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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
विंशोऽध्यायः

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शङ्‌खचूडेन सह देवानां सङ्ग्रामोद्योगवर्णनम् -
पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना -


श्रीनारायण उवाच
ब्रह्मा शिवं संनियोज्य संहारे दानवस्य च ।
जगाम स्वालयं तूर्णं यथास्थानं सुरोत्तमाः ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] उस दानवके संहारकार्यमें शिवजीको नियुक्तकर ब्रह्माजी तत्काल अपने स्थानपर चले गये और अन्य देवता भी अपनेअपने स्थानके लिये प्रस्थित हो गये ॥ १ ॥

चन्द्रभागानदीतीरे वटमूले मनोहरे ।
तत्र तस्थौ महादेवो देवविस्तारहेतवे ॥ २ ॥
तदनन्तर महादेवजी देवताओंके अभ्युदयके उद्देश्यसे चन्द्रभागानदीके तटपर एक मनोहर वटवृक्षके नीचे आसीन हो गये ॥ २ ॥

दूतं कृत्वा चित्ररथं गन्धर्वेश्वरमीप्सितम् ।
शीघ्रं प्रस्थापयामास शङ्‌खचूडान्तिकं मुदा ॥ ३ ॥
उन्होंने अपने अत्यन्त प्रिय गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त)-को दूत बनाकर तुरन्त प्रसन्नतापूर्वक शंखचूड़के पास भेजा ॥ ३ ॥

सर्वेश्वराज्ञया शीघ्रं ययौ तन्नगरं परम् ।
महेन्द्रनगरोत्कृष्टं कुबेरभवनाधिकम् ॥ ४ ॥
सर्वेश्वर शिवकी आज्ञा पाकर चित्ररथ तत्काल शंखचूड़के उत्तम नगरमें गया, जो इन्द्रपुरीसे भी उत्कृष्ट तथा कुबेरके भवनसे भी अधिक सुन्दर था ॥ ४ ॥

पञ्चयोजनविस्तीर्णं दैर्घ्ये तद्‌ द्विगुणं भवेत् ।
स्फटिकाकारमणिभिर्निर्मितं यानवेष्टितम् ॥ ५ ॥
सप्तभिः परिखाभिश्च दुर्गमाभिः समन्वितम् ।
ज्वलदग्निनिभैः शश्वत्कल्पितं रत्‍नकोटिभिः ॥ ६ ॥
युक्तं च वीथीशतकैर्मणिवेदिविचित्रितैः ।
परितो वणिजां सौधैर्नानावस्तुविराजितैः ॥ ७ ॥
सिन्दूराकारमणिभिर्निर्मितैश्च विचित्रितैः ।
भूषितं भूषितैर्दिव्यैराश्रमैः शतकोटिभिः ॥ ८ ॥
वह नगर पाँच योजन चौड़ा तथा उससे दुगुना लम्बा था । वह स्फटिकके आकारवाली मणियोंसे निर्मित था तथा उसके चारों ओर अनेक वाहन स्थित थे । वह नगर सात दुर्गम खाइयोंसे युक्त था । प्रज्वलित अग्निके समान निरन्तर चमकनेवाले करोड़ों रत्नोंसे उसका निर्माण किया गया था । वह नगर सैकड़ों वीथियों तथा मणिमय विचित्र वेदियोंसे सम्पन्न था । वह व्यापारियोंके बड़ेबड़े महलासे आवृत था, जिनमें अनेक प्रकारकी सामग्रियाँ विराजमान थीं । उसी प्रकार वह नगर सिन्दूरके समान लाल मणियोंद्वारा निर्मित विचित्र, सुन्दर तथा दिव्य करोड़ों आश्रमोंसे सुशोभित था ॥ ५-८ ॥

गत्वा ददर्श तन्मध्ये शङ्‌खचूडालयं परम् ।
अतीव वलयाकारं यथा पूर्णेन्दुमण्डलम् ॥ ९ ॥
ज्वलदग्निशिखाक्ताभिः परिखाभिश्चतसृभिः ।
तद्दुर्गमं च शत्रूणामन्येषां सुगमं सुखम् ॥ १० ॥
अत्युच्चैर्गगनस्पर्शिमणिशृङ्‌गविराजितम् ।
राजितं द्वादशद्वारैर्द्वारपालसमन्वितम् ॥ ११ ॥
मणीन्द्रसारनिर्माणैः शोभितं लक्षमन्दिरैः ।
शोभितं रत्‍नसोपानै रत्‍नस्तम्भविराजितम् ॥ १२ ॥
हे मुने ! नगरमें पहुँचकर पुष्पदन्तने उसके मध्यमें स्थित शंखचूड़का श्रेष्ठ भवन देखा, जो पूर्णचन्द्रमण्डलकी भांति पूर्णतः वलयाकार था, प्रज्वलित अग्निकी लपटोंके समान प्रतीत होनेवाली चार परिखाओंसे सुरक्षित था, शत्रुओंके लिये अत्यन्त दुर्गम था, किंतु दूसरे लोगोंके लिये सुगम एवं सुखप्रद था, अत्यन्त ऊँचाईवाले गगनस्पर्शी मणि-निर्मित कंगूरोंसे सुशोभित था, द्वारपालोंसे युक्त बारह द्वारोंसे सुसज्जित था और सर्वोत्कृष्ट मणियोंसे निर्मित लाखों मन्दिरों, सोपानों तथा रत्नमय खम्भोंसे मण्डित था ॥ ९-१२ ॥

