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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
द्वितीयोऽध्यायः

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शौचविधिवर्णनम् -
शौचाचारका वर्णन -


श्रीनारायण उवाच
आचारहीनं न पुनन्ति वेदा
     यदप्यधीताः सह षड्‌भिरङ्‌गैः ।
छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति
     नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] छहों अंगोंसहित अधीत किये गये वेद भी आचारविहीन व्यक्तिको पवित्र नहीं कर सकते । पढ़े गये छन्द (वेद) ऐसे आचारहीन प्राणीको उसी भाँति मृत्युकालमें छोड़ देते हैं, जैसे पंख निकल आनेपर पक्षी अपना घोंसला त्याग देते हैं ॥ १ ॥

ब्राह्मे मुहूर्त्ते चोत्थाय तत्सर्वं सम्यगाचरेत् ।
रात्रेरन्तिमयामे तु वेदाभ्यासं चरेद्‌ बुधः ॥ २ ॥
किञ्चित्कालं ततः कुर्यादिष्टदेवानुचिन्तनम् ।
योगी तु पूर्वमार्गेण ब्रह्मध्यानं समाचरेत् ॥ ३ ॥
विद्वान् पुरुषको ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर आचारसम्बन्धी सभी कर्मोंको भलीभाँति सम्पादित करना चाहिये और रातके अन्तिम प्रहरमें वेदाभ्यास करना चाहिये । तत्पश्चात् योगी पुरुष कुछ समय अपने इष्टदेवका चिन्तन करे और पुनः पूर्वोक्त मार्गसे ब्रह्मका ध्यान करे ॥ २-३ ॥

जीवब्रह्मैक्यता येन जायते तु निरन्तरम् ।
जीवन्मुक्तश्च भवति तत्क्षणादेव नारद ॥ ४ ॥
हे नारद ! ऐसा निरन्तर करनेसे जब जीव तथा ब्रह्ममें ऐक्य स्थापित हो जाता है, तब उसी क्षण वह जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ ४ ॥

पञ्चपञ्च उषःकालः सप्तपञ्चारुणोदयः ।
अष्टपञ्चभवेत्प्रातः शेषः सूर्योदयः स्मृतः ॥ ५ ॥
रात्रिके अन्तमें पचपन घड़ीके बाद उष:काल, सत्तावन घड़ीके बाद अरुणोदयकाल तथा अट्ठावन घड़ीके बाद प्रात:काल होता है । इसके बादवाला शेष समय सूर्योदयकाल कहा गया है ॥ ५ ॥

प्रातरुत्थाय यः कुर्याद्विण्मूत्रं द्विजसत्तमः ।
नैर्ऋत्यामिषुविक्षेपमतीत्याभ्यधिकं भुवः ॥ ६ ॥
श्रेष्ठ द्विजको प्रात:काल उठकर नैर्ऋत्यदिशामें धनुषसे छोड़े गये बाणद्वारा तय की गयी दूरीसे भी आगेकी भूमिपर जाकर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये ॥ ६ ॥

विण्मूत्रेऽपि च कर्णस्थ आश्रमे प्रथमे द्विजः ।
निवीतं पृष्ठतः कुर्याद्वानप्रस्थगृहस्थयोः ॥ ७ ॥
ब्रह्मचर्य-आश्रममें स्थित द्विजको मल-मूत्र त्यागते समय यज्ञोपवीत अपने कानपर रख लेना चाहिये । वानप्रस्थ तथा गृहस्थ यज्ञोपवीतको आगे लटकाकर पीठपर कर ले ॥ ७ ॥

कृत्वा यज्ञोपवीतं तु पृष्ठतः कण्ठलम्बितम् ।
विण्मूत्रं तु गृही कुर्यात्कर्णस्थं प्रथमाश्रमी ॥ ८ ॥
गृहस्थको यज्ञोपवीत कण्ठीके समान पीठकी ओर लटकाकर और प्रथम आश्रममें स्थित ब्रह्मचारीको यज्ञोपवीत कानपर रखकर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये ॥ ८ ॥

