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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
प्रथमोऽध्यायः

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प्रातःस्तवनम् -
भगवान् नारायणका नारदजीसे देवीको प्रसन्न करनेवाले सदाचारका वर्णन -


नारद उवाच
भगवन् भूतभव्येश नारायण सनातन ।
आख्यातं परमाश्चर्यं देवीचारित्रमुत्तमम् ॥ १ ॥
प्रादुर्भावः परो मातुः कार्यार्थमसुरद्रुहाम् ।
अधिकाराप्तिरुक्तात्र देवीपूर्णकृपावशात् ॥ २ ॥
नारद बोले-हे भगवन् ! हे भूतभव्येश ! हे नारायण ! हे सनातन ! आपने भगवतीके परम विस्मयकारक एवं श्रेष्ठ चरित्रका वर्णन किया । साथ ही आपके द्वारा असुरद्रोही देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके निमित्त माता भगवतीके उत्तम प्राकट्य तथा देवीकी पूर्ण कृपासे उनकी अधिकार-प्राप्तिका वर्णन भी किया गया ॥ १-२ ॥

अधुना श्रोतुमिच्छामि येन प्रीणाति सर्वदा ।
स्वभक्तान्परिपुष्णाति तमाचारं वद प्रभो ॥ ३ ॥
हे प्रभो ! अब मैं उस आचारके विषयमें सुनना चाहता हूँ, जिससे भगवती अपने भक्तोंपर सदा प्रसन्न होती हैं तथा उनका पालन-पोषण करती हैं, उसे बताइये ॥ ३ ॥

श्रीनारायण उवाच
शृणु नारद तत्त्वज्ञ सदाचारविधिक्रमम् ।
यदनुष्ठानमात्रेण देवी प्रीणाति सर्वदा ॥ ४ ॥
श्रीनारायण बोले-हे तत्त्वोंके ज्ञाता नारद ! जिस सदाचारके अनुष्ठानसे देवी सर्वदा प्रसन्न रहती हैं, उसकी विधिक विषयमें अब आप क्रमसे सुनिये ॥ ४ ॥

प्रातरुत्थाय कर्तव्यं यद्‌ द्विजेन दिने दिने ।
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि द्विजानामुपकारकम् ॥ ५ ॥
प्रात:काल उठकर द्विजको प्रतिदिन जिस आचारका पालन करना चाहिये; अब मैं द्विजोंका उपकार करनेवाले उस आचारका भलीभाँति वर्णन करूँगा ॥ ५ ॥

उदयास्तमयं यावद्‌ द्विजः सत्कर्मकृद्‍भवेत् ।
नित्यनैमित्तिकैर्युक्तः काम्यैश्चान्यैरगर्हितैः ॥ ६ ॥
द्विजको सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्तपर्यन्त नित्य, नैमित्तिक तथा अनिन्द्य काम्य कर्मोंसे युक्त होकर सत्कर्मों में संलग्न रहना चाहिये ॥ ६ ॥

आत्मनश्च सहायार्थं पिता माता न तिष्ठति ।
न पुत्रदारा न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलम् ॥ ७ ॥
तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं सञ्चिनु साधनैः ।
धर्मेणैव सहायात्तु तमस्तरति दुस्तरम् ॥ ८ ॥
पिता, माता, पुत्र, पत्नी तथा बन्धु-बान्धव कोई भी [परलोकमें] आत्माके सहायतार्थ उपस्थित नहीं रहते; केवल धर्म ही उपस्थित होता है । अतः आत्मकल्याणके लिये समस्त साधनोंसे धर्मका नित्य संचय करना चाहिये । धर्मके ही साहाय्यसे मनुष्य दुस्तर अन्धकारको पार कर लेता है ॥ ७-८ ॥

आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च ।
तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥ ९ ॥
आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे ॥ ९ ॥

आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः ।
आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥ १० ॥
मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सन्तानें प्राप्त करता है तथा आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है । यह आचार पापको नष्ट कर देता है ॥ १० ॥

