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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
तृतीयोऽध्यायः

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रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनम् -
सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष-धारणका माहात्म्य -


श्रीनारायण उवाच
(शुद्धं स्मार्तं चाचमनं पौराणं वैदिकं तथा ।
तान्त्रिकं श्रौतमित्याहुः षड्‌विधं श्रुतिचोदितम् ॥
विण्मूत्रादिकशौचं च शुद्धं च परिकीर्तितम् ।
स्मार्तं पौराणिकं कर्म आचान्ते विधिपूर्वकम् ॥
वैदिकं श्रौत्रमित्यादि ब्रह्मयज्ञादिपूर्वकम् ।
अस्त्रविद्यादिकं कर्म तान्त्रिको विधिरुच्यते ॥)
स्मृत्वा चोङ्‌कारगायत्रीं निबध्नीयाच्छिखां तथा ।
पुनराचम्य हृदयं बाहू स्कन्धौ च संस्पृशेत् ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-(शुद्ध, स्मार्त, पौराणिक, वैदिक, तान्त्रिक तथा श्रौत-यह छः प्रकारका श्रुतिप्रतिपादित आचमन कहा गया है । मल-मूत्रादिके विसर्जनके पश्चात् शुद्धिके लिये किया जानेवाला आचमन शुद्ध आचमन कहा गया है । कर्मके पूर्व किया गया आचमन स्मार्त तथा पौराणिक कहा जाता है । ब्रह्मयज्ञ (वेदपाठ) आरम्भ करनेके पूर्व किया गया आचमन वैदिक तथा श्रौत एवं अस्त्र-विद्या आदि कर्मोके प्रारम्भसे पूर्व कृत आचमन तान्त्रिक आचमन कहा जाता है । ) ॐकार तथा गायत्री मन्त्रका स्मरण करके शिखाबन्धन करे । तत्पश्चात् आचमन करके हृदय, दोनों भुजाओं तथा दोनों स्कन्धोंका स्पर्श करे ॥ १ ॥

क्षुते निष्ठीवने चैव दन्तोच्छिष्टे तथानृते ।
पतितानां च सम्भाषे दक्षिणं श्रवणं स्पृशेत् ॥ २ ॥
अग्निरापश्च वेदाश्च सोमः सूर्योऽनिलस्तथा ।
सर्वे नारद विप्रस्य कर्णे तिष्ठन्ति दक्षिणे ॥ ३ ॥
छींकने, थूकने, दाँतोंसे जूठनका स्पर्श हो जाने, झूठ बोलने तथा पतितोंसे बातचीत हो जानेपर शुद्धिहेतु दाहिने कानका स्पर्श करना चाहिये । हे नारद ! अग्नि, जल, चारों वेद, चन्द्रमा, सूर्य तथा वायु-ये सब ब्राह्मणके दाहिने कानपर विराजमान रहते हैं ॥ २-३ ॥

ततस्तु गत्वा नद्यादौ प्रातःस्नानं विशोधनम् ।
समाचरेन्मुनिश्रेष्ठ देहसंशुद्धिहेतवे ॥ ४ ॥
अत्यन्तमलिनो देहो नवद्वारैर्मलं वहन् ।
सदाऽऽस्ते तच्छोधनाय प्रातःस्नानं विधीयते ॥ ५ ॥
अगम्यागमनात्पापं यच्च पापं प्रतिग्रहात् ।
रहस्याचरितं पापं मुच्यते स्नानकर्मणा ॥ ६ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् नदी आदिपर जाकर देह-शुद्धिके लिये विधिपूर्वक प्रातःकालिक स्नान करना चाहिये । नौ द्वारोंसे निरन्तर मल निकालनेवाला शरीर अत्यन्त अशुद्ध रहता है, अतएव उसकी शुद्धिके लिये प्रभात-वेलामें स्नान किया जाता है । अगम्या स्त्रीके साथ गमन करने, प्रतिग्रह स्वीकार करने तथा एकान्तमें निन्द्य कर्म करनेसे जो पाप लगता है, उन सभीसे मनुष्य प्रातःस्नान कर लेनेसे मुक्त हो जाता है ॥ ४-६ ॥

अस्नातस्य क्रियाः सर्वा भवन्ति विफला यतः ।
तस्मात्प्रातश्चरेत्स्नानं नित्यमेव दिने दिने ॥ ७ ॥
चूँकि प्रातःस्नान न करनेवालेकी सभी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं, अतएव प्रतिदिन प्रात:कालीन स्नान अवश्य ही करना चाहिये ॥ ७ ॥

