श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] राजा वैवस्वत सातवें मनु कहे गये हैं । समस्त राजाओंमें मान्य तथा दिव्य आनन्दका भोग करनेवाले वे श्राद्धदेव भी कहे जाते हैं ॥ १ ॥
स च वैवस्वतमनुः परदेव्याः प्रसादतः । तथा तत्तपसा चैव जातो मन्वन्तराधिपः ॥ २ ॥
वे वैवस्वत मनु पराम्बा भगवतीकी तपस्या करके उनके अनुग्रहसे मन्वन्तरके अधिपति बन गये ॥ २ ॥
अष्टमो मनुराख्यातः सावर्णिः प्रथितः क्षितौ । स जन्मान्तर आराध्य देवीं तद्वरलाभतः ॥ ३ ॥ जातो मन्वन्तरपतिः सर्वराजन्यपूजितः । महापराक्रमी धीरो देवीभक्तिपरायणः ॥ ४ ॥
आठवें मनु भूलोकमें सावर्णि नामसे विख्यात हुए । पूर्वजन्ममें देवीकी आराधना करके तथा उनसे वरदान प्राप्तकर वे मन्वन्तरके अधिपति हो गये । वे सभी राजाओंसे पूजित, धीर, महापराक्रमी तथा देवीभक्तिपरायण थे ॥ ३-४ ॥
नारद उवाव कथं जन्मान्तरे तेन मनुनाराधनं कृतम् । देव्याः पृथिव्युद्भवायास्तन्ममाख्यातुमर्हसि ॥ ५ ॥
नारदजी बोले-उन सावणि मनुने पूर्वजन्ममें भगवतीकी पार्थिव मूर्तिकी किस प्रकार आराधना की थी; इसे मुझे बतानेकी कृपा करें ॥ ५ ॥
श्रीनारायण उवाच चैत्रवंशसमुद्भूतो राजा स्वारोचिषेऽन्तरे । सुरथो नाम विख्यातो महाबलपराक्रमः ॥ ६ ॥ गुणग्राही धनुर्धारी मान्यः श्रेष्ठः कविः कृती । धनसंग्रहकर्ता च दाता याचकमण्डले ॥ ७ ॥
श्रीनारायण बोले-स्वारोचिष मन्वन्तरमें चैत्रवंशमें उत्पन्न सुरथ नामसे विख्यात एक राजा हुए । वे महान् बल तथा पराक्रमसे सम्पन्न, गुणग्राही, धनुर्धर, माननीय, श्रेष्ठ, कवि, कुशल, धनसंग्रह करनेवाले तथा याचकोंको दान देनेवाले, शत्रुओंका दमन करनेवाले, मानी, सभी अस्त्रोंके संचालनमें परम दक्ष तथा बलवान् थे ॥ ६-७ ॥
अरीणां मर्दनो मानी सर्वास्त्रकुशलो बली । तस्यैकदा बभूवुस्ते कोलाविध्वंसिनो नृपाः ॥ ८ ॥ शत्रवः सैन्यसहिताः परिवार्येनमूर्जिताः । रुरुधुर्नगरीं तस्य राज्ञो मानधनस्य हि ॥ ९ ॥
एक बार कोलाविध्वंसी* नामक क्षत्रिय राजा उनके शत्रु हो गये । महान् बलशाली शत्रुओंने सेनाके साथ चढ़ाई करके सम्मानके धनी उन राजा सुरथकी नगरीको घेर लिया ॥ ८-९ ॥
तदा स सुरथो नाम राजा सैन्यसमावृतः । निर्ययौ नगरात्स्वीयात्सर्वशत्रुनिबर्हणः ॥ १० ॥
तत्पश्चात् शत्रुओंका विनाश करनेवाले वे राजा सुरथ सेनासे सुसज्जित होकर अपने नगरसे निकल पड़े ॥ १० ॥
तदा स समरे राजा सुरथः शत्रुभिर्जितः । अमात्यैर्मन्त्रिभिश्चैव तस्य कोशगतं धनम् ॥ ११ ॥ हृतं सर्वमशेषेण तदातप्यत भूमिपः । निष्कासितश्च नगरात्स राजा परमद्युतिः ॥ १२ ॥
वे राजा सुरथ युद्धमें शत्रुओंके द्वारा जीत लिये गये । उनके अमात्यों तथा मन्त्रियोंने अवसर पाकर उनके कोषमें स्थित सम्पूर्ण धनका पूरी तरहसे हरण कर लिया । इससे राजाको महान् सन्ताप हुआ । वे परम तेजस्वी राजा सुरथ नगरसे निष्कासित कर दिये गये ॥ ११-१२ ॥
जगामाश्वमथारुह्य मृगयामिषतो वनम् । एकाकी विजनेऽरण्ये बभ्रामोद्भ्रान्तमानसः ॥ १३ ॥
तत्पश्चात् वे एक अश्वपर चढ़कर आखेट करनेके बहाने वनमें गये और भ्रमित चित्तवाले वे उस निर्जन वनमें अकेले घूमने लगे ॥ १३ ॥
मुनेः कस्यचिदागत्य स्वाश्रमं शान्तमानसः । प्रशान्तजन्तुसंयुक्तं मुनिशिष्यगणैर्युतम् ॥ १४ ॥
पुनः शान्त स्वभाववाले पशुओंसे युक्त तथा मुनिशिष्योंसे परिपूर्ण [सुमेधा] मुनिके आश्रममें पहुँच जानेपर उनके चित्तको शान्ति मिली ॥ १४ ॥