तद्‌ दृष्ट्वा पुष्पदन्तोऽपि वरं द्वारं ददर्श सः ।
द्वारे नियुक्तं पुरुषं शूलहस्तं च सस्मितम् ॥ १३ ॥
तिष्ठन्तं पिङ्‌गलाक्षं च ताम्रवर्णं भयङ्‌करम् ।
कथयामास वृत्तान्तं जगाम तदनुज्ञया ॥ १४ ॥
अतिक्रम्य च तद्द्वारं जगामाभ्यन्तरं पुनः ।
न कोऽपि रक्षति श्रुत्वा दूतरूपं रणस्य च ॥ १५ ॥
उसे देखकर पुष्पदन्तने एक दूसरा प्रधान द्वार देखा । उस द्वारपर सुरक्षाहेतु नियुक्त एक पुरुष हाथमें त्रिशूल धारण किये मुसकराता हुआ वहाँ स्थित था । पुष्पदन्तने पीली आँखोंवाले तथा ताम्र वर्णके शरीरवाले उस भयंकर पुरुषसे सारी बातें बतायीं और फिर उसकी आज्ञासे वह आगे बढ़ा । उस द्वारको पार करके वह भीतर चला गया । यह युद्धका सन्देश देनेवाला दूत है-यह जानकर कोई उसे रोकता भी नहीं था ॥ १३-१५ ॥

गत्वा सोऽभ्यन्तरद्वारं द्वारपालमुवाच ह ।
रणस्य सर्ववृत्तान्तं विज्ञापयत माचिरम् ॥ १६ ॥
स च तं कथयित्वा च दूतो गन्तुमुवाच ह ।
स गत्वा शङ्‌खचूडं तं ददर्श सुमनोहरम् ॥ १७ ॥
राजमण्डलमध्यस्थं स्वर्णसिंहासने स्थितम् ।
मणीन्द्ररचितं दिव्यं रत्‍नदण्डसमन्वितम् ॥ १८ ॥
रत्‍नकृत्रिमपुष्पैश्च प्रशस्तैः शोभितं सदा ।
भृत्येन मस्तकन्यस्तं स्वर्णच्छत्रं मनोहरम् ॥ १९ ॥
सेवितं पार्षदगणै रुचिरैः श्वेतचामरैः ।
सुवेषं सुन्दरं रम्यं रत्‍नभूषणभूषितम् ॥ २० ॥
माल्येन लेपनं सूक्ष्मं सुवस्त्रं दधतं मुने ।
दानवेन्द्रैः परिवृतं सुवेषैश्च त्रिकोटिभिः ॥ २१ ॥
शतकोटिभिरन्यैश्च भ्रमद्‌भिरस्त्रपाणिभिः ।
एवंभूतञ्च तं दृष्ट्वा पुष्पदन्तः सविस्मयः ॥ २२ ॥
उवाच स च वृत्तान्तं यदुक्तं शङ्‌करेण च ।
भीतरी द्वारपर पहुँचकर उसने द्वारपालसे कहा-युद्धका सम्पूर्ण वृत्तान्त [राजाको] बता दो, इसमें विलम्ब मत करो । उस द्वारपालसे ऐसा कहकर वह दूत [पुष्पदन्त] स्वयं जानेके लिये बोला । वहाँ जाकर उसने राजमण्डलीके मध्यमें स्वर्णके सिंहासनपर बैठे हुए परम मनोहर शंखचूडको देखा । उस दिव्य सिंहासनमें सर्वोत्तम मणियाँ जड़ी थीं, वह रत्नमय दण्डोंसे युक्त था, वह रत्ननिर्मित कृत्रिम तथा उच्च कोटिके पुष्पोंसे सदा सुशोभित था, एक सेवक शंखचूडके सिरके ऊपर स्वर्णका मनोहर छत्र लगाये खड़ा था, सुन्दर तथा श्वेत चँवर डुलाते हुए पार्षदगण उसकी सेवामें संलग्न थे, सुन्दर वेष धारण करने तथा रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत होनेके कारण वह रमणीय प्रतीत हो रहा था । हे मुने ! वह माला पहने था, शरीरमें चन्दनका लेप किये हुआ था और दो महीन तथा सुन्दर वस्त्र धारण किये हुआ था । वह शंखचूड़ सुन्दर वेष धारण करनेवाले तीन करोड़ दानवेन्द्रोंसे घिरा हुआ था । इसी प्रकार हाथमें अस्त्र धारण किये हुए सैकड़ों करोड़ अन्य दानव भी उसके चारों ओर इधर-उधर घूम रहे थे । इस प्रकारके उस शंखचूड़को देखकर परम विस्मयको प्राप्त उस पुष्पदन्तने शंकरजीके द्वारा जो युद्धविषयक समाचार कहा गया था, उसे बताना आरम्भ किया ॥ १६-२२.५ ॥

