Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
चतुर्थोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनम् -
रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन -


नारद उवाच
एवंभूतानुभावोऽयं रुद्राक्षो भवतानघ ।
वर्णितो महतां पूज्यः कारणं तत्र किं वद ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे अनघ ! इस प्रकारका यह आपका महान् अनुग्रह है जो आपने रुद्राक्षके विषयमें बताया; यह महान् लोगोंके लिये पूज्य है, इसका क्या कारण है, इसे बताइये ॥ १ ॥

श्रीनारायण उवाच
एवमेव पुरा पृष्टो भगवान् गिरिशः प्रभुः ।
षण्मुखेन च रुद्रस्तं यदुवाच शृणुष्व तत् ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] इसी तरहसे पूर्व कालमें षडानन स्कन्दकुमारने गिरिशायी भगवान् रुद्रसे पूछा था; तब उन्होंने उनसे जो कहा था, उसे आप सुनिये ॥ २ ॥

ईश्वर उवाच
शृणु षण्मुख तत्त्वेन कथयामि समासतः ।
त्रिपुरो नाम दैत्यस्तु पुराऽऽसीत्सर्वदुर्जयः ॥ ३ ॥
ईश्वर बोले-हे षडानन ! सुनो, मैं [रुद्राक्षके विषयमें] संक्षेपमें यथार्थरूपसे वर्णन कर रहा हूँ । प्राचीन कालमें सभी लोगोंसे अपराजेय त्रिपुर नामक एक दैत्य था ॥ ३ ॥

जितास्तेन सुराः सर्वे बह्मविष्ण्वादिदेवताः ।
सर्वैस्तु कथिते तस्मिंस्तदाहं त्रिपुरं प्रति ॥ ४ ॥
अचिन्तयं महाशस्त्रमघोराख्यं मनोहरम् ।
सर्वदेवमयं दिव्यं ज्वलन्तं घोररूपि यत् ॥ ५ ॥
उसने ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवताओंको जीत लिया था । तब सभी देवताओंके द्वारा उसके विषयमें मुझसे बतानेपर मैं समस्त देवताओंकी शक्तिसे सम्पन्न, दिव्य, प्रज्वलित, भयानक रूपवाले तथा मनोहर अघोर नामक एक महान् अस्त्रके विषयमें कल्पना करने लगा । ४-५ ॥

त्रिपुरस्य वधार्थाय देवानां तारणाय च ।
सर्वविघ्नोपशमनमघोरास्त्रमचिन्तयम् ॥ ६ ॥
दिव्यवर्षसहस्रं तु चक्षुरुन्मीलितं मया ।
पश्चान्ममाकुलाक्षिभ्यः पतिता जलबिन्दवः ॥ ७ ॥
उस त्रिपुरके संहार तथा देवताओंके उद्धारके लिये मैं समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाले उस अघोरास्त्रके लिये चिन्तन करता रहा और दिव्य एक हजार वर्षांतक मैं नेत्र खोले रह गया । तत्पश्चात् अत्यन्त आकुल मेरे नेत्रोंसे जलकी बूंदें गिरने लगीं ॥ ६-७ ॥

तत्राश्रुबिन्दुतो जाता महारुद्राक्षवृक्षकाः ।
ममाज्ञया महासेन सर्वेषां हितकाम्यया ॥ ८ ॥
बभूवुस्ते च रुद्राक्षा अष्टत्रिंशत्प्रभेदतः ।
सूर्यनेत्रसमुद्‌भूताः कपिला द्वादश स्मृताः ॥ ९ ॥
सोमनेत्रोत्थिताः श्वेतास्ते षोडशविधाः क्रमात् ।
वह्निनेत्रोद्‍भवाः कृष्णा दश भेदा भवन्ति हि ॥ १० ॥
उन अश्रु-बिन्दुओंसे रुद्राक्षके बड़े-बड़े वृक्ष उत्पन्न हो गये । हे महासेन ! मेरी आज्ञासे सभी लोगोंके कल्याणार्थ वे अड़तीस प्रकारके रुद्राक्ष हुए । मेरे सूर्यनेत्र (दाहिने नेत्र)-से उत्पन्न रुद्राक्ष कपिलवर्णके थे, वे बारह प्रकारके कहे गये हैं । मेरे चन्द्रनेत्र (बायें नेत्र)-से उत्पन्न रुद्राक्ष श्वेतवर्णवाले थे, वे क्रमसे सोलह प्रकारके हैं । इसी प्रकार अग्निनेत्र (तीसरे नेत्र)-से उत्पन्न रुद्राक्ष कृष्णवर्णके थे, उनके दस भेद हैं ॥ ८-१० ॥