आचारः परमो धर्मो नृणां कल्याणकारकः ।
इह लोके सुखी भूत्वा परत्र लभते सुखम् ॥ ११ ॥
आचार मनुष्योंका परम धर्म है तथा उनके लिये कल्याणप्रद है । सदाचारी व्यक्ति इस लोकमें सुखी रहकर परलोकमें भी सुख प्राप्त करता है ॥ ११ ॥

अज्ञानान्धजनानां तु मोहितैर्भ्रामितात्मनाम् ।
धर्मरूपो महादीपो मुक्तिमार्गप्रदर्शकः ॥ १२ ॥
मोहसे भ्रमित चित्तवाले तथा अज्ञानान्धकारमें भटकनेवाले लोगोंके लिये यह आचार धर्मरूपी महान् दीपक बनकर उन्हें मुक्तिका मार्ग दिखाता है ॥ १२ ॥

आचारात्प्राप्यते श्रैष्ठ्यमाचारात्कर्म लभ्यते ।
कर्मणो जायते ज्ञानमिति वाक्यं मनोः स्मृतम् ॥ १३ ॥
आचारसे श्रेष्ठता प्राप्त होती है, आचारसे ही सत्कर्मों में प्रवृत्ति होती है और सत्कर्मसे ज्ञान उत्पन्न होता है-मनुका यह प्रसिद्ध वचन है ॥ १३ ॥

सर्वधर्मवरिष्ठोऽयमाचारः परमं तपः ।
तदेव ज्ञानमुद्दिष्टं तेन सर्वं प्रसाध्यते ॥ १४ ॥
यह आचार सभी धर्मोंसे श्रेष्ठ तथा परम तप है । उसीको ज्ञान भी कहा गया है । उसीसे सब कुछ सिद्ध कर लिया जाता है ॥ १४ ॥

यस्त्वाचारविहीनोऽत्र वर्तते द्विजसत्तमः ।
स शूद्रवद्‌ बहिष्कार्यो यथा शूद्रस्तथैव सः ॥ १५ ॥
द्विज श्रेष्ठ होकर भी जो इस लोकमें आचारसे रहित है, वह शूद्रकी भाँति बहिष्कारके योग्य है; क्योंकि जैसा शूद्र है वैसा ही वह भी है ॥ १५ ॥

आचारो द्विविधः प्रोक्तः शास्त्रीयो लौकिकस्तथा ।
उभावपि प्रकर्तव्यौ न त्याज्यौ शुभमिच्छता ॥ १६ ॥
आचार शास्त्रीय तथा लौकिक-भेदसे दो प्रकारका कहा गया है । अपना कल्याण चाहनेवालेको इन दोनों ही आचारोंका सम्यक् पालन करना चाहिये और उनसे कभी भी विरत नहीं होना चाहिये ॥ १६ ॥

ग्रामधर्मा जातिधर्मा देशधर्माः कुलोद्‍भवाः ।
परिग्राह्या नृभिः सर्वैर्नैव ताँल्लङ्‌घयेन्मुने ॥ १७ ॥
हे मुने ! सभी मनुष्योंको ग्रामधर्म, जातिधर्म, देशधर्म तथा कुलधर्मोंका भलीभाँति पालन करना चाहिये, उनका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये ॥ १७ ॥

दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः ।
दुःखभागी च सततं व्याधिना व्याप्त एव च ॥ १८ ॥
दुराचारी पुरुष लोकमें निन्दित होता है, दु:ख प्राप्त करता है और रोगसे सदा ग्रस्त रहता है ॥ १८ ॥

परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ ।
धर्ममप्यसुखोदर्कं लोकविद्विष्टमेव च ॥ १९ ॥
जो अर्थ तथा काम धर्मसे रहित हों, उनका त्याग कर देना चाहिये । साथ ही लोकविरुद्ध धर्मको भी छोड़ देना चाहिये; क्योंकि वह परिणाममें दुःखदायी होता है ॥ १९ ॥