पुष्पदन्त उवाच
राजेन्द्र शिवभृत्योऽहं पुष्पदन्ताभिधः प्रभो ॥ २३ ॥
यदुक्तं शङ्‌करेणैव तद्‌ ब्रवीमि निशामय ।
राज्यं देहि च देवानामधिकारं च साम्प्रतम् ॥ २४ ॥
देवाश्च शरणापन्ना देवेशं श्रीहरिं परम् ।
हरिर्दत्त्वास्य शूलं च तेन प्रस्थापितः शिवः ॥ २५ ॥
पुष्पभद्रानदीतीरे वटमूले त्रिलोचनः ।
विषयं देहि तेषां च युद्धं वा कुरु निश्चितम् ॥ २६ ॥
गत्वा वक्ष्यामि किं शम्भुमथ तद्वद मामपि ।
पुष्पदन्त बोला-हे राजेन्द्र ! हे प्रभो ! मैं शंकरजीका सेवक हूँ, मेरा नाम पुष्पदन्त है । शंकरजीने जो कुछ कहा है, मैं वही कह रहा हूँ, आप सुनियेअब आप देवताओंका राज्य तथा अधिकार लौटा दीजिये; क्योंकि वे देवता देवेश श्रेष्ठ श्रीहरिकी शरणमें गये थे । उन श्रीहरिने अपना त्रिशूल देकर आपके विनाशार्थ शिवजीको भेजा है । वे त्रिलोचन शिव इस समय भद्रशीला नदीके तटपर वटवृक्षके नीचे विराजमान हैं । अतः आप उन देवताओंका राज्य लौटा दीजिये अथवा युद्ध कीजिये । अब आप मुझे यह भी बता दीजिये कि मैं शिवजीके पास जाकर उनसे क्या कहूँ ? ॥ २३-२६.५ ॥

दूतस्य वचनं श्रुत्वा शङ्‌खचूडः प्रहस्य च ॥ २७ ॥
[हे नारद !] दूतकी बात सुनकर शंखचूड़ने हँसकर कहा-'तुम चलो, मैं प्रात:काल वहाँ पहुँचूँगा' ॥ २७ ॥

प्रभातेऽहं गमिष्यामि त्वं च गच्छेत्युवाच ह ।
स गत्वोवाच तं तूर्णं वटमूलस्थमीश्वरम् ॥ २८ ॥
तदनन्तर पुष्पदन्तने वटवृक्षके नीचे विराजमान परमेश्वर शिवके पास पहुंचकर शंखचूड़के मुखसे कही गयी वह बात ज्यों-की-त्यों उनसे कह दी ॥ २८ ॥

