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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
नवमः स्कन्धः
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः

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नानाकर्मविपाकफलकथनम् -
विभिन्न नरककुण्डोंमें जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन -


धर्मराज उवाच
हरिसेवारतः शुद्धो योगसिद्धो व्रती सति ।
तपस्वी ब्रह्मचारी च न याति नरकं ध्रुवम् ॥ १ ॥
धर्मराज बोले-हे साध्वि ! भगवान् श्रीहरिकी सेवामें संलग्न रहनेवाला, विशद्धात्मा, योगसिद्ध, व्रती, तपस्वी तथा ब्रह्मचारी पुरुष निश्चित ही नरकमें नहीं जाता ॥ १ ॥

कटुवाचा बान्धवांश्च बललेपेन यो नरः ।
दग्धान्करोति बलवान् वह्निकुण्डं प्रयाति सः ॥ २ ॥
स्वगात्रलोममानाब्दं तत्र स्थित्वा हुताशने ।
पशुयोनिमवाप्नोति रौद्रदग्धां त्रिजन्मनि ॥ ३ ॥
जो बलशाली मनुष्य बलके अभिमानमें आकर अपने कटुवचनसे बान्धवोंको दग्ध करता है, वह वहिकुण्ड नामक नरकमें जाता है और अपने शरीरमें विद्यमान रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक उस वहिकुण्डमें वास करके वह तीन जन्मोतक रौद्रदग्ध पशुयोनि प्राप्त करता है ॥ २-३ ॥

ब्राह्मणं तृषितं तप्तं क्षुधितं गृहमागतम् ।
न भोजयति यो मूढस्तप्तकुण्डं प्रयाति सः ॥ ४ ॥
तत्र तल्लोममानं च वर्षं स्थित्वा च दुःखदे ।
तप्तस्थले वह्नितल्पे पक्षी च सप्तजन्मसु ॥ ५ ॥
जो मूर्ख घरपर आये हुए भूखे-प्यासे दुःखी ब्राह्मणको भोजन नहीं कराता है, वह तप्तकुण्ड नामक नरकमें जाता है । उस ब्राह्मणके शरीरमें विद्यमान रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक उस दुःखप्रद नरकमें वास करके वह सात जन्मोंतक पक्षीकी योनिमें पैदा होकर तपते हुए स्थानपर वहिशय्यापर यातना भोगता है । ४-५ ॥

रविवारे च संक्रान्त्याममायां श्राद्धवासरे ।
वस्त्राणां क्षारसंयोगं करोति केवलं नरः ॥ ६ ॥
स याति क्षारकुण्डं च सूत्रमानाब्दमेव च ।
स व्रजेद्‌रजकीं योनिं सप्तजन्मसु भारते ॥ ७ ॥
जो मनुष्य रविवार, सूर्यसंक्रान्ति, अमावास्या और श्राद्धके अवसरपर क्षार पदार्थोंसे वस्त्र धोता है, वह क्षारकुण्ड नामक नरकमें जाता है और उस वस्त्रमें विद्यमान सूतोंकी संख्याके बराबर वर्षातक वहाँ निवास करता है । इसके बाद भारतवर्ष में सात जन्मोंतक रजकयोनिमें उसे जन्म लेना पड़ता है ॥ ६-७ ॥

मूलप्रकृतिनिन्दां यः कुरुते मानवाधमः ।
वेदनिन्दां शास्त्रनिन्दां पुराणानां तथैव च ॥ ८ ॥
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां तथा निन्दापरो जनः ।
गौरीवाण्यादिदेवीनां तथा निन्दापरो जनः ॥ ९ ॥
ते सर्वे निरये यान्ति तस्मिन्कुण्डे भयानके ।
नातः परतरं कुण्डं दुःखदं तु भविष्यति ॥ १० ॥
तत्र स्थित्वानेककल्पं सर्पयोनिं व्रजेत्पुनः ।
देवीनिन्दापराधस्य प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥ ११ ॥
जो अधम मनुष्य मूलप्रकृति भगवती जगदम्बाकी निन्दा करता है, जो वेद-शास्त्र तथा पुराणोंकी निन्दा करता है, जो ब्रह्मा-विष्णु-शिव आदि देवताओंकी निन्दामें संलग्न रहता है और जो मनुष्य गौरीसरस्वती आदि देवियोंकी निन्दामें तत्पर रहता हैवे सब उस भयानक नरककुण्डमें जाते हैं, जिससे बढ़कर दुःखदायी दूसरा कोई कुण्ड नहीं होता । उस कुण्डमें अनेक कल्पोंतक वास करके वह मनुष्य सर्पयोनिको प्राप्त होता है । भगवतीकी निन्दाके अपराधका कोई प्रायश्चित्त ही नहीं है ॥ ८-११ ॥

स्वदत्तां परदत्तां वा वृत्तिं च सुरविप्रयोः ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विट्कुण्डं च प्रयाति सः ॥ १२ ॥
तावन्त्येव च वर्षाणि विड्भोजी तत्र तिष्ठति ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विट्कृमिश्च पुनर्भुवि ॥ १३ ॥
जो मनुष्य अपने या दूसरेके द्वारा दी गयी देवता अथवा ब्राह्मणकी वृत्तिको छीनता है, वह साठ हजार वर्षोंके लिये विट्कुण्ड नामक नरकमें जाता है और उतने ही वर्षांतक विष्ठाभोजी बनकर वहाँ रहता है । इसके बाद वह पुनः पृथ्वीपर साठ हजार वर्षातक विष्ठाका कृमि होता है ॥ १२-१३ ॥

परकीयतडागे च तडागं यः करोति च ।
उत्सजेद्दैवदोषेण मूत्रकुण्डं प्रयाति सः ॥ १४ ॥
तद्रेणुमानवर्षं च तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ।
पुनः पूर्णशताब्दं च स वृषो भारते भवेत् ॥ १५ ॥
जो व्यक्ति दूसरोंके बनवाये तड़ागमें अपने नामसे निर्माण करता है और फिर जनताके लिये उसका उत्सर्ग (लोकार्पण) करता है, वह उस दोषके कारण मूत्रकुण्ड नामक नरकमें जाता है । वहाँपर वह उस तड़ागके रज-कणकी संख्याके बराबर वर्षांतक उसी मूत्र आदिको ग्रहण करते हुए रहता है और पुनः भारतवर्षमें पूरे सौ वर्षोंतक वृषकी योनिमें रहता है ॥ १४-१५ ॥

एकाकी मिष्टमश्नाति श्लेष्मकुण्डं प्रयाति च ।
पूर्णमब्दशतं चैव तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ॥ १६ ॥
ततः पूर्णशताब्दं च स प्रेतो भारते भवेत् ।
श्लेष्ममूत्रपरं चैव पूयं भुङ्‌क्ते ततः शुचिः ॥ १७ ॥
जो अकेले ही मिष्टान्न आदिका भक्षण करता है, वह श्लेष्मकुण्ड नामक नरकमें जाता है और उसी श्लेष्माको खाते हुए पूरे सौ वर्षांतक वहाँ रहता है । इसके बाद वह भारतवर्षमें पूरे सौ वर्षांतक प्रेतयोनिमें पड़ा रहता है; यहाँ श्लेष्मा, मूत्र तथा पीव आदिका उसे भक्षण करना पड़ता है, तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १६-१७ ॥