नारद उवाच
बहुत्वादिह शास्त्राणां निश्चयः स्यात्कथं मुने ।
कियत्प्रमाणं तद्‌ ब्रूहि धर्ममार्गविनिर्णये ॥ २० ॥
नारदजी बोले-हे मुने ! जगत्में तो शास्त्रोंका बाहुल्य है; ऐसी स्थितिमें कुछ भी कैसे निश्चित किया जाय । धर्ममार्गका निर्णय करनेवाले कितने प्रमाण हैं; यह मुझे बताइये ॥ २० ॥

श्रीनारायण उवाच
श्रुतिस्मृती उभे नेत्रे पुराणं हृदयं स्मृतम् ।
एतत्त्रयोक्त एव स्याद्धर्मो नान्यत्र कुत्रचित् ॥ २१ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] श्रुति तथा स्मृति दोनों नेत्र हैं तथा पुराणको हदय कहा गया है । इन तीनोंमें जो भी कहा गया है, वही धर्म है, इसके अतिरिक्त कहीं भी नहीं ॥ २१ ॥

विरोधो यत्र तु भवेत्त्रयाणां च परस्परम् ।
श्रुतिस्तत्र प्रमाणं स्याद्‌ द्वयोर्द्वैधे स्मृतिर्वरा ॥ २२ ॥
इन तीनोंमें जहाँ परस्पर विरोध हो, वहाँ श्रुतिको प्रमाण मानना चाहिये । इसी प्रकार स्मृति तथा पुराणमें विरोध होनेपर स्मृति श्रेष्ठ है ॥ २२ ॥

श्रुतिद्वैधं भवेद्यत्र तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ ।
स्मृतिद्वैधं तु यत्र स्याद्विषयः कल्प्यतां पृथक् ॥ २३ ॥
श्रुतिमें जहाँ दो वचनोंमें परस्पर विरोध हो तो वहाँ वे दोनों ही वचन धर्म हैं । यदि स्मृतिमें द्वैधस्थिति हो जाय तो प्रसंगानुसार पृथक्-पृथक् विषय कल्पित कर लेने चाहिये ॥ २३ ॥

पुराणेषु क्वचिच्चैव तन्त्रदृष्टं यथातथम् ।
धर्मं वदन्ति तं धर्मं गृह्णीयान्न कथञ्चन ॥ २४ ॥
पुराणोंमें कही-कहीं तन्त्र भी सूक्ष्मरूपसे व्याख्यायित किये गये हैं । जिसे धर्म बताया गया है, उसीको धर्मरूपसे ग्रहण करना चाहिये, किसी अन्यको किसी भी तरह नहीं ॥ २४ ॥

वेदाविरोधि चेत्तन्त्रं तत्प्रमाणं न संशयः ।
प्रत्यक्षश्रुतिरुद्धं यत्तत्प्रमाणं भवेन्न च ॥ २५ ॥
यदि तन्त्रका वचन वेदविरोधी नहीं है तो उसकी प्रामाणिकतामें सन्देह नहीं है, किंतु श्रुतिसे जो प्रत्यक्ष विरुद्ध हो, वह वचन प्रमाण नहीं हो सकता ॥ २५ ॥

सर्वथा वेद एवासौ धर्ममार्गप्रमाणकः ।
तेनाविरुद्धं यत्किञ्चित्तत्प्रमाणं न चान्यथा ॥ २६ ॥
वेद ही पूर्णरूपसे धर्म-मार्गके प्रमाण हैं । उस वेदराशिसे विरोध न रखनेवाला जो कुछ भी है, वही प्रमाण है; दूसरा नहीं ॥ २६ ॥

