श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] अब आप जगदम्बाका अद्धत तथा उत्तम माहात्म्य और अंगके पुत्र मनुने जिस तरहसे श्रेष्ठ राज्य प्राप्त किया था, उसे सुनिये ॥ १ ॥
अङ्गस्य राज्ञः पुत्रोऽभूच्चाक्षुषो मनुरुत्तमः । षष्ठः सुपुलहं नाम ब्रह्मर्षिं शरणं गतः ॥ २ ॥
राजा अंगके उत्तम पुत्र चाक्षुष छठे मनु हुए । वे सुपुलह नामक ब्रह्मर्षिकी शरणमें गये ॥ २ ॥
ब्रह्मर्षे त्वामहं प्राप्तः शरणं प्रणतार्तिहन् । शाधि मां किङ्करंस्वामिन् येनाहं प्राप्नुयां श्रियम् ॥ ३ ॥ मेदिन्याश्चाधिपत्यं मे स्याद्यथावदखण्डितम् । अव्याहतं भुजबलं शस्त्रास्त्रनिपुणं क्षमम् ॥ ४ ॥ सन्ततिश्चिरकालीनाप्यखण्डं वय उत्तमम् । अन्तेऽपवर्गलाभश्च स्यात्तथोपदिशाद्य मे ॥ ५ ॥
[उन्होंने सुपुलहसे कहा-] शरणागतोंके कष्टोंको दर करनेवाले हे ब्रह्मर्षे ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ । हे स्वामिन् ! मुझ सेवकको ऐसी शिक्षा दीजिये; जिससे मैं श्री' प्राप्त कर सकूँ, पृथ्वीपर मेरा अखण्ड आधिपत्य हो जाय, मेरी भुजाओंमें अप्रतिहतबल हो जाय तथा अस्त्र-शस्त्रके प्रयोगमें मैं निपुण तथा समर्थ हो जाऊँ, मेरी सन्ताने चिरकालतक जीवित रहें, मैं अखण्डित उत्तम आयुवाला हो जाऊँ तथा आपके उपदेशसे अन्तमें मुझे मोक्षलाभ हो जाय ॥ ३-५ ॥
उन चाक्षुष मनुका यह वचन जब मुनि पुलहके कानमें पड़ा तब उन श्रीमान्ने कहा-हे राजन ! कानोंको महान् सुख प्रदान करनेवाली मेरी बात सुनियेदेवीकी आराधना सबसे बढ़कर है । इस समय आप कल्याणी जगदम्बाकी उपासना कीजिये, उन्हींके अनुग्रहसे आपको यह सब सुलभ हो जायगा ॥ ६-७ ॥
चाक्षुष बोले-उन देवीकी परम पावन आराधनाका क्या स्वरूप है तथा उसे किस प्रकार करना चाहिये ? इसे आप मेरे ऊपर दया करके बतायें ॥ ८ ॥
मुनिरुवाच राजन्नाकर्ण्यतां देव्याः पूजनं परमव्ययम् । वाग्भवं बीजमव्यक्तं सञ्जप्यमनिशं तथा ॥ ९ ॥ त्रिकालं सञ्जपन्मर्त्यो भुक्तिमुक्ती लभेत्तु हि । न बीजं वाग्भवादन्यदस्ति राजन्यनन्दन ॥ १० ॥
मुनि बोले-हे राजन् ! देवीके परम सनातन पूजनके विषयमें सुनिये । देवीके अव्यक्त वाग्भव मन्त्रका सतत जप करना चाहिये । इस मन्त्रको त्रिकाल जपनेवाला मनुष्य भोग तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है । हे राजनन्दन ! इस वाग्भव बीजसे बढ़कर अन्य कोई बीजमन्त्र नहीं है । ९-१० ॥
जप करनेसे यह मन्त्र श्रेष्ठ सिद्धियाँ प्रदान करता है और वीर्य तथा बलकी वृद्धि करता है । इस मन्त्रका जप करके ही ब्रह्माजी महाबली तथा सृजन करनेकी क्षमतावाले बन गये । हे राजन् ! इसी बीजका जप करके भगवान् विष्णु सृष्टिपालक कहे गये तथा इसीके जपसे भगवान् शंकर जगत्का संहार करनेवाले हुए ॥ ११-१२ ॥
लोकपालास्तथान्येऽपि निग्रहानुग्रहक्षमाः । यदाश्रयादभूवंस्ते बलवीर्यमदोद्धताः ॥ १३ ॥
इन्हींका आश्रय लेकर अन्यान्य लोकपाल भी निग्रह तथा अनुग्रह करने में समर्थ और बल तथा वीर्यसे सम्पन्न हुए हैं ॥ १३ ॥
एवं त्वमपि राजन्य महेशीं जगदम्बिकाम् । समाराध्य महर्द्धिं च लप्स्यसेऽचिरकालतः ॥ १४ ॥
हे राजन्य ! इसी प्रकार आप भी महेश्वरी जगदम्बाकी सम्यक् आराधना करके थोड़े ही समयमें महान् समृद्धि प्राप्त कर लेंगे ॥ १४ ॥
एवं स मुनिवर्येण पुलहेन प्रबोधितः । अङ्गपुत्रस्तपस्तप्तुं जगाम विरजां नदीम् ॥ १५ ॥
इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ पुलहसे उपदिष्ट होकर वे अंगपुत्र चाक्षुष मनु तप करनेके लिये विरजानदीके तटपर गये ॥ १५ ॥
स च तेपे तपस्तीव्रं वाग्भवस्य जपे रतः । बीजस्य पृथिवीपालः शीर्णपर्णाशनो विभुः ॥ १६ ॥
वे ऐश्वर्यशाली राजा चाक्षुष जीर्ण-शीर्ण पत्तोंके आहारपर रहकर भगवतीके वाग्भव बीजके जपमें निरन्तर रत रहते हुए उग्र तपस्या करने लगे ॥ १६ ॥