पितरं मातरं चैव गुरुं भार्यां सुतं सुताम् ।
यो न पुष्णात्यनाथं च गरकुण्डं प्रयाति सः ॥ १८ ॥
पूर्णमब्दशतं चैव तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ।
ततो व्रजेद्‌भूतयोनिं शतवर्षं ततः शुचिः ॥ १९ ॥
जो मनुष्य माता, पिता, गुरु, पत्नी, पुत्र, पुत्री और अनाथका भरण-पोषण नहीं करता; वह गरकुण्ड (विषकुण्ड) नामक नरकमें जाता है और वहाँपर उसी विषको खाते हुए वह पूरे सौ वर्षोंतक पड़ा रहता है । तदनन्तर वह सौ वर्षोंतकके लिये भूतयोनिमें जाता है, इसके बाद वह शुद्ध होता है ॥ १८-१९ ॥

दृष्ट्वातिथिं वक्रचक्षुः करोति यो हि मानवः ।
पितृदेवास्तस्य जलं न गृह्णन्ति च पापिनः ॥ २० ॥
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च ।
इहैव लभते चान्ते दूषिकाकुण्डमाव्रजेत् ॥ २१ ॥
पूर्णमब्दशतं चैव तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ।
ततो व्रजेद्‌भूतयोनिं शतवर्षं ततः शुचिः ॥ २२ ॥
जो मनुष्य अतिथिको देखकर [उसके प्रति उपेक्षाभावसे] अपनी दृष्टिको वक्र कर लेता है, उस पापीके जलको देवता तथा पितर ग्रहण नहीं करते और ब्रह्माहत्या आदि जो कुछ भी पाप हैं, उन सबका फल उसे इसी लोकमें भोगना पड़ता है । अन्तमें वह दूषिकाकुण्ड नामक नरकमें जाता है और वहाँपर दृषित पदार्थोंको खाते हुए पूरे सौ वर्षोंतक निवास करता है । तत्पश्चात् सौ वर्षांतक भूतयोनिमें रहनेके अनन्तर उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ २०-२२ ॥

दत्त्वा द्रव्यं च विप्राय चान्यस्मै दीयते यदि ।
स तिष्ठति वसाकुण्डे तद्‍भोजी शतवत्सरम् ॥ २३ ॥
कृकलासो भवेत्सोऽपि भारते सप्तजन्मसु ।
ततो भवेन्महारौद्रो दरिद्रोऽल्पायुरेव च ॥ २४ ॥
यदि कोई मनुष्य ब्राह्मणको द्रव्यका दान करनेके बाद वह द्रव्य किसी अन्यको दे देता है, तो वह वसाकुण्ड नामक नरकमें जाता है और उसी वसाको खाते हुए उसे सौ वर्षोंतक वहीं रहना पड़ता है । तदनन्तर उसे भारतवर्षमें सात जन्मोंतक गिरगिट होना पड़ता है । उसके बाद वह महान् क्रोधी, दरिद्र तथा अल्पायु प्राणीके रूपमें जन्म लेता है ॥ २३-२४ ॥

पुमांसं कामिनी वापि कामिनीं वा पुमानथ ।
यः शुक्रं पाययत्येव शुक्रकुण्डं प्रयाति सः ॥ २५ ॥
पूर्णमब्दशतं चैव तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ।
कृमियोनिं शताब्दं च व्रजेद्‌भूत्वा ततः शुचिः ॥ २६ ॥
यदि कोई स्त्री परपुरुषसे सम्बन्ध रखती है अथवा कोई पुरुष परनारीमें वीर्याधान करता है, वह शुक्रकुण्ड नामक नरकमें जाता है । वहाँपर उसी वीर्यको खाते हुए उसे पूरे सौ वर्षांतक रहना पड़ता है । इसके बाद वह सौ वर्षोंतक कीटयोनिमें रहता है, तदनन्तर शुद्ध होता है । २५-२६ ॥

सन्ताड्य च गुरुं विप्रं रक्तपातं च कारयेत् ।
स च तिष्ठत्यसृक्कुण्डे तद्‍भोजी शतवत्सरम् ॥ २७ ॥
ततो लभेद्व्याघ्रजन्म सप्तजन्मसु भारते ।
ततः शुद्धिमवाप्नोति मानवश्च क्रमेण ह ॥ २८ ॥
जो व्यक्ति गुरु अथवा ब्राह्मणको मारकर उनके शरीरसे रक्त बहाता है, वह असृक्कुण्ड नामक नरकमें जाता है और उसी रक्तका पान करते हुए उसे वहाँ सौ वर्षांतक रहना पड़ता है । तदनन्तर वह भारतवर्षमें सात जन्मोंतक व्याघ्रका जन्म प्राप्त करता है । इस प्रकार वह क्रमसे शुद्ध होता है और वह फिरसे मानवयोनिमें जन्म लेता है ॥ २७-२८ ॥

योऽश्रु तत्याज गायन्तं भक्तं दृष्ट्वा सगद्‌गदम् ।
श्रीकृष्णगुणसङ्‌गीते हसत्येव हि यो नरः ॥ २९ ॥
स वसेदश्रुकुण्डे च तद्‍भोजी शतवर्षकम् ।
ततो भवेच्च चाण्डालस्त्रिजन्मनि ततः शुचिः ॥ ३० ॥
भगवान् श्रीकृष्णका प्रेमपूर्वक गुणगान करनेवाले भक्तको देखकर जो मनुष्य खेदपूर्वक आँसू बहाता है तथा उनके गुणसम्बन्धी संगीतके अवसरपर जो उपहास करता है, वह सौ वर्षातक अश्रुकुण्ड नामक नरकमें वास करता है और वहाँ उसी अश्रुको भोजनके रूपमें उसे ग्रहण करना पड़ता है, तत्पश्चात् वह तीन जन्मोतक चाण्डालकी योनिमें पैदा होता है, तब वह शुद्ध होता है ॥ २९-३० ॥

करोति शठता तद्वन्नित्यं सुहृदि यो नरः ।
कुण्डं गात्रमलानां च स प्रयाति शताब्दकम् ॥ ३१ ॥
ततः स गार्दभीं योनिमवाप्नोति त्रिजन्मनि ।
त्रिजन्मनि च शार्गालीं ततः शुद्धो भवेद्‌ ध्रुवम् ॥ ३२ ॥
उसी प्रकार जो मनुष्य सहृदय व्यक्तिके साथ सदा शठताका व्यवहार करता है, वह गात्रमलकुण्ड नामक नरकमें जाता है और सौ वर्षोंतक वहाँ वास करता है । तदनन्तर वह तीन जन्मोतक गर्दभयोनिमें तथा तीन जन्मोंतक शृगाल-योनिमें जन्म लेता है, इसके बाद वह निश्चित ही शुद्ध हो जाता है ॥ ३१-३२ ॥

