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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
दशमः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

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देवीमाहात्म्ये मधुकैटभवधवर्णनम् -
सावर्णि मनुके पूर्वजन्मकी कथाके प्रसंगमें मधु-कैटभकी उत्पत्ति और भगवान् विष्णुद्वारा उनके वधका वर्णन -


राजोवाच
का सा देवी त्वया प्रोक्ता ब्रूहि कालविदां वर ।
का मोहयति सत्त्वानि कारणं किं भवेद्‌ द्विज ॥ १ ॥
कस्मादुत्पद्यते देवी किंरूपा सा किमात्मिका ।
सर्वमाख्याहि भूदेव कृपया मम सर्वतः ॥ २ ॥
राजा बोले-हे कालज्ञान रखनेवालोंमें श्रेष्ठ ! आपने जिन देवीका वर्णन किया है, वे कौन हैं, वे प्राणियोंको क्यों मोहित करती हैं और हे द्विज ! इसमें क्या कारण है ? वे देवी किसलिये आविर्भूत होती हैं, उनका स्वरूप क्या है तथा उनका स्वभाव कैसा है ? हे भूदेव ! इन सभी बातोंको कृपा करके सम्यक् प्रकारसे मुझे बताइये ॥ १-२ ॥

मुनिरुवाच
राजन् देव्याः स्वरूपं ते वर्णयामि निशामय ।
यथा चोत्पतिता देवी येन वा सा जगन्मयी ॥ ३ ॥
मुनि बोले-हे राजन् ! वे जगन्मयी भगवती जिस प्रकार उत्पन्न हुई, जिनसे उत्पन्न हुईं तथा उन देवीका जैसा स्वरूप है-इन सबका मैं आपसे वर्णन कर रहा हूँ; ध्यानसे सुनिये ॥ ३ ॥

यदा नारायणो देवो विश्वं संहृत्य योगराट् ।
आस्तीर्य शेषं भगवान् समुद्रे निद्रितोऽभवत् ॥ ४ ॥
तदा प्रस्वापवशगो देवदेवो जनार्दनः ।
तत्कर्णमलसञ्जातौ दानवौ मधुकैटभौ ॥ ५ ॥
ब्रह्माणं हन्तुमुद्युक्तौ दानवौ घोररूपिणौ ।
[कल्पके अन्तमें] जब योगराट् भगवान् नारायण विश्वका संहार करके समुद्रके भीतर शेषनागकी शय्यापर योगनिद्रामें सोये हुए थे । तब उन देवदेव भगवान् जनार्दनके निद्राके वशीभूत हो जानेपर उनके कानोंके मैलसे मधु तथा कैटभ नामक दो दानव उत्पन्न हुए । भयंकर आकृतिवाले वे दोनों दानव ब्रह्माजीको मारनेको उद्यत हो गये ॥ ४-५.५ ॥

तदा कमलजो देवो दृष्ट्वा तौ मधुकैटभौ ॥ ६ ॥
निद्रितं देवदेवेशं चिन्तामाप दुरत्ययाम् ।
तब पद्मयोनि ब्रह्मदेव उन मधु-कैटभ दानवोंको तथा देवदेव नारायणको निद्रित देखकर घोर चिन्तामें पड़ गये ॥ ६.५ ॥

निद्रितो भगवानीशो दानवौ च दुरासदौ ॥ ७ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि कथं शर्म लभे ह्यहम् ।
एवं चिन्तयतस्तस्य पद्ययोनेर्महात्मनः ॥ ८ ॥
बुद्धिः प्रादूरभूत्तात तदा कार्यप्रसाधिनी ।
यस्या वशं गतो देवो निद्रितो भगवान् हरिः ॥ ९ ॥
तां देवीं शरणं यामि निद्रां सर्वप्रसूतिकाम् ।
भगवान् विष्णु तो निद्राकी अवस्थामें हैं और ये दोनों दानव दुर्जेय हैं । ऐसी स्थितिमें मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा किस प्रकार शान्ति प्राप्त करूँ ? हे तात ! इस प्रकार चिन्तन कर रहे कमलयोनि महात्मा ब्रह्माके मनमें कार्य सिद्ध करनेवाली यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि निद्रित अवस्थावाले ये भगवान् विष्णुदेव इस समय जिनकी अधीनताको प्राप्त हैं, सबको उत्पन्न करनेवाली उन्हीं निद्रा देवीकी शरणमें मैं भी चला जाऊँ ॥ ७-९.५ ॥

