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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
दशमः स्कन्धः
द्वादशोऽध्यायः

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देवीचरित्रसहितं सावर्णिमनुवृतान्तवर्णनम् -
समस्त देवताओंके तेजसे भगवती महिषमर्दिनीका प्राकट्य और उनके द्वारा महिषासुरका वध, शुम्भ-निशुम्भका अत्याचार औरदेवीद्वारा चण्ड-मुण्डसहित शुम्भ-निशुम्भका वध -


मुनिरुवाच
महिषीगर्भसम्भूतो महाबलपराक्रमः ।
देवान्सर्वान्पराजित्य महिषोऽभूज्जगत्प्रभुः ॥ १
मुनि बोले-[एक बार] महिषीके गर्भसे उत्पन्न महान् बलशाली तथा पराक्रमी महिषासुर सभी देवताओंको पराजित करके सम्पूर्ण जगत्का स्वामी हो गया ॥ १ ॥

सर्वेषां लोकपालानामधिकारान्महासुरः ।
बलानिर्जित्य बुभुजे त्रैलोक्यैश्वर्यमद्‌भुतम् ॥ २ ॥
वह महान् असुर समस्त लोकपालोंके अधिकारोंको बलपूर्वक छीनकर तीनों लोकोंके अद्‌भुत ऐश्वर्यका भोग करने लगा ॥ २ ॥

ततः पराजिताः सर्वे देवाः स्वर्गपरिच्युताः ।
ब्रह्माणं च पुरस्कृत्य ते जग्मुर्लोकमुत्तमम् ॥ ३ ॥
यत्रोत्तमौ देवदेवौ संस्थितौ शङ्‌कराच्युतौ ।
वृत्तान्तं कथयामासुर्महिषस्य दुरात्मनः ॥ ४ ॥
सभी देवता उससे पराजित होकर स्वर्गसे निष्कासित कर दिये गये । तत्पश्चात् वे ब्रह्माजीको आगे करके उस उत्तम लोकमें पहुँचे, जहाँ देवाधिदेव भगवान् विष्णु तथा शिव विराजमान थे । वे उस दुरात्मा महिषासुरका वृत्तान्त बताने लगे- ॥ ३-४ ॥

देवानां चैव सर्वेषां स्थानानि तरसासुरः ।
विनिर्जित्य स्वयं भुङ्‌क्ते बलवीर्यमदोद्धतः ॥ ५ ॥
महिषासुरनामासौ दुष्टदैत्योऽमरेश्वरौ ।
वधोपायश्च तस्याशु चिन्त्यतामसुरार्दनौ ॥ ६ ॥
हे देवेश्वरो ! बल, वीर्य तथा मदसे उन्मत्त वह महिषासुर नामक दुष्ट दैत्य सभी देवताओंके लोकोंको शीघ्र जीतकर उनपर स्वयं शासन कर रहा है । हे असुरोंका नाश करनेवाले ! आप दोनों शीघ्र ही उस महिषासुरके वधका कोई उपाय सोचिये ॥ ५-६ ॥

एवं श्रुत्वा स भगवान्देवानामार्तियुग्वचः ।
चकार कोपं सुबहुं तथा शङ्‌करपद्मजौ ॥ ७ ॥
तब देवताओंकी यह दुःखभरी वाणी सुनकर वे भगवान् विष्णु, शिव तथा पायोनि ब्रह्मा अत्यधिक कुपित हो उठे ॥ ७ ॥

एवं कोपयुतस्यास्य हरेरास्यान्महीपते ।
तेजः प्रादुरभूद्दिव्यं सहस्रार्कसमद्युति ॥ ८ ॥
हे महीपते ! इस प्रकार कुपित उन भगवान् विष्णुके मुखसे हजारों सूर्योकी कान्तिके समान दिव्य तेज उत्पन्न हुआ ॥ ८ ॥

अथानुक्रमतस्तेजः सर्वेषां त्रिदिवौकसाम् ।
शरीरादुद्‍भवं प्राप हर्षयद्‌विबुधाधिपान् ॥ ९ ॥
इसके पश्चात् क्रमसे इन्द्र आदि सभी देवताओंके शरीरसे उन देवाधिपोंको प्रसन्न करता हुआ तेज निकला ॥ ९ ॥

यदभूच्छम्भुजं तेजो मुखमस्योदपद्यत ।
केशा बभूवुर्याम्येन वैष्णवेन च बाहवः ॥ १० ॥
शिवके शरीरसे जो तेज निकला, उससे मुख बना, यमराजके तेजसे केश बने तथा विष्णुके तेजसे भुजाएँ बनीं ॥ १० ॥

सौम्येन च स्तनौ जातौ माहेन्द्रेण च मध्यमः ।
वारुणेन ततो भूप जङ्‌घोरू सम्बभूवतुः ॥ ११ ॥
नितम्बौ तेजसा भूमेः पादौ ब्राह्मेण तेजसा ।
पादाङ्‌गुल्यो भानवेन वासवेन कराङ्‌गुली ॥ १२ ॥
हे भूप ! चन्द्रमाके तेजसे दोनों स्तन हुए । इन्द्रके तेजसे कटिप्रदेश, वरुणके तेजसे जंघा और ऊरु उत्पन्न हुए । पृथिवीके तेजसे दोनों नितम्ब, ब्रह्माके तेजसे दोनों चरण, सूर्यके तेजसे पैरोंकी अंगुलियाँ और वसुओंके तेजसे हाथोंकी अँगुलियाँ निर्मित हुई ॥ ११-१२ ॥