वे प्रथम वर्षमें पत्तोंके आहारपर, दूसरे वर्षमें जल पीकर और तीसरे वर्षमें केवल वायुका आहार करते हुए लूंठ वृक्षकी भाँति अविचल स्थित रहे ॥ १७ ॥
एवं द्वादश वर्षाणि त्यक्ताहारस्य भूभुजः । वाग्भवं जपतो नित्यं मतिरासीच्छुभान्विता ॥ १८ ॥
आहार छोड़कर बारह वर्षोंतक वाग्भव बीजका निरन्तर जप करते हुए राजा चाक्षुषकी बुद्धि परम पवित्र हो गयी ॥ १८ ॥
तथा च देव्याः परमं मन्त्रं सज्जपतो रहः । प्रादुरासीज्जगन्माता साक्षाच्छ्रीपरमेश्वरी ॥ १९ ॥ तेजोमयी दुराधर्षा सर्वदेवमयीश्वरी । उवाचाङ्गतनूजं तं प्रसन्ना ललिताक्षरम् ॥ २० ॥
इस प्रकार देवीके उस परम पवित्र मन्त्रका एकान्तमें जप करते हुए उन राजाके समक्ष जगन्माता परमेश्वरी भगवती साक्षात् प्रकट हो गयीं । किसीसे भी पराभूत न होनेवाली तेजस्विनी सर्वदेवमयी भगवती प्रसन्न होकर ललितवाणीमें उन अंगपुत्र चाक्षुषसे कहने लगी- ॥ १९-२० ॥
देव्युवाच पृथिवीपाल ते यत्स्याच्चिन्तितं परमं वरम् । तद् ब्रूहि सम्प्रदास्यामि तपसा ते सुतोषिता ॥ २१ ॥
देवी बोलीं-हे पृथ्वीपाल ! तुमने अपने मनमें जो भी श्रेष्ठ वर सोचा हो, उसे बताओ, तुम्हारे तपसे परम सन्तुष्ट मैं उसे अवश्य दूँगी । २१ ॥
चाक्षुष उवाच जानासि देवदेवेशि यत्प्रार्थ्यं मनसेप्सितम् । अन्तर्यामिस्वरूपेण तत्सर्वं देवपूजिते ॥ २२ ॥ तथापि मम भाग्येन जातं यत्तव दर्शनम् । ब्रवीमि देवि मे देहि राज्यं मन्वन्तराश्रितम् ॥ २३ ॥
चाक्षष बोले-हे देवदेवेश्वरि ! हे देवपूजिते ! मैं जिस मनोवांछित वरके लिये आपसे प्रार्थना करना चाहता हूँ, उसे आप अन्तर्यामी स्वरूपवाली होनेके कारण भलीभाँति जानती हैं, तथापि हे देवि ! मेरे सौभाग्यसे यदि आपका दर्शन हो गया है तो मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि आप मुझे मन्वन्तरसे सम्बन्धित राज्य प्रदान करें ॥ २२-२३ ॥
देवी बोलीं-हे नृपश्रेष्ठ ! इस मन्वन्तरका राज्य मैंने तुम्हें दे दिया, तुम्हारे पुत्र भी अत्यधिक गुणवान् तथा महान् बलशाली होंगे । तुम्हारा राज्य निष्कंटक होगा तथा अन्तमें तुम्हें निश्चितरूपसे मोक्ष मिलेगा ॥ २४.५ ॥
एवं दत्त्वा परं देवी मनवे वरमुत्तमम् ॥ २५ ॥ जगामादर्शनं सद्यस्तेन भक्त्या च संस्तुता ।
इस प्रकार उन चाक्षुष मनुके द्वारा भक्तिपूर्वक स्तुत वे देवी उन्हें अत्यन्त उत्तम वर प्रदान करके शीघ्र ही अन्तर्धान हो गयीं ॥ २५.५ ॥
सोऽपि राजा मनुः षष्ठः प्रसादात्तु तदाश्रयात् ॥ २६ ॥ बभूव मनुमान्योऽसौ सार्वभौमसुखैर्वृतः । पुत्रास्तस्य बलोद्युक्ताः कार्यभारसहादृताः ॥ २७ ॥ देवीभक्ताश्च शूराश्च महाबलपराक्रमाः । अन्यत्र माननीयाश्च महाराज्यसुखास्पदाः ॥ २८ ॥
वे राजा चाक्षुष मनु भी भगवतीकी कृपासे उनका आश्रय प्राप्तकर छठे मनुके रूपमें प्रतिष्ठित हुए और वे सम्मान्य मनु सार्वभौम सुखोंसे सम्पन्न हो गये । उनके पुत्र बलवान, कार्यभार संभालने में दक्ष, देवीभक्त, शूरवीर, महान् बलशाली, पराक्रमी, सर्वत्र समादर प्राप्त करनेवाले तथा महान् राज्यसुखके अधिष्ठान थे ॥ २६-२८ ॥
एवं च चाक्षुषमनुर्देव्याराधनतः प्रभुः । बभूव मनुवर्योऽसौ जगामान्ते शिवापदम्॥ २९ ॥
इस प्रकार प्रभुतासम्पन्न वे चाक्षुष मनु भगवतीकी आराधनाके प्रभावसे मनुश्रेष्ठके रूपमें प्रतिष्ठित हुए और अन्तमें देवीके परम धामको प्राप्त हुए ॥ २९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां दशमस्कन्धे देवीचरित्रे चाक्षुषमनुवृत्तवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इति श्रीमदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां दशमस्कन्धे देवीचरित्रे चाक्षुषमनुवृत्तवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