[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
भ्रामरीचरित्रवर्णनम् -
मनुपुत्रोंकी तपस्या, भगवतीका उन्हें मन्वन्तराधिपति होनेका वरदान देना, दैत्यराज अरुणकी तपस्या और ब्रह्माजीका वरदान, देवताओद्वारा भगवतीकी स्तुति और भगवतीका भ्रामरीके रूपमें अवतार लेकर अरुणका वध करना -
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] इसके बाद अब आप शेष मनुओंकी अद्भुत उत्पत्तिके विषयमें सुनिये, जिसके स्मरणमात्रसे देवीभक्ति उत्पन्न हो जाती है ॥ १ ॥
आसन्वैवस्वतमनोः पुत्राः षड् विमलोदयाः । करूषश्च पृषध्रश्च नाभागो दिष्ट एव च ॥ २ ॥ शर्यातिश्च त्रिशङ्कुश्च सर्व एव महाबलाः ।
वैवस्वत मनुके करूष, पृषध्र, नाभाग, दिष्ट, शर्याति तथा त्रिशंकु नामक उज्ज्वल यशवाले छ: पुत्र थे । वे सब महान् पराक्रमी थे ॥ २.५ ॥
ततः षडेव ते गत्वा कालिन्द्यास्तीरमुत्तमम् ॥ ३ ॥ निराहारा जितश्वासाः पूजां चक्रुस्ततः स्थिताः । देव्या महीमयीं मूर्तिं विनिर्माय पृथक्पृथक् ॥ ४ ॥ विविधैरुपचारैस्तां पूजयामासुरादृताः । ततश्च सर्व एवैते तपःसारा महाबलाः ॥ ५ ॥ जीर्णपर्णाशना वायुभक्षणास्तोयजीवनाः । धूम्रपाना रश्मिपानाः क्रमशश्च बहुश्रमाः ॥ ६ ॥
वे छहों पुत्र यमुनाके पावन तटपर जाकर निराहार रहते हुए अपने श्वासपर नियन्त्रण रखकर वहीं स्थित होकर भगवतीकी उपासना करने लगे । भगवतीकी अलग-अलग पार्थिव मूर्ति बनाकर वे भाँति-भाँतिके उपचारोंसे आदरपूर्वक उनकी पूजा करते थे । इसके बाद उन सभी महाबली तथा महातपस्वी मनुपुत्रोंने क्रमशः सूखे पत्तों, वायु, जल, धूम्र तथा सूर्यको किरणोंके आहारपर जीवन धारण करते हुए घोर तपस्या की ॥ ३-६ ॥
ततस्तेषामादरेणाराधनं कुर्वतां सदा । विमला मतिरुत्पन्ना सर्वमोहविनाशिनी ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् आदरपूर्वक देवीकी अनवरत आराधना कर रहे उन पुत्रोंके मनमें समस्त मोहोंको नष्ट कर देनेवाली निर्मल बुद्धि जाग्रत् हुई ॥ ७ ॥
बभूवुर्मनुपुत्रास्ते देवीपादैकचिन्तनाः । मत्या विमलया तेषामात्मन्येवाखिलं जगत् ॥ ८ ॥ दर्शनं सञ्जगामाशु तदद्भुतमिवाभवत् । एवं द्वादशवर्षान्ते तपसा जगदीश्वरी ॥ ९ ॥ प्रादुर्बभूव देवेशी सहस्रार्कसमद्युतिः ।
वे मनुपुत्र एकमात्र भगवतीके चरणोंमें ही मन लगाये हुए थे । विशुद्ध बुद्धिके प्रभावसे उन्हें शीघ्र अपने ही भीतर सम्पूर्ण जगत् दिखायी पड़ने लगा । वह अद्भुत स्थिति थी । इस प्रकार बारह वर्षोंके पश्चात् उनके तपसे हजारों सूर्योके समान कान्तिवाली जगत्की स्वामिनी देवेश्वरी प्रकट हुई । ८-९.५ ॥