कौबेरेण तथा नासा दन्ताः सञ्जज्ञिरे तदा ।
प्राजापत्येनोत्तमेन तेजसा वसुधाधिप ॥ १३ ॥
पावकेन च सञ्जातं लोचनत्रितयं शुभम् ।
सान्ध्येन तेजसा जाते भृकुट्यौ तेजसां निधी ॥ १४ ॥
कर्णौ वायव्यतो जातौ तेजसो मनुजाधिप ।
सर्वेषां तेजसा देवी जाता महिषमर्दिनी ॥ १५ ॥
हे पृथ्वीपते ! कुबेरके तेजसे नासिका और प्रजापतिके उत्कृष्ट तेजसे दाँत उत्पन्न हुए । अग्निके तेजसे शुभकारक तीनों नेत्र उत्पन्न हुए, सन्ध्याके तेजसे कान्तिकी निधिस्वरूपा दोनों भृकुटियाँ उत्पन्न हुई और वायुके तेजसे दोनों कान उत्पन्न हुए । हे नरेश ! इस प्रकार सभी देवताओंके तेजसे भगवती महिषमर्दिनी प्रकट हुई । १३-१५ ॥

शूलं ददौ शिवो विष्णुश्चक्रं शङ्‌खं च पाशभृत् ।
हुताशनो ददौ शक्तिं मारुतश्चापसायकौ ॥ १६ ॥
शिवजीने उन्हें अपना शूल, विष्णुने चक्र, वरुणने शंख, अग्निने शक्ति और वायुने धनुष-बाण प्रदान किये ॥ १६ ॥

वज्रं महेन्द्रः प्रददौ घण्टां चैरावताद्‌ गजात् ।
कालदण्डं यमो ब्रह्मा चाक्षमालाकमण्डलू ॥ १७ ॥
इन्द्रने वज्र तथा ऐरावत हाथीका घण्टा, यमराजने कालदण्ड और ब्रह्माने अक्षमाला तथा कमण्डलु प्रदान किये ॥ १७ ॥

दिवाकरो रश्मिमालां रोमकूपेषु सन्ददौ ।
कालः खड्गं तथा चर्म निर्मलं वसुधाधिप ॥ १८ ॥
हे पृथ्वीपते ! सूर्यने देवीके रोमछिद्रोंमें अपनी रश्मिमालाओंका संचार किया । कालने देवीको तलवार तथा स्वच्छ ढाल दी ॥ १८ ॥

समुद्रो निर्मलं हारमजरे चाम्बरे नृप ।
चूडामणिं कुण्डले च कटकानि तथाङ्‌गदे ॥ १९ ॥
अर्धचन्द्रं निर्मलं च नूपुराणि तथा ददौ ।
ग्रैवेयकं भूषणं च तस्यै देव्यै मुदान्वितः ॥ २० ॥
हे राजन् ! समुद्रने स्वच्छ हार, कभी जीर्ण न होनेवाले दो वस्त्र, चूड़ामणि, कुण्डल, कटक, बाजूबन्द, विमल अर्धचन्द्र, नूपुर तथा गलेमें धारण किया जानेवाला आभूषण अति प्रसन्न होकर उन भगवतीको प्रदान किये ॥ १९-२० ॥

विश्वकर्मा चोर्मिकाश्च ददौ तस्यै धरापते ।
हिमवान्वाहनं सिंहं रत्‍नानि विविधानि च ॥ २१ ॥
पानपात्रं सुरापूर्णं ददौ तस्यै धनाधिपः ।
शेषश्च भगवान्देवो नागहारं ददौ विभुः ॥ २२ ॥
हे धरणीपते ! विश्वकर्माने उन भगवतीको अंगूठियाँ दीं । हिमालयने उन्हें वाहनके रूपमें सिंह तथा विविध प्रकारके रल प्रदान किये । धनपति कुबेरने उन्हें सुरासे पूर्ण एक पानपात्र दिया तथा सर्वव्यापी भगवान् शेषनागने उन्हें नागहार प्रदान किया ॥ २१-२२ ॥

अन्यैरशेषविबुधैर्मानिता सा जगन्मयी ।
तां तुष्टुवुर्महादेवीं देवा महिषपीडिताः ॥ २३ ॥
नानास्तोत्रैर्महेशानीं जगदुद्‍भवकारिणीम् ।
इसी प्रकार अन्य समस्त देवताओंने जगन्मयी भगवतीको सम्मानित किया । इसके बाद महिषासुरद्वारा पीडित देवताओंने जगत्की उत्पत्तिकी कारणस्वरूपिणी उन महेश्वरी महाभगवतीकी अनेक स्तोत्रोंसे स्तुति की ॥ २३.५ ॥