श्वेतवर्णश्च रुद्राक्षो जातितो ब्राह्म उच्यते ।
क्षात्रो रक्तस्तथा मिश्रो वैश्यः कृष्णस्तु शूद्रकः ॥ ११ ॥
श्वेतवर्णका रुद्राक्ष जातिसे ब्राह्मण, रक्तवर्णका रुद्राक्ष क्षत्रिय, मित्रवर्णका रुद्राक्ष वैश्य तथा कृष्णवर्णका रुद्राक्ष शूद्र कहा जाता है ॥ ११ ॥

एकवक्त्रः शिवः साक्षाद्ब्रह्महत्यां व्यपोहति ।
द्विवक्त्रो देवदेव्यो स्याद्‌विविधं नाशयेदघम् ॥ १२ ॥
त्रिवक्त्रस्त्वनलः साक्षात्स्त्रीहत्यां दहति क्षणात् ।
चतुर्वक्त्रः स्वयं ब्रह्मा नरहत्यां व्यपोहति ॥ १३ ॥
एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिवस्वरूप है, वह ब्रह्महत्या-तकके पापको मिटा देता है । दोमुखी रुद्राक्ष देवी-देवता-इन दोनोंका स्वरूप है, वह दो प्रकारके पापोंका शमन करता है । तीन मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् अग्निस्वरूप है, वह स्त्री-वधजनित पापको क्षणभरमें भस्म कर डालता है । चार मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्मास्वरूप है, वह नरवधजनित पापको दूर करता है ॥ १२-१३ ॥

पञ्चवक्त्रः स्वयं रुद्रः कालाग्निर्नाम नामतः ।
अभक्ष्यभक्षणोद्‌भूतैरगम्यागमनोद्‍भवैः ॥ १४ ॥
पंचमुखी रुद्राक्ष साक्षात् कालाग्नि नामवाले रुद्रका स्वरूप है । पंचमुखी रुद्राक्षके धारण करनेसे मनुष्य अभक्ष्य वस्तुओंके भक्षणसे उत्पन्न होनेवाले तथा अगम्या नारीके साथ सहवास करनेसे लगे हुए सभी प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ १४ ॥

मुच्यते सर्वपापैस्तु पञ्चवक्त्रस्य धारणात् ।
षड्वक्त्रः कार्तिकेयस्तु स धार्यो दक्षिणे करे ॥ १५ ॥
छः मुखवाला रुद्राक्ष कार्तिकेयका स्वरूप है, उसे दाहिने हाथमें धारण करना चाहिये । इसे धारण करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १५ ॥

ब्रह्महत्यादिभिः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः ।
सप्तवक्त्रो महाभागो ह्यनङ्‌गो नाम नामतः ॥ १६ ॥
सप्तमुखी रुद्राक्ष अनंग नामवाले महाभाग्यशाली कामदेवका रूप है । उसे धारण करनेसे मनुष्य स्वर्णकी चोरी आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ १६ ॥

तद्धारणान्मुच्यते हि स्वर्णस्तेयादिपातकैः ।
अष्टवक्त्रो महासेन साक्षाद्देवो विनायकः ॥ १७ ॥
अन्तकूटं तूलकूटं स्वर्णकूटं तथैव च ।
दुष्टान्वयस्त्रियं वाथ संस्पृशंश्च गुरुस्त्रियम् ॥ १८ ॥
एवमादीनि पापानि हन्ति सर्वाणि धारणात् ।
विघ्नास्तस्य प्रणश्यन्ति याति चान्ते परं पदम् ॥ १९ ॥
भवन्त्येते गुणाः सर्वे ह्यष्टवक्त्रस्य धारणात् ।
हे महासेन ! आठ मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् विनायक देव है । इसे धारण करनेसे अन्न, वस्त्र तथा स्वर्ण आदिकी विपुल मात्रामें प्राप्ति होती है । धारण करनेपर यह रुद्राक्ष दूषित कुलकी स्त्री तथा गुरुपत्नीके साथ संसर्ग करनेसे लगनेवाले पापों और इसी प्रकारके अन्यान्य पापोंको भी नष्ट कर देता है । उस मनुष्यकी सभी विघ्न-बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं तथा अन्तमें वह परमपदको प्राप्त होता है । ये सभी गुण अष्टमुखी रुद्राक्षके धारण करनेसे फलीभूत होते हैं ॥ १७-१९.५ ॥