यो वेदधर्ममुज्झित्य वर्ततेऽन्यप्रमाणतः ।
कुण्डानि तस्य शिक्षार्थं यमलोके वसन्ति हि ॥ २७ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्‍नेन वेदोक्तं धर्ममाश्रयेत् ।
स्मृतिः पुराणमन्यद्वा तन्त्रं वा शास्त्रमेव च ॥ २८ ॥
वेद-प्रतिपादित धर्मको छोड़कर जो अन्यको प्रमाण मानकर व्यवहार करता है, उसे दण्डित करनेके लिये यमलोकमें नरककुण्ड स्थित हैं । अतएव सभी प्रयत्नोंसे वेदोक्त धर्मका ही आश्रय लेना चाहिये । स्मृति, पुराण, तन्त्र, शास्त्र तथा अन्य ग्रन्थ-इनके वेदमूलक होनेकी स्थितिमें ही वे प्रमाण होते हैं । इसके विपरीत वे कभी भी प्रमाण नहीं हो सकतें ॥ २७-२८ ॥

तन्मूलत्वे प्रमाणं स्यान्नान्यथा तु कदाचन ।
ये कुशास्त्राभियोगेन वर्तयन्तीह मानवान् ॥ २९ ॥
जो लोग इस लोकमें मनुष्योंको निन्दित शास्त्रोंका उपदेश करते हैं, वे मुख नीचे तथा पैर ऊपर किये हुए नरकसागर जायेंगे ॥ २९ ॥

अधोमुखोर्ध्वपादास्ते यास्यन्ति नरकार्णवम् ।
कामाचाराः पाशुपतास्तथा वै लिङ्‌गधारिणः ॥ ३० ॥
तप्तमुद्राङ्‌किता ये च वैखानसमतानुगाः ।
ते सर्वे निरयं यान्ति वेदमार्गबहिष्कृताः ॥ ३१ ॥
स्वेच्छाचारी, पाशुपतमार्गावलम्बी, लिंगधारी, तप्त मुद्रासे अंकित तथा वैखानस मत माननेवाले जो भी लोग हैं, वेदमार्गसे विचलित होनेके कारण वे सभी नरक जाते हैं ॥ ३०-३१ ॥

वेदोक्तमेव सद्धर्मं तस्मात्कुर्यान्नरः सदा ।
उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं किं मयाद्य कृतं कृतम् ॥ ३२ ॥
दत्तं वा दापितं वापि वाक्येनापि च भाषितम् ।
उपपापेषु सर्वेषु पातकेषु महत्स्वपि ॥ ३३ ॥
अतएव मनुष्यको सदा वेदोक्त सद्धर्मका ही पालन करना चाहिये । उसे सावधान होकर बार-बार विचार करना चाहिये कि आज मैंने कौन कौन-सा कार्य किया, क्या दिया, क्या दिलाया अथवा वाणीसे कैसा सम्भाषण किया ? यह भी सोचना चाहिये कि अत्यन्त दारुण सभी पातकों तथा उपपातकोंमें कहीं मेरी प्रवृत्ति तो नहीं हो गयी ॥ ३२-३३ ॥

अवाप्य रजनीयामं ब्रह्मध्यानं समाचरेत् ।
ऊरुस्थोत्तानचरणः सव्ये चोरौ तथोत्तरम् ॥ ३४ ॥
उत्तानं किञ्चिदुत्तानं मुखमवष्टभ्य चोरसा ।
निमीलिताक्षः सत्त्वस्थो दन्तैर्दन्तान्न संस्पृशेत् ॥ ३५ ॥
रात्रिके चौथे प्रहरमें [उठकर] ब्रह्मध्यान करना चाहिये । जंघाओंपर पैरको ऊपरकी ओर करके (पद्मासनमें) बैठे, बायीं जंधापर दाहिना पैर उत्तान करके रखना चाहिये । हनु (ठुड्डी)-को वक्षःस्थलसे लगाकर नेत्रोंको बन्द करके सहज भावमें स्थित होकर बैठना चाहिये, दाँतोंका दाँतोंसे स्पर्श नहीं करना चाहिये ॥ ३४-३५ ॥