तेषां निशम्य देवेशी स्तोत्रं विबुधपूजिता ॥ २४ ॥
महिषस्य वधार्थाय महानादं चकार ह ।
उन देवताओंकी स्तुति सुनकर देवपूजित सुरेश्वरी महिषासुरके वधके लिये उच्च स्वरसे गर्जना करने लगीं ॥ २४.५ ॥

तेन नादेन महिषश्चकितोऽभूद्धरापते ॥ २५ ॥
आससाद जगद्धात्रीं सर्वसैन्यसमावृतः ।
हे भूपते ! महिषासुर उस नादसे चकित हो उठा और अपने सभी सैनिकोंको साथमें लेकर जगद्धात्री भगवतीके पास पहुँचा । ॥ २५.५ ॥

ततः स युयुधे देव्या महिषाख्यो महासुरः ॥ २६ ॥
शस्त्रास्त्रैर्बहुधा क्षिप्तैः पूरयन्नम्बरान्तरम् ।
तत्पश्चात् महिष नामक वह प्रबल दानव अपने द्वारा छोड़े गये विविध शस्त्रास्त्रोंसे सम्पूर्ण आकाशमण्डलको आच्छादित करते हुए भगवतीके साथ युद्ध करने लगा ॥ २६.५ ॥

चिक्षुरो ग्रामणीः सेनापतिर्दुर्धरदुर्मुखौ ॥ २७ ॥
बाष्कलस्ताम्रकश्चैव बिडालवदनोऽपरः ।
एतैश्चान्यैरसंख्यातैः संग्रामान्तकसन्निभैः ॥ २८ ॥
योधैः परिवृतो वीरो महिषो दानवोत्तमः ।
प्रधान सेनापति चिक्षुरके अतिरिक्त दुर्धर, दुर्मुख, बाष्कल, ताम्र तथा विडालवदन-इन सभीसे तथा संग्राममें यमराजकी भाँति भयंकर अन्य असंख्य योद्धाओंसे वह दानवश्रेष्ठ पराक्रमी महिषासुर घिरा हुआ था । ॥ २७-२८.५ ॥

ततः सा कोपताम्राक्षी देवी लोकविमोहिनी ॥ २९ ॥
जघान योधान्समरे देवी महिषमाश्रितान् ।
तदनन्तर क्रोधसे लाल आँखोंवाली उन जगन्मोहिनी भगवतीने युद्धभूमिमें महिषासुरके अधीनस्थ मुख्य योद्धाओंको मार डाला ॥ २९.५ ॥

ततस्तेषु हतेष्वेव स दैत्यो रोषमूर्च्छितः ॥ ३० ॥
आससाद तदा देवीं तूर्णं मायाविशारदः ।
उन योद्धाओंके मारे जानेके अनन्तर परम मायावी वह महिषासुर क्रोधसे मूछित होकर देवीके समक्ष शीघ्रतासे आ खड़ा हुआ ॥ ३०.५ ॥

रूपान्तराणि सम्भेजे मायया दानवेश्वरः ॥ ३१ ॥
तानि तान्यस्य रूपाणि नाशयामास सा तदा ।
वह दानवेन्द्र महिष अपनी मायाके प्रभावसे अनेक प्रकारके रूप धारण कर लेता था; किंतु वे देवी उसके उन सभी रूपोंको नष्ट कर डालती थीं ॥ ३१.५ ॥

ततोऽन्ते माहिषं रूपं बिभ्राणममरार्दनम् ॥ ३२ ॥
पाशेन बद्ध्वा सुदृढं छित्त्वा खड्गेन तच्छिरः ।
पातयामास महिषं देवी देवगणान्तकम् ॥ ३३ ॥
तब अन्तमें महिषका रूप धारण किये हुए उस देवपीडक तथा देवगणोंके लिये यमराजतुल्य महिषासुरको पाशमें दृढ़तापूर्वक बाँधकर भगवतीने अपने खड्गसे उसका सिर काटकर [पृथ्वीपर गिरा दिया । ३२-३३ ॥

हाहाकृतं ततः शेषं सैन्यं भग्नं दिशो दश ।
तुष्टुवुर्देवदेवेशीं सर्वे देवाः प्रमोदिताः ॥ ३४ ॥
इससे [दानवी सेनामें हाहाकार मच गया और उसकी शेष सेना दसों दिशाओंमें भाग गयी । समस्त देवगण इससे अति प्रसन्न होकर देवदेवेश्वरी भगवतीकी स्तुति करने लगे ॥ ३४ ॥

एवं लक्ष्मीः समुत्पन्ना महिषासुरमर्दिनी ।
राजञ्छृणु सरस्वत्याः प्रादुर्भावो यथाभवत् ॥ ३५ ॥
महिषासुरका वध करनेवाली देवी महालक्ष्मीका इस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ था । हे राजन् ! जिस प्रकार सरस्वतीका आविर्भाव हुआ; अब आप वह वृत्तान्त सुनिये ॥ ३५ ॥