अन्तर्धाय तृणैर्भूमिं शिरः प्रावृत्य वाससा ।
वाचं नियम्य यत्‍नेन ष्ठीवनश्वासवर्जितः ॥ ९ ॥
तृणोंसे भूमिको ढंककर, सिरको वस्वसे आच्छादित करके, मौन हो करके, थूकने तथा श्वासक्रियासे रहित होकर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये ॥ ९ ॥

न फालकृष्टे न जले न चितायां न पर्वते ।
जीर्णदेवालये कुर्यान्न वल्मीके न शाद्वले ॥ १० ॥
जोती हुई भूमिपर, जलमें, चिताके स्थानपर, पर्वतपर, जीर्ण देवस्थलोपर, वल्मीक (बिमौट)-पर तथा हरी घासपर, मल-मूत्र नहीं करना चाहिये । मल-मूत्रका त्याग न तो जीव-जन्तुवाले गड्डोंमें, न तो चलते हुए और न तो रास्तेमें स्थित होकर ही करे ॥ १० ॥

न ससत्त्वेषु गर्तेषु न गच्छन्न पथि स्थितः ।
सन्ध्ययोरुभयोर्जप्ये भोजने दन्तधावने ॥ ११ ॥
पितृकार्ये च दैवे च तथा मूत्रपुरीषयोः ।
उत्साहे मैथुने वापि तथा वै गुरुसन्निधौ ॥ १२ ॥
यागे दाने ब्रह्मयज्ञे द्विजो मौनं समाचरेत् ।
दोनों सन्ध्याओंमें, जपकालमें, भोजनके समय, दन्तधावन करते समय, पितृ तथा देव-कार्य सम्पन्न करते समय, मल-मूत्रके उत्सर्गके समय, हर्षातिरेककी स्थितिमें, मैथुन करते समय, गुरुकी सन्निधिमें, यज्ञ करते समय, दान देते समय तथा ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याय)-के समय द्विजको मौन धारण किये रहना चाहिये ॥ ११-१२.५ ॥

देवता ऋषयः सर्वे पिशाचोरगराक्षसाः ॥ १३ ॥
इतो गच्छन्तु भूतानि बहिर्भूमिं करोम्यहम् ।
इति सम्प्रार्थ्य पश्चात्तु कुर्याच्छौचं यथाविधि ॥ १४ ॥
शौचसे पूर्व ऐसा उच्चारण करना चाहिये-सभी देवता, ऋषि, पिशाच, नाग, राक्षस तथा भूत-समुदाय यहाँसे चले जायें; क्योंकि मैं यहाँ मल-त्याग करना चाहता हूँ । इस प्रकार प्रार्थना करके विधिपूर्वक शौच करना चाहिये ॥ १३-१४ ॥

वाय्वग्नी विप्रमादित्यमापः पश्यंस्तथैव गाः ।
न कदाचन कुर्वीत विण्मूत्रस्य विसर्जनम् ॥ १५ ॥
उदङ्‌मुखो दिवा कुर्याद्‌रात्रौ चेद्दक्षिणामुखः ।
तत आच्छाद्य विण्मूत्रं लोष्ठपर्णतृणादिभिः ॥ १६ ॥
गृहीतलिङ्‌ग उत्थाय स गच्छेद्वारिसन्निधौ ।
पात्रे जलं गहीत्वा तु गच्छेदन्यत्र चैव हि ॥ १७ ॥
वायु, अग्नि, ब्राह्मण, सूर्य, जल तथा गौको देखते हुए मल-मूत्रका त्याग कभी नहीं करना चाहिये । दिनमें उत्तर दिशाकी ओर तथा रातमें दक्षिण दिशाकी ओर मुख करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये । तत्पश्चात् मल-मूत्रको मिट्टीके डेलों, पत्तों, तृण आदिसे ढंक करके पुनः उठकर जननेन्द्रियको पकड़े हुए जलके निकट जाना चाहिये । पात्रमें जल लेकर वहाँसे दूसरे स्थानपर जाना चाहिये ॥ १५-१७ ॥