ब्रह्मोवाच
देवि देवि जगद्धात्रि भक्ताभीष्टफलप्रदे ॥ १० ॥
जगन्माये महामाये समुद्रशयने शिवे ।
त्वदाज्ञावशगाः सर्वे स्वस्वकार्यविधायिनः ॥ ११ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देवि ! हे जगत्का पालन करनेवाली देवि ! हे भक्तोंको अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली ! हे जगन्माये ! हे महामाये ! हे समुद्रमें शयन करनेवाली ! हे शिवे ! आपकी आज्ञाके अधीन होकर ही सभी अपना-अपना कार्य सम्पादित करते हैं ॥ १०-११ ॥

कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिर्मदोत्कटा ।
व्यापिनी वशगा मान्या महानन्दैकशेवधिः ॥ १२ ॥
महनीया महाराध्या माया मधुमती मही ।
परापराणां सर्वेषां परमा त्वं प्रकीर्तिता ॥ १३ ॥
आप ही कालरात्रि हैं, आप ही महारात्रि हैं तथा आप ही भयंकर मोहरात्रि हैं । आप सर्वव्यापिनी, भक्तोंके वशीभूत, सम्माननीया तथा महान् आनन्दकी एकमात्र सीमा हैं । आप ही महनीया, महाराध्या, माया, मधुमती, मही तथा पर-अपर सभीमें श्रेष्ठतम कही गयी हैं ॥ १२-१३ ॥

लज्जा पुष्टिः क्षमा कीर्तिः कान्तिः कारुण्यविग्रहा ।
कमनीया जगद्वन्द्या जाग्रदादिस्वरूपिणी ॥ १४ ॥
आप लज्जा, पुष्टि, क्षमा, कीर्ति, कान्ति, करुणाकी प्रतिमूर्ति, कमनीया, विश्ववन्द्या तथा जाग्रत्-स्वप्नसुषुप्तिके स्वरूपवाली हैं ॥ १४ ॥

परमा परमेशानी परानन्दपरायणा ।
एकाप्येकस्वरूपा च सद्वितीया द्वयात्मिका ॥ १५ ॥
त्रयी त्रिवर्गनिलया तुर्या तुर्यपदात्मिका ।
पञ्चमी पञ्चभूतेशी षष्ठी षष्ठेश्वरीति च ॥ १६ ॥
आप ही परमा, परमेशानी तथा परमानन्दपरायणा हैं । आप ही एका (अद्वितीया) हैं, अतएव आप प्रथमा हैं । आप ही सद्वितीया (मायासहित) होनेके कारण द्वितीया भी हैं । आप ही धर्म-अर्थ-काम-इन तीनोंका धाम होनेसे त्रयी अर्थात् तृतीया हैं । आप तुर्या अर्थात् सबसे परे होनेके कारण चतुर्थी भी हैं । आप पंचमहाभूतों (पृथ्वी, तेज, जल, वायु, आकाश)-की ईश्वरी होनेके कारण पंचमी और काम-क्रोध-लोभमोह-मद मत्सर-इन छ:की अधिष्ठात्री होनेके कारण षष्ठी हैं ॥ १५-१६ ॥