एकदा शुम्भनामासीद्दैत्यो मदबलोत्कटः ।
निशुम्भश्चापि तद्‍भ्राता महाबलपराक्रमः ॥ ३६ ॥
एक समयकी बात है-अपने मद तथा बलका अहंकार करनेवाला शुम्भ नामक दैत्य था । महान् बल तथा पराक्रमसे सम्पन्न निशुम्भ नामक उसका एक भाई भी था ॥ ३६ ॥

तेन सम्पीडिता देवाः सर्वे भ्रष्टश्रियो नृप ।
हिमवन्तमथासाद्य देवीं तुष्टुवुरादरात् ॥ ३७ ॥
हे नृप ! उस शुम्भसे सन्तापित सभी देवता राज्यविहीन होकर हिमालयपर्वतपर जाकर श्रद्धापूर्वक भगवतीका स्तवन करने लगे ॥ ३७ ॥

देवा ऊचुः
जय देवेशि भक्तानामार्तिनाशनकोविदे ।
दानवान्तकरूपे त्वमजरामरणेऽनघे ॥ ३८ ॥
देवता बोले-हे भक्तोंका कष्ट दूर करनेमें परम दक्ष देवेश्वरि ! हे दानवोंके लिये यमराजस्वरूपिणि ! हे जरा-मरणसे रहित ! हे अनघे ! आपकी जय हो ॥ ३८ ॥

देवेशि भक्तिसुलभे महाबलपराक्रमे ।
विष्णुशङ्‌करब्रह्मादिस्वरूपेऽनन्तविक्रमे ॥ ३९ ॥
सृष्टिस्थितिकरे नाशकारिके कान्तिदायिनि ।
महाताण्डवसुप्रीते मोददायिनि माधवि ॥ ४० ॥
प्रसीद देवदेवेशि प्रसीद करुणानिधे ।
निशुम्भशुम्भसम्भूतभयापाराम्बुवारिधे ॥ ४१ ॥
उद्धरास्मान् प्रपन्नार्तिनाशिके शरणागतान् ।
हे देवेश्वरि ! हे भक्तिसे प्राप्त होनेवाली ! हे महान् बल तथा पराक्रमवाली ! हे ब्रह्माविष्णु-महेशस्वरूपिणि ! हे अनन्त शौर्यशालिनि ! हे सृजन तथा पालन करनेवाली ! हे संहार करनेवाली ! हे कान्तिप्रदे ! हे महाताण्डवमें प्रीति रखनेवाली ! हे मोददायिके ! हे माधवि ! हे देवदेवेश्वरि ! आप हमपर प्रसन्न होइये । हे करुणानिधे ! प्रसन्न होइये । हे शरणमें आये हुए प्राणियोंके दुःखका नाश करनेवाली ! शुम्भ तथा निशुम्भसे उत्पन्न महान् भयरूपी अपार समुद्रसे हम शरणागत देवताओंका उद्धार कीजिये ॥ ३९-४१.५ ॥

एवं संस्तुवतां तेषां त्रिदशानां धरापते ॥ ४२ ॥
प्रसन्ना गिरिजा प्राह ब्रूत स्तवनकारणम् ।
हे महाराज सुरथ ! इस प्रकार उन देवताओंके स्तुति करनेपर हिमाद्रितनया पार्वती प्रसन्न हो गयीं और बोलीं-आपलोग इस स्तुतिका उद्देश्य बताइये ॥ ४२.५ ॥

एतस्मिन्नन्तरे यस्याः कोशरूपात्समुत्थिता ॥ ४३ ॥
कौशिकी सा जगत्पूज्या देवान्प्रीत्येदमब्रवीत्।
इसी बीच उनके शरीररूपी कोशसे जगद्वन्द्या कौशिकीदेवी प्रकट हुई और वे बड़ी प्रसन्नतापूर्वक देवताओंसे कहने लगीं । ४३.५ ॥

प्रसन्नाहं सुरश्रेष्ठाः स्तवेनोत्तमरूपिणी ॥ ४४ ॥
व्रियतां वर इत्युक्ते देवाः संवव्रिरे वरम् ।
शुम्भनामावरो भ्राता निशुम्भस्तस्य विश्रुतः ॥ ४५ ॥
त्रैलोक्यमोजसाक्रान्तं दैत्येन बलशालिना ।
तद्वधश्चिन्त्यतां देवि दुरात्मा दानवेश्वरः ॥ ४६ ॥
बाधते सततं देवि तिरस्कृत्य निजौजसा ।
हे सुरश्रेष्ठ ! उत्तमस्वरूपिणी मैं आपलोगोंकी स्तुतिसे प्रसन्न हूँ, अतः आपलोग वर माँग लीजिये । देवीके ऐसा कहनेपर देवताओंने इस प्रकार वर माँगा-शुम्भ नामक एक प्रसिद्ध दानव है तथा निशुम्भ नामवाला उसका एक लघु भ्राता भी है । उस बलवान् दैत्यने अपने पराक्रमसे तीनों लोकोंको आतंकित कर रखा है । हे देवि ! उसके वधका कोई उपाय सोचिये; क्योंकि हे भगवति ! वह कुत्सित आत्मावाला दानवेन्द्र शुम्भ अपने बलसे हमें अपमानित करके सदा पीडित करता रहता है । ४४-४६.५ ॥