गृहीत्वा मृत्तिकां कूलाच्छ्वेतां ब्राह्मणसत्तमः ।
रक्तां पीतां तथा कृष्णां गृह्णीयुश्चान्यवर्णकाः ॥ १८ ॥
अथवा या यत्र देशे सैव ग्राह्या द्विजोत्तमैः ।
अन्तर्जलाद्देवगृहाद्वल्मीकान्मूषकोत्करात् ॥ १९ ॥
शुद्धिके लिये जलाशयके तटसे श्रेष्ठ ब्राह्मणको श्वेत, क्षत्रियको लाल, वैश्यको पीली तथा शूद्रको काली मिट्टी लेनी चाहिये अथवा जिस स्थानपर जो मिट्टी उपलब्ध हो जाय; उत्तम द्विजको वही ले लेनी चाहिये । पानीके अन्दरसे, देवालयसे, वल्मीकसे तथा चूहेके बिलसे गृहीत और शौचसे अवशिष्ट-ये पाँच मिट्टियाँ ग्राह्य नहीं हैं ॥ १८-१९ ॥

कृतशौचावशिष्टाच्च न ग्राह्याः पञ्चमृत्तिकाः ।
मूत्रात्तु द्विगुणं शौचे मैथुने त्रिगुणं स्मृतम् ॥ २० ॥
एका लिङ्‌गे करे तिस्र उभयोर्मृद्द्वयं स्मृतम् ।
मूत्रशौचं समाख्यातं शौचे तद्‌ द्विगुणं स्मृतम् ॥ २१ ॥
विट्शौचे लिङ्‌गदेशे तु प्रदद्यान्मृत्तिकाद्वयम् ।
पञ्चापाने दशैकस्मिन्नुभयोः सप्त मृत्तिकाः ॥ २२ ॥
मूत्र त्यागकी अपेक्षा मल-त्यागमें दोगुनी तथा मैथुनके बाद तीन गुनी शुद्धि कही गयी है । मूत्र-त्यागके पश्चात् लिंगमें एक बार, बायें हाथमें तीन बार और पुनः दोनों हाथोंमें दो बार मिट्टी लगाना बताया गया है । इसे मूत्र-शौच कहा गया है । मल-शौचमें यही क्रिया दोगुनी कही गयी है । मल-त्यागके पश्चात् शुद्धिहेतु लिंगमें दो बार, गुदामें पाँच बार तथा दोनों हाथोंमें ग्यारह बार मिट्टी लगानी चाहिये ॥ २०-२२ ॥

वामपादं पुरस्कृत्य पश्चाद्दक्षिणमेव च ।
प्रत्येकं च चतुर्वारं मृत्तिकां लेपयेत्सुधीः ॥ २३ ॥
उत्तम बुद्धिवाले पुरुषको पहले अपने बायें पैर तथा बादमें दाहिने पैरमें-इस प्रकार प्रत्येकमें चारचार बार मिट्टी लगाकर शुद्धि करनी चाहिये ॥ २३ ॥

एवं शौचं गृहस्थस्य द्विगुणं ब्रह्मचारिणः ।
त्रिगुणं वानप्रस्थस्य यतीनां च चतुर्गुणम् ॥ २४ ॥
शुद्धि सम्बन्धी यह नियम गृहस्थोंके लिये है । ब्रह्मचारीको इससे दुगुनी, वानप्रस्थको तीन गुनी तथा संन्यासीको चार गुनी शुद्धि करनेका विधान है ॥ २४ ॥

आर्द्रामलकमाना तु मृत्तिका शौचकर्मणि ।
प्रत्येकं तु सदा ग्राह्या नातो न्यूना कदाचन ॥ २५ ॥
एतद्दिवा स्याद्विट्शौचं तदर्धं निशि कीर्तितम् ।
आतुरस्य तदर्धं तु मार्गस्थस्य तदर्धकम् ॥ २६ ॥
शौचकर्ममें प्रत्येक बार आई आँवलेके बराबर मिट्टी सदा लेनी चाहिये, इससे कम कभी नहीं लेनी चाहिये । दिनमें मल-त्यागके बादकी शुद्धिका यही नियम है । रात्रिमें इससे आधे, रोगीके लिये उससे आधे तथा मार्गमें स्थित व्यक्तिके लिये उससे भी आधे परिमाणमें शुद्धिका विधान बताया गया है । २५-२६ ॥