शङ्‌खचूडस्य वचनं तदीयं तन्मुखोदितम् ।
एतस्मिन्नन्तरे स्कन्द आजगाम शिवान्तिकम् ॥ २९ ॥
वीरभद्रश्च नन्दी च महाकालः सुभद्रकः ।
विशालाक्षश्च बाणश्च पिङ्‌गलाक्षो विकम्पनः ॥ ३० ॥
विरूपो विकृतिश्चैव मणिभद्रश्च बाष्कलः ।
कपिलाख्यो दीर्घदंष्ट्रो विकटस्ताम्रलोचनः ॥ ३१ ॥
कालकण्ठो बलीभद्रः कालजिह्नः कुटीचरः ।
बलोन्मत्तो रणश्लाघी दुर्जयो दुर्गमस्तथा ॥ ३२ ॥
अष्टौ च भैरवा रौद्रा रुद्राश्चैकादश स्मृताः ।
वसवोऽष्टौ वासवश्च आदित्या द्वादश स्मृताः ॥ ३३ ॥
हुताशनश्च चन्द्रश्च विश्वकर्माश्विनौ च तौ ।
कुबेरश्च यमश्चैव जयन्तो नलकूबरः ॥ ३४ ॥
वायुश्च वरुणश्चैव बुधश्च मङ्‌गलस्तथा ।
धर्मश्च शनिरीशानः कामदेवश्च वीर्यवान् ॥ ३५ ॥
इतनेमें ही कार्तिकेयजी भगवान् शंकरके पास आ गये । वीरभद्र, नन्दी, महाकाल, सुभद्र, विशालाक्ष, बाण, पिंगलाक्ष, विकम्पन, विरूप, विकृति, मणिभद्र, बाष्कल, कपिलाख्य, दीर्घदंष्ट्र, विकट, ताम्रलोचन, कालकण्ठ, बलीभद्र, कालजिह्व, कुटीचर, बलोन्मत्त, रणश्लाघी, दुर्जय, दुर्गम तथा जो आठ भैरव, ग्यारह रुद्र, आठ वसु और बारह आदित्य कहे गये हैं-वे सब, अग्नि, चन्द्रमा, विश्वकर्मा, दोनों अश्विनीकुमार, कुबेर, यमराज, जयन्त, नलकूबर, वायु, वरुण, बुध, मंगल, धर्म, शनि, ईशान तथा ओजस्वी कामदेव भी वहाँ आ गये ॥ २९-३५ ॥

उग्रदंष्ट्रा चोग्रदण्डा कोटरा कैटभी तथा ।
स्वयं चाष्टभुजा देवी भद्रकाली भयङ्‌करी ॥ ३६ ॥
रत्‍नेन्द्रसारनिर्माणविमानोपरि संस्थिता ।
रक्तवस्त्रपरीधाना रक्तमाल्यानुलेपना ॥ ३७ ॥
नृत्यन्ती च हसन्ती च गायन्ती सुस्वरं मुदा ।
अभयं ददाति भक्तेभ्योऽभया सा च भयं रिपुम् ॥ ३८ ॥
बिभ्रती विकटां जिह्वां सुलोलां योजनायताम् ।
शङ्‌खचक्रगदापद्मखड्गचर्मधनुःशरान् ॥ ३९ ॥
खर्परं वर्तुलाकारं गम्भीरं योजनायतम् ।
त्रिशूलं गगनस्पर्शि शक्तिं च योजनायताम् ॥ ४० ॥
मुद्‌गरं मुसलं वज्रं खेटं फलकमुज्ज्वलम् ।
वैष्णवास्त्रं वारुणास्त्रं वाह्नेयं नागपाशकम् ॥ ४१ ॥
नारायणास्त्रं गान्धर्वं ब्रह्मास्त्रं गारुडं तथा ।
पर्जन्यास्त्रं पाशुपतं जृम्भणास्त्रं च पार्वतम् ॥ ४२ ॥
माहेश्वरास्त्रं वायव्यं दण्डं सम्मोहनं तथा ।
अव्यर्थमस्त्रकं दिव्यं दिव्यास्त्रशतकं परम् ॥ ४३ ॥
आगत्य तत्र तस्थौ च योगिनीनां त्रिकोटिभिः ।
सार्धं च डाकिनीनां च विकटानां त्रिकोटिभिः ॥ ४४ ॥
उग्रदंष्ट्रा, उग्रचण्डा, कोटरा तथा कैटभी आदि देवियाँ भी वहाँ पहुँच गयीं । इसी प्रकार आठ भुजाएँ धारण करनेवाली तथा भय उत्पन्न करनेवाली साक्षात् भगवती भद्रकाली भी वहाँ पहुँच गयीं । वे सर्वोत्तम रत्नोंसे निर्मित विमानपर विराजमान थीं । वे लाल वस्त्र तथा लाल पुष्पोंकी माला धारण किये थीं और लाल चन्दनसे अनुलिप्त थीं । वे प्रसन्नतापूर्वक नाचती, हँसती तथा मधुर स्वरमें गाती हुई सुशोभित हो रही थीं । वे देवी अभया भक्तोंको अभय तथा शत्रुओंको भय प्रदान करती हैं । वे योजनभर लम्बी तथा लपलपाती हुई भयंकर जीभ, शंख, चक्र, गदा, पद्म, खड्ग, ढाल, धनुष, बाण, एक योजन विस्तृत वर्तुलाकार गम्भीर खप्पर, आकाशको छूता हुआ विशाल त्रिशूल, एक योजन लम्बी शक्ति, मुद्‌गर, मुसल, वज्र, खेटक, प्रकाशमान फलक, वैष्णवास्त्र, वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र, नागपाश, नारायणास्त्र, गन्धर्वास्त्र, ब्रह्मास्त्र, गरुडास्त्र, पर्जन्यास्त्र, पाशुपतास्त्र, जृम्भणास्त्र, पर्वतास्त्र, माहेश्वरास्त्र, वायव्यास्त्र, सम्मोहन दण्ड, दिव्य अमोघ अस्त्र तथा दिव्य श्रेष्ठ सैकड़ों अस्त्र धारणकर तीन करोड़ योगिनियों और तीन करोड़ भयंकर डाकिनियोंको साथ लिये वहाँ आकर विराजमान हो गयीं ॥ ३६-४४ ॥