देव्युवाच
देवशत्रुं पातयिष्ये निशुम्भं शुम्भमेव च ॥ ४७ ॥
स्वस्थास्तिष्ठत भद्रं वः कण्टकं नाशयामि वः ।
श्रीदेवी बोलीं-मैं देवताओंके शत्रु शुम्भ तथा निशुम्भको मार गिराऊँगी । आपलोग निश्चिन्त रहिये । आपलोगोंका कल्याण होगा । मैं आपलोगोंके कंटकरूप दैत्यका विनाश अभी करती हूँ ॥ ४७.५ ॥

इत्युक्त्वा देवदेवेशी देवान्सेन्द्रान्दयामयी ॥ ४८ ॥
जगामादर्शनं सद्यो मिषतां त्रिदिवौकसाम् ।
इन्द्रसहित सभी देवताओंसे ऐसा कहकर करुणामयी देवदेवेश्वरी उन देवताओंके देखते-देखते शीघ्र ही अन्तर्धान हो गयीं ॥ ४८.५ ॥

देवाः समागता हृष्टाः सुवर्णाद्रिगुहां शुभाम् ॥ ४९ ॥
चण्डमुण्डौ पश्यतःस्म भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः ।
तत्पश्चात् सभी देवता हर्षित होकर सुमेरुपर्वतकी सुन्दर कन्दरामें चले गये । इधर, शुम्भ-निशुम्भके चण्ड-मुण्ड नामक दो सेवकोंने [उन देवीको] देख लिया ॥ ४९.५ ॥

दृष्ट्वा तां चारुसर्वाङ्‌गीं देवीं लोकविमोहिनीम् ॥ ५० ॥
तब उन दोनों चण्ड-मुण्ड नामवाले दानवसेवकोंने सम्पूर्ण लोकको मोहित करनेवाली सर्वांगसुन्दरी भगवतीको देखकर अपने राजा शुम्भके पास आकर उससे कहा ॥ ५० ॥

कथयामासतू राज्ञे भृत्यौ तौ चण्डमुण्डकौ ।
देव सर्वासुरश्रेष्ठ रत्‍नभोगार्ह मानद ॥ ५१ ॥
अपूर्वा कामिनी दृष्टा चावाभ्यां रिपुमर्दन ।
तस्याः संभोगयोग्यत्वमस्त्येव तव साम्प्रतम् ॥ ५२ ॥
तां समानय चार्वङ्‌गीं भुङ्क्ष्व सौख्यसमन्वितः ।
तादृशी नासुरी नारी न गन्धर्वी न दानवी ॥ ५३ ॥
न मानवी नापि देवी यादृशी सा मनोहरा ।
हे देव ! हे समस्त असुरोंमें श्रेष्ठ ! हे रत्नोंका भोग करनेयोग्य ! हे मान प्रदान करनेवाले ! हे शत्रुदलन ! हम दोनोंने अभी-अभी एक अद्वितीय कामिनी देखी है । उसके साथ भोग करनेयोग्य एकमात्र आप ही हैं । अतएव इसी समय सुन्दर अंगोवाली उस स्त्रीको ले आइये और सुखपूर्वक उसका भोग कीजिये । जैसी मनोहर वह स्त्री है, वैसी न कोई असुर-नारी है, न गन्धर्व नारी, न दानव-नारी, न मानव-नारी और न तो कोई देवनारी ही है ॥ ५१-५३.५ ॥

एवं भृत्यवचः श्रुत्वा शुम्भः परबलार्दनः ॥ ५४ ॥
दूतं सम्मेषयामास सुग्रीवं नाम दानवम् ।
इस प्रकार अपने सेवककी बात सुनकर शत्रुके बलका मर्दन करनेवाले शुम्भने सुग्रीव नामक दानवको दूतके रूपमें भेजा ॥ ५४.५ ॥

स दूतस्त्वरितं गत्वा देव्याः सविधमादरात् ॥ ५५ ॥
वृत्तान्तं कथयामास देव्यै शुम्भस्य यद्वचः ।
उस दूतने तत्काल देवीके पास पहुँचकर शुम्भकी जो बात थी, उस वृत्तान्तको आदरपूर्वक यथाविधि देवीसे कह दिया ॥ ५५.५ ॥

देवि शुम्भासुरो नाम त्रैलोक्यविजयी प्रभुः ॥ ५६ ॥
सर्वेषां रत्‍नवस्तूनां भोक्ता मान्यो दिवौकसाम् ।
हे देवि ! शुम्भ नामक असुर तीनों लोकोंके विजेता राजा हैं । सभी रत्न-सामग्रियोंका भोग करनेवाले उस शुम्भका सभी देवता भी सम्मान करते हैं ॥ ५६.५ ॥