स्त्रीशूद्राणामशक्तानां बालानां शौचकर्मणि ।
यथा गन्धक्षयः स्यात्तु तथा कुर्यादसंख्यकम् ॥ २७ ॥
गन्धलेपक्षयो यावत्तावच्छौचं विधीयते ।
सर्वेषामेव वर्णानामित्याह भगवान्मनुः ॥ २८ ॥
स्त्रियों, शूद्रों, अशक्तजनों तथा बालकोंके लिये शौचकर्ममें मिट्टी लगानेकी कोई संख्या नहीं है । जितनी बारमें दुर्गन्ध समाप्त हो जाय, उतनी बार मिट्टी लगानी चाहिये । जबतक दुर्गन्धि मिट नहीं जाती, तबतक बार-बार मिट्टीके अनुलेपनसे शुद्धिकर्म करनेका विधान है । यह नियम सभी वर्गोंकि लिये है-ऐसा भगवान् मनुने कहा है । २७-२८ ॥

वामहस्तेन शौचं तु कुर्याद्वै दक्षिणेन न ।
नाभेरधो वामहस्तो नाभेरूर्ध्वं तु दक्षिणः ॥ २९ ॥
शुद्धि-कार्य दाहिने हाथसे न करके सदा बायें हाथसे ही करना चाहिये । नाभिसे नीचे बायें हाथ तथा इससे ऊपर दाहिने हाथका प्रयोग करना चाहिये । शौचकर्मके सम्बन्धमें श्रेष्ठ द्विजोंको यही नियम समझना चाहिये, इसके विपरीत नहीं ॥ २९ ॥

शौचकर्मणि विज्ञेयो नान्यथा द्विजपुङ्‌गवैः ।
जलपात्रं न गृह्णीयाद्विण्मूत्रोत्सर्जने बुधः ॥ ३० ॥
गृह्णीयाद्यदि मोहेन प्रायश्चित्तं चरेत्ततः ।
मोहाद्वाप्यथवाऽऽलस्यान्न कुर्याच्छौचमात्मनः ॥ ३१ ॥
जलाहारस्त्रिरात्रः स्यात्ततो जापाच्च शुध्यति ।
मल-मूत्रका त्याग करते समय विद्वानको जलपात्र हाथमें नहीं लिये रहना चाहिये । यदि अज्ञानतावश लेता है तो बादमें प्रायश्चित्त करना चाहिये । मोह अथवा आलस्यवश यदि वह अपनी शुद्धि नहीं करता तो [इसके प्रायश्चित्तस्वरूप] तीन रात केवल जलके आहारपर रहना चाहिये । इसके बाद गायत्रीजपसे शुद्धि हो जाती है । ३०-३१.५ ॥

देशकालद्रव्यशक्तिस्वोपपत्तीश्च सर्वशः ॥ ३२ ॥
ज्ञात्वा शौचं प्रकर्तव्यमालस्यं नात्र धारयेत् ।
देश, काल, द्रव्य, शक्ति तथा अपने साधनोंपर भलीभाँति विचार करके शुद्धिकार्य करना चाहिये; इसमें आलस्य नहीं करना चाहिये ॥ ३२.५ ॥

पुरीषोत्सर्जने कुर्याद्‌ गण्डूषान्द्वादशैव तु ॥ ३३ ॥
चतुरो मूत्रविक्षेपे नातो न्यूनान्कदाचन ।
अधोमुखं नरः कृत्वा त्यजेत्तं वामतः शनैः ॥ ३४ ॥
मल त्यागके उपरान्त शुद्धिके लिये बारह बार तथा मूत्र-त्यागके उपरान्त चार बार कुल्ला करना चाहिये; इससे कम कभी नहीं करना चाहिये । मनुष्यको चाहिये कि मुख नीचे करके कुल्लेका जल धीरे-धीरे अपने बायीं ओर फेंके ॥ ३३-३४ ॥