बधिरं यो हसत्येव निन्दत्येवाभिमानतः ।
स वसेत्कर्णविट्कुण्डे तद्‍भोजी शतवत्सरम् ॥ ३३ ॥
ततो भवेत्स बधिरो दरिद्रः सप्तजन्मसु ।
सप्तजन्मन्यङ्‌गहीनस्ततः शुद्धिं लभेद्‌ ध्रुवम् ॥ ३४ ॥
जो मनुष्य किसी बहरेको देखकर हँसता है और अभिमानपूर्वक उसकी निन्दा करता है, वह कर्णविट्कुण्ड नामक नरकमें सौ वर्षोंतक वास करता है और वहाँ रहते हुए कानकी मैलका भोजन करता है । तत्पश्चात् वह सात जन्मोंतक दरिद्र तथा बहरा होता है । पुनः सात जन्मोतक अंगहीन होकर वह जन्म लेता है, तदनन्तर उसकी शुद्धि होती है ॥ ३३-३४ ॥

लोभात्स्वभरणार्थाय जीविनं हन्ति यो नरः ।
मज्जाकुण्डे वसेत्सोऽपि तद्‍भोजी लक्षवत्सरम् ॥ ३५ ॥
ततो भवेच्च शशको मीनश्च सप्तजन्मसु ।
त्रिजन्मनि वराहश्च कुक्कुटः सप्तजन्मसु ॥ ३६ ॥
एणादयश्च कर्मभ्यस्ततः शुद्धिं लभेद्‌ ध्रुवम् ।
जो मनुष्य लोभके वशीभूत होकर अपने भरणपोषणके लिये जीवोंकी हत्या करता है, वह मज्जाकुण्ड नामक नरकमें लाख वर्षातक वास करता है और वहाँपर भोजनमें उसे वही मज्जा ही मिलती है । तदनन्तर वह सात जन्मोंतक खरगोश और मछली. तीन जन्मोंतक सूअर और सात जन्मोंतक कुक्कुट होकर जन्म लेता है, फिर कौके प्रभावसे वह मृग आदि योनियाँ प्राप्त करता है, तत्पश्चात् वह शुद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ ३५-३६.५ ॥

स्वकन्यापालनं कृत्वा विक्रीणाति च यो नरः ॥ ३७ ॥
अर्थलोभान्महामूढो मांसकुण्डं प्रयाति सः ।
कन्यालोमप्रमाणाब्दं तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ॥ ३८ ॥
तस्य दण्डप्रहारं च कुर्वन्ति यमकिङ्‌कराः ।
मांसभारं मूर्ध्नि कृत्वा रक्तभारं लिहेत्क्षुधा ॥ ३९ ॥
ततो हि भारते पापी कन्याविट्कृमिगो भवेत् ।
षष्टिवर्षसहस्राणि व्याधश्च सप्तजन्मसु ॥ ४० ॥
त्रिजन्मनि वराहश्च कुक्कुटः सप्तजन्मसु ।
मण्डूको हि जलौकाश्च सप्तजन्मसु भारते ॥ ४१ ॥
सप्तजन्मसु काकश्च ततः शुद्धिं लभेद्‌ ध्रुवम् ।
जो मनुष्य अपनी कन्याको पाल-पोसकर धनके लोभसे उसे बेच देता है, वह महामूर्ख मांसकुण्ड नामक नरकमें जाता है । उस कन्याके शरीरमें विद्यमान रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक वह उस नरकमें रहता है और वहाँपर उसे भोजनके रूपमें वहीं मांस खाना पड़ता है । यमदूत उसपर दण्ड-प्रहार करते हैं । उसे मांस तथा रक्तका बोझ मस्तकपर उठाकर दोना पड़ता है और रक्त आदिको चाटकर वह अपनी क्षुधा शान्त करता है । तत्पश्चात् वह पापी साठ हजार वर्षांतक भारतवर्षमें उस कन्याकी विष्ठाका कीड़ा बनकर रहता है । इसके बाद भारतवर्षमें सात जन्मोंतक व्याध, तीन जन्मोंतक सूअर, सात जन्मोंतक कुक्कुट, सात जन्मोंतक मेढक और जोंक तथा पुनः सात जन्मोंतक कौएकी योनि प्राप्त करता है, तत्पश्चात् वह शुद्ध होता है ॥ ३७-४१.५ ॥

व्रतानामुपवासानां श्राद्धादीनां च सङ्‌गमे ॥ ४२ ॥
करोति यः क्षौरकर्म सोऽशुचिः सर्वकर्मसु ।
स च तिष्ठति कुण्डे च नखादीनाञ्च सुन्दरि ॥ ४३ ॥
तद्दैवदिनमानाब्दं तद्‍भोजी दण्डताडितः ।
जो मनुष्य व्रतों, उपवासों और श्राद्धों आदिके अवसरपर क्षौरकर्म करता है, वह सम्पूर्ण कोक लिये अपवित्र हो जाता है । हे सुन्दरि ! वह नख आदि कुण्डोंमें उन दिनोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक वास करता है, उन्हीं दुष्पदार्थोका भक्षण करता है और डण्डोंसे पीटा जाता है ॥ ४२-४३.५ ॥

सकेशं पार्थिवं लिङ्‌गं यो वार्चयति भारते ॥ ४४ ॥
स तिष्ठति केशकुण्डे मृद्रेणुमानवर्षकम् ।
तदन्ते यावनीं योनिं प्रयाति हरकोपतः ॥ ४५ ॥
शताब्दाच्छुद्धिमाप्नोति राक्षसः स भवेद्‌ ध्रुवम् ।
जो भारतवर्षमें केशयुक्त मिट्टीसे बने पार्थिव लिंगकी पूजा करता है, वह उस मृदामें विद्यमान रजकणोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक केशकुण्ड नामक नरकमें निवास करता है । तदनन्तर भगवान् शिवके कोपके कारण वह यवनयोनिमें जन्म लेता है और फिर वह राक्षसयोनिमें जन्म ग्रहण करता है तथा सौ वर्षके पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ४४-४५.५ ॥

पितॄणां यो विष्णुपदे पिण्डं नैव ददाति च ॥ ४६ ॥
स च तिष्ठत्यस्थिकुण्डे स्वलोमाब्दं महोल्बणे ।
ततः सुयोनिं सम्प्राप्य कुखञ्जः सप्तजन्मसु ॥ ४७ ॥
भवेन्महादरिद्रश्च ततः शुद्धो हि देहतः ।
जो मनुष्य विष्णुपदतीर्थ (गयातीर्थ)-में पितरोंको पिण्ड नहीं देता, वह अपने शरीरके रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षातक अस्थिकुण्ड नामक अत्यन्त भयानक कुण्डमें वास करता है । तत्पश्चात् वह मानवयोनि प्राप्तकर सात जन्मोंतक लँगड़ा तथा महान् दरिद्र होता है । तत्पश्चात् उसकी देहशुद्धि हो जाती है । ॥ ४६-४७.५ ॥

यः सेवते महामूढो गुर्विणीं च स्वकामिनीम् ॥ ४८ ॥
प्रतप्ते ताम्रकुण्डे च शतवर्षं स तिष्ठति ।
जो महामूर्ख मनुष्य अपनी गर्भवती स्त्रीके साथ सहवास करता है, वह सौ वर्षातक अत्यन्त तपते हुए ताम्रकुण्ड नामक नरकमें निवास करता है । ४८.५ ॥