तालुस्थाचलजिह्वश्च संवृतास्यः सुनिश्चलः ।
सन्निरुद्धेन्द्रियग्रामो नातिनिम्नस्थितासनः ॥ ३६ ॥
द्विगुणं त्रिगुणं वापि प्राणायाममुपक्रमेत् ।
ततो ध्येयः स्थितो योऽसौ हृदये दीपवत्प्रभुः ॥ ३७ ॥
धारयेत्तत्र चात्मानं धारणां धारयेद्‌बुधः ।
जिलाको तालुके समीप अचल स्थितिमें रखे, मुँह बन्द किये रहे, शान्तचित्त रहे, इन्द्रियसमूहोंपर नियन्त्रण रखे तथा बहुत नीचे आसनपर स्थित न हो । दो बार अथवा तीन बार प्राणायाम करना चाहिये । तत्पश्चात् दीपकस्वरूप जो प्रभु हृदयमें अवस्थित हैं, उनका ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार विद्वान् व्यक्तिको अपने हदयमें परमात्माके विराजमान रहनेकी धारणा करनी चाहिये ॥ ३६-३७.५ ॥

सधूमश्च विधूमश्च सगर्भश्चाप्यगर्भकः ॥ ३८ ॥
सलक्ष्यश्चाप्यलक्ष्यश्च प्राणायामस्तु षड्‌विधः ।
प्राणायामसमो योगः प्राणायाम इतीरितः ॥ ३९ ॥
सधूम (श्वाससहित), विधूम (श्वासरहित), सगर्भ (मन्त्र-जपसहित), अगर्भ (मन्त्ररहित), सलक्ष्य (इष्टदेवके ध्यानसहित) और अलक्ष्य (ध्यानरहित)यह छ: प्रकारका प्राणायाम होता है । प्राणायाममें वायुका नियमन किया जाता है, अतएव इस प्राणायामको ही योग कहा गया है ॥ ३८-३९ ॥

प्राणायाम इति प्रोक्तो रेचपूरककुम्भकैः ।
वर्णत्रयात्मका ह्येते रेचपूरककुम्भकाः ॥ ४० ॥
स एव प्रणवः प्रोक्तः प्राणायामश्च तन्मयः ।
यह प्राणायाम भी रेचक, पूरक तथा कुम्भक भेदोंवाला कहा गया है । रेचक, पूरक तथा कुम्भकसंज्ञक प्राणायाम वर्णत्रयात्मक है, इसीको प्रणव कहा गया है । उस प्रणवमें तन्मय हो जाना ही प्राणायाम है ॥ ४०.५ ॥

इडया वायुमारोप्य पूरयित्वोदरे स्थितम् ॥ ४१ ॥
शनैः षोडशमात्राभिरन्यया तं विरेचयेत् ।
एवं सधूमः प्राणानामायामः कथितो मुने ॥ ४२ ॥
इडा नाड़ीसे वायुको ऊपर खींचकर उदरमें पूर्णरूपसे स्थित कर लेनेके अनन्तर पुन: दूसरी (पिंगला) नाड़ीसे धीरे-धीरे सोलह मात्रामें उस वायुको निकालना चाहिये । हे मुने ! इस प्रकार यह सधूमप्राणायाम कहा गया है । ४१-४२ ॥

आधारेलिङ्‌गनाभिप्रकटितहृदये तालुमूले ललाटे
     द्वे पत्रे षोडशारे द्विदशदशदलद्वादशार्धे चतुष्के ।
वासान्ते बालमध्ये डफकतसहिते कण्ठदेशे स्वराणां
     हंक्षंतत्त्वार्थयुक्तं सकलदलगतं वर्णरूपं नमामि ॥ ४३ ॥
मूलाधार, लिंग, नाभि, हृदय, कंठ तथा ललाट (5मध्य)-में क्रमशः चतुर्दल, षड्दल, दशदल, द्वादशदल, षोडशदल तथा द्विदल कमल विद्यमान हैं । मूलाधारचक्रमें च, शैं, ई, सवर्णों; स्वाधिष्ठानचक्रमें बैं, मैं, मैं, य, र, लैं वर्णो; मणिपूरकचक्रमें ईं, है, ण, तं, थे, दें, , नै, पैं, फँ वर्णों; अनाहतचक्रमें कैं, खें, ग, घ, हुँ, च, छ, ज, झै, ज. , हैं वर्गों विशुद्धाख्यचक्र (कण्ठदेश)-में सभी सोलह स्वरों तथा आज्ञाचक्रमें हैं, वर्णीवाले द्विदल पद्ममें विराजमान तत्त्वार्थयुक्त उन ब्रह्मस्वरूप सभी वर्गों को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ४३ ॥