आचम्य च ततः कुर्याद्दन्तधावनमादरात् ।
कण्टकिक्षीरवृक्षोत्थं द्वादशाङ्‌गुलमव्रणम् ॥ ३५ ॥
कनिष्ठिकाग्रवत्स्थूलं पूर्वार्धे कृतकूर्चकम् ।
करञ्जोदुम्बरौ चूतः कदम्बो लोध्रचम्पकौ ।
बदरीति द्रुमाश्चेति प्रोक्ता दन्तप्रधावने ॥ ३६ ॥
तत्पश्चात् आचमन करके सावधानीपूर्वक दन्तधावन करना चाहिये । इसके लिये काँटे तथा दूधवाले वृक्षसे बारह अंगुलके प्रमाणवाली, छिद्ररहित, कनिष्ठिका अंगुलीके अग्र-भागके सदश मोटाईवाली तथा आधे भागतक कूर्चके समान बनायी गयी दातौन लेनी चाहिये । करंज, गूलर, आम, कदम्ब, लोध, चम्पा तथा बेरके वृक्ष दन्तधावनके लिये उत्तम कहे गये हैं ॥ ३५-३६ ॥

अन्नाद्याय व्यूहध्वंसे सोमो राजायमागमत् ।
स मे मुखं प्रक्षाल्य तेजसा च भगेन च ॥ ३७ ॥
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च ।
ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वन्नो देहि वनस्पते ॥ ३८ ॥
[उस समय ऐसी प्रार्थना करे] अन्न आदिको सुपाच्य बनाने तथा विघ्नोंको दूर करनेके लिये स्वयं ये [वनस्पतियोंके] राजा सोम यहाँ आये हुए हैं । वे अपने तेज तथा ऐश्वर्यसे मेरे मुखका प्रक्षालन करें । हे वनस्पते ! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, प्रजा, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान तथा मेधा प्रदान करें ॥ ३७-३८ ॥

अभावे दन्तकाष्ठस्य प्रतिषिद्धदिनेषु च ।
अपां द्वादशगण्डूषैर्विदध्याद्दन्तधावनम् ॥ ३९ ॥
दन्तकाष्ठके अभावमें अथवा निषिद्ध तिथियोंमें जलसे बारह बार कुल्ला कर लेनेसे दन्तधावनकी विधि पूर्ण हो जाती है ॥ ३९ ॥

रवेर्दिने यः कुरुते प्राणी दन्तस्य धावनम् ।
सविता भक्षितस्तेन स्वकुलं तेन घातितम् ॥ ४० ॥
प्रतिपद्दर्शषष्ठीषु नवम्येकादशीरवौ ।
दन्तानां काष्ठसंयोगाद्दहत्यासप्तमं कुलम् ॥ ४१ ॥
जो मनुष्य रविवारको दन्तधावन करता है, उसने मानो सूर्यका ही भक्षण कर लिया तथा अपने कुलका स्वयं विनाश कर लिया । साथ ही प्रतिपदा, अमावास्या, षष्ठी, नवमी, एकादशी तथा रविवारको काष्ठसे दन्तधावन करनेसे वह व्यक्ति अपनी सात पीढ़ियोंको जला डालता है । ४०-४१ ॥

कृत्वालं पादशौचं ह्यमलमथ जलं
     त्रिःपिबेद्‌ द्विर्विमृज्य
तर्जन्याङ्‌गुष्ठवत्या सजलमभिमृशे-
     न्नासिकारन्ध्रयुग्मम् ।
अङ्‌गुष्ठानामिकाभ्यां नयनयुगयुतं
     कर्णयुग्मं कनिष्ठा-
ङ्‌गुष्ठाभ्यां नाभिदेशे हृदयमथ तले-
     नाङ्‌गुलीभिः शिरांसि ॥ ४२ ॥
पाद-प्रक्षालन करके तीन बार शुद्ध जलसे आचमन करनेके पश्चात् दो बार मुख पोंछ लेना चाहिये । तदनन्तर जल लेकर तर्जनी तथा अंगूठेसे दोनों नासिकाछिद्रोंका, अँगूठे तथा अनामिकासे दोनों नेत्रों तथा दोनों कानोंका, कनिष्ठा तथा अँगूठेसे नाभिस्थलका, हाथके तलसे हृदयका और सभी अँगुलियोंसे सिरका स्पर्श करना चाहिये ॥ ४२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे शौचविधिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहनयां संहितायामेकादशस्कन्धे शौचविधिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥


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