नववक्त्रो भैरवस्तु धारयेद्वामबाहुके ॥ २० ॥
भुक्तिमुक्तिप्रदः प्रोक्तो मम तुल्यबलो भवेत् ।
भ्रूणहत्यासहस्राणि ब्रह्महत्याशतानि च ॥ २१ ॥
सद्यः प्रलयमायान्ति नववक्त्रस्य धारणात् ।
नौ मुखवाला रुद्राक्ष भैरवस्वरूप है, इसे बायीं भुजापर धारण करना चाहिये । यह भोग तथा मोक्ष देनेवाला बताया गया है । इसे धारण करनेवाला मेरे समान बलवान् हो जाता है । हजारों भ्रूणहत्या तथा सैकड़ों ब्रह्महत्याके पाप इस नौमुखी रुद्राक्षके धारण करनेसे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । २०-२१.५ ॥

दशवक्त्रस्तु देवेशः साक्षाद्देवो जनार्दनः ॥ २२ ॥
ग्रहाश्चैव पिशाचाश्च वेताला ब्रह्मराक्षसाः ।
पन्नगाश्चोपशाम्यन्ति दशवक्त्रस्य धारणात् ॥ २३ ॥
दसमुखी रुद्राक्ष साक्षात् देवेश्वर जनार्दन है । इस दस मुखवाले रुद्राक्षके धारण करनेसे ग्रहों, पिशाचों, बेतालों, ब्रह्मराक्षसों तथा पन्नगोंसे उत्पन्न होनेवाले विघ्न शान्त हो जाते हैं । २२-२३ ॥

वक्त्रैकादशरुद्राक्षो रुद्रैकादशकं स्मृतम् ।
शिखायां धारयेद्यो वै तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ २४ ॥
अश्वमेधसहस्रस्य वाजपेयशतस्य च ।
गवां शतसहस्रस्य सम्यग्दत्तस्य यत्फलम् ॥ २५ ॥
तत्फलं लभते शीघ्रं वक्त्रैकादशधारणात् ।
ग्यारह मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् एकादश रुद्र है । जो मनुष्य इसे शिखामें धारण करता है, उसके पुण्यफलके विषयमें सुनो । मनुष्य हजारों अश्वमेधयज्ञ करने, वाजपेय-यज्ञ करने और सम्यक्प से लाखों गायोंके दान करनेसे जो फल प्राप्त करता है, वही फल उसे ग्यारहमुखी रुद्राक्ष धारण करनेसे शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ॥ २४-२५.५ ॥

द्वादशास्यस्य रुद्राक्षस्यैव कर्णे तु धारणात् ॥ २६ ॥
आदित्यास्तोषिता नित्यं द्वादशास्ये व्यवस्थिताः ।
गोभेधे चाश्वमेधे च यत्फलं तदवाप्नुयात् ॥ २७ ॥
शृङ्‌गिणां शस्त्रिणां चैव व्याघ्रादीनां भयं न हि ।
न च व्याधिभयं तस्य नैव चाधिः प्रकीर्तितः ॥ २८ ॥
न च किञ्चिद्‍भयं तस्य न च व्याधिः प्रवर्तते ।
न कुतश्चिद्‍भयं तस्य सुखी चैवेश्वरो भवेत् ॥ २९ ॥
हस्त्यश्वमृगमार्जारसर्पमूषकदर्दुरान् ।
खरांश्च श्वशृगालांश्च हत्वा बहुविधानपि ॥ ३० ॥
मुच्यते नात्र सन्देहो वक्त्रद्वादशधारणात् ।
बारह मुखवाले रुद्राक्षको कानमें धारण करनेसे द्वादश आदित्य प्रसन्न हो जाते हैं क्योंकि वे रुद्राक्षके बारहों मुखपर विराजमान रहते हैं । अश्वमेध करनेसे जो फल मिलता है, वह फल केवल इसे धारण करनेमात्रसे मनुष्यको प्राप्त हो जाता है । उसे सींगवाले जानवरों, व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं तथा शस्त्रधारी शत्रुओंका भय नहीं होता । उसे शारीरिक तथा मानसिक कष्टका भी भय नहीं होता । उसे किसी तरहका रोग नहीं होता तथा वह कहींसे भी किसी तरहके भयसे ग्रस्त न रहते हुए सदा सुख तथा ऐश्वयंसे सम्पन्न रहता है । द्वादशमुखी रुद्राक्ष धारण करनेवाला मनुष्य हाथी, घोड़े, मृग, बिल्ली, सर्प, चूहे, मेढक, गर्दभ, कुत्ते, सियार तथा अनेक प्रकारके जानवरोंको मारनेसे लगनेवाले पापसे मुक्त हो जाता है । इसमें संशय नहीं है ॥ २६-३०.५ ॥