तां दृष्ट्वा विमलात्मानो राजपुत्राः षडेव ते ॥ १० ॥ तुष्टुवुर्भक्तिनम्रान्तःकरणा भावसंयुताः ।
तब विमल आत्मावाले वे छहों राजकुमार देवीको देखते ही विनम्र तथा भाव-विह्वल होकर भक्तिपूर्ण अन्त:करणसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ १०.५ ॥
राजपुत्रा ऊचुः महेश्वरि जयेशानि परमे करुणालये ॥ ११ ॥ वाग्भवाराधनप्रीते वाग्भवप्रतिपादिते । क्लींकारविग्रहे देवि क्लींकारप्रीतिदायिनि ॥ १२ ॥ कामराजमनोमोददायिनीश्वरतोषिणि । महामाये मोदपरे महासाम्राज्यदायिनि ॥ १३ ॥ विष्ण्वर्कहरशक्रादिस्वरूपे भोगवर्धिनि ।
राजकुमार बोले-हे महेश्वरि ! हे ईशानि ! हे परमे ! हे करुणालये ! हे वाग्भव बीजमन्त्रकी आराधनासे प्रसन्न होनेवाली ! हे वाग्भव मन्त्रसे प्रतिपादित होनेवाली ! हे क्लींकाररूपी विग्रहवाली ! हे 'क्लीं' बीजमन्त्रसे उपासित होनेपर प्रीति प्रदान करनेवाली ! हे कामेश्वरके मनको प्रसन्नता प्रदान करनेवाली ! हे परमेश्वरको सन्तुष्ट करनेवाली ! हे महामाये ! हे मोदपरे ! हे महान् साम्राज्य देनेवाली ! हे विष्णु, सूर्य, महेश, इन्द्र आदिके स्वरूपवाली ! हे भोगकी वृद्धि करनेवाली ! आपकी जय हो ॥ ११-१३.५ ॥
एवं स्तुता भगवती राजपुत्रैर्महात्मभिः ॥ १४ ॥ प्रसादसुमुखी देवी प्रोवाच वचनं शुभम् ।
इस प्रकार उन महात्मा राजपुत्रोंके स्तुति करनेपर प्रसन्नतासे सुन्दर मुखवाली भगवती उनसे कल्याणमय वचन कहने लगीं ॥ १४.५ ॥
देव्युवाच राजपुत्रा महात्मानो भवन्तस्तपसा युताः ॥ १५ ॥ निष्कल्मषाः शुद्धधियो जाता वै मदुपासनात् । वरं मनोगतं सर्वं याचध्वमविलम्बितम् ॥ १६ ॥ प्रसन्नाहं प्रदास्यामि युष्माकं मनसि स्थितम् ।
देवी बोलीं-हे महात्मा राजपुत्रो ! तपस्यासे युक्त आपलोग मेरी उपासनासे निष्कल्मष तथा विमल बुद्धिवाले हो गये हैं । अब आपलोग अपना मनोवांछित वर शीघ्र ही माँग लीजिये । मैं अतीव प्रसन्न हूँ, इस समय आपलोगोंके मनमें जो भी होगा, वह सब मैं अवश्य दूंगी ॥ १५-१६.५ ॥
राजपुत्र बोले-हे भगवति ! निष्कंटक राज्य, दीर्घजीवी सन्तान, अखण्डित भोग, यथेच्छ यश, तेज, बुद्धि तथा सभीसे अपराजेयता हमें प्राप्त हो जाय, यही हमारे लिये हितकर वर है ॥ १७-१८ ॥
देव्युवाच एवमस्तु च सर्वेषां भवतां यन्मनोगतम् । अथान्यदपि मे वाक्यं भूयतामादरादिदम् ॥ १९ ॥
देवी बोलीं-ऐसा ही हो, आप सभीकी जो मनोगत कामनाएँ हैं, वे पूर्ण होंगी । अब आपलोग मेरी एक और बात सावधान होकर सुन लीजिये ॥ १९ ॥
भवन्तः सर्व एवैते मन्वन्तरपतीश्वराः । सन्तत्या दीर्घया भोगैरनेकैरपि सङ्गमः ॥ २० ॥ अखण्डितबलैश्वर्यं यशस्तेजोविभूतयः । भवितारो मत्प्रसादाद्राजपुत्राः क्रमेण तु ॥ २१ ॥