भूतप्रेतपिशाचाश्च कूष्माण्डा ब्रह्मराक्षसाः ।
वेताला राक्षसाश्चैव यक्षाश्चैव तु किन्नराः ॥ ४५ ॥
ताभिश्चैव सह स्कन्दः प्रणम्य चन्द्रशेखरम् ।
पितुः पार्श्वे सहायार्थं समुवास तदाज्ञया ॥ ४६ ॥
भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, बेताल, राक्षस, यक्ष और किन्नर भी वहाँ उपस्थित हो गये । उन सभी देवियों [तथा अन्य देवगणों]-को साथ लेकर कार्तिकेय अपने पिता शिवको प्रणाम करके सहायता प्रदान करनेके उद्देश्यसे उनकी आज्ञासे उनके पास बैठ गये ॥ ४५-४६ ॥

अथ दूते गते तत्र शङ्‌खचूडः प्रतापवान् ।
उवाच तुलसीं वार्तां गत्वाभ्यन्तरमेव च ॥ ४७ ॥
इधर, दूतके चले जानेपर प्रतापी शंखचूड़ने अन्तःपुरमें जाकर तुलसीको सारी बात बतायी ॥ ४७ ॥

रणवार्तां च सा श्रुत्वा शुष्ककण्ठोष्ठतालुका ।
उवाच मधुरं साध्वी हृदयेन विदूयता ॥ ४८ ॥
युद्धकी बात सुनकर उस तुलसीके कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गये और वह साध्वी तुलसी दुःखी मनसे मधुर वाणीमें कहने लगी ॥ ४८ ॥

तुलस्युवाच
हे प्राणबन्धो हे नाथ तिष्ठ मे वक्षसि क्षणम् ।
हे प्राणाधिष्ठातृदेव रक्ष मे जीवितं क्षणम् ॥ ४९ ॥
भुंक्ष्व जन्म समासाद्य यन्मे मनसि वाञ्छितम् ।
पश्यामि त्वां क्षणं किञ्चिल्लोचनाभ्यां च सादरम् ॥ ५० ॥
आन्दोलयन्ते प्राणा मे मनो दग्धं च सन्ततम् ।
दुःस्वप्नश्च मया दृष्टश्चाद्यैव चरमे निशि ॥ ५१ ॥
तुलसी बोली-हे प्राणबन्धो ! हे नाथ ! हे प्राणेश्वर ! मेरे वक्षःस्थलपर क्षणभरके लिये विराजिये । हे प्राणाधिष्ठातृदेव ! क्षणभर मेरे प्राणोंकी रक्षा कीजिये । मैं क्षणभर अपने नेत्रोंसे आदरपूर्वक आपको देख लूँ और यह जन्म पाकर आप मेरे मनमें विहारकी जो अभिलाषा है, उसे पूर्ण कीजिये । आज ही रात्रिके अन्तमें मैंने एक दु:स्वप्न देखा है, जिससे मेरे प्राण काँप रहे हैं और मनमें लगातार जलन हो रही है ॥ ४९-५१ ॥

तुलसीवचनं श्रुत्वा भुक्त्वा पीत्वा नृपेश्वर ।
उवाच वचनं प्राज्ञो हितं सत्यं यथोचितम् ॥ ५२ ॥
तुलसीकी बात सुनकर परम ज्ञानसम्पन्न राजेन्द्र शंखचूड भोजन-पानादिसे निवृत्त होकर तुलसीसे हितकर, सत्य तथा यथोचित वचन कहने लगा ॥ ५२ ॥

शंखचूड उवाच
कालेन योजितं सर्वं कर्मभोगनिबन्धनम् ।
शुभं हर्षः सुखं दुःखं भयं शोकश्च मङ्‌गलम् ॥ ५३ ॥
शंखचूड़ बोला-कल्याण, हर्ष, सुख, दुःख, भय, शोक और मंगल-ये समस्त कर्मभोगके बन्धन कालके साथ बंधे हुए हैं ॥ ५३ ॥