तदुक्तं शृणु मे देवि रत्‍नभोक्ताहमव्ययः ॥ ५७ ॥
त्वं चापि रत्‍नभूतासि भज मां चारुलोचने ।
सर्वेषु यानि रत्‍नानि देवासुरनरेषु च ॥ ५८ ॥
तानि मय्येव सुभगे भज मां कामजै रसैः ।
उन्होंने जो कहा है, उसे मुझसे सुनिये-हे देवि ! मैं नित्य सभी रत्नोंका उपभोग करनेवाला हूँ, तुम भी रत्न-स्वरूपा हो, अतएव हे सुलोचने ! मेरा वरण कर लो । समस्त देवताओं, असुरों तथा मनुष्योंके पास जो-जो रत्न थे, वे सब इस समय मेरे पास हैं । अतएव हे सुभगे ! कामजन्य रसोंके द्वारा तुम मेरे साथ भोग करो ॥ ५७-५८.५ ॥

देव्युवाच
सत्यं वदसि हे दूत दैत्यराजप्रियङ्‌करम् ॥ ५९ ॥
प्रतिज्ञा या मया पूर्वं कृता साप्यनृता कथम् ।
भवेत्तां शृणु मे दूत या प्रतिज्ञा मया कृता ॥ ६० ॥
देवी बोलीं-हे दूत ! तुम दैत्यराज शुम्भके लिये प्रियकर तथा सत्य बात कह रहे हो, किंतु मैंने पूर्वकालमें जो प्रतिज्ञा की है, वह भी मिथ्या कैसे हो सकती है ? हे दूत ! मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसे तुम सुनो ॥ ५९-६० ॥

यो मे दर्पं विधुनुते यो मे बलमपोहति ।
यो मे प्रतिबलो भूयात्स एव मम भोगभाक् ॥ ६१ ॥
जो मेरा अभिमान चूर कर देगा, जो मेरे बलको निष्प्रभावी बना देगा तथा मेरे समान बलशाली होगा, वही मेरे साथ भोग करनेका अधिकारी हो सकता है ॥ ६१ ॥

तत एनां प्रतिज्ञां मे सत्यां कृत्वासुरेश्वरः ।
गृह्णातु पाणिं तरसा तस्याशक्यं किमत्र हि ॥ ६२ ॥
अतएव वह असुराधिपति मेरी इस प्रतिज्ञाको सत्य सिद्ध करके तत्काल मेरा पाणिग्रहण कर ले । इस लोकमें ऐसा क्या है, जिसे वह नहीं कर सकता ? ॥ ६२ ॥

तस्माद्‌ गच्छ महादूत स्वामिनं ब्रूहि चादृतः ।
प्रतिज्ञां चापि मे सत्यां विधास्यति बलाधिकः ॥ ६३ ॥
इसलिये हे महादूत ! तुम जाओ और अपने स्वामीसे आदरपूर्वक यह बात कहो । वह अत्यधिक बलवान् शुम्भ मेरी प्रतिज्ञाको अवश्य सत्य सिद्ध कर देगा । ६३ ॥

एवं वाक्यं महादेव्याः समाकर्ण्य स दानवः ।
कथयामास शुम्भाय देव्या वृत्तान्तमादितः ॥ ६४ ॥
महादेवीका यह वचन सुनकर उस दानव-दूतने आरम्भसे लेकर अन्ततक देवीका वृत्तान्त शुम्भसे कह दिया ॥ ६४ ॥

तदाप्रियं दूतवाक्यं शुम्भः श्रुत्वा महाबलः ।
कोपमाहारयामास महान्तं दनुजाधिपः ॥ ६५ ॥
तब दूतकी अप्रिय बात सुनकर महाबली दानवराज शुम्भ अत्यधिक कुपित हो उठा ॥ ६५ ॥

ततो धूम्राक्षनामानं दैत्यं दैत्यपतिः प्रभुः ।
आदिदेश शृणु वचो धूम्राक्ष मम चादृतः ॥ ६६ ॥
तां दुष्टां केशपाशेषु हत्वाप्यानीयतां मम ।
समीपमविलम्बेन शीघ्रं गच्छस्व मे पुरः ॥ ६७ ॥
तत्पश्चात् उस दानवपति बलशाली शुम्भने धूम्राक्ष नामक दैत्यको आदेश दिया-हे धूम्राक्ष ! सावधान होकर मेरी बात सुनो । तुम उस दुष्टाको उसके केशपाश पकड़कर मेरे पास शीघ्र ले आओ । अब तुम मेरे सामनेसे शीघ्र चले जाओ ॥ ६६-६७ ॥

इत्यादेशं समासाद्य दैत्येशो धूम्रलोचनः ।
षष्ट्यासुराणां सहितः सहस्राणां महाबलः ॥ ६८ ॥
तुहिनाचलमासाद्य देव्याः सविधमेव सः ।
उच्चैर्देवीं जगादाशु भज दैत्यपतिं शुभे ॥ ६९ ॥
शुम्भं नाम महावीर्यं सर्वभोगानवाप्नुहि ।
नोचेत्केशान्गृहीत्वा त्वां नेष्ये दैत्यपतिं प्रति ॥ ७० ॥
ऐसा आदेश प्राप्तकर वह महाबली दैत्येश धूम्रलोचन साठ हजार असुरोंके साथ चल पड़ा और शीघ्र ही देवीके पास हिमालयपर्वतपर पहुँचकर उसने उच्च स्वरमें देवीसे कहा-हे कल्याणि ! तुम शीघ्र ही महान् पराक्रमी शुम्भ नामक दैत्यपतिका वरण कर लो और सभी प्रकारके सुखोपभोग प्राप्त करो अन्यथा तुम्हारे केश पकड़कर मैं तुम्हें दैत्यराजके पास ले चलूँगा ॥ ६८-७० ॥