अवीरान्नं च यो भुङ्‌क्ते ऋतुस्नातान्नमेव च ॥ ४९ ॥
लोहकुण्डे शताब्दं च स च तिष्ठति तप्तके ।
स व्रजेद्‌रजकीं योनिं काकानां सप्तजन्मसु ॥ ५० ॥
महाव्रणी दरिद्रश्च ततः शुद्धी भवेन्नरः ।
जो व्यक्ति पति-पुत्रहीन स्त्री तथा ऋतुस्नाता स्त्रीका अन्न खाता है, वह जलते हुए लोहकुण्ड नामक नरकमें सौ वर्षोंतक रहता है । इसके बाद वह सात जन्मोंतक रजक तथा कौएकी योनि पाता है । उस समय वह दरिद्र रहता है और विशाल घावोंसे युक्त रहता है, तदनन्तर वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है ॥ ४९-५०.५ ॥

यो हि चर्माक्तहस्तेन देवद्रव्यमुपस्मृशेत् ॥ ५१ ॥
शतवर्षप्रमाणं च चर्मकुण्डे स तिष्ठति ।
जो व्यक्ति चर्मसे स्पर्शित हाथके द्वारा देवद्रव्यका स्पर्श करता है, वह सौ वर्षांतक चर्मकुण्ड नामक नरकमें वास करता है ॥ ५१.५ ॥

यः शूद्रेणाभ्यनुज्ञातो भुङ्क्ते शूद्रान्नमेव च ॥ ५२ ॥
स च तप्तसुराकुण्डे शताब्दं तिष्ठति द्विजः ।
ततो भवेच्छूद्रयाजी ब्राह्मणः सप्तजन्मसु ॥ ५३ ॥
शूद्रश्राद्धान्नभोजी च ततः शुद्धो भवेद्‌ध्रुवम् ।
जो ब्राह्मण किसी शूद्रसे स्वीकृति प्राप्तकर उसका अन्न खाता है, वह तप्तसुराकुण्ड नामक नरकमें सौ वर्षांतक वास करता है । तत्पश्चात् वह सात जन्मोंतक शूद्रयाजी (शूद्रोंका यज्ञ करानेवाला) ब्राह्मण होता है और शूद्रोंका श्राद्धान्न ग्रहण करता है, तदनन्तर वह अवश्य ही शुद्ध हो जाता है ॥ ५२-५३.५ ॥

वाग्दुष्टः कटुको वाचा ताडयेत्स्वामिनं सदा ॥ ५४ ॥
तीक्ष्णकण्टककुण्डे स तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ।
ताडितो यमदूतेन दण्डेन च चतुर्गुणम् ॥ ५५ ॥
ततः उच्चैःश्रवाः सप्तजन्मस्वेव ततः शुचि ।
जो कटुभाषी मनुष्य कठोर वचनके द्वारा अपने स्वामीको सदा पीडित करता रहता है, वह तीक्ष्णकण्टककुण्ड नामक नरकमें वास करता है और उसे वहाँपर कण्टक ही खानेको मिलते हैं । यमदूतके द्वारा डंडेसे वह चार गुना ताडित किया जाता है । उसके बाद वह सात जन्मतक अश्वकी योनि प्राप्त करता है, फिर वह शुद्ध हो जाता है । ५४-५५.५ ॥

विषेण जीवनं हन्ति निर्दयो यो हि मानवः ॥ ५६ ॥
विषकुण्डे च तद्‍भोजी सहस्राब्दं च तिष्ठति ।
ततो भवेन्नृघाती च व्रणी च शतजन्मसु ॥ ५७ ॥
सप्तजन्मसु कुष्ठी च ततः शुद्धो भवेद्‌ धुवम् ।
जो दयाहीन मनुष्य विषके द्वारा किसी प्राणीकी हत्या करता है, वह हजार वर्षांतक विपकुण्ड नामक नरकमें रहता है और वहाँपर उसे उसी विषका भोजन करना पड़ता है । उसके बाद वह नरघाती सात जन्मोंतक बड़े-बड़े घावोंसे युक्त तथा सात जन्मोंतक कोढ़से ग्रस्त रहता है, तत्पश्चात् वह अवश्य ही शुद्ध हो जाता है ॥ ५६-५७.५ ॥

दण्डेन ताडयेद्‌ गां हि वृषञ्च वृषवाहकः ॥ ५८ ॥
भृत्यद्वारा स्वतन्त्रो वा पुण्यक्षेत्रे च भारते ।
प्रतप्ते तैलकुण्डेऽग्नौ तिष्ठति स्म चतुर्युगम् ॥ ५९ ॥
पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें जो वृषवाहक गायको और बैलको डण्डेसे स्वयं मारता है अथवा सेवकके द्वारा मरवाता है, उसे चार युगोंतक तपते हुए तैलकुण्ड नामक नरकमें वास करना पड़ता है और तत्पश्चात् उस गायके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक उसे बैल होना पड़ता है ॥ ५८-५९ ॥

गवां लोमप्रमाणाब्दं वृषो भवति तत्परम् ।
कुन्तेन हन्ति यो जीवं वह्निलोहेन हेलया ॥ ६० ॥
कुन्तकुण्डे वसेत्सोऽपि वर्षाणामयुतं सति ।
ततः सुयोनिं सम्प्राप्य चोदरे व्याधिसंयुतः ॥ ६१ ॥
जन्मनैकेन क्लेशेन ततः शुद्धो भवेन्नरः ।
हे साध्वि ! जो मनुष्य भालेसे अथवा अग्निमें तपाये गये लोहेसे किसी प्राणीकी उपेक्षापूर्वक हत्या कर देता है, वह दस हजार वर्षांतक कुन्तकुण्ड नामक नरकमें वास करता है । तत्पश्चात् उत्तम मानवयोनिमें जन्म प्राप्त करके वह उदररोगसे पीडित होता है । इस प्रकार एक ही जन्ममें कष्ट भोगनेके पश्चात् वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है ॥ ६०-६१.५ ॥

यो भुङ्‌क्ते च वृथा मांसं मांसलोभी द्विजाधमः ॥ ६२ ॥
हरेरनैवेद्यभोजी कृमिकुण्डं प्रयाति सः ।
स्वलोममानवर्षं च तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ॥ ६३ ॥
जो अधम द्विज भगवत्प्रसादका त्याग करके मांसस्वादके लोभसे व्यर्थ ही मांस-भक्षण करता है, वह कृमिकुण्डमें जाता है । वहाँ अपने शरीरके रोमोंकी संख्याके समान वर्षांतक रोमका ही भक्षण करता हुआ वह पड़ा रहता है । फिर तीन जन्मोतक म्लेच्छ जातिमें जन्म लेकर पुनः द्विज होता है ॥ ६२-६३ ॥