उवास कञ्चित्कालं स राजा परमशोभने । आश्रमे मुनिवर्यस्य दीर्घदृष्टेः सुमेधसः ॥ १५ ॥
उन राजाने दूरदृष्टिवाले मुनिवर सुमेधाऋषिके परम रमणीक आश्रममें कुछ कालतक निवास किया ॥ १५ ॥
एकदा स महीपालो मुनिं पूजावसानके । काले गत्वा प्रणम्याशु पप्रच्छ विनयान्वितः ॥ १६ ॥
एक दिन राजा सुरथ मुनिके पूजनकृत्यकी समाप्तिपर शीघ्र उनके पास पहुँचकर प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे पूछने लगे- ॥ १६ ॥
मुने मम मनोदुःखं बाधते चाधिसम्भवम् । ज्ञाततत्त्वस्य भूदेव निष्प्रज्ञस्य च सन्ततम् ॥ १७ ॥ शत्रुभिर्निर्जितस्यापि हृतराज्यस्य सर्वशः । तथापि तेषु मनसि ममत्वं जायते स्फुटम् ॥ १८ ॥
हे मुने ! मेरा मन अत्यधिक मानसिक कष्टके कारण सदा सन्तप्त रहता है । हे भूदेव ! इस दुःखने सभी तत्त्वोंके ज्ञाता होनेपर भी मुझे अज्ञानी-सा बना दिया है । मैं शत्रुओंसे पराजित कर दिया गया हूँ तथा राज्यच्युत हो गया हूँ, फिर भी उनके प्रति मेरे मनमें बार-बार ममता उत्पन्न हो रही है ॥ १७-१८ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि कथं शर्म लभे मुने । त्वदनुग्रहमाशासे वद वेदविदां वर ॥ १९ ॥
हे मुने ! मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा किस प्रकार शान्ति प्राप्त करूं ? हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! अब तो मैं एकमात्र आपसे ही अनुग्रहकी आशा करता हूँ । इस कष्टके निवारणका कोई उपाय बताइये ॥ १९ ॥
मनि बोले-हे राजन् ! आप अत्यन्त विस्मयकारी, अनुपम तथा सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले श्रेष्ठ देवी-माहात्म्यका श्रवण कीजिये ॥ २० ॥
जगन्मयी महामाया विष्णुब्रह्महरोद्भवा । सा बलादपहृत्यैव जन्तूनां मानसानि हि ॥ २१ ॥ मोहाय प्रतिसंयच्छेदिति जानीहि भूमिप । सा सृजत्यखिलं विश्वं सा पालयति सर्वदा ॥ २२ ॥ संहारे हररूपेण संहरत्येव भूमिप । कामदात्री महामाया कालरात्रिर्दुरत्यया ॥ २३ ॥ विश्वसंहारिणी काली कमला कमलालया । तस्यां सर्वं जगज्जातं तस्यां विश्वं प्रतिष्ठितम् ॥ २४ ॥ लयमेष्यति तस्यां च तस्मात्सैव परात्परा । तस्या देव्याः प्रसादश्च यस्योपरि भवेन्नृप । स एव मोहमत्येति नान्यथा धरणीपते ॥ २५ ॥
वे विश्वमयी महामाया ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशको भी उत्पन्न करनेवाली हैं । वे ही प्राणियोंके मनको बलपूर्वक आकृष्ट करके मोहित कर देती हैं; हे राजन् ! इस रहस्यको आप भलीभांति जान लीजिये । हे पृथ्वीपते ! वे ही समग्र विश्वका सृजन करती हैं, सर्वदा पालन करती हैं तथा अन्तमें रुद्ररूपसे संहार करती हैं । वे महामाया सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाली, विश्वका संहार करनेवाली तथा दुर्धर्ष कालरात्रिरूपा साक्षात् काली हैं और वे ही कमलनिवासिनी महालक्ष्मी हैं । यह जगत् उन्हींसे उत्पन्न हुआ है, उन्हींमें स्थित भी है और अन्तमें उन्हीं में विलीन भी हो जायगा, अतएव वे भगवती परात्परा हैं । हे राजन् ! उन भगवतीको कृपा जिसके ऊपर हो जाती है, वही इस मोहजालसे मुक्त होता है; हे भूपते ! इसमें सन्देह नहीं है ॥ २१-२५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां दशमस्कन्धे सुरथनृपतिवृमत्तवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायां दशमस्कन्धे सुरथनृपतिवृत्तवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