हे राजपुत्रो ! मेरी कृपासे आप सभी लोग क्रमसे मन्वन्तराधिपति बनेंगे, दीर्घजीवी सन्तानें तथा अनेक प्रकारके भोग आपको प्राप्त होंगे । अखण्डित बल, ऐश्वर्य, यश, तेज तथा विभूतियाँ-ये सब आपको प्राप्त होंगे ॥ २०-२१ ॥
श्रीनारायण उवाच एवं तेभ्यो वरान्दत्त्वा भ्रामरी जगदम्बिका । अन्तर्धानं जगामाशु भक्त्या तैः संस्तुता सती ॥ २२ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] इस प्रकार उन राजकुमारोंके भक्तिपूर्वक स्तुति करनेपर साध्वी भ्रामरी जगदम्बिका उन्हें वर प्रदानकर तत्काल अन्तर्धान हो गयीं ॥ २२ ॥
ते राजपुत्राः सर्वेऽपि तस्मिञ्जन्मन्यनुत्तमम् । राज्यं महीगतान्भोगान्बुभुजुश्च महौजसः ॥ २३ ॥
उन महान् तेजस्वी सभी राजपुत्रोंने उस जन्ममें महान् राज्य तथा समस्त सांसारिक सुखोंका भोग किया ॥ २३ ॥
सन्ततिं चाखण्डितां ते समुत्पाद्य महीतले । वंशं संस्थाप्य सर्वेऽपि मनूनां पतयोऽभवन् ॥ २४ ॥ भवान्तरे क्रमेणैव सावर्णिपदभागिनः ।
सावर्णि पद नामवाले वे सभी राजपुत्र अखण्डित सन्तानें उत्पन्न करके भूलोकमें अपनी-अपनी वंशपरम्परा स्थापितकर दूसरे जन्ममें क्रमसे मन्वन्तरोंके अधिपति हुए ॥ २४.५ ॥
प्रथमो दक्षसावर्णिर्नवमो मनुरीरितः ॥ २५ ॥ अव्याहतबलो देव्याः प्रसादादभवद्विभुः ।
दक्षसावर्णि नामक पहले राजपुत्र नौवें मनु कहलाये । भगवतीकी कृपासे वे अव्याहत बलवाले तथा परम ऐश्वर्यशाली हुए । ॥ २५.५ ॥
द्वितीयो मेरुसावर्णिर्दशमो मनुरेव च ॥ २६ ॥ बभूव मन्वन्तरपो महादेवीप्रसादतः ।
मेरुसावर्णि नामक दूसरे राजपुत्र दसवें मन हुए । महादेवीकी कृपासे वे मन्वन्तरपतिके रूपमें प्रतिष्ठित हुए ॥ २६.५ ॥
ये सभी चौदहों मनु भगवती भ्रामरीकी आराधना तथा उनके प्रसादसे महान् तेज तथा बलसे सम्पन्न, लोकोंमें नित्य पूजनीय, वन्दनीय और महाप्रतापी हो गये थे ॥ ३१-३२ ॥
नारद उवाच केयं सा भ्रामरी देवी कथं जाता किमात्मिका । तदाख्यानं वद प्राज्ञ विचित्रं शोकनाशकम् ॥ ३३ ॥
नारदजी बोले-ये भ्रामरी देवी कौन हैं, वे कैसे प्रकट हुईं तथा किस स्वरूपवाली हैं ? हे प्राज्ञ ! आप शोकका नाश करनेवाले उस अद्भुत आख्यानका वर्णन कीजिये ॥ ३३ ॥
मैं भगवतीके कथारूपी अमृतका पान करके भी तृप्त नहीं हो रहा हूँ । अमृत पीनेवालेकी मृत्यु तो सम्भव है, किंतु इस कथाका श्रवण करनेवालेकी मृत्यु सम्भव नहीं है ॥ ३४ ॥
भगवती श्रीदेवीके जो-जो चरित्र हैं, वे सब अहैतकी दयासे लोकहितमें उसी प्रकार सम्पादित किये जाते हैं; जैसे माताके कार्य पुत्रके हितार्थ हुआ करते हैं ॥ ३६ ॥