दर्भयुक्तश्चरेत्स्नानं तथा सन्ध्याभिवन्दनम् ।
सप्ताहं प्रातरस्नायी सन्ध्याहीनस्त्रिभिर्दिनैः ॥ ८ ॥
स्नान तथा सन्ध्यावन्दन-कार्य कुशसहित करना चाहिये । सात दिनोंतक प्रात:काल स्नान न करनेवाला, तीन दिनोंतक सन्ध्योपासन न करनेवाला तथा बारह दिनोंतक अग्निकर्म (हवन) न करनेवाला द्विज शूद्रत्वको प्राप्त हो जाता है ॥ ८ ॥

द्वादशाहमनग्निः सन्द्विजः शूद्रत्वमाप्नुयात् ।
अल्पत्वाद्धोमकालस्य बहुत्वात्स्नानकर्मणः ॥ ९ ॥
स्नानादिके अधिक समय-साध्य होनेके फलस्वरूप हवन-कर्मके लिये कम समय बचनेके कारण प्रात:काल उस प्रकार स्नान न करे कि होम-कार्य उचित समयपर सम्पन्न न हो पानेसे कर्ताको निन्दाका पात्र बनना पड़े ॥ ९ ॥

प्रातर्न तु तथा स्नायाद्धोमकाले विगर्हितः ।
गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च ॥ १० ॥
गायत्रीसे बढ़कर इस लोक तथा परलोकमें दूसरा कुछ भी नहीं है । चूँकि यह उच्चारण करनेवालेकी रक्षा करती है, अतः इसे गायत्री नामसे अभिहित किया जाता है ॥ १० ॥

गायन्तं त्रायते यस्माद्‌गायत्रीत्यभिधीयते ।
प्रणवेन तु संयुक्तां व्याहृतित्रयसंयुताम् ॥ ११ ॥
तीन बार प्राणायाम करके विप्रको प्राणवायुको अपानवायुमें नियन्त्रित करना चाहिये और प्रणव (ॐकार) तथा व्याहतियों (भूर्भुवः स्वः)-सहित गायत्री-जप करना चाहिये ॥ ११ ॥

वायुं वायौ जयेद्विप्रः प्राणसंयमनत्रयात् ।
ब्राह्मणः श्रुतिसम्पन्नः स्वधर्मनिरतः सदा ॥ १२ ॥
श्रुति-सम्पन्न ब्राह्मणको सदा अपने धर्मका पालन करना चाहिये । उसे वैदिक मन्त्रका जप करना चाहिये, लौकिक मन्त्रका जप कभी नहीं करना चाहिये ॥ १२ ॥

स वैदिकं जपेन्मन्त्रं लौकिकं न कदाचन ।
गौशृङ्‌गे सर्षपो यावत् तावद्येषां न स स्थिरः ॥ १३ ॥
न तारयन्त्युभौ पक्षौ पितॄनेकोत्तरं शतम् ।
सगर्भो जपसंयुक्तस्त्वगर्भो ध्यानमात्रकः ॥ १४ ॥
गायकी सींगपर सरसों जितने समयतक स्थिर रह सकती है, उतने समय भी जिनका प्राणवायु प्राणायाम-कालमें नहीं रुकता, वे अपने दोनों पक्षों (माता-पिता)-की एक सौ एक पीढ़ियोंके पितरोंको कभी नहीं तार सकते । जपसहित किया गया प्राणायाम सगर्भ और केवल ध्यानयुक्त प्राणायाम अगर्भ नामवाला है ॥ १३-१४ ॥

स्नानाङ्‌गतर्पणं कृत्वा देवर्षिपितृतोषकम् ।
शुद्धे वस्त्रे परीधाय जलाद्‌बहिरुपागतः ॥ १५ ॥
विभूतिधारणं कार्यं रुद्राक्षाणां च धारणम् ।
क्रमयोगेन कर्तव्यं सर्वदा जपसाधकैः ॥ १६ ॥
देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंको सन्तुष्ट करनेके निमित्त स्नानांग-तर्पण करना चाहिये । पुन: जलसे बाहर आकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करके विभूति तथा रुद्राक्षकी माला धारण करनी चाहिये । इस प्रकार जप-साधना करनेवालोंको क्रमसे यह सब सदैव करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥

रुद्राक्षान्कण्ठदेशे दशनपरिमिता-
     न्मस्तके विंशती द्वे
षट् षट् कर्णप्रदेशे करयुगलकृते
     द्वादश द्वादशैव ।
बाह्वोरिन्दोः कलाभिर्नयनयुगकृते
     त्वेकमेकं शिखायां
वक्षस्यष्टाधिकं यः कलयति शतकं
     स स्वयं नीलकण्ठः ॥ १७ ॥
जो व्यक्ति अपने कण्ठमें बत्तीस, मस्तकपर चालीस, दोनों कानोंमें छ:-छ:, दोनों हाथोंमें बारहबारह, दोनों बाहुओंमें चन्द्रकलाके बराबर सोलहसोलह, दोनों नेत्रोंमें एक-एक, शिखामें एक तथा वक्षःस्थलपर एक सौ आठ रुद्राक्ष धारण करता है, वह साक्षात् नीलकण्ठ शिव हो जाता है ॥ १७ ॥