अरुणकमलसंस्था तद्‌रजःपुञ्जवर्णा
     हरनियमितचिह्ना पद्मतन्तुस्वरूपा ।
रविहुतवहराकानायकास्यस्तनाढ्या
     सकृदपि यदि चित्ते संवसेत्स्यात्स भुक्तः ॥ ४४ ॥
जिसके चित्तमें एक बार भी अरुणकमलासना, पद्मरागके पुंजके समान वर्णवाली, शिवलिंगसे अंकित, कमलतन्तुके समान सूक्ष्म स्वरूपवाली, सूर्य-अग्निचन्द्र (-रूपी नेत्रों)-से आलोकित मुखमण्डल और उन्नत स्तनोंसे सुशोभित जगदम्बाका निवास हो जाता है, वही मुक्त है ॥ ४४ ॥

स्थितिः सैव गतिर्यात्रा मतिश्चिन्ता स्तुतिर्वचः ।
अहं सर्वात्मको देवः स्तुतिः सर्वं त्वदर्चनम् ॥ ४५ ॥
अहं देवी न चान्योऽस्मि ब्रह्मैवाहं न शोकभाक् ।
सच्चिदानन्दरूपोऽहं स्वात्मानमिति चिन्तयेत् ॥ ४६ ॥
वे भगवती ही स्थिति हैं, वे ही गति हैं, वे ही यात्रा हैं, वे ही मति हैं, वे ही चिन्ता हैं, वे ही स्तुति हैं और वे ही वाणी हैं । मैं सर्वात्मा देवता हूँ और मेरे द्वारा की गयी स्तुति ही आपकी समस्त अर्चना है, मैं स्वयं देवीरूप हूँ, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं । मैं ही ब्रह्म हूँ. मुझमें शोक व्याप्त नहीं हो सकता और मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ-ऐसा अपनेको समझना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥

प्रकाशमानां प्रथमे प्रयाणे
     प्रतिप्रयाणेऽप्यमृतायमानाम् ।
अन्तःपदव्यामनुसञ्चरन्ती-
     मानन्दरूपामबलां प्रपद्ये ॥ ४७ ॥
प्रथम प्रयाणके समय अर्थात् मूलाधारसे ब्रह्मरन्ध्रकी ओर (जाते समय) विद्युत्-सदृश प्रकाशमान, प्रतिप्रयाणमें अमृतसदृश प्रतीतिवाली तथा अन्तिम प्रयाणमें सुषुम्ना नाड़ीमें संचरित होनेवाली आनन्दस्वरूप भगवती कुण्डलिनीकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ४७ ॥

ततो निजब्रह्मरन्ध्रे ध्यायेत्तं गुरुमीश्वरम् ।
उपचारैर्मानसैश्च पूजयेत्तु यथाविधि ॥ ४८ ॥
स्तुवीतानेन मन्त्रेण साधको नियतात्मवान् ।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ४९ ॥
तत्पश्चात् अपने ब्रह्मरन्ध्रमें ईश्वररूप उन गुरुका ध्यान करना चाहिये और मानसिक उपचारोंसे विधिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये । पुनः साधकको संयतचित्त होकर इस मन्त्रसे गुरुकी प्रार्थना करनी चाहिये'गुरुब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ' गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही देवता हैं, गुरु ही महेश्वर शिव हैं और गुरु ही परब्रह्म हैं; उन श्रीगुरुको नमस्कार है ॥ ४८-४९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे प्रातःस्तवनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे प्रातश्चिन्तनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥


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