देवताओंको जीतनेकी इच्छावाला वह दैत्य हिमालयपर पहुंचकर उसके समीप अत्यन्त शीतल गंगाजलमें पायोनि ब्रह्माको प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे यह सोचकर कठोर तप करने लगा कि एकमात्र वे ही हमारे रक्षक हो सकते हैं । सूखे पत्तोंके आहारपर रहते हुए वह अपना श्वास रोककर तमोगुणसे युक्त हो सकामभावसे योगपरायण होते हुए गायत्रीमन्त्रके जपमें लीन हो गया । इसके बाद दस हजार वर्षांतक जलकण पीकर, पुनः दस हजार वर्षांतक वायुके आहारपर और पुनः दस हजार वर्षांतक वह पूर्णरूपसे निराहार रहा ॥ ३८-४१ ॥
यह क्या, यह क्या ? ऐसा कहते हुए सभी देवता काँपने लगे तथा सभी प्राणी भयभीत हो गये । वे ब्रह्माजीकी शरणमें गये । वहाँ सभी श्रेष्ठ देवताओंने वह बात बतायी । उसे सुनकर चतुर्मुख ब्रह्माजी गायत्रीसहित हंसपर सवार होकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँ गये ॥ ४३-४४ ॥
उस समय उस दैत्यके सैकड़ों नाड़ियोंसे युक्त शरीरमें प्राणमात्र अवशिष्ट था, उसका उदर सूख गया था, शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था, आँखें मूंदकर वह ध्यानमें अवस्थित था तथा अपने तेजसे दूसरे अग्निकी भाँति प्रतीत हो रहा था-ऐसे उस दैत्यको ब्रह्माजीने देखा और तब श्रवणमात्रसे ही सन्तुष्टि प्रदान करनेवाला यह वाक्य उससे कहाहे वत्स ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे मनमें जो भी हो, वह माँग लो ॥ ४५-४६.५ ॥
ब्रह्माजीके मुखसे अमृतकी धाराके सदृश वाणी सुनकर अरुणने जब आँखें खोलीं, तब उसने गायत्रीको साथ लिये हुए, चारों वेदोंको धारण किये हुए, हाथोंमें अक्षमाला तथा कुण्डिका ग्रहण किये हुए तथा शाश्वत ब्रह्मका जप करते हुए पायोनि ब्रह्माजीको सामने देखा ॥ ४७-४८.५ ॥
दृष्ट्वोत्थाय ननामाथ स्तुत्वा च विविधैः स्तवैः ॥ ४९ ॥ वरं वव्रे स्वबुद्धिस्थं मा भवेन्मृत्युरित्यपि ।
उसने ब्रह्माजीको देखते ही उठकर प्रणाम किया तथा अनेकविध स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करके अपनी बुद्धिमें स्थित वरकी याचना की कि मेरी मृत्यु कभी न हो । ४९.५ ॥
अरुणका यह वचन सुनकर ब्रह्माजीने उसे आदरपूर्वक समझाया-हे दानव श्रेष्ठ ! जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि भी मृत्युके ग्रास बन जाते हैं तो फिर मृत्युके सम्बन्धमें अन्य लोगोंकी बात ही क्या ? अतएव तुम दूसरा उचित वर माँगो, जिसे मैं तुम्हें दे सकूँ, बुद्धिमान् लोग इस विषयमें कभी भी आग्रह नहीं करते ॥ ५०-५२ ॥