बद्ध्वा स्वर्णेन रुद्राक्षं रजतेनाथवा मुने ।
शिखायां धारयेन्नित्यं कर्णयोर्वा समाहितः ॥ १८ ॥
यज्ञोपवीते हस्ते वा कण्ठे तुन्देऽथवा नरः ।
श्रीमत्पञ्चाक्षरेणैव प्रणवेन तथापि वा ॥ १९ ॥
हे मुने ! सोने अथवा चाँदीके तारमें पिरोकर मनुष्यको शिखामें, दोनों कानोंमें, यज्ञोपवीतमें, हाथमें, कण्ठमें तथा उदरपर श्रीपंचाक्षर मन्त्र 'नमः शिवाय' अथवा प्रणव (ओंकार)-के जपके साथ समाहित होकर रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ १८-१९ ॥

निर्व्याजभक्त्या मेधावी रुद्राक्षं धारयेन्मुदा ।
रुद्राक्षधारणं साक्षाच्छिवज्ञानस्य साधनम् ॥ २० ॥
मेधावी पुरुषको निष्कपट भक्तिके साथ प्रसन्नतापूर्वक रुद्राक्ष धारण करना चाहिये; क्योंकि रुद्राक्ष धारण करना साक्षात् शिवज्ञानकी प्राप्तिका साधन है ॥ २० ॥

रुद्राक्षं यच्छिखायां तत्तारतत्त्वमिति स्मरेत् ।
कर्णयोरुभयोर्ब्रह्मन् देवं देवीं च भावयेत् ॥ २१ ॥
यज्ञोपवीते वेदांश्च तथा हस्ते दिशः स्मरेत् ।
कण्ठे सरस्वतीं देवीं पावकं चापि भावयेत् ॥ २२ ॥
जो रुद्राक्ष शिखामें धारण किया जाता है, उसे तारक तत्वकी भाँति समझना चाहिये । हे ब्रह्मन् ! दोनों कानोंमें धारण किये गये रुद्राक्षमें शिव तथा शिवाकी भावना करनी चाहिये । यज्ञोपवीतमें धारण किये गये रुद्राक्षको चारों वेद तथा हाथमें धारण किये गये रुद्राक्षको दिशाएँ जानना चाहिये । कण्ठमें धारित रुद्राक्षको देवी सरस्वती तथा अग्निके तुल्य मानना चाहिये ॥ २१-२२ ॥

सर्वाश्रमाणां वर्णानां रुद्राक्षाणां च धारणम् ।
कर्तव्यं मन्त्रतः प्रोक्तं द्विजानां नान्यवर्णिनाम् ॥ २३ ॥
सभी आश्रमों तथा वौँके लोगोंके लिये रुद्राक्षधारण करनेका विधान है । द्विजोंको मन्त्रोच्चारणके साथ रुद्राक्ष धारण करना चाहिये, किंतु अन्य वर्णके लोगोंको नहीं ॥ २३ ॥

रुद्राक्षधारणाद्‌रुद्रो भवत्येव न संशयः ।
पश्यन्नपि निषिद्धांश्च तथा शृण्वन्नपि स्मरन् ॥ २४ ॥
जिघ्रन्नपि तथा चाश्नन् प्रलपन्नपि सन्ततम् ।
कुर्वन्नपि सदा गच्छन्विसृजन्नपि मानवः ॥ २५ ॥
रुद्राक्षधारणादेव सर्वपापैर्न लिप्यते ।
अनेन भुक्तं देवेन भुक्तं यत्तु तथा भवेत् ॥ २६ ॥
पीतं रुद्रेण तत्पीतं घ्रातं घ्रातं शिवेन तत् ।
रुद्राक्ष धारण कर लेनेसे व्यक्ति साक्षात् रुद्ररूप हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है । निषिद्ध चीजोंको देखने, उनके विषयमें सुनने, उनका स्मरण करने, उन्हें सूंघने, खाने, निरन्तर उनके विषयमें बातचीत करने, सदा ऐसे कर्म करने, अपरित्याज्य अर्थात् विहितका परित्याग करनेपर रुद्राक्ष धारण कर लेनेसे मनुष्य सभी प्रकारके पापोंसे प्रभावित नहीं होता । ऐसे व्यक्तिने जो कुछ ग्रहण कर लिया, उसे मानो शिवजीने स्वीकार कर लिया, उसने जो भी पी लिया, उसे शिवजीने पी लिया तथा जो कुछ संघ लिया, उसे भी मानो शिवजीने ही सूंघ लिया ॥ २४-२६.५ ॥