ततो भवेन्म्लेच्छजातिस्त्रिजन्मनि ततो द्विजः ।
ब्राह्मणः शूद्रयाजी च शूद्रश्राद्धान्नभोजकः ॥ ६४ ॥
शूद्राणां शवदाही च पूयकुण्डे वसेद्‌ ध्रुवम् ।
यावल्लोमप्रमाणाब्दं यमदण्डेन सुव्रते ॥ ६५ ॥
ताडितो यमदूतेन तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ।
ततो भारतमागत्य स शूद्रः सप्तजन्मसु ॥ ६६ ॥
महारोगी दरिद्रश्च बधिरो मूक एव च ।
जो ब्राह्मण शूद्रोंका यज्ञ कराता है, शूद्रोंका श्राद्धान्न खाता है तथा शूद्रोंका शव जलाता है, वह अपने शरीरमें जितने रोएँ हैं: उतने वर्षोंतक प्रयकुण्ड नामक नरकमें अवश्य वास करता है । हे सुव्रते ! वह उस नरकमें यमदूतके द्वारा यमदण्डसे पीटा जाता है तथा पीवका भोजन करते हुए पड़ा रहता है । तत्पश्चात् वह भारतवर्षमें जन्म लेकर सात जन्मोंतक शूद्र रहता है । उस समय वह अत्यन्त रोगी, दरिंद्र, बहरा तथा गूंगा रहता है ॥ ६४-६६.५ ॥

कृष्णं पद्मं च के यस्य तं सर्पं हन्ति यो नरः ॥ ६७ ॥
स्वलोममानवर्षं च सर्पकुण्डं प्रयाति सः ।
सर्पेण भक्षितः सोऽथ यमदूतेन ताडितः ॥ ६८ ॥
वसेच्च सर्पविड्भोजी ततः सर्पो भवेद्‌ ध्रुवम् ।
ततो भवेन्मानवश्च स्वल्पायुर्दद्रुसंयुतः ॥ ६९ ॥
महाक्लेशेन तन्मृत्युः सर्पेण भक्षिताद्‌ ध्रुवम् ।
कृष्णवर्णवाले तथा जिसके मस्तकपर कमलचिह्न विद्यमान हो, उस सर्पको जो मनुष्य मारता है, वह अपने शरीरके रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतकके लिये सर्पकुण्ड नामक नरकमें जाता है । उसे वहाँपर सर्प काटते हैं तथा यमदूत उसे पीटते हैं । सर्पकी विष्ठा खाते हुए वह उस नरकमें वास करता है । तत्पश्चात् उसे निश्चय ही सर्पयोनि प्राप्त होती है । तदनन्तर वह मानवयोनि प्राप्त करता है, उस समय वह दाद आदि रोगोंसे युक्त तथा अल्प आयुवाला होता है । उसके बाद सर्पके काटनेसे अत्यन्त कष्टपूर्वक उसकी मृत्यु होती है, यह निश्चित है ॥ ६७-६९.५ ॥

विधिप्रदत्तजीव्यांश्च क्षुद्रजन्तूंश्च हन्ति यः ॥ ७० ॥
स दंशमशयोः कुण्डे जन्तुमानाब्दमेव च ।
दिवानिशं भक्षितस्तैरनाहारश्च शब्दवान् ॥ ७१ ॥
हस्तपादादिबद्धश्च यमदूतेन ताडितः ।
ततो भवेत्क्षुद्रजन्तुर्जातिश्च यावनी भवेत् ॥ ७२ ॥
ततो भवेन्मानवश्च सोऽङ्‌गहीनस्ततः शुचिः ।
ब्रह्माके विधानके अनुसार रक्तपान आदिपर जीवित रहनेवाले [ मच्छर आदि] क्षुद्र जन्तुओंको जो व्यक्ति मारता है, वह उन जन्तुओंकी संख्याके बराबर वर्षांतक दंशकुण्ड और मशककुण्ड नामक नरकमें निवास करता है । वे जन्तु उसे दिन-रात काटते रहते हैं, उसे वहाँ खानेको कुछ भी नहीं मिलता और वह जोर-जोरसे रोता-चिल्लाता रहता है । यमदूत उसके हाथ-पैर बाँधकर उसे पीटते हैं । तत्पश्चात् वह उन्हीं क्षुद्र जन्तुओंकी योनिमें जाता है और पुनः यवनजातिमें जन्म लेता है । तदनन्तर वह अंगहीन मानव होकर जन्म लेता है, तब उसकी शुद्धि हो जाती है । ७०-७२.५ ॥

यो मूढो मधुमश्नाति हत्वा च मधुमक्षिकाः ॥ ७३ ॥
स एव गारले कुण्डे जीवमानाब्दकं वसेत् ।
भक्षितो गरलैर्दग्धो यमदूतेन ताडितः ॥ ७४ ॥
ततो हि मक्षिकाजातिस्ततः शुद्धो भवेन्नरः ।
जो मूर्ख मनुष्य मधुमक्खियोंको मारकर मधुका भक्षण करता है, वह उन मारी गयी मक्खियोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक गरलकुण्डमें वास करता है । वहाँपर उसे मधुमक्खियाँ काटती रहती हैं, वह सदा विषसे जलता रहता है और यमदूत उसे पीटते रहते हैं । उसके बाद वह मक्खियोंकी योनिमें जन्म लेता है, तदनन्तर उसकी शुद्धि होती है । ७३-७४.५ ॥

दण्डं करोत्यदण्ड्ये च विप्रे दण्डं करोति च ॥ ७५ ॥
स कुण्डं वज्रदंष्ट्राणां कीटानां याति सत्वरम् ।
स तल्लोमप्रमाणाब्दं तत्र तिष्ठत्यहर्निशम् ॥ ७६ ॥
शब्दकृद्‍भक्षितस्तैस्तु यमदूतेन ताडितः ।
करोति रोदनं भद्रे हाहाकारं क्षणे क्षणे ॥ ७७ ॥
पुनः सूकरयोनौ च जायते सप्तजन्मसु ।
त्रिजन्मनि काकयोनौ ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ७८ ॥
जो मनुष्य किसी विप्रको अथवा दण्ड न देनेयोग्य किसी व्यक्तिको दण्डित करता है, वह वज्रके समान दाँतोंवाले भयानक जन्तुओंसे भरे वज्रदंष्ट्रकुण्ड नामक नरकमें शीघ्र ही जाता है । उस दण्डित व्यक्तिके शरीरमें जितने रोम होते हैं; उतने वर्षातक वह उस नरकमें निवास करता है । उसे नरकके वे कीड़े दिन-रात काटते रहते हैं और वह चीखता-चिल्लाता है । हे भद्रे ! यमदूत उसे सदा पीटते रहते हैं, जिससे वह रोता है और प्रतिक्षण हाहाकार करता रहता है । तदनन्तर वह सात जन्मोंतक सूअरकी योनिमें और तीन जन्मोंतक कौवेकी योनिमें उत्पन्न होता है, उसके बाद वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है ॥ ७५-७८ ॥

अर्थलोभेन यो मूढः प्रजादण्डं करोति सः ।
वृश्चिकानां च कुण्डं च तल्लोमाब्दं वसेद्‌ ध्रुवम् ॥ ७९ ॥
ततो वृश्चिकजातिश्च सप्तजन्मसु भारते ।
ततो नरश्चाङ्‌गहीनो व्याधिशुद्धो भवेद्‌ ध्रुवम् ॥ ८० ॥
जो मूर्ख धनके लोभसे प्रजाको दण्ड देता है, वह वृश्चिककुण्ड नामक नरकमें जाता है और उस प्रजाके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक उस नरकमें वास करता है । तत्पश्चात् सात जन्मोंतक वह भारतवर्षमें बिच्छुओंकी योनिमें जन्म लेता है । इसके पश्चात् मनुष्ययोनिमें जन्म प्राप्त करता है तथा अंगहीन और रोगी होकर वह शुद्ध हो जाता हैयह सत्य है ॥ ७९-८० ॥