इति ब्रह्मवचः श्रुत्वा पुनः प्रोवाच सादरम् । न युद्धे न च शस्त्रास्त्रान्न पुंभ्यो नापि योषितः ॥ ५३ ॥ द्विपाद्भ्यो वा चतुष्पाद्भ्यो नोभयाकारतस्तथा । भवेन्मे मृत्युरित्येवं देव देहि वरं प्रभो ॥ ५४ ॥ बलं च विपुलं देहि येन देवजयो भवेत् ।
ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर उसने पुनः आदरपूर्वक कहा-हे प्रभो ! हे देव ! तो फिर मुझे यह वर दीजिये कि मेरी मृत्यु न युद्धमें हो, न अस्त्रशस्त्रसे हो, न पुरुषसे हो, न स्त्रीसे हो, न दो पैरवाले, न चार पैरोंवाले प्राणियोंसे और न तो उभय आकारवाले प्राणीसे ही हो, इसके साथ-साथ मुझे अत्यधिक बल भी दीजिये, जिससे देवताओंपर मेरी विजय स्थापित हो जाय ॥ ५३-५४.५ ॥
उसी समय वह अरुण नामक दैत्यराज दैत्यसेनाको साथमें लेकर स्वर्ग पहुँच गया । हे मुने ! अपनी तपस्यासे अनेक रूप धारण करनेवाले उस दैत्यने सूर्य, चन्द्रमा, यम तथा अग्निके समस्त अधिकारोंको पृथक्-पृथक् अपने अधीन कर लिया ॥ ६०-६१.५ ॥
तदनन्तर अपने-अपने स्थानसे च्युत हुए सभी देवता कैलासपर्वतपर गये और एक-एक करके शंकरजीको अपनी दुःखगाथा सुनाने लगे ॥ ६२.५ ॥
महान् विचारस्तत्रासीत्किं कर्तव्यमतः परम् ॥ ६३ ॥ न युद्धेन च शस्त्रास्त्रैर्न पुंभ्यो नापि योषितः । द्विपाद्भ्यो वा चतुष्पाद्भ्यो नोभयाकारतोऽपि वा ॥ ६४ ॥ मृत्युर्भवेदिति ब्रह्मा प्रोवाच वचनं यतः । इति चिन्तातुराः सर्वे कर्तुं किञ्चिन्न च क्षमाः ॥ ६५ ॥
उस समय शंकरजी भी महान् सोचमें पड़ गये कि अब ऐसी स्थितिमें क्या करना चाहिये ? क्योंकि ब्रह्माजी इसे वरदान दे चुके हैं, अत: इसकी मृत्यु न युद्धमें, न शस्त्रास्त्रोंसे, न पुरुषसे, न स्त्रीसे, न दो पैरवाले प्राणियोंसे, न चार पैरवाले प्राणियोंसे और न तो उभय आकारवालोंसे ही सम्भव है । वे सभी इसी चिन्तामें व्याकुल थे; किंतु कुछ भी कर पानेमें समर्थ नहीं हुए । ६३-६५ ॥
इसी बीच वहाँ उच्च स्वरमें सन्तोषदायिनी आकाशवाणी हुई-[हे देवताओ !] तुमलोग भगवती भुवनेश्वरीकी आराधना करो । वे ही तुमलोगोंका कार्य सिद्ध करेंगी । गायत्रीजपमें संलग्न दैत्यराज अरुण यदि गायत्री-उपासनाका त्याग कर दे तो उसकी मृत्यु हो सकती है ॥ ६६-६७ ॥
इस दिव्य वाणीको सुनकर आदरणीय देवताओंने परस्पर मन्त्रणा की । तदुपरान्त देवराज इन्द्रने बृहस्पतिको बुलाकर उनसे यह वचन कहा-हे गुरो ! आप देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये दैत्य अरुणके पास जाइये और जिस किसी भी तरहसे उसके द्वारा गायत्री-जपका त्याग हो सके, वैसा प्रयत्न कीजिये । इधर, हमलोग भी ध्यानयोगमें अवस्थित होकर परमेश्वरीकी उपासना कर रहे हैं । वे प्रसन्न होकर आपकी सहायता अवश्य करेंगी ॥ ६८-७० ॥