सप्तमी सप्तवारेशी सप्तसप्तवरप्रदा ।
अष्टमी वसुनाथा च नवग्रहमयीश्वरी ॥ १७ ॥
नवरागकला रम्या नवसंख्या नवेश्वरी ।
दशमी दशदिक्पूज्या दशाशाव्यापिनी रमा ॥ १८ ॥
आप रवि आदि सातों वारोंकी ईश्वरी होनेके कारण तथा सात-सात वर प्रदान करनेके कारण सप्तमी हैं तथा आठ वसुओंकी स्वामिनी होनेके कारण अष्टमी हैं । आप ही नवग्रहमयी ईश्वरी, रम्य नौ रागोंकी कला तथा नवेश्वरी होनेके कारण नवमी हैं । आप दसों दिशाओंमें व्याप्त रमारूपिणी हैं तथा दसों दिशाओंमें पूजित होती हैं, अतएव दशमी कही जाती हैं ॥ १७-१८ ॥

एकादशात्मिका चैकादशरुद्रनिषेविता ।
एकादशीतिथिप्रीता एकादशगणाधिपा ॥ १९ ॥
आप एकादश रुद्रद्वारा आराधित हैं, एकादशी तिथिके प्रति आपकी प्रीति है तथा आप ग्यारह गणोंकी अधीश्वरी हैं; अत: आप एकादशी हैं ॥ १९ ॥

द्वादशी द्वादशभुजा द्वादशादित्यजन्मभूः ।
त्रयोदशात्मिका देवी त्रयोदशगणप्रिया ॥ २० ॥
त्रयोदशाभिधा भिन्ना विश्वेदेवाधिदेवता ।
चतुर्दशेन्द्रवरदा चतुर्दशमनुप्रसूः ॥ २१ ॥
आप बारह भुजाओंवाली हैं तथा बारह आदित्योंको जन्म देनेवाली हैं, अत: द्वादशी हैं । आप मलमाससहित तेरह मासस्वरूपा हैं, तेरह गोंकी प्रिया हैं और विश्वेदेवोंकी अधिष्ठात्री देवी हैं, अतः आप त्रयोदशी नामसे प्रसिद्ध हैं । आप चौदह इन्द्रोंको वर प्रदान करनेवाली तथा चौदह मनुओंको उत्पन्न करनेवाली हैं, अतएव चतुर्दशी हैं । २०-२१ ॥

पञ्चाधिकदशी वेद्या पञ्चाधिकदशी तिथिः ।
षोडशी षोडशभुजा षोडशेन्दुकलामयी ॥ २२ ॥
षोडशात्मकचन्द्रांशुव्याप्तदिव्यकलेवरा ।
एवंरूपासि देवेशि निर्गुणे तामसोदये ॥ २३ ॥
आप पंचदशी अर्थात् कामराज-विद्यारूपा त्रिपुरसुन्दरीरूपसे जानी जाती हैं तथा आप पंचदशी तिथिरूपिणी हैं । सोलह भुजाओंवाली, चन्द्रमाकी सोलहवीं कलासे विभूषित तथा चन्द्रमाकी षोडश कलारूपी किरणोंसे व्याप्त दिव्य विग्रहवाली होनेके कारण आप षोडशी हैं । हे तमोगुणसे युक्त होकर प्रकट होनेवाली ! हे निर्गुणे ! हे देवेशि ! आप इस प्रकारके विविध रूपवाली हैं ॥ २२-२३ ॥

त्वया गृहीतो भगवान्देवदेवो रमापतिः ।
एतौ दुरासदौ दैत्यौ विक्रान्तौ मधुकैटभौ ॥ २४ ॥
एतयोश्च वधार्थाय देवेशं प्रतिबोधय ।
देवाधिदेव लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णुको आपने निद्राके वशवर्ती कर रखा है और ये दोनों मधुकैटभ दानव अत्यन्त पराक्रमी तथा दुर्जेय हैं; अतएव आप इन दोनोंका संहार करनेके लिये देवेश्वर विष्णुको जगाइये ॥ २४.५ ॥

मुनिरुवाच
एवं स्तुता भगवती तामसी भगवत्प्रिया ॥ २५ ॥
देवदेवं तदा त्यक्त्वा मोहयामास दानवौ ।
मुनि बोले-[ब्रह्माजीके] इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवानको प्रिय तमोगुणमयी भगवतीने देवदेव विष्णुके शरीरको छोड़कर उन दोनों दानवोंको मोहित कर दिया ॥ २५.५ ॥