वक्त्रत्रयोदशो वत्स रुद्राक्षो यदि लभ्यते ॥ ३१ ॥
कार्तिकेयसमो ज्ञेयः सर्वकामार्थसिद्धिदः ।
रसो रसायनं चैव तस्य सर्वं प्रसिद्ध्यति ॥ ३२ ॥
तस्यैव सर्वभोग्यानि नात्र कार्या विचारणा ।
मातरं पितरं चैव भ्रातरं वा निहन्ति यः ॥ ३३ ॥
मुच्यते सर्वपापेभ्यो धारणात्तस्य षण्मुख ।
हे वत्स ! तेरहमुखी रुद्राक्ष यदि प्राप्त हो जाय तो उसे कार्तिकेयके सदृश जानना चाहिये । वह सभी प्रकारकी कामनाओं, अर्थों तथा सिद्धियोंको देनेवाला है । उसके लिये रस-रसायन-सब कुछ सिद्ध हो जाता है तथा समस्त प्रकारके भोग्य-पदार्थ उसे प्राप्त हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । हे षडानन ! अपने माता-पिता अथवा भाईका वध करनेवाला व्यक्ति भी उस रुद्राक्षको धारण करनेमात्रसे समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है । ३१-३३.५ ॥

चतुर्दशास्यो रुद्राक्षो यदि लभ्येत पुत्रक ॥ ३४ ॥
धारयेत्सततं मूर्ध्नि तस्य पिण्डः शिवस्य तु ।
हे पुत्र ! यदि किसीको चौदह मुखवाला रुद्राक्ष मिल जाय और वह उसे निरन्तर अपने मस्तकपर धारण करे तो उसका शरीर साक्षात् शिवतुल्य हो जाता है ॥ ३४.५ ॥

किं मुने बहुनोक्तेन वर्णनेन पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
पूज्यते सन्ततं देवैः प्राप्यते च परा गतिः ।
[श्रीनारायण बोले-] हे मुने ! अधिक कहने तथा बार-बार वर्णन करनेसे क्या प्रयोजन ? देवतालोग भी उसकी निरन्तर पूजा करते हैं और अन्तमें उसे परमगति मिलती है ॥ ३५.५ ॥

रुद्राक्ष एकः शिरसा धार्यो भक्त्या द्विजोत्तमैः ॥ ३६ ॥
षड्‌विंशद्‌भिः शिरोमाला पञ्चाशद्‌धृदयेन तु ।
कलाक्षैर्बाहुवलये अर्काक्षैर्मणिबन्धनम् ॥ ३७ ॥
अष्टोत्तरशतैर्माला पञ्चाशद्‌भिः षडानन ।
अथवा सप्तविंशत्या कृत्वा रुद्राक्षमालिकाम् ॥ ३८ ॥
धारणाद्वा जपाद्वापि ह्यनन्तं फलमश्नुते ।
[शिवजी बोले-] हे षडानन ! उत्तम द्विजोंको भक्तिपूर्वक एक रुद्राक्ष सिरपर धारण करना चाहिये । छब्बीस रुद्राक्षोंकी माला बनाकर उसे सिरपर, पचास रुद्राक्षकी माला हृदयपर, सोलह रुद्राक्षकी माला बाहु-वलयपर तथा बारह रुद्राक्षकी माला मणिबन्धपर धारण करना चाहिये । एक सौ आठ रुद्राक्षोंकी माला अथवा पचास रुद्राक्षोंकी माला अथवा सत्ताईस रुद्राक्षोंकी माला बनाकर उसे धारण करने अथवा उससे जप करनेसे अनन्त फल प्राप्त होता है ॥ ३६-३८.५ ॥

अष्टोत्तरशतैर्माला रुद्राक्षैर्धार्यते यदि ॥ ३९ ॥
क्षणे क्षणेऽश्वमेधस्य फलं प्राप्नोति षण्मुख ।
त्रिःसप्तकुलमुद्धृत्य शिवलोके महीयते ॥ ४० ॥
हे षडानन ! यदि कोई मनुष्य एक सौ आठ रुद्राक्षोंसे निर्मित माला धारण करता है, तो वह प्रतिक्षण अश्वमेध-यज्ञ करनेका फल प्राप्त करता है और अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करके अन्त में शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ ३९-४० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे
रुद्राक्षमाहाम्यवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णन नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥


GO TOP