वहाँ पहुँचकर देवीयज्ञपरायण वे सभी देवता अत्यन्त निष्ठापूर्वक मायाबीजके जपमें लीन होकर घोर तपश्चर्या करने लगे ॥ ७२ ॥
बृहस्पतिस्तदा शीघ्रं जगामासुरसन्निधौ । आगतं मुनिवर्यं तं पप्रच्छाथ स दैत्यराट् ॥ ७३ ॥ मुने कुत्रागमः कस्मात्किमर्थमिति मे वद । नाहं युष्मत्पक्षपाती प्रत्युतारातिरेव च ॥ ७४ ॥
इधर, बृहस्पति शीघ्र ही दानव अरुणके पास पहुँच गये । तब आये हुए उन मुनिवर बृहस्पतिसे उस दैत्यराजने पूछा-हे मुने ! आप यहाँ कहाँ आ गये ? इस समय कहाँसे तथा किस उद्देश्यसे यहाँ आपका आगमन हुआ है ? यह मुझे बताइये । मैं आपका पक्षधर तो हूँ नहीं, अपितु सदासे शत्रु ही हूँ ॥ ७३-७४ ॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा प्रोवाच मुनिनायकः । अस्मत्सेव्या च या देवी सा त्वया पूज्यतेऽनिशम् ॥ ७५ ॥ तस्मादस्मत्पक्षपाती न भवेस्त्वं कथं वद ।
उसकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ बृहस्पतिने कहा-जो देवी हम लोगोंकी आराध्या हैं, उन्हींकी उपासना तुम भी अनवरत कर रहे हो, तो फिर यह बताओ कि क्या तुम हमारे पक्षधर नहीं हुए ? ॥ ७५.५ ॥
हे सत्तम (नारद !) उन बृहस्पतिकी यह बात सुनकर देवमायासे मोहित हुए उस दैत्यने अभिमानपूर्वक परम गायत्री मन्त्रके जपका त्याग कर दिया । तब गायत्री-जपसे विरत होते ही वह तेजशून्य हो गया । ७६-७७ ॥
इसके बाद गुरु बृहस्पति अपना कार्य सिद्ध करके उस स्थानसे चल दिये और वापस आकर उन्होंने इन्द्रसे सम्पूर्ण वृत्तान्त बताया । इससे सभी देवता सन्तुष्ट हो गये और वे देवी परमेश्वरीकी आराधना करने लगे ॥ ७८.५ ॥
हे मुने ! इस प्रकार बहुत समय बीत जानेके बाद किसी समय जगत्का कल्याण करनेवाली जगजननी प्रकट हुईं । वे देवी करोड़ों सूर्योंके समान प्रभावाली थीं, करोड़ों कामदेवके सदृश सुन्दर, अंगोंमें अद्भुत अनुलेपनसे युक्त, दो सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित तथा विचित्र माला तथा आभूषणोंसे मण्डित थीं । वे अपनी मुट्ठीमें अद्भुत प्रकारके भ्रमर लिये हुए थीं, वे भगवती अपने हाथोंमें वर तथा अभय मुद्रा धारण की हुई थीं, शान्त तथा करुणामृतके सागरके सदृश अनेकविध भ्रमरोंसे युक्त पुष्पोंकी मालासे वे शोभायमान थीं, वे अद्भुत प्रकारकी असंख्य भामरियोंसे घिरी हुई थीं और वे अम्बिका 'ह्रौंकार' मन्त्रका गान कर रहे करोड़ोंकरोड़ों भ्रमरोंसे सभी ओरसे परिवृत थीं । वे सभी प्रकारके शृंगारों तथा वेषोंसे अलंकृत थीं तथा सभी वेदोंद्वारा स्तुत हो रही थीं । वे सबकी आत्मारूपा, सर्वमयी, सर्वमंगलरूपिणी, सर्वज्ञ, सर्वजननी, सर्वरूपिणी, सर्वेश्वरी तथा कल्याणमयी हैं ॥ ७९-८५ ॥