काले भवन्ति वृक्षाश्च स्कन्धवन्तश्च कालतः ।
क्रमेण पुष्पवन्तश्च फलवन्तश्च कालतः ॥ ५४ ॥
तेषां फलानि पक्वानि प्रभवन्त्येव कालतः ।
ते सर्वे फलिताः काले पातं यान्ति च कालतः ॥ ५५ ॥
समयसे ही वृक्ष उगते हैं, समयसे ही उनमें शाखाएँ निकलती हैं और फिर क्रमशः पुष्प तथा फल भी उनमें कालानुसार ही लगते हैं । तत्पश्चात् उन वृक्षोंके फल भी समयसे ही पकते हैं । अन्तमें फलयुक्त वे सभी वृक्ष समयानुसार नष्ट भी हो जाते हैं ॥ ५४-५५ ॥

काले भवन्ति विश्वानि काले नश्यन्ति सुन्दरि ।
कालात्स्रष्टा च सृजति पाता पाति च कालतः ॥ ५६ ॥
संहर्ता संहरेत्काले क्रमेण सञ्चरन्ति ते ।
ब्रह्मविष्णुशिवादीनामीश्वरः प्रकृतिः परा ॥ ५७ ॥
स्रष्टा पाता च संहर्ता स चात्मा कालनर्तकः ।
काले स एव प्रकृतिं स्वाभिन्नां स्वेच्छया प्रभुः ॥ ५८ ॥
निर्माय कृतवान्सर्वान्विश्वस्थांश्च चराचरान् ।
सर्वेशः सर्वरूपश्च सर्वात्मा परमेश्वरः ॥ ५९ ॥
हे सुन्दरि ! समयसे विश्व बनते हैं और समयपर नष्ट हो जाते हैं । कालकी प्रेरणासे ही ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और विश्वके संहारक शम्भु संहार करते हैं । वे सब क्रमशः कालानुसार ही अपने-अपने कार्यमें नियुक्त होते हैं । ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवताओंको नियामिका वे पराप्रकृति ही हैं । वही परमेश्वर सृष्टि, रक्षा तथा संहार करनेवाला है और वही परमात्मा कालको नचानेवाला है । उन्हीं प्रभुने समयानुसार इच्छा पूर्वक अपनेसे अभिन्न प्रकृतिका निर्माणकर विश्वमें रहनेवाले समस्त स्थावर-जंगम जीवोंकी रचना की है । वे ही सबके ईश्वर हैं, सभी रूपोंमें वे ही विद्यमान हैं, वे ही सबकी आत्मा हैं और वे ही परम ईश्वर हैं ॥ ५६-५९ ॥

जनं जनेन जनिता जनं पाति जनेन यः ।
जनं जनेन हरते तं देवं भज साम्प्रतम् ॥ ६० ॥
जो जनसे जनकी उत्पत्ति करता है, जनसे जनकी रक्षा करता है और जनसे जनका संहार करता है, उन्हीं प्रभुकी अब तुम उपासना करो ॥ ६० ॥

यस्याज्ञया वाति वातः शीघ्रगामी च साम्प्रतम् ।
यस्याज्ञया च तपनस्तपत्येव यथाक्षणम् ॥ ६१ ॥
यथाक्षणं वर्षतीन्द्रो मृत्युश्चरति जन्तुषु ।
यथाक्षणं दहत्यग्निश्चन्द्रो भ्रमति शीतवान् ॥ ६२ ॥
मृत्योर्मृत्युं कालकालं यमस्य च यमं परम् ।
विभुं स्रष्टुश्च स्रष्टारं मातुश्च मातृकं भवे ॥ ६३ ॥
संहर्तारं च संहर्तुस्तं देवं शरणं व्रज ।
को वा बन्धुश्च केषां वा सर्वबन्धुं भज प्रिये ॥ ६४ ॥
जिनकी आज्ञासे शीघ्रगामी पवनदेव प्रवाहित होते हैं, सूर्य यथासमय तपते हैं, इन्द्र समयानुसार वृष्टि करते हैं, मृत्यु सभी जीवोंमें विचरण करती है, अग्निदेव यथासमय दाह उत्पन्न करते हैं, शीतल चन्द्रमा आकाशमें परिभ्रमण करते हैं-उन्हीं मृत्युके भी मृत्यु, कालके भी काल, यमराजसे भी बड़े यमराज, सृष्टिकर्ता ब्रह्माके भी स्रष्टा, जगत्में माताकी माता, संहार करनेवाले शिवके भी संहर्ता परमप्रभ परमेश्वरको शरणमें जाओ । हे प्रिये ! इस जगत्में कौन किसका बन्धु है; अतः सभी प्राणियोंके बन्धुस्वरूप उन प्रभुकी उपासना करो ॥ ६१-६४ ॥