ब्राह्मणः शस्त्रधारी यो ह्यन्येषां धावको भवेत् ।
सन्ध्याहीनश्च यो विप्रो हरिभक्तिविहीनकः ॥ ८१ ॥
स तिष्ठति स्वलोमाब्दं कुण्डेषु च शरादिषु ।
विद्धः शरादिभिः शश्वत्ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ८२ ॥
जो ब्राह्मण शस्त्र लेकर दूसरे लोगोंके लिये दूतका काम करता है, जो विप्र सन्ध्या-वन्दन नहीं करता तथा जो भगवान् श्रीहरिकी भक्तिसे विमुख है, वह शर आदिके कुण्डोंमें (शरकुण्ड, शूलकुण्ड, खड्गकुण्ड आदिमें) अपने शरीरके रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षातक निवास करता है । वह वहाँपर निरन्तर शर आदिसे बेधा जाता है, इसके पश्चात् वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है । ८१-८२ ॥

कारागारे सान्धकारे प्रणिहन्ति प्रजाश्च यः ।
प्रमत्तः स्वस्य दोषेण गोलकुण्डं प्रयाति सः ॥ ८३ ॥
स पङ्‌कतप्ततोयाक्तं सान्धकारं भयङ्‌करम् ।
तीक्ष्णदंष्ट्रैश्च कीटैश्च संयुक्तं गोलकुण्डकम् ॥ ८४ ॥
कीटैर्विद्धो वसेत्तत्र प्रजालोमाब्दमेव च ।
ततो भवेत्प्रजाभृत्यस्ततः शुद्धो भवेत्क्रमात् ॥ ८५ ॥
अभिमानमें चूर रहनेवाला जो व्यक्ति अन्धकारपूर्ण कारागारमें प्रजाओंको मारता-पीटता है, वह अपने इस दोषके प्रभावसे गोलकुण्ड नामक नरकमें जाता है । वह गोलकुण्ड प्रतप्त कीचड़ तथा जलसे युक्त, अन्धकारपूर्ण, अत्यन्त भयंकर तथा तीखे दाँतोंवाले कीटोंसे परिपूर्ण है । उन कीड़ोंसे सदा काटा जाता हुआ वह व्यक्ति प्रजाओंके शरीरमें विद्यमान रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक उस नरकमें निवास करता है । तत्पश्चात् मनुष्यका जन्म पाकर वह उन प्रजाओंका सेवक बनता है, इस प्रकार क्रमसे वह शुद्ध हो जाता है ॥ ८३-८५ ॥

सरोवरादुत्थितांश्च नक्रादीन्हन्ति यो नरः ।
नक्रकण्टकमानाब्दं नक्रकुण्डं प्रयाति सः ॥ ८६ ॥
ततो नक्रादिजातीयो भवेन्नक्रादिषु ध्रुवम् ।
ततः सद्यो विशुद्धो हि दण्डेनैव पुनः पुनः ॥ ८७ ॥
जो मनुष्य सरोवरसे निकले हुए नक्र आदि जल-जन्तुओंकी हत्या करता है, वह ननकुण्ड नामक नरकमें जाता है और वहाँ उस नक्रके शरीरमें विद्यमान काँटोंकी संख्याके बराबर वर्षातक निवास करता है । तत्पश्चात् वह निश्चितरूपसे नक्र आदि योनियोंमें जन्म लेता है और बार-बार दण्ड पानेपर शीघ्र ही उसकी शुद्धि हो जाती है । ८६-८७ ॥

वक्षः श्रोणीस्तनास्यञ्च यः पश्यति परस्त्रियाः ।
कामेन कामुको यो हि पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ ८८ ॥
स वसेत्काककुण्डे च काकैः संचूर्णलोचनः ।
ततः स्वलोममानाब्दं भवेद्दग्धस्त्रिजन्मनि ॥ ८९ ॥
जो मनुष्य पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें जन्म लेकर कामवासनाके वशीभूत हो परायी स्त्रीका वक्ष, नितम्ब, स्तन तथा मुख देखता है; वह अपने शरीरके रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक काककुण्ड नामक नरकमें वास करता है । वहाँ कौवे उसकी आँखें नोचते रहते हैं । तत्पश्चात् वह तीन जन्मोंतक संतप्त होता रहता है ॥ ८८-८९ ॥

स्वर्णस्तेयी च यो मूढो भारते सुरविप्रयोः ।
स च मन्थानकुण्डे वै स्वलोमाब्दं वसेद्‌ ध्रुवम् ॥ ९० ॥
ताडितो यमदूतेन मन्थानैश्छन्नलोचनः ।
तद्विड्भोजी च तत्रैव ततश्चान्धस्त्रिजन्मनि ॥ ९१ ॥
सप्तजन्म दरिद्रश्च महाक्रूरश्च पातकी ।
भारते स्वर्णकारश्च स च स्वर्णवणिक् ततः ॥ ९२ ॥
जो मूढ भारतवर्षमें जन्म पाकर देवता तथा ब्राह्मणका स्वर्ण चुराता है, वह अपने शरीरके रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक मन्थानकुण्ड नामक नरकमें अवश्य वास करता है । यमदूत उसकी आँखोंपर पट्टी बाँधकर उसे डण्डोंसे पीटते हैं । उसे वहाँ उनकी विष्ठा खानी पड़ती है । तत्पश्चात् वह तीन जन्मोंतक अन्धा तथा सात जन्मोंतक दरिद्र रहता है । तदनन्तर वह पापी तथा अति क्रूर मनुष्य भारतमें स्वर्णकारका जन्म लेकर स्वर्णका व्यवसाय करता है ॥ ९०-९२ ॥

यो भारते ताम्रचौरो लोहचौरश्च सुन्दरि ।
स च स्वलोममानाब्दं बीजकुण्डं प्रयाति सः ॥ ९३ ॥
तत्रैव बीजविड्भोजी बीजैश्च छन्नलोचनः ।
ताडितो यमदूतेन ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ९४ ॥
हे सुन्दरि ! जो मनुष्य भारतवर्ष में जन्म पाकर ताँबे तथा लोहेकी चोरी करता है, वह बीजकुण्ड नामक नरकमें जाता है और अपने शरीरके रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षोंतक वहाँ निवास करता है । वहाँ कीड़ोंकी विष्ठा खाता हुआ कीड़ोंसे ढकी आँखोंवाला वह प्राणी यमदूतोंद्वारा पीटा जाता है और तब कालक्रमसे वह शुद्ध होता है ॥ ९३-९४ ॥