इत्युक्ता सा ततो देवी दैत्येन त्रिदशारिणा ।
उवाच दैत्य यद्‌ ब्रूषे तत्सत्यं ते महाबल ॥ ७१ ॥
राजा शुम्भासुरस्त्वं च किं करिष्यसि तद्वद ।
देवशत्रु दैत्यके ऐसा कहनेपर उन भगवतीने कहा-हे महाबली दैत्य ! यह जो तुम बोल रहे हो, वह तो ठीक है, किंतु यह बताओ कि तुम्हारे राजा शुम्भासुर तथा तुम मेरा क्या कर लोगे ? ॥ ७१.५ ॥

इत्युक्तो दैत्यपोऽधावत्तूर्णं शस्त्रसमन्वितः ॥ ७२ ॥
भस्मसात्तं चकाराशु हुङ्‌कारेण महेश्वरी ।
देवीके ऐसा कहनेपर वह दैत्य-सेनापति धूम्राक्ष शस्त्र लेकर बड़ी तेजीसे देवीकी ओर दौड़ा, किंतु महेश्वरीने अपने हुंकारमात्रसे उसे तत्क्षण भस्म कर दिया ॥ ७२.५ ॥

ततः सैन्यं वाहनेन देव्या भग्नं महीपते ॥ ७३ ॥
दिशो दशाभजच्छीघ्रं हाहाभूतमचेतनम् ।
हे महीपते ! देवीका वाहन सिंह भी दैत्यसेनाको नष्ट करने लगा । सम्पूर्ण सेना हाहाकार मचाती हुई बेसुध होकर दसों दिशाओंमें तेजीसे तितर-बितर हो गयी ॥ ७३.५ ॥

तद्‌वृत्तान्तं समाश्रुत्य स शुम्भो दैत्यराड् विभुः ॥ ७४ ॥
चुकोप च महाकोपाद्‌ भ्रुकुटीकुटिलाननः ।
ततः कोपपरीतात्मा दैत्यराजः प्रतापवान् ॥ ७५ ॥
चण्डं मुण्डं रक्तबीजं क्रमतः प्रैषयद्विभुः ।
ते च गत्वा त्रयो दैत्या विक्रान्ता बहुविक्रमाः ॥ ७६ ॥
देवीं ग्रहीतुमारब्धयत्‍नास्ते ह्यभवन्बलात् ।
तानापतत एवासौ जगद्धात्री मदोत्कटा ॥ ७७ ॥
शूलं गहीत्वा वेगेन पातयामास भूतले ।
दैत्यराज पराक्रमी शुम्भ यह वृत्तान्त सुनकर बड़ा कुपित हुआ और अत्यन्त क्रोधपूर्वक उसकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं । उस प्रतापी दैत्यराजने कोपाविष्ट होकर क्रमशः चण्ड, मुण्ड तथा रक्तबीज [नामक दैत्यों]-को भेजा । वे तीनों बलशाली और क्रूर दैत्य वहाँ जाकर बलपूर्वक देवीको पकड़नेका यत्न करने लगे । तब मदोन्मत्त होकर जगदम्बा शूल लेकर वेगपूर्वक उनकी ओर दौड़ी और उन्होंने उन्हें धराशायी कर दिया । ७४-७७.५ ॥

ससैन्यान्निहताञ्छ्रुत्वा दैत्यांस्त्रीन्दानवेश्वरौ ॥ ७८ ॥
शुम्भश्चैव निशुम्भश्च समाजग्मतुरोजसा ।
निशुम्भश्चैव शुम्भश्च कृत्वा युद्धं महोत्कटम् ॥ ७९ ॥
देव्याश्च वशगौ जातौ निहतौ च तयासुरौ ।
उन तीनों दैत्योंको सेनासहित मारा गया सुनकर दानवराज शुम्भ और निशुम्भ तेजीसे वहाँ आ पहुंचे । देवीके साथ भयंकर युद्ध करनेके अनन्तर वे दोनों असुर उनके अधीन हो गये और अन्तमें उनके द्वारा मार डाले गये ॥ ७८-७९.५ ॥

इति दैत्यवरं शुम्भं घातयित्वा जगन्मयी ॥ ८० ॥
विबुधैः संस्तुता तद्वत्साक्षाद्वागीश्वरी परा ।
तत्पश्चात् दैत्यश्रेष्ठ शुम्भका वध करके वे साक्षात् वागीश्वरी पराम्बा जगन्मयी सरस्वती भगवती महालक्ष्मीकी भाँति देवताओंके द्वारा स्तुत हुई । ८०.५ ॥

एवं ते वर्णितो राजन् प्रादुर्भावोऽतिरम्यकः ॥ ८१ ॥
काल्याश्चैव महालक्ष्याः सरस्वत्याः क्रमेण च ।
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपसे क्रमशः काली, महालक्ष्मी तथा सरस्वतीके अत्यन्त सुन्दर प्रादुर्भावका वर्णन कर दिया ॥ ८१.५ ॥