अहं को वा च त्वं का वा विधिना योजितः पुरा ।
त्वया सार्धं कर्मणा च पुनस्तेन वियोजितः ॥ ६५ ॥
अज्ञानी कातरः शोके विपत्तौ न च पण्डितः ।
सुखे दुःखे भ्रमत्येव कालनेमिक्रमेण च ॥ ६६ ॥
मैं कौन हूँ और तुम कौन हो ? ब्रह्माने पहले मुझे तुम्हारे साथ संयुक्त कर दिया और फिर उन्हींके द्वारा कर्मानुसार वियुक्त भी कर दिया जाऊँगा । शोक तथा विपत्तिमें अज्ञानी मनुष्य भयभीत होता है, न कि विद्वान् । इस प्रकार मनुष्य कालचक्रके क्रमसे सुख तथा दु:खके चक्रमें भ्रमण करता रहता है ॥ ६५-६६ ॥

नारायणं तं सर्वेशं कान्तं यास्यसि निश्चितम् ।
तपः कृतं यदर्थं च पुरा बदरिकाश्रमे ॥ ६७ ॥
अब तुम निश्चय ही सर्वेश्वर भगवान् नारायणको पतिरूपमें प्राप्त करोगी, जिनके लिये तुमने पूर्वकालमें बदरिकाश्रममें रहकर तप किया था ॥ ६७ ॥

मया त्वं तपसा लब्धा ब्रह्मणस्तु वरेण च ।
हर्यर्थे यत्तव तपो हरिं प्राप्स्यसि कामिनि ॥ ६८ ॥
वृन्दावने च गोविन्दं गोलोके त्वं लभिष्यसि ।
अहं यास्यामि तल्लोकं तनुं त्यक्त्वा च दानवीम् ॥ ६९ ॥
तत्र द्रक्ष्यसि मां त्वं च द्रक्ष्यामि त्वां च साम्प्रतम् ।
अगमं राधिकाशापाद्‍भारतं च सुदुर्लभम् ॥ ७० ॥
पुनर्यास्यामि तत्रैव कः शोको मे शृणु प्रिये ।
त्वं च देहं परित्यज्य दिव्यरूपं विधाय च ॥ ७१ ॥
तत्कालं प्राप्स्यसि हरिं मा कान्ते कातरा भव ।
तपस्या तथा ब्रह्माजीके वरदानसे तुम मुझे प्राप्त हुई हो । हे कामिनि ! उस समय जो तुम्हारी तपस्या थी, वह भगवान् श्रीहरिकी प्राप्तिके लिये थी, अत: तुम उन्हीं गोविन्द श्रीहरिको गोलोक-स्थित वृन्दावनमें प्राप्त करोगी । मैं भी अपना यह दानवी शरीर त्यागकर उसी लोकमें चलूँगा, तब वहींपर तुम मुझे देखोगी और मैं तुम्हें देखूगा । हे प्रिये ! सुनो इस समय मैं राधिकाके शापसे ही अगम तथा अत्यन्त दुर्लभ इस भारतवर्ष में आया हूँ और वहींपर पुनः चला जाऊँगा, अतः मेरे लिये शोक क्या ? हे कान्ते ! तुम भी शीघ्र ही इस शरीरका त्यागकर दिव्य रूप धारण करके उन्हीं श्रीहरिको पतिरूपमें प्राप्त करोगी, अत: दुःखी मत होओ । ६८-७१.५ ॥