भारते देवचौरश्च देवद्रव्यापहारकः ।
स दुस्तरे वज्रकुण्डे स्वलोमाब्दं वसेद्‌ ध्रुवम् ॥ ९५ ॥
देहदग्धोऽपि तद्वज्रैरनाहारश्च शब्दकृत् ।
ताडितो यमदूतैश्च ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ९६ ॥
जो व्यक्ति भारतवर्षमें जन्म पाकर देवताओंकी मूर्ति तथा देवसम्बन्धी द्रव्योंकी चोरी करता है, वह अपने शरीरमें विद्यमान रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षातक दुस्तर वजकुण्ड नामक नरकमें निश्चितरूपसे निवास करता है । उसे वहाँ भूखा रहना पड़ता है । उन वज़ोंके द्वारा यमदूतोंसे पीटे जानेपर उसका शरीर दग्ध हो जाता है और वह रोनेचिल्लाने लगता है, तत्पश्चात् उस मनुष्यकी शुद्धि हो जाती है ॥ ९५-९६ ॥

रौप्यगव्यांशुकानां च यश्चौरः सुरविप्रयोः ।
तप्तपाषाणकुण्डेच स्वलोमाब्दं वसेद्‌ ध्रुवम् ॥ ९७ ॥
त्रिजन्मनि च कंसोऽपि श्वेतरूपस्त्रिजन्मनि ।
जन्मैकं श्वेतचिह्नश्च ततोऽन्ये श्वेतपक्षिणः ॥ ९८ ॥
ततो रक्तविकारी च शूली वै मानवो भवेत् ।
सप्तजन्मसु चाल्पायुस्ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ९९ ॥
जो मनुष्य ब्राह्मण और देवताके रजत, गव्य पदार्थ तथा वस्त्रोंको चुराता है; वह अपने शरीरके रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक तप्तपाषाणकुण्ड नामक नरकमें निश्चितरूपसे वास करता है । तत्पश्चात् तीन जन्मोंतक कच्छप, तीन जन्मोंतक श्वेतकुष्ठी, एक जन्ममें श्वेत दागवाला और फिर श्वेत पक्षी होता है । उसके बाद वह सात जन्मोंतक रक्तदोषसे युक्त, शूलरोगसे पीडित तथा अल्पायु मनुष्य होता है; तत्पश्चात् वह शुद्ध हो जाता है ॥ ९७-९९ ॥

रैतं कांस्यमयं पात्रं यो हरेद्देवविप्रयोः ।
तीक्ष्णपाषाणकुण्डे च स्वलोमाब्दं वसेन्नरः ॥ १०० ॥
स भवेदश्वजातिश्च भारते सप्तजन्मसु ।
ततोऽधिकाङ्‌गजातिश्च पादरोगी ततः शुचिः ॥ १०१ ॥
जो व्यक्ति देवता और ब्राह्मणके पीतल तथा कांसेके बर्तनोंका हरण करता है, वह अपने शरीरके लोमसंख्यक वर्षांतक तीक्ष्णपाषाणकुण्ड नामक नरकमें वास करता है । फिर वह सात जन्मोंतक भारतवर्षमें घोड़ेकी योनिमें उत्पन्न होता है । उसके बाद वह अधिक अंगोंवाला तथा पैरके रोगसे ग्रस्त होता है । तत्पश्चात् वह शुद्ध हो जाता है ॥ १००-१०१ ॥

पुंश्चल्यन्नं च यो भद्रे पुंश्चलीजीव्यजीविनः ।
स्वलोममानवर्षं च लालाकुण्डे वसेद्‌ ध्रुवम् ॥ १०२ ॥
ताडितो यमदूतेन तद्‍भोजी तत्र दुःखितः ।
ततश्चक्षुःशूलरोगी ततः शुद्धः क्रमेण सः ॥ १०३ ॥
जो मनुष्य किसी व्यभिचारिणी स्त्रीका अन्न तथा उस स्त्रीकी जीविकापर आश्रित रहनेवाले व्यक्तिका अन्न खाता है, वह अपने शरीरमें विद्यमान रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक लालाकुण्ड नामक नरकमें निश्चितरूपसे निवास करता है । वहाँपर वह यमदूतोंद्वारा पीटा जाता है और अत्यन्त दुःखी होकर उसे वही लाला (लार) खानी पड़ती है । तदनन्तर वह मानवयोनिमें उत्पन्न होकर नेत्र तथा शूलके रोगसे पीड़ित होता है । इसके बाद वह क्रमसे शुद्ध हो जाता है ॥ १०२-१०३ ॥

म्लेच्छसेवी मसीजीवी यो विप्रो भारते भुवि ।
वसेत्स्वलोममानाब्दं मसीकुण्डे स दुःखभाक् ॥ १०४ ॥
ताडितो यमदूतेन तद्‍भोजी तत्र तिष्ठति ।
ततस्त्रिजन्मनि भवेत्कृष्णवर्णः पशुः सति ॥ १०५ ॥
त्रिजन्मनि भवेच्छागः कृष्णवर्णस्त्रिजन्मनि ।
ततः स तालवृक्षश्च ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ १०६ ॥
जो ब्राह्मण भारतवर्ष म्लेच्छोंकी सेवा करनेवाला तथा मसिजीवी (मसिपर आश्रित रहकर अपनी जीविका चलानेवाला) है, वह अपने शरीरके रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षातक मसीकुण्ड नामक नरकमें वास करता है और वहाँ बहुत दुःख पाता है । यमदूत उसे पीटते हैं और उसे वहाँपर उसी मसि (स्याही)का सेवन करना पड़ता है । हे साध्वि ! तत्पश्चात् वह तीन जन्मोंतक काले रंगका पशु होता है । तदनन्तर वह तीन जन्मोंतक काले रंगका छाग बकरा होता है और उसके बाद तीन जन्मोंतक ताड़का वृक्ष होता है; तत्पश्चात् वह शुद्ध हो जाता है । १०४-१०६ ॥

धान्यादिसस्यं ताम्बूलं यो हरेत्सुरविप्रयोः ।
आसनं च तथा तल्पं चूर्णकुण्डे प्रयाति सः ॥ १०७ ॥
शताब्दं तत्र निवसेद्यमदूतेन ताडितः ।
ततो भवेन्मेषजातिः कुक्कुटश्च त्रिजन्मनि ॥ १०८ ॥
ततो भवेद्वानरश्च कासव्याधियुतो भुवि ।
वंशहीनो दरिद्रश्च स्वल्पायुश्च ततः शुचिः ॥ १०९ ॥
जो मनुष्य देवता अथवा ब्राह्मणके अन्न, फसल, ताम्बूल, आसन और शय्या आदिकी चोरी करता है; वह चूर्णकुण्ड नामक नरकमें जाता है और वहाँ सौ वर्षांतक निवास करता है । वह यमदूतोंद्वारा पीटा जाता है । तत्पश्चात् वह तीन जन्मोंतक मेष और कुक्कुट होता है । उसके बाद वानर होता है । तदनन्तर भारतभूमिपर काशरोगसे पीड़ित, वंशहीन, दरिद्र तथा अल्पायु मनुष्य होता है । इसके बाद उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १०७-१०९ ॥

