥
गान्धर्वेण विवाहेन तां जग्राह हरिः स्वयम् ।
नारायणः करं धृत्वा पुष्पचन्दनचर्चितम् ॥ १८ ॥
रेमे रमापतिस्तत्र गङ्‌गया सहितो मुदा ।
गङ्‌गा पृथ्वीं गता या सा स्वस्थानं पुनरागता ॥ १९ ॥
निर्गता विष्णुपादाब्जात्तेन विष्णुपदीति च ।
ऐसा कहकर वे ब्रह्माजी श्रीहरिको गंगा सौंपकर वहाँसे चल दिये । तत्पश्चात् नारायण श्रीहरिने गंगाका पुष्प-चन्दनचर्चित हाथ पकड़कर गान्धर्व विवाह-विधिके अनुसार उन्हें पत्नीरूपमें ग्रहण किया । इसके बाद वे रमापति श्रीहरि गंगाके साथ प्रसन्नतापूर्वक विहार करने लगे । इस प्रकार जो गंगा पृथ्वीपर गयी हुई थीं, वे अपने स्थानपर पुनः आ गयीं । ये गंगा भगवान् विष्णुके चरण-कमलसे निकली हैं, इसलिये विष्णुपदी-इस नामसे विख्यात हुई ॥ १७-१९.५ ॥

मूर्च्छां सम्प्राप सा देवी नवसङ्‌गमलीलया ॥ २० ॥
रसिका सुखसम्भोगाद्‌रसिकेश्वरसंयुता ।
तां दृष्ट्वा दुःखिता वाणी पद्मया वर्जितापि च ॥ २१ ॥
नित्यमीर्ष्यति तां वाणी न च गङ्‌गा सरस्वतीम् ।
गङ्‌गा शशाप कोपेन भारते च हरिप्रिया ॥ २२ ॥
अब रसिकेश्वर भगवान् श्रीहरिके साथ प्रथम रतिक्रीड़ामें अतिशय सुखानुभूतिके कारण वे रसिका देवी गंगा मूञ्छित हो गयीं । उन गंगाको देखकर सरस्वती नित्य दुःखित रहती थीं । लक्ष्मीके बार-बार मना करनेपर भी सरस्वती उन गंगासे सदा ईर्ष्या करती थीं, किंतु गंगाने सरस्वतीके प्रति ऐसा नहीं किया । अन्तमें विष्णुप्रिया गंगाने कोप करके सरस्वतीको भारतवर्षमें जानेका शाप दे दिया था ॥ २०-२२ ॥

गङ्‌गया सह तस्यैव तिस्रो भार्या रमापतेः ।
सार्धं तुलस्या पश्चाच्च चतस्रश्चाभवन्मुने ॥ २३ ॥
हे मुने ! इस प्रकार उन रमापति श्रीहरिकी गंगासहित तीन भार्याएँ हैं । इसके बादमें तुलसीको लेकर उनकी चार पलियाँ हुईं ॥ २३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे गङ्‌गायाः
कृष्णपत्‍नीत्ववर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां नवमस्कन्धे गङ्‌गायाः कृष्णपत्नीत्ववर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥


GO TOP