इत्युक्त्वा च दिनान्ते च तया सार्धं मनोहरम् ॥ ७२ ॥
सुष्वाप शोभने तल्पे पुष्पचन्दनचर्चिते ।
नानाप्रकारविभवं चकार रत्‍नमन्दिरे ॥ ७३ ॥
रत्‍नप्रदीपसंयुक्ते स्त्रीरत्‍नं प्राप्य सुन्दरीम् ।
निनाय रजनीं राजा क्रीडाकौतुकमङ्‌गलैः ॥ ७४ ॥
कृत्वा वक्षसि तां कान्तां रुदतीमतिदुःखिताम् ।
कृशोदरीं निराहारां निमग्नां शोकसागरे ॥ ७५ ॥
पुनस्तां बोधयामास दिव्यज्ञानेन ज्ञानवित् ।
पुरा कृष्णेन यद्दत्तं भाण्डीरे तत्त्वमुत्तमम् ॥ ७६ ॥
स च तस्यै ददौ सर्वं सर्वशोकहरं परम् ।
ज्ञानं सम्प्राप्य सा देवी प्रसन्नवदनेक्षणा ॥ ७७ ॥
क्रीडां चकार हर्षेण सर्वं मत्वेति नश्वरम् ।
यह कहकर वह शंखचूड़ सायंकाल होनेपर उस तुलसीके साथ पुष्प तथा चन्दनसे चर्चित सुन्दर शय्यापर सो गया और अनेकविध विलास करने लगा । रत्नके दीपकोंसे सुशोभित अपने रत्नमय भवनमें स्त्रीरलस्वरूपिणी सुन्दरीको पाकर राजा शंखचूड़ने मांगलिक आमोद-प्रमोदोंके द्वारा रात्रि व्यतीत की । तत्पश्चात् अत्यन्त दुःखित होकर रोती हुई, निराहार रहनेके कारण कृश शरीरवाली तथा शोक सागरमें निमग्न अपनी उस प्रिया तुलसीको अपने वक्षःसे लगाकर वह ज्ञानसम्पन्न शंखचूड़ दिव्यज्ञानके द्वारा उसे पुनः समझाने लगा । प्राचीनकालमें भांडीरवनमें स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने जिस उत्तम, सभी शोकोंको दूर करनेवाले परम ज्ञानका उपदेश उसके लिये किया था, उसी सम्पूर्ण ज्ञानको शंखचूड़ने उस तुलसीको प्रदान किया । ज्ञान पाकर देवी तुलसीका मुख तथा नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठा । 'सब कुछ नश्वर है'-ऐसा मानकर वह हर्षपूर्वक विहार करने लगी ॥ ७२-७७.५ ॥

तौ दम्पती च क्रीडन्तौ निमग्नौ सुखसागरे ॥ ७८ ॥
पुलकाञ्चितसर्वाङ्‌गौ मूर्च्छितौ निर्जने मुने ।
अङ्‌गप्रत्यङ्‌गसंयुक्तौ सुप्रीतौ सुरतोत्सुको ॥ ७९ ॥
एकाङ्‌गौ च तथा तौ द्वौ चार्धनारीश्वरो यथा ।
प्राणेश्वरं च तुलसी मेने प्राणाधिकं परम् ॥ ८० ॥
प्राणाधिकां च तां मेने राजा प्राणेश्वरीं सतीम् ।
तौ स्थितौ सुखसुप्तौ च तन्द्रितौ सुन्दरौ समौ ॥ ८१ ॥
सुवेषौ सुखसम्भोगादचेष्टौ सुमनोहरौ ।
क्षणं सुचेतनौ तौ च कथयन्तौ रसाश्रयात् ॥ ८२ ॥
कथां मनोरमां दिव्यां हसन्तौ च क्षणं पुनः ।
क्षणं च केलिसंयुक्तौ रसभावसमन्वितौ ॥ ८३ ॥
सुरते विरतिर्नास्ति तौ तद्विषयपण्डितौ ।
सततं जययुक्तौ द्वौ क्षणं नैव पराजितौ ॥ ८४ ॥
हे मुने ! विहार करते हुए वे दोनों पति-पत्नी सुखके सागरमें निमग्न हो गये । रतिक्रीडाके लिये उत्सुक वे दोनों निर्जन स्थानमें परस्पर अंग-प्रत्यंगके स्पर्शसे मूच्छित-जैसे हो गये । उस समय अत्यन्त प्रसन्नचित्त उन दोनोंके सभी अंग पुलकित थे । वे दोनों एक अंगके रूपमें होकर अर्धनारीश्वरके समान प्रतीत हो रहे थे । तुलसी अपने पतिको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय समझती थी और राजा शंखचूड़ भी अपनी उस साध्वी प्राणेश्वरीको अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय समझता था । समान सौन्दर्यवाले वे दोनों ही तन्द्रायुक्त दम्पती सुखपूर्वक सोये हुए थे । सुन्दर वेष धारण किये हुए वे मनोहर दम्पती सम्भोगजनित सुखके कारण अचेत पड़े थे । जब कभी वे चेतनामें आते, तब परस्पर रसमयी बातें करने लगते तथा मनोरम और दिव्य कथा कहने लगते, फिर हंसने लगते थे, इसके बाद क्षणभरमें ही श्रृंगार भावसे युक्त होकर क्रीडा करने लगते थे । इस प्रकार कामकलाके जाननेवाले वे दोनों क्रीडा-विलाससे कभी भी विरत नहीं होते थे । दोनों ही निरन्तर विजयी बने रहकर कभी क्षणभरको भी अपनेको पराजित नहीं मानते थे ॥ ७८-८४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे शङ्‌खचूडेन सह
देवानां सङ्ग्रामोद्योगवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्वयां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे शाचूडेन सह देवानां सग्रामोद्योगवर्णन नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥


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