करोति चक्रं विप्राणां हृत्वा द्रव्यं च यो जनः ।
स वसेच्चक्रकुण्डे च शताब्दं दण्डताडितः ॥ ११० ॥
ततो भवेन्मानवश्च तैलकारस्त्रिजन्मनि ।
व्याधियुक्तो भवेद्‌रोगी वंशहीनस्ततः शुचिः ॥ १११ ॥
जो मनुष्य किसी ब्राह्मणके धनका हरण करके उससे चक्र (कोल्हू)-सम्बन्धी व्यवसाय करता है, वह चक्रकुण्ड नामक नरकमें डण्डोंसे पीटा जाता हुआ सौ वर्षातक वास करता है । उसके बाद वह मानवयोनिमें उत्पन्न होता है और तीन जन्मोंतक अनेक प्रकारकी व्याधियोंसे युक्त रोगी तथा वंशहीन तैलकार (तेलका व्यापार करनेवाला) होता है; तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ११०-१११ ॥

गोधनेषु च विप्रेषु करोति वक्रतां पुमान् ।
प्रयाति वक्रकुण्डं स तिष्ठेद्युगशतं सति ॥ ११२ ॥
ततो भवेत्स वक्राङ्‌गो हीनाङ्‌गः सप्तजन्मनि ।
दरिद्रो वंशहीनश्च भार्याहीनस्ततः शुचिः ॥ ११३ ॥
ततो भवेद्‌ गृध्रजन्मा त्रिजन्मनि च सूकरः ।
त्रिजन्मनि बिडालश्च मयूरश्च त्रिजन्मनि ॥ ११४ ॥
हे साध्वि ! जो व्यक्ति गौओं और ब्राह्मणके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता है, वह सौ युगोंतक वक्रतुण्ड नामक नरकमें निवास करता है । तत्पश्चात् वह सात जन्मोंतक वक्र अंगोंवाला, हीन अंगवाला, दरिद्र, वंशहीन तथा भार्याहीन मानव होता है । उसके बाद वह तीन जन्मोंतक गीध, तीन जन्मोंतक सूअर, तीन जन्मोंतक बिल्ली और तीन जन्मोंतक मोर होता है । तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ११२-११४ ॥

निषिद्धं कूर्ममांसं च ब्राह्मणो यो हि भक्षति ।
कूर्मकुण्डे वसेत्सोऽपि शताब्दं कूर्मभक्षितः ॥ ११५ ॥
ततो भवेत्कूर्मजन्मा त्रिजन्मनि च सूकरः ।
त्रिजन्मनि बिडालश्च मयूरश्च ततः शुचिः ॥ ११६ ॥
जो ब्राह्मण कछुएका निषिद्ध मांस खाता है, वह सौ वर्षांतक कूर्मकुण्ड नामक नरकमें निवास करता है । वहाँपर उसे कछुए सदा नोंच-नोंचकर खाते रहते हैं । तत्पश्चात् वह तीन जन्मोतक कछुए, तीन जन्मोंतक सूअर, तीन जन्मोंतक बिल्ली और तीन जन्मोंतक मोरकी योनिमें जन्म लेता है । उसके बाद वह शुद्ध हो जाता है ॥ ११५-११६ ॥

घृतं तैलादिकं चैव यो हरेत्सुरविप्रयोः ।
स याति ज्वालाकुण्डं च भस्मकुण्डं च पातकी ॥ ११७ ॥
तत्र स्थित्वा शताब्दं च स भवेत्तैलपाचितः ।
सप्तजन्मनि मत्स्यश्च मूषकश्च ततः शुचिः ॥ ११८ ॥
जो व्यक्ति किसी देवता या ब्राह्मणका घृत, तेल आदि चुराता है, वह पापी ज्वालाकुण्ड और भस्मकुण्ड नामक नरकमें जाता है । वहाँपर वह एक सौ वर्षांतक वास करते हुए तेलमें पकाया जाता है । इसके बाद वह सात जन्मोंतक मछली और सात जन्मोंतक चूहा होता है, तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ११७-११८ ॥

सुगन्धितैलं धात्रीं वा गन्धद्रव्यान्यदेव वा ।
भारते पुण्यवर्षे च यो हरेत्सुरविप्रयोः ॥ ११९ ॥
स वसेद्दग्धकुण्डे च भवेद्दग्धो दिवानिशम् ।
स्वलोममानवर्षं च ततो दुर्गन्धिको भवेत् ॥ १२० ॥
दुर्गन्धिकः सप्तजन्म मृगनाभिस्त्रिजन्मनि ।
सप्तजन्मसु मन्थानस्ततो हि मानवो भवेत् ॥ १२१ ॥
जो मनुष्य पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें किसी देवता या ब्राह्मणके सुगन्धित तेल, इत्र, आँवलाचूर्ण तथा अन्य सुगन्धित द्रव्यकी चोरी करता है; वह दग्धकुण्ड नामक नरकमें वास करता है । वहाँपर वह अपने शरीरमें विद्यमान रोमोंकी संख्याके बराबर वर्षांतक निवास करता है और दिन-रात दग्ध होता रहता है । इसके बाद वह सात जन्मोंतक दुर्गन्धिक होता है । पुनः तीन जन्मोतक कस्तूरी मृग और सात जन्मोंतक मन्थान नामक कीड़ा होता है, तत्पश्चात् वह मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होता है ॥ ११९-१२१ ॥

बलेनैव छलेनैव हिंसारूपेण वा सति ।
बलिष्ठश्च हरेद्‌भूमिं भारते परपैतृकीम् ॥ १२२ ॥
स वसेत्तप्तसूचिं च भवेत्तापी दिवानिशम् ।
तप्ततैले यथा जीवो दग्धो भवति सन्ततम् ॥ १२३ ॥
भस्मसान्न भवत्येव भोगे देही न नश्यति ।
सप्तमन्वन्तरं पापी सन्तप्तस्तत्र तिष्ठति ॥ १२४ ॥
शब्दं करोत्यनाहारो यमदूतेन ताडितः ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विट्कृमिश्च भवेत्ततः ॥ १२५ ॥
ततो भवेद्‌भूमिहीनो दरिद्रश्च ततः शुचिः ।
ततः स्वयोनिं सम्प्राप्य शुभं कर्माचरेत्पुनः ॥ १२६ ॥
हे साध्वि ! जो बलिष्ठ पुरुष भारतवर्षमें अपने बलसे अथवा छलसे अथवा हिंसाके द्वारा किसी दूसरेकी पैतृकसम्पत्तिका हरण करता है, वह तप्तसूचीकुण्ड नामक नरकमें वास करता है । वह उस नरकमें दिन-रात उसी तरह संतप्त होता रहता है, जैसे कोई जीव तप्त तेलमें निरन्तर दग्ध होता रहता है । जलाये जानेपर भी कर्मभोगके कारण उसका देह न तो भस्मसात् होता है और न तो उसका नाश ही होता है, अपितु वह पापी सात मन्वन्तरतक वहाँ सन्तप्त होता रहता है । वह सदा चिल्लाता रहता है, भूखा रहता है और यमदूत उसे पीटते रहते हैं । उसके बाद वह साठ हजार वर्षांतक विष्ठाका कीड़ा होता है । तत्पश्चात् वह मानवयोनिमें उत्पन्न होकर भूमिहीन और दरिद्र होता है । उसके बाद वह शुद्ध हो जाता है और अपनी योनिमें जन्म प्राप्तकर पुनः शुभ आचरण करने लगता है ॥ १२२-१२६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नानाकर्म-
विपाकफलकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां नवमस्कन्धे नानाकर्मविपाकफलकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥


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