तदैव भगवान्विष्णुः परमात्मा जगत्पतिः ॥ २६ ॥
प्रबोधमाप देवेशो ददृशे दानवोत्तमौ ।
उसी समय जगन्नाथ, परमात्मा, परमेश्वर भगवान् विष्णु जग गये और उन्होंने दानवोंमें श्रेष्ठ उन दोनों मधु-कैटभको देखा ॥ २६.५ ॥

तदा तौ दानवौ घोरौ दृष्ट्वा तं मधुसूदनम् ॥ २७ ॥
युद्धाय कृतसङ्‌कल्पौ जग्मतुः सन्निधिं हरेः ।
तभी उन दोनों भयंकर दानवोंने मधुसूदन विष्णुको देखकर युद्ध करनेका निश्चय किया और वे भगवानके पास पहुँच गये ॥ २७.५ ॥

युयुधे च ततस्ताभ्यां भगवान्मधुसूदनः ॥ २८ ॥
पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः ।
तब सर्वव्यापी भगवान् मधुसूदन उन दोनोंके साथ पाँच हजार वर्षांतक बाहुयुद्ध करते रहे ॥ २८.५ ॥

तौ तदातिबलोन्मत्तौ जगन्मायाविमोहितौ ॥ २९ ॥
व्रियतां वर इत्येवमूचतुः परमेश्वरम् ।
तत्पश्चात् जगन्मायाके द्वारा विमोहित किये गये वे दोनों अत्यधिक बलसे उन्मत्त दानव परमेश्वर विष्णुसे कहने लगे-आप [हम दोनोंसे] वरदान माँग लीजिये ॥ २९.५ ॥

एवं तयोर्वचः श्रुत्वा भगवानादिपूरुषः ॥ ३० ॥
वव्रे वध्याबुभौ मेऽद्य भवेतामिति निश्चितम् ।
उन दोनोंकी यह बात सुनकर आदिपुरुष भगवान् विष्णुने यह वर माँगा-तुम दोनों मेरे द्वारा आज ही मार दिये जाओ ॥ ३०.५ ॥

तौ तदातिबलौ देवं पुनरेवोचतुर्हरिम् ॥ ३१ ॥
आवां जहि न यत्रोर्वी पयसा च परिप्लुता ।
इसके बाद अत्यन्त बलशाली उन दोनों दानवोंने भगवान् श्रीहरिसे पुनः कहा-जिस स्थानपर पृथ्वी जलमें डूबी हुई न हो, वहींपर आप हमारा वध कीजिये ॥ ३१.५ ॥

तथेत्युक्त्वा भगवता गदाशङ्‌खभृता नृप ॥ ३२ ॥
कृत्वा चक्रेण वै छिन्ने जघने शिरसी तयोः ।
हे राजन् ! वैसा ही होगा'-यह कहकर गदा तथा शंख धारण करनेवाले भगवान् विष्णुने उनके मस्तकोंको अपनी जाँघपर रखकर चक्रसे काट दिया ॥ ३२.५ ॥

एवं देवी समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता नृप ॥ ३३ ॥
महाकाली महाराज सर्वयोगेश्वरेश्वरी ।
महालक्ष्म्यास्तथोत्पत्तिं निशामय महीपते ॥ ३४ ॥
हे नृप ! हे महाराज ! इस प्रकार ब्रह्माजीके स्तवन करनेपर सभी योगेश्वरोंकी ईश्वरी महाकाली भगवती प्रकट हुई थीं । हे महीपते ! अब आप महालक्ष्मीकी उत्पत्तिके विषयमें सुनिये ॥ ३३-३४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां दशमस्कन्धे देवीमाहात्म्ये
मधुकैटभवधवर्णनं नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्खयां संहितायां दशमस्कन्धे देवीमाहात्म्ये मधुकैटभवधवर्णन नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥


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