परा परेश्वरी देवी जगत्सर्गं करोति च ॥ ८२ ॥
पालनं चैव संहारं सैव देवी दधाति हि ।
तां समाश्रय देवेशीं जगन्मोहनिवारिणीम् ॥ ८३ ॥
महामायां पूज्यतमां सा कार्यं ते विधास्यति ।
वे ही परमा परमेश्वरी भगवती समस्त जगत्की रचना करती हैं और वे ही देवी पालन तथा संहारकार्य भी सम्पादित करती हैं । [हे राजन् ! आप सांसारिक मोहको दूर करनेवाली उन्हीं पूज्यतमा महाभाया देवेश्वरीका आश्रय लीजिये; वे ही आपका कार्य सिद्ध करेंगी । ८२-८३.५ ॥

श्रीनारायण उवाच
इति राजा वचः श्रुत्वा मुनेः परमशोभनम् ॥ ८४ ॥
देवीं जगाम शरणं सर्वकामफलप्रदाम् ।
निराहारो यतात्मा च तन्मनाश्च समाहितः ॥ ८५ ॥
देवीमूर्तिं मृण्मयीं च पूजयामास भक्तितः ।
पूजनान्ते बलिं तस्यै निजगात्रासृजं ददत् ॥ ८६ ॥
श्रीनारायण बोले-मुनि (सुमेधा)-की यह परम सुन्दर बात सुनकर राजा सुरथ सभी वांछित फल प्रदान करनेवाली भगवतीकी शरणमें गये । निराहार रहते हुए एकाग्रचित्त होकर संयत आत्मावाले वे राजा सुरथ तन्मनस्क होकर देवीकी पार्थिव मूर्तिकी भक्तिपूर्वक पूजा करने लगे । पूजाकी समाप्तिपर उन्होंने देवीको अपने शरीरके रक्तसे बलि प्रदान किया ॥ ८४-८६ ॥

तदा प्रसन्ना देवेशी जगद्योनिः कृपावती ।
प्रादुर्बभूव पुरतो वरं ब्रूहीति भाषिणी ॥ ८७ ॥
स राजा निजमोहस्य नाशनं ज्ञानमुत्तमम् ।
राज्यं निष्कण्टकं चैव याचति स्म महेश्वरीम् ॥ ८८ ॥
तब दयामयी जगन्माता देवेश्वरी प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हो गयीं और कहने लगीं-वर मांगो । इसपर उन राजा सुरथने महेश्वरीसे अपने मोहका नाश करनेवाले उत्तम ज्ञान तथा निष्कंटक राज्यकी याचना की ॥ ८७-८८ ॥

देव्युवाच
राजन्निष्कण्टकं राज्यं ज्ञानं वै मोहनाशनम् ।
भविष्यति मया दत्तमस्मिन्नेव भवे तव ॥ ८९ ॥
अन्यच्च शृणु भूपाल जन्मान्तरविचेष्टितम् ।
भानोर्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता भवान् ॥ ९० ॥
तत्र मन्वन्तरस्यापि पतित्वं बहुविक्रमम् ।
सन्ततिं बहुलां चापि प्राप्स्यते मद्वराद्‍भवान् ॥ ९१ ॥
देवी बोलीं-हे राजन् ! मैं आपको वर प्रदान करती हूँ कि इसी जन्ममें आपको निष्कंटक राज्य तथा मोहका नाश करनेवाला ज्ञान प्राप्त होगा । हे भूपाल ! अब आप अपने दूसरे जन्मके विषयमें सुनिये । आप उस जन्ममें सूर्यके अंशसे जन्म लेकर सावर्णि मनु होंगे । मेरे वरदानसे आप उस जन्ममें भी मन्वन्तरका स्वामित्व, अत्यधिक पराक्रम तथा बहुतसी सन्तानें प्राप्त करेंगे ॥ ८९-९१ ॥

एवं दत्त्वा वरं देवी जगामादर्शनं तदा ।
सोऽपि देव्याः प्रसादेन जातो मन्वन्तराधिपः ॥ ९२ ॥
ऐसा वर देकर भगवती उसी समय अन्तर्धान हो गयीं । वे राजा सुरथ भी देवीके अनुग्रहसे मन्वन्तरके अधिपति हो गये ॥ ९२ ॥

एवं ते वर्णितं साधो सावर्णेर्जन्म कर्म च ।
एतत्पठंस्तथा शृण्वन्देव्यनुग्रहमाप्नुयात् ॥ ९३ ॥
हे साधो ! इस प्रकार मैंने सावर्णि मनुके जन्म तथा कर्मका वर्णन कर दिया । इसको पढ़ने तथा सुननेवाला व्यक्ति भगवतीकी कृपा प्राप्त कर लेता है । ९३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां दशमस्कन्धे देवीचरित्रसहितं
सावर्णिमनुवृतान्तवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
इति श्रीमदेवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहत्यां संहितायां दशमस्कन्धे देवीचरित्रसहित सावर्णिमनुवृत्तान्तवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥


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