रुद्राक्षधारणे लज्जा येषामस्ति महामुने ॥ २७ ॥
तेषां नास्ति विनिर्मोक्षः संसाराज्जन्मकोटिभिः ।
हे महामुने ! जो लोग रुद्राक्ष धारण करनेमें लज्जाका अनुभव करते हैं, करोड़ों जन्मोंमें भी संसारसे उनका मोक्ष नहीं हो सकता ॥ २७.५ ॥

रुद्राक्षधारिणं दृष्ट्वा परिवादं करोति यः ॥ २८ ॥
उत्पत्तौ तस्य साङ्‌कर्यमस्त्वेवेति विनिश्चयः ।
किसी रुद्राक्ष धारण करनेवालेको देखकर जो मनुष्य उसकी निन्दा करता है, उसके उत्पन्न होने में वर्णसंकरताका दोष निश्चितरूपसे विद्यमान होता है ॥ २८.५ ॥

रुद्राक्षधारणादेव रुद्रो रुद्रत्वमाप्नुयात् ॥ २९ ॥
मुनयः सत्यसङ्‌कल्पा ब्रह्मा ब्रह्मत्वमागतः ।
रुद्राक्षधारणाच्छ्रेष्ठं न किञ्चिदपि विद्यते ॥ ३० ॥
रुद्राक्ष धारण करनेसे ही रुद्र रुद्रत्वको प्राप्त हुए. मुनिगण सत्यसंकल्पवाले हुए तथा ब्रह्माजी ब्रह्मत्वको प्राप्त हुए । अतएव रुद्राक्ष धारण करनेसे अतिरिक्त कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है ॥ २९-३० ॥

रुद्राक्षधारिणे भक्त्या वस्त्रं धान्यं ददाति यः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोकं स गच्छति ॥ ३१ ॥
जो मनुष्य रुद्राक्ष धारण करनेवालेको भक्तिपूर्वक वस्त्र तथा अन्न प्रदान करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर शिवलोकको जाता है । ३१ ॥

रुद्राक्षधारिणं श्राद्धे भोजयेत विमोदतः ।
पितृलोकमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ॥ ३२ ॥
जो व्यक्ति प्रसन्न होकर रुद्राक्ष धारण करनेवालेको श्राद्धकर्ममें भोजन कराता है, वह पितृलोकको प्राप्त होता है । इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ३२ ॥

रुद्राक्षधारिणः पादौ प्रक्षाल्याद्‌‍भिः पिबेन्नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥ ३३ ॥
रुद्राक्ष धारण करनेवालेके दोनों चरणोंको जलसे प्रक्षालित करके उस जलको पीनेवाला मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ ३३ ॥

हारं वा कटकं वापि सुवर्णं वा द्विजोत्तमः ।
रुद्राक्षसहितं भक्त्या धारयन् रुद्रतामियात् ॥ ३४ ॥
भक्तिपूर्वक रुद्राक्षसहित हार, कड़ा या स्वर्णाभूषण धारण करनेवाला द्विजश्रेष्ठ रुद्रत्वको प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥

रुद्राक्षं केवलं वापि यत्र कुत्र महामते ।
समन्त्रकं वा मन्त्रेण रहितं भाववर्जितम् ॥ ३५ ॥
यो वा को वा नरो भक्त्या धारयेल्लज्जयापि वा ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः सम्यग्ज्ञानमवाप्नुयात् ॥ ३६ ॥
हे महामते ! जो कोई भी मनुष्य जहाँ-कहीं भी समन्त्रक या अमन्त्रक अथवा भावरहित होकर अथवा लज्जासे भी भक्तिपूर्वक केवल रुद्राक्ष धारण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर सम्पूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति कर लेता है ॥ ३५-३६ ॥

अहो रुद्राक्षमाहात्म्यं मया वक्तुं न शक्यते ।
तस्मात्सर्वप्रयत्‍नेन कुर्याद्‌रुद्राक्षधारणम् ॥ ३७ ॥
अहो, मैं रुद्राक्षमाहात्म्यका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हूँ, अतएव पूर्ण प्रयत्नके साथ रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ ३७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे
सदाचारनिरूपणे रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्वषां संहितायामेकादशस्कन्धे सदाचारनिरूपणे रुद्राक्षमाहात्यवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥


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