देवता बोले-सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाली हे देवि ! हे महाविद्ये ! आपको नमस्कार है । हे कमल-पत्रके समान नेत्रोंवाली ! आपको नमस्कार है । हे समस्त जगत्को धारण करनेवाली ! आपको नमस्कार है ॥ ८७ ॥
हे दुर्गे ! हे उत्पत्ति आदिसे रहित देवि ! हे दुष्टोंके अवरोधार्थ अर्गलास्वरूपिणि ! हे अटूट प्रेमसे प्राप्त की जानेवाली ! हे तेजोमयी देवि ! आपको नमस्कार है ॥ ८९ ॥
हे पीताम्बरे ! आपको नमस्कार है । हे देवि ! हे त्रिपुरसुन्दरि ! आपको नमस्कार है । हे भैरवि ! आपको नमस्कार है । हे मातंगि ! हे धूमावति ! आपको बारबार नमस्कार है ॥ ९१ ॥
हे शुम्भ तथा निशुम्भका संहार करनेवाली ! हे रक्तबीजका विनाश करनेवाली ! हे धूम्रलोचनका वध करनेवाली ! हे वृत्रासुरका ध्वंस करनेवाली ! हे चण्ड तथा मुण्डका दलन करनेवाली ! हे दानवोंका अन्त करनेवाली ! हे शिवे ! हे विजये ! हे गंगे ! हे शारदे ! हे प्रसन्नमुखि ! आपको नमस्कार है ॥ ९३-९४ ॥
हे विश्वमूर्ते ! हे दयामूर्ते ! हे धर्ममूर्ते ! आपको बार-बार नमस्कार है । हे देवमूर्ते ! हे ज्योतिमूर्ते ! हे ज्ञानमूर्ते ! आपको नमस्कार है ॥ ९६ ॥
गायत्रि वरदे देवि सावित्रि च सरस्वति । नमः स्वाहे स्वधे मातर्दक्षिणे ते नमो नमः ॥ ९७ ॥
हे गायत्रि ! हे वरदे ! हे देवि ! हे सावित्रि ! हे सरस्वति ! आपको नमस्कार है । हे स्वाहे ! हे स्वधे ! हे मातः ! हे दक्षिणे ! आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ९७ ॥
हे कल्याण तथा गुणरत्नोंकी निधिस्वरूपे ! हे भुवनेश्वरि ! प्रसन्न हो जाइये । हे परमेश्वरि ! प्रसन्न हो जाइये । हे संसारकी तोरणस्वरूपे ! प्रसन्न हो जाइये ॥ १०३ ॥
देवीका यह वचन सुनकर देवताओंने अपने दुःखका कारण बतलाया । उन्होंने दुष्ट दैत्यके द्वारा जगत्में किये जानेवाले महान् पीडाकारक कृत्यों; सर्वत्र देवताओं, ब्राह्मणों और वेदोंकी अवहेलना तथा विनाश और अपनेअपने स्थानसे देवताओंके च्युत कर दिये जानेका वर्णन बड़े विनयपूर्वक कर दिया । साथ ही ब्रह्माजीद्वारा उस दैत्यको दिये गये वरदानके विषयमें भी देवताओंने देवीसे यथावत् कह दिया ॥ १०६-१०७.५ ॥
तब देवताओंके मुखसे यह वाणी सुनकर महाभगवती भ्रामरीने अपने हस्तस्थित, पार्श्वप्रान्तस्थित तथा अग्रभागस्थित अनेकरूपधारी भ्रमरोंको प्रेरित किया । इसके साथ ही बहुत-से भ्रमरोंको उत्पन्न भी किया, जिनसे तीनों भुवन व्याप्त हो गये ॥ १०८-१०९.५ ॥
उस समय उन भ्रमरोंके झुण्ड टिड़ियोंके दलके समान निकलने लगे । उन भ्रमरोंसे सम्पूर्ण अन्तरिक्ष आच्छादित हो गया और पृथ्वीपर अन्धकार छा गया । आकाशमें, पर्वतोंके शिखरोंपर, वृक्षोपर तथा वनोंमें सर्वत्र भ्रमर-ही-भ्रमर हो गये । वह दृश्य अत्यन्त आश्चर्यजनक था ॥ ११०-१११.५ ॥
वे सभी भ्रमर निकल-निकलकर दैत्योंके वक्षःस्थलको उसी प्रकार छेदने लगे, जैसे क्रोधमें भरी मधुमक्खियाँ मधुका दोहन करनेवाले व्यक्तिको काटती हैं ॥ ११२.५ ॥
उपायो न च शस्त्राणां तथास्त्राणां तदाभवत् ॥ ११३ ॥ न युद्धं न च सम्भाषा केवलं मरणं खलु ।
उस समय अस्त्रों तथा शस्त्रोंसे किसी प्रकार भी सुरक्षाका उपाय सम्भव नहीं हो सका । दैत्य न युद्ध कर सके और न कोई सम्भाषण ही । उन्हें केवल अपनी मृत्यु दिखायी दे रही थी ॥ ११३.५ ॥
यस्मिन्यस्मिन्स्थले ये ये स्थिता दैत्या यथा यथा ॥ ११४ ॥ तत्रैव च तथा सर्वे मरणं प्रापुरुत्स्मयाः ।
जिस-जिस स्थानपर जो-जो दैत्य जिसजिस स्थितिमें विद्यमान थे, वे सब उसी रूपमें उसी स्थानपर अट्टहास करते हुए मृत्युको प्राप्त हुए ॥ ११४.५ ॥
परस्परं समाचारो न कस्याप्यभवत्तदा ॥ ११५ ॥ क्षणमात्रेण ते सर्वे विनष्टा दैत्यपुङ्गवाः ।
उन दैत्योंमेंसे किसीकी भी एक-दूसरेसे कोई बातचीत भी नहीं हो सकी और वे सभी दैत्यश्रेष्ठ क्षणभरमें विनष्ट हो गये ॥ ११५.५ ॥
इस प्रकार यह कार्य करके वे भ्रमर पुनः देवीके पास आ गये । यह तो आश्चर्य हो गया-ऐसा सभी लोग कहने लगे । जिन जगदम्बाकी इस प्रकारकी यह माया है, उनके लिये कौन-सा कार्य आश्चर्यजनक है ॥ ११६-११७ ॥
तदनन्तर हर्षरूपी समुद्र में डूबे हुए सभी देवगणोंने ब्रह्मा, विष्णु आदिको अग्रसर करके अनेक प्रकारके उपचारोंसे देवीकी पूजा की, अपने हाथोंसे उन्हें नानाविध उपहार प्रदान किये और जय-जयकार करते हुए उनपर पुष्पोंकी वर्षा की ॥ ११८-११९ ॥
आकाशमें दुन्दुभियाँ बज उठी, अप्सराएँ नृत्य करने लगी, गन्धर्व आदि गाने लगे तथा श्रेष्ठ मुनिगण वेदपाठ करने लगे । मृदंग, ढोल, वीणा, ढाक, डमरू, घण्टा और शंख आदिकी ध्वनियोंसे तीनों लोक व्याप्त हो गये ॥ १२०-१२१ ॥
उनके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करनेपर उनपर परम प्रसन्न भगवती महादेवीने उन देवताओंको पृथक्-पृथक् वर प्रदान करके उन्हें अपनी विपुल भक्ति प्रदान की । इसके बाद देवताओंके देखते-देखते वे अन्तर्धान हो गयीं ॥ १२३.५ ॥
[हे नारद !] इस प्रकार मैंने आपसे भगवती भ्रामरीके सम्पूर्ण महिमाशाली चरित्रका वर्णन कर दिया, जिसके पढ़ने तथा सुननेवालोंके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । सुननेमें आश्चर्यजनक यह [देवीचरित्र] संसाररूपी सागरसे पार कर देनेवाला है ॥ १२४